परखः सात
वो ईश्वर से आँखें मिलाने लगा ...
गणेश गनी
एक दिन डाक द्वारा तेजेंदर सिंह लूथरा की एक किताब प्राप्त हुई, जो उनके एक मित्र राजेन्द्र शर्मा ने भेजी थी। किताब को खोला और पहली कविता पढ़ी - अस्सी घाट का बांसुरी वाला । बहुत बार ऐसा होता है कि पहली कविता के बाद ही पाठक समझ जाता है कि आगे पढ़ना चाहिये या छोड़ देना चाहिये । पहली कविता की कुछ पंकियां मजबूर करती हैं कि लूथरा जी को आगे पढ़ा जाना चाहिए -
वो बांसुरी बजाते - बजाते
झूमने और गोल - गोल घूमने लगा
जैसे उसने सर पे कोई पर्वत उठा लिया ।
इसी कविता को आगे पढ़ने पर फिर एक जगह नजर ठहर जाती है -
आरती क्रांति - गीत में बदल गई
वो ईश्वर से आँखें मिलाने लगा
सीधे - सीधे टेढ़े सवाल पूछने लगा ।
पुरानी बात है। मेरे गांव में एक व्यक्ति हमेशा अपनी जेब में बाँसुरी लिए घूमता था। पीतल की यह बाँसुरी हमेशा दिन रात, सोते जागते उसीके साथ रहती थी। हालांकि जैसे अक्सर होता है, लोग कहते थे कि वो थोड़ा मानसिक रूप से असन्तुलित था। लेकिन मैंने तो उसे हमेशा बन ठन कर अक्सर टहलते देखा। वो हमेशा टोपी, कोट और एक लंबा कमरबंद गाची पहने रखता और उसी लाल रंग की गाची के घेरों में बाँसुरी खोंसे रखता। जब उसका मन करता, वो बाँसुरी बजाता, चलते चलते, बैठे बैठे, लोगों के बीच उनकी मांग पर, तो ऐसा था वो मनमौजी। वो बेचैन कई कई दिन गायब भी रहता था कवि तजेन्दर सिंह लूथरा की इस लंबी कविता का एक और अंश पढ़ने से पहले मुझे लग रहा है कि प्रियंवद के एक लंबे आलेख का एक अंश यहां देना आवश्यक है, लेकिन उससे भी पहले एक और बात याद आ रही है।
वर्ष 2014 के बरसातों के दिन थे। एक दिन मैं पौ फटते ही कुल्लू से चंडीगढ़ को रवाना हुआ और दोपहर में पहुंचने से पहले ही राजकुमार राकेश का फोन आया कि सीधे रेलवे स्टेशन पहुंचो क्योंकि लखनऊ से प्रियंवद भी पहुंचने ही वाले हैं। हुआ भी ऐसा ही। अभी मैं स्टेशन पर पहुंचा ही था कि अंदर से दोनों लेखक बाहर निकल रहे थे। प्रियंवद से मेरी बातचीत पहले भी हुई थी और मेरी कविताएं अकार में छपी थीं। मुझे उनसे मिलने की एक अजीब सी खुशी मिल रही थी। हम बाहर निकले और उन स्थानों की ओर चल पड़े जो संगमन के लिए राजकुमार राकेश ने देख रखे थे और किसी एक स्थान को अंतिम तौर पर चुनने के लिए प्रियंवद यहां आए थे। दो स्थानों को देखने के बाद वो चिढ़ने लगे थे और अप्रसन्न दिखने लगे। हम तीसरे स्थान की ओर बढ़े ही थे कि उनकी राजकुमार राकेश से जिस तरह की बात होने लगी थी, उससे मुझे आपत्ति हुई। मैंने आदतन बीच में ही कह दिया कि आप लेखक लोग ही आ रहे हैं या कोई सांसद टाइप लोग आ रहे हैं, जिन्हें इस तरह की सुविधाएं चाहिए। मैंने तो सुना था कि लेखक लोग तो टाट और दरी पर बैठने वाले लोग होते हैं। मेरे इन्हीं शब्दों पर उन्होंने भारी विरोध किया और बहस बढ़ने लगी, इतना ही नहीं वो वापिस लौटने लगे खड़े पैर। मैंने भी कह दिया कि वापिस कुल्लू लौटूंगा रात की बस से ही। वो एकदम सही थे। कौन सुनेगा ऐसी बात एक पहली बार मिलने वाले आदमी से। वो देश के बहुत बड़े लेखक और सम्पादक तो हैं ही। खैर राजकुमार राकेश ने बड़े ही धैर्य से बात को संभाला और हम आगे बढ़े। शाम ढल रही थी, इतने में बरसात शुरू हो गई। सड़क पर कर हम एक पेड़ के नीचे चाय की रेहड़ी पर रुके। हमने चाय पी और मैं कोई भी बात करने की स्थिति में नहीं था। मैं बहुत ही असहज महसूस कर रहा था, प्रियंवद से नज़र मिलाना मुश्किल हो रहा था। बातों बातों में वे दोनों कह रहे थे कि कैसे होगा इधर कार्यक्रम। मैंने बीच में कह दिया कि कुल्लू में कैसा रहेगा। प्रियंवद थोड़े मुस्कुराते हुए कहने लगे, करवा पाओगे। राजकुमार राकेश ने मेरी बात का समर्थन किया। हम तीनों रात में चंडीगढ़ में एक साथ रहे। हालांकि बाद में संगमन 2014 कुल्लू के बजाय मंडी में सम्पन्न हुआ। उस रात प्रियंवद की कही एक बात मुझे आज भी याद है कि हमारा लेखक वर्ग सबसे अधिक गैर जिम्मेदार है।
अब आपको मैं प्रियंवद के आलेख का वो जरूरी हिस्सा सुनाता हूँ क्योंकि इधर मानसिक असन्तुलन की बात हो रही है। बहुत से कलाकार, लेखक, दार्शनिक, कवि अवसाद में जिये, कई तो मानसिक रूप में विक्षिप्त हो गए। पंजाब के कवि लाल सिंह दिल की मौत भी इन्हीं हालात में हुई। प्रियंवद कहते हैं-
यह धुआँ-सा कहाँ से उठता है !
कुछ दिन पहले राजी सेठ जी का फोन आया था-‘देवेंद्र इस्सर नहीं रहे।’ इस फोन से कुछ दिन पहले ‘अकार’ के सिलसिले में राजी सेठ जी से देवेंद्र इस्सर के बारे में बातें हुई थीं। उसी समय उन्होंने बताया था कि उनकी स्थिति बहुत खराब है। परिवार में कोई देखभाल नहीं करता। शारीरिक तौर पर बहुत समस्याएं थीं। अकेले रहते थे।
‘कब?’ मैंने पूछा
‘करीब पंद्रह दिन पहले... लेकिन पता आज लगा इसीलिए तुमको अब बता रही हूं’ कुछ और वाक्यों के बाद यह बात खत्म हो गई। फिर भी कुछ बातें मन में रह गईं।
यह एक बड़े और विस्मृत किए जा चुके लेखक की कायिक मृत्यु थी। कायिक मृत्यु तो सबकी होती है। इस तरह देखें तो इसमें विशेष कुछ नहीं था। लेकिन काया की मृत्यु के अलावा एक लेखक की मृत्यु अंदर के रचनाकार के मरने से भी होती है। उसका रचनाकार मर जाता है और उसे अपनी इस मृत्यु के बारे में स्वयं पता तक नहीं चलता। इस मृत्यु के विविध रूप होते हैं। यह काया की मृत्यु की तरह सीधी, सरल और प्रत्यक्ष नहीं होती। कोशिश करता हूं कि मन की इन सलवटों को सिलसिले के साथ खोल सकूं।
वह स्थिति सबसे जटिल होती है जब लेखक के अंदर उसका रचनाकार होना ही उसको तोड़ने लगता है। धनबाद ‘संगमन’ में लवलीन आई थीं। उस समय वह डिप्रेशन की बीमारी से गुजर रही थीं। दवाएं ले रही थीं। रात में जब हम साथ बैठे तो वह एक सिगरेट से दूसरी सिगरेट जला रही थीं... शराब भी साथ थी। तब उन्होंने बताया कि उनके डॉक्टर ने उपचार के एक हिस्से की तरह यह करने को कहा है। एक बात और जो उनके डॉक्टर ने कही थी कि हर लेखक हमेशा सामान्य और मानसिक असंतुलन की सीमा रेखा पर चलता रहता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उसके अंदर हमेशा एक रचनात्मक मानसिक संघर्ष और तनाव रहता है जिसके कारण उसके मानसिक असंतुलन की ओर चले जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। जाहिर है हम सब लेखक इस स्थिति से गुजरते हैं या निरंतर इसी में रहते हैं। खासतौर से वे जो अपने संपूर्ण वर्तमान का विरोध करते हुए प्रतिपक्ष का साहित्य रचते हैं, और इनमें भी वे जो गहरी संलग्नता, आवेग और उत्तेजना के साथ अपनी रचनात्मकता से जुड़े रहते हैं। दार्शनिक भी सदैव इसी मानसिक स्थिति के आस-पास रहता है। वैसे भी दार्शनिक वास्तविक और प्रत्यक्ष जगत को अस्वीकार करता है। इसी नकार के कारण वह अपनी कल्पनाओं या स्वप्नों या आग्रहों के अनुरूप अपने अंदर वास्तविक जगत के समानांतर एक जगत बना लेता है। उसका अपना सृजित यह जगत उसके प्रत्यक्ष, वास्तविक जगत से मुठभेड़ करता रहता है। निरंतर चलने वाली इस मुठभेड़ की थकान धीरे-धीरे उसकी चेतना को ढंक लेती है। उसकी हर शिरा को तोड़ देती है। विक्षिप्त हो जाने वाले दार्शनिकों की लंबी सूची है।
इसी से जुड़ी एक और जटिल स्थिति है जिसे इस रोग से कुछ ठीक होने के बाद लेखक समझ नहीं पाता। शैलेश मटियानी और स्वदेश दीपक के जिक्र से इसे समझना सरल होगा। शैलेश मटियानी आई.आई.टी. कानपुर में थे जब उन्हें अपने पुत्र की हत्या की सूचना मिली। इस घटना ने ही उनके मानसिक संतुलन पर तत्काल प्रभाव डाला था, लेकिन यह घटना ही उनके मानसिक असंतुलन का एकमात्र कारण हो, ऐसा नहीं था। वह इसके बहुत पहले से लगातार अभाव, संघर्ष और साहित्य की दुनिया के कुछ लोगों की क्रूरता से अकेले जूझ रहे थे।
पुत्र की हत्या ने उनका मानसिक संतुलन बिगाड़ दिया था। लंबे समय तक उनका इलाज चला। बाद में वह काफी ठीक भी हो गए। फिर उन्होंने वही गलती की जो ऐसी स्थिति में कमोबेश हर लेखक कर देता है, और डॉक्टर भी जिसे करने की सलाह देते हैं। उन्होंने फिर लिखना शुरू कर दिया। ‘अकार’ के प्रवेशांक के लिए मटियानी जी ने शानदार लंबी कहानी ‘नदी किनारे का गांव’ लिखी। कुछ समय बाद ही मटियानी जी फिर मानसिक असंतुलन के शिकार हो गए। उसके बाद वह उससे निकल नहीं पाए, उनकी मृत्यु के दो दिन पहले गिरिराज किशोर जी जब अस्पताल में उनसे मिले तो वह चेन से पलंग के साथ बंधे हुए थे।
स्वदेश दीपक भी जब थोड़ा ठीक हुए तो उन्होंने ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ जैसी विलक्षण कृति लिखी। मैं जब इसकी किश्तों को पढ़ रहा था तो उसकी कौंधती हुई, अंदर तक धंसने वाली भाषा की गहनता और लय से हतप्रभ था। वैसे तो स्वदेश दीपक के पास यह भाषा हमेशा से ही थी, लेकिन इस रचना की भाषा में कहीं कुछ असामान्य था। यह लगभग नीत्शे की भाषा के आस-पास की और अंदर तक छीलकर रख देने वाली भाषा थी। ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ लिखने के दौरान निश्चित ही वह पूरे आवेग और उत्तेजना में रहे होंगे। उन्हीं स्मृतियों और क्रूर अनुभवों में लौट गए होंगे जो अवचेतन मैं शायद लुप्त हो चुके थे। एक दिन सुनाई दिया कि स्वदेश दीपक का कोई पता नहीं है कि वे कहां हैं। आज तक भी वे लापता हैं।
लेखक की एक और तरह की मृत्यु धीरे-धीरे उसके रचनाकार के सूखते जाने से भी होती है। यदि वह सचेत है तो इस मृत्यु की आहट सुन लेता है। निर्मल वर्मा की कहानी ‘सूखा’ संभवतः इस विषय पर हिंदी की अकेली कहानी है। हेमिंग्वे ने आत्महत्या इसीलिए की क्योंकि वह अपने अंदर के रचनाकार के सूख जाने को महसूस कर रहे थे और इसे स्वीकार नहीं कर पाए। 1952 में ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’ आया था। इसके बाद 1961 में आत्महत्या तक हेमिंग्वे कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं लिख पाए। उसके पहले वह गहरे अवसाद में रहे। काफ्का ने अपने मित्र मैक्स ब्राड से कहा था कि उसकी मृत्यु के बाद वह उसकी सब रचनाएं जला दे। यह विरक्ति यहां तक पहुंची थी कि काफ्का ने ब्राड को आखिरी पत्र में लिखा था कि ‘उसका प्रत्येक शब्द, डायरी, पत्र, लिखा हुआ सब कुछ, बिना किसी अपवाद के जला दिया जाए और वह भी जितनी जल्दी संभव हो...।’ बहुत कुछ स्वयं काफ्का ने आग की लपटों में कई बार डाला था। करीब 20 नोटबुक्स डोरा ने आग में डाली थीं जिन्हें काफ्का अपने पलंग पर लेटे जलते हुए देखता रहा था।
इसी का और विस्तार है जब कोई रचनाकार या कलाकार उस पूरे परिदृश्य, उस पूरे जगत से ही विरक्त हो जाता है। ग्रेटा गार्बो ने स्वयं को एक छोटे से फ्लैट में बंद करके सिने जगत को हमेशा के लिए त्याग दिया था। यहां तक कि कोई उसकी झलक भी न पा ले, इसलिए वह खिड़की तक नहीं खोलती थी। फोटोग्राफर कैमरा लिए घंटों सड़क पर छुपकर बैठे रहते थे। यही सुचित्रा सेन ने किया है। अपने घर में स्वयं को पूरी तरह बंद कर लिया है। सिर्फ बेटी से मिलती हैं। दादा साहब फालके पुरस्कार देने की जब बात हुई थी तो कोई उनसे संपर्क ही नहीं कर पाया।
अंदर का रचनाकार धीरे-धीरे सूखता है, अचानक नहीं। इसी सूखने के साथ अपने ही लेखन के प्रति व्यर्थताबोध और विरक्ति जन्मती है। मार्क्वेज ने भी कुछ सालों पहले घोषणा की थी कि वे अब नहीं लिखेंगे। उन्हें भी लगा था कि जो कुछ, जिस उद्देश्य से लिखा वह समझा ही नहीं गया। लेकिन बाद में मार्क्वेज ने एक छोटा उपन्यास लिखा, यह कहकर कि उन्हें समझ में आया कि वह लिखने के अलावा कुछ और नहीं कर सकते। इस बहुत छोटे उपन्यास ‘मेमोरीज ऑफ माई मेलन्कलि होर्स’ (मेरी उदास वेश्याओं की स्मृतियां) में साफ दिखता है कि मार्क्वेज अपनी रचनात्मकता की सूखी जड़ों से जूझ रहे हैं। जिस तरह शरीर के अंगों का क्षरण निश्चित है, उसी तरह शायद लेखक की रचनात्मकता का धीरे-धीरे सूखना भी निश्चित होता है। लेकिन इससे जूझना ही उसके पास एकमात्र विकल्प है। उसी तरह, जैसे शरीर के क्षरित होते अंग से व्यक्ति जूझता है और जीवित रहता है। वह यह लड़ाई लड़े या फिर हेमिंग्वे की तरह आत्महत्या करे, दो ही विकल्प हैं। इसलिए इस जूझते रहने का स्वागत होना चाहिए। इसे समझना चाहिए। इसे स्वीकार करना चाहिए, बजाए ‘न लिखने का कारण’ जैसी नकली बहसों के बहाने मुर्दों को पंगत में बैठाकर खुद ही अपने मृत्युभोज करने का निमंत्रण देने के। इस जूझने में पूरी संभावना है कि रचनाकार नई ऊर्जा के साथ उसी तरह लौट आए जैसे व्याधि को जीतकर लौटता है। अब तो कैंसर से भी जूझकर लोग नया जीवन जीने लगे हैं।
लेकिन अंदर का यह रचनाकार आखिर सूखने क्यों लगता है? क्या हो जाता है? क्या प्रक्रिया होती है? रविशंकर की अभी मृत्यु हुई। वे 92 वर्ष की आयु के थे। सक्रियता से सितार बजाते थे। पिकासो भी 92 वर्ष तक पेंटिंग बनाते रहे। खुशवंत सिंह 96 वर्ष के हो रहे हैं। कुछ दिनों पहले तक उनका कॉलम आता रहा। जोहरा सहगल 100 वर्ष की हो चुकी हैं, लेकिन एक नवोदित कलाकार की तरह जिज्ञासा, उल्लास और कला की उत्तेजना के साथ बातें करती हैं। हुसैन अंतिम समय तक पेंटिंग बनाते रहे। फिर किसी के अंदर यह सूखा क्यों, कैसे पड़ जाता है? जरूर कुछ विशेष कारण होते होंगे। यदि रचनाकार के सूखने की किसी पौधे के सूखने से तुलना करें तो या तो खाद-पानी मिलना बंद हो जाए या कीड़ा लग जाए या धूप-रौशनी-हवा न मिले या समय-समय पर कटाई-छंटाई न हो। खाद-पानी यानी संवेदना-सरोकार-विचारशीलता खत्म हो जाए, कीड़ा लग जाए यानी संलग्नता, समय और ऊर्जा को दूसरे सरोकार खींचने लगें, धूप-हवा-रौशनी न मिले यानी अध्ययन और ज्ञान के दूसरे स्रोतों से संपर्क समाप्त हो जाए और कटाई-छंटाई न हो यानी उसकी बुरी रचनाओं और अहंकार को भी सराहा जाए। साहित्य की दुनिया में धीमी सांस और कछुए की चाल ही लेखक की नाड़ी होनी चाहिए वर्ना तो बुलबुले की तरह हवा में कुछ देर तैरकर फूट जाने वालों से साहित्य का नाबदान भरा पड़ा है। इसके अलावा दो चार कहानियां ‘फ्लूक’ में लिख लेने वाले या अपने से पहले की रचनाओं को अतिक्रमित न करने वाले, शेयर मार्केट की तरह साहित्य के मार्केट में बहुत कम समय में, बहुत कम ‘इन्वेस्ट’ करके, बहुत जल्दी, बहुत अधिक ‘रिटर्न’ पाने की उम्मीद में लिखने वाले या जीवित रहने की कठोर और बड़ी परिस्थितियों में निरंतर जूझने वाले लेखकों का रचनाकार भी बहुत जल्दी थक कर दम तोड़ देता है। सबसे दयनीय मृत्यु उनकी होती है जो आत्ममुग्धता, अहंकार और छोटे रास्तों पर विश्वास करते हुए, झूठी यश-लिप्सा के चलते हैमलिन के बांसुरी वादक के पीछे नाचते-गाते चूहों की तरह खुशी से आत्महत्या के मार्ग पर चल देते हैं। शायद इनके लिए ही जार्ज मेरेडिथ ने लिखा होगा-
ईश्वर जानता है इस दुःखमय जीवन में
किसी दुरात्मा की आवश्यकता नहीं है
हमारी कुवासनाएं ही जाल बुनती हैं
हमारी अंतरात्मा ही हमारे साथ घात करती है!
लेखक के ‘रचनाकार’ की हत्या भी की जाती है।
किसी नए लेखक के रचनाकार की हत्या करने का सबसे सरल और मासूम तरीका होता है उसकी कमजोर रचना या किसी भी रचना की इतनी अधिक प्रशंसा करना कि वह अपनी महानता और आत्ममुग्धता के बोझ से दबकर खुद ही दम तोड़ दे।
इसी के बरअक्स हत्या करने का दूसरा तरीका लेखक की उपेक्षा करना है। उसकी अच्छी रचनाएं न छापना, पुस्तक न छापना, कहानियों पर बात न करना या फिर अत्यंत कठोर और एकांगी आलोचना करते रहना। दिल्ली के बाहर पूरे देश के अनेक ऐसे युवा लेखक हैं जिनके साथ यह व्यवहार हो रहा है। वे क्षुब्ध, आहत और आक्रोशित हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि बगुलों को सम्राट बनाने वाले दिल्ली के कुछ बिचैलियों, जमूरों, दलालों और नक्कालों द्वारा मजबूती से बुने गए इस जाल को कैसे तोड़ें ? यदि लेखक में अपनी रचना के प्रति आत्मविश्वास नहीं है तो वह थक कर कुंठा और निराशा का शिकार हो जाता है। जरूरी है कि हमारे युवा दोस्त स्वयं आत्म विश्लेषण करें, स्वयं देखें कि उन्होंने जिस दिन साहित्य की जमीन पर पैर रखा था और अपने आप से जो वायदे किए थे, क्या वे उन्हें पूरा कर पाए? यदि नहीं तो उनसे कहां पर, क्या चूक हुई और इसमें उनके अंदर या बाहर, सबसे बड़ी बाधा क्या थी? और वे इस ‘बाधा’ को चुनौती देने वाले की छाती पर पांव रखने के आत्मविश्वास और शक्ति से बचे हैं या सिर झुकाकर अपने विचलन को और अपने वास्तविक लेखक की पराजय को स्वीकार कर चुके हैं।
मृत्यु के इस क्रम में अब अंतिम बात! किसी विधा के खत्म होने पर केवल उसी विधा से जुड़ा लेखक खत्म होता है। कोई विधा क्यों खत्म हो जाती है इसके अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक या आर्थिक कारण होते होंगे। मुद्रित साहित्य से बाहर ऐसा बहुत दिखाई देता है, खासतौर से वाचिक, मौखिक और मंचीय परंपरा में। आज कुछ विधाएं फिर संकट में हैं। ललित निबंध, खंड काव्य आदि लगभग समाप्त हैं। आलोचना और कविता पर भी थोड़ा दूर सही, लेकिन यह संकट मंडरा रहा है। इस बात को थोड़ा और विस्तार दें, तो हिंदी साहित्य का मुद्रित शब्द ही संकट में दिखता है। हिंदी लेखक और भाषा समाज में हाशिए पर फेंके जा चुके हैं। इसके बाद भी अगर हिंदी में खूब चहल-पहल दिख रही है, तो यह कुछ और नहीं राजभाषा के नाम पर मिलने वाले करोड़ों सरकारी रुपए हैं जो दिल्ली में सजी हुई साहित्य की मंडी में रौनक बनाए हुए हैं जहां साहित्य के आवरण में हर तरह की दुकान चल रही हैं। मूल्य की पट्टियां गले में लटकी हैं। अभ्यस्त हाथ पूरी निर्लज्जता के साथ चौराहों पर बैठकर रोज एक नए ‘र्फास’ की स्क्रिप्ट लिख रहे हैं। देश की जनता की खून-पसीने की कमाई से ‘एजुकेशन सेस’ के नाम पर अरबों-अरब वसूल कर यू.जी.सी. के माध्यम से विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों को दिए जा रहे हैं। इन रुपयों का कहां क्या हो रहा है। किस चीज पर कितना लुटाया जा रहा है सब देख रहे हैं। राज्य अकादमी, सरकारी, अर्द्धसरकारी हिंदी संस्थानों के वित्तीय स्रोत सूंघते हुए, नथुने उठाए लोग आपस में गुर्राते दिखते हैं। हिंदी अपनी आंतरिक शक्ति से नहीं बल्कि रुपयों की आक्सीजन पर जीवित रखी जा रही है। जिस दिन यह आक्सीजन हटेगी और जो निश्चित हटेगी, हिंदी भाषा तब मरेगी ही और उसके साथ हिंदी लेखकों की एक पूरी जमात, पूरा जगत भी मर जाएगा। विश्व इतिहास का यह अनोखा दृष्टांत होगा जब काया के जीवित रहते हुए भी उसके अंदर एक साथ इतने रचनाकारों की मृत्यु होगी। अपना मृत्युलेख हिंदी लेखक खुद लिख रहा है। उसकी मूल्यविहीन तटस्थता, आत्मघाती सहनशीलता और कायर चुप्पी डरावनी है।
अब तेजेंदर लूथरा की कविता का यह अंश पढ़ें-
वो आज भी आधा खुश था
आधा उदास था
उसे किसी इंकलाब की खबर न थी ।
बांसुरी बेचने वाले के माध्यम से कवि ने धरती के हरेक अंतिम आदमी की स्थिति को बेबाकी से सामने लाया है । पूँजीवाद के इस दौर में अब गरीब और कुचला हुआ आदमी धीरे धीरे पीठ सीधी करने लगा है । उसके प्रार्थना गीत अब क्रांति गीत बन रहे हैं । उसे अब ईश्वर के नाम पर बेवजह डराना सम्भव नहीं लग रहा । यही आदमी अब ईश्वर से सीधे सीधे सवाल पूछने की हिम्मत जुटा रहा है । क्या यह कम है कि वो अब ईश्वर से आँख मिलाकर बात कर रहा है । यहाँ कवि अपनी बात कहने में पूर्ण रूप से सफल हुआ है ।
लुहार का डर कविता में कवि अब लोहे की धारदार तलवार बनाकर पराजय का गला रेतने निकल पड़ा है । अब सोने की तलवारें बनाने वाले स्वर्णकारों के दिन भी लद गए ।
मशीनी युग में हम पूरी तरह से उपकरणों पर निर्भर हैं । हिसाब किताब से लेकर सुख दुःख बांटने तक में हम मोबाईल और इंटरनेट पर निर्भर हैं । फिर भी कवि ने एक बेहद महत्वपूर्ण बिंदु पर एक कविता मुझे जीने दो में बात की है -
जैसे मुस्कुराने
अभिवादन
और स्वागत करने में
मुझे मशीन से बेहतर होना पड़ेगा ।
ये पंक्तियां सूत्र वाक्य जैसी हैं । इन पर आगे लम्बी बहस हो सकती है ।
एक कम महत्व वाला आदमी कविता में कवि ने कमाल की बात की है । दरअसल कोई भी कम महत्व का नही होता । हम ही अपने लाभ के लिए लोगों का वर्गीकरण कर देते हैं । जब गरीब सवाल पूछे तो वर्ग संघर्ष आरम्भ हो जाता है । पर अभी तो -
हर घर , हर जगह
होता है , एक कम महत्व वाला आदमी
वो बोलता नही
बस सुनता है
सिर्फ पूछने पर देता है जवाब ।
कविता की दुनिया उतनी सरल नहीं है जितनी दिखती है । इन दिनों कवियों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। सोशल मीडिया के कारण प्रचार और प्रसार बेहद आसान हो गया है। आज की समकालीन हिन्दी कविता पर नज़र डालें तो लगता है कि साहित्य की सबसे मुश्किल विधा कविता लिखना सबसे आसान कार्य हो गया है। फिर भी लूथरा जैसे कुछ जागरुक और मिट्टी से जुड़े कवि हैं जो आश्वस्त करते हैं कि अच्छी कविता हमेशा जिंदा रहेगी-
वो होगा यहीं कहीं
आखिर कहां गया होगा ?
इसी शहर में कहीं रहता होगा
बस मुझसे नजरें चुराता होगा।
शब्दों के निरर्थक जोड़ तोड़ से कवि सोचता है कि कविता बन गई क्योंकि उसे वाहवाही भी मिल जाती है और यही भ्रम में भी डाल देती है। कविता लिखने से पूर्व एक संवेदनशील और बेहतरीन हृदय वाला मनुष्य बनना बहुत जरूरी हैं। ऐसा व्यक्ति ही जीवन व समाज मे व्याप्त जटिलता को महसूस कर सकता है। कवि के व्यक्तिगत जीवन तथा उसकी विचारधारा को जानना भी जरूरी होता है ताकि उसकी रचना का ठोसपन मालूम हो सके। बहुत से कवि दोहरा जीवन जी रहे हैं। कवि तजेन्दर लूथरा आज के दौर के जागरूक कवियों में से एक हैं। वो समाज और राजनीति में घट रही खराब बातों का जमकर विरोध करते हैं। मैं आभारी हूँ आपका कविता में कवि ने प्रश्नों की अद्भुत चोट की है -
कि जैसे कौन तय करता है कि मरेगा कौन
और किस कीमत पर
कौन तय करता है कि बचेगा कौन
और उसकी बोली कैसे लगती है।
अगली पंक्तियों को पढ़ने पर पाठक का हृदय तड़पने लगता है। मन विद्रोही होने लगता है-
कौन है जो किसी का मरना और किसी का मारना
बस दूरबीन लगाकर देखता है...
सवाल और भी हैं लेकिन
मैं ज़्यादा सवाल पूछकर
आपको शर्मिंदा नहीं करना चाहता।
शोषण व अत्याचार से पीडि़त होती जनता के दुख कवि हृदय को पीड़ित करते हैं। सच्चा कवि इन शोषित और लाचार लोगों के दुखों से बेचैन होकर इस पूंजीवादी व सांमतवादी व्यवस्था से दो दो हाथ करने लगता है। वह संघर्षशील आम आदमी के पक्ष में शोषक व उत्पीड़क पूंजीवादी व्यवस्था का तीखा प्रतिरोध अपनी रचनाओं के माध्यम से करता है। लोकधर्मी कवियों की यह बेचैनी आजकल बहुत कम दिखलाई देती है। ढेरों काव्य संग्रह प्रकाशित किये जा रहे हैं और पुरस्कार बांटने की संस्कृति पनप रही है। जब तक पुरस्कार न मिले तब तक वह कवि नहीं समझा जाता हैं। पुरस्कार के लोभ में ही लिखी जा रही ज्यादातर कविताएं इन दिनों सामने आ रही हैं। कवि तजेन्दर सिंह लूथरा एक प्रतिबद्ध बौद्धिक ईमानदारी के साथ सृजनरत कवि हैं-
यहां से आगे नहीं जा पाऊंगा मैं
यहां सोच भी कुंद है
और मान्यताओं की गुफा भी बंद।
मुझ में ताकत ही नहीं बची है
या मुझे बचपन से ही
ठीक से चलना नहीं सिखाया गया है
कसूर किसका है
बहस बेकार है।
लूथरा की कविताएं गहन जीवन राग से भरी हैं। कवि अपने आसपास की छोटी छोटी घटनाओं को बिम्बों और रूपकों में ढाल कर रचनाएं रचता है। भाषा मे सादगी और साधारण शिल्प के बावजूद भी शैली सुंदर है-
चाहता हूं
अकेला हो जाऊं
कोई आसपास न रहे
ज्यादा देर तक
आए और चला जाए
अपने आप।
कवि चुनौती के आधार पर जीवन व समाज के सत्य की पड़ताल करता है। एक कवि समाज हित में बेहतर से बेहतर परिवेश की कल्पना करता है।
कवि की पैनी नजर जीवन और समाज के भयावह यथार्थ पर टिकी रहती है-
और एक दिन जब नहीं रहता
यह कम महत्व वाला आदमी
तो उसके तमाम सवाल
उसकी झिझक, उसकी शंका
उसकी पिछली पंक्ति, उसका कोना
उसकी ओढ़न, उतरन, बिछावन
उसकी पौनी करवट
उसकी कटी छुट्टी
उसका टूटा, खिसका समय
उससे भी कम महत्व वाले आदमी को
बड़े परोपकार भाव से
थमा दिया जाता है।
कविता को सहज जन संवाद का माध्यम बनाना कवि जानता है। कवि की कविताओं में सरल व कलात्मक ढ़ंग से सामाजिक यथार्थ की कुशल अभिव्यक्ति मिलती है। कवि ने कुछ मखमली प्रेम कविताएं लिखी हैं। प्रेम कविताएं इन दिनों अश्लील हो चली हैं। प्रेम निश्छल और मुक्त हो तो बात बनती है-
तुम्हें रुला भी दूंगा
कुछ बुरा बोल के
और रो भी दूंगा
तुम्हें रोता देखकर
बस इसी तरह से
दोनों तरफ हूँ मैं।
प्रेम के प्रति विश्वास प्रकट करना भी कैसे भूला जा सकता है। सच्चा और निस्वार्थ प्रेम मिलना बहुत कठिन है। प्रेम में विश्वास के आधार पर चलना होता है। कवि ने विनम्रता से कह दिया-
मैं तुमसे कुछ माँगूँ
तुम शर्तिया दे ही दोगे
पर मेरे मांगने
और तुम्हारे देने में
जो एक पल का वक्फा है
एक पल की कशमकश का वक्फा
मुझे डराता है।
लूथरा की कविताओं में अनुभूतियां हैं, यादें हैं, संघर्ष है, समाज का ताना बाना है, दुनियादारी और प्रेम है।
०००
परखः छः को नीचे लिंक पर पढ़िए
मैं इन्द्र धनुष होना चाहता हूं
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/blog-post.html?m=1
संपर्क:
गणेश गनी
9817200069
वो ईश्वर से आँखें मिलाने लगा ...
गणेश गनी
गणेश गनी |
एक दिन डाक द्वारा तेजेंदर सिंह लूथरा की एक किताब प्राप्त हुई, जो उनके एक मित्र राजेन्द्र शर्मा ने भेजी थी। किताब को खोला और पहली कविता पढ़ी - अस्सी घाट का बांसुरी वाला । बहुत बार ऐसा होता है कि पहली कविता के बाद ही पाठक समझ जाता है कि आगे पढ़ना चाहिये या छोड़ देना चाहिये । पहली कविता की कुछ पंकियां मजबूर करती हैं कि लूथरा जी को आगे पढ़ा जाना चाहिए -
वो बांसुरी बजाते - बजाते
झूमने और गोल - गोल घूमने लगा
जैसे उसने सर पे कोई पर्वत उठा लिया ।
इसी कविता को आगे पढ़ने पर फिर एक जगह नजर ठहर जाती है -
आरती क्रांति - गीत में बदल गई
वो ईश्वर से आँखें मिलाने लगा
सीधे - सीधे टेढ़े सवाल पूछने लगा ।
पुरानी बात है। मेरे गांव में एक व्यक्ति हमेशा अपनी जेब में बाँसुरी लिए घूमता था। पीतल की यह बाँसुरी हमेशा दिन रात, सोते जागते उसीके साथ रहती थी। हालांकि जैसे अक्सर होता है, लोग कहते थे कि वो थोड़ा मानसिक रूप से असन्तुलित था। लेकिन मैंने तो उसे हमेशा बन ठन कर अक्सर टहलते देखा। वो हमेशा टोपी, कोट और एक लंबा कमरबंद गाची पहने रखता और उसी लाल रंग की गाची के घेरों में बाँसुरी खोंसे रखता। जब उसका मन करता, वो बाँसुरी बजाता, चलते चलते, बैठे बैठे, लोगों के बीच उनकी मांग पर, तो ऐसा था वो मनमौजी। वो बेचैन कई कई दिन गायब भी रहता था कवि तजेन्दर सिंह लूथरा की इस लंबी कविता का एक और अंश पढ़ने से पहले मुझे लग रहा है कि प्रियंवद के एक लंबे आलेख का एक अंश यहां देना आवश्यक है, लेकिन उससे भी पहले एक और बात याद आ रही है।
वर्ष 2014 के बरसातों के दिन थे। एक दिन मैं पौ फटते ही कुल्लू से चंडीगढ़ को रवाना हुआ और दोपहर में पहुंचने से पहले ही राजकुमार राकेश का फोन आया कि सीधे रेलवे स्टेशन पहुंचो क्योंकि लखनऊ से प्रियंवद भी पहुंचने ही वाले हैं। हुआ भी ऐसा ही। अभी मैं स्टेशन पर पहुंचा ही था कि अंदर से दोनों लेखक बाहर निकल रहे थे। प्रियंवद से मेरी बातचीत पहले भी हुई थी और मेरी कविताएं अकार में छपी थीं। मुझे उनसे मिलने की एक अजीब सी खुशी मिल रही थी। हम बाहर निकले और उन स्थानों की ओर चल पड़े जो संगमन के लिए राजकुमार राकेश ने देख रखे थे और किसी एक स्थान को अंतिम तौर पर चुनने के लिए प्रियंवद यहां आए थे। दो स्थानों को देखने के बाद वो चिढ़ने लगे थे और अप्रसन्न दिखने लगे। हम तीसरे स्थान की ओर बढ़े ही थे कि उनकी राजकुमार राकेश से जिस तरह की बात होने लगी थी, उससे मुझे आपत्ति हुई। मैंने आदतन बीच में ही कह दिया कि आप लेखक लोग ही आ रहे हैं या कोई सांसद टाइप लोग आ रहे हैं, जिन्हें इस तरह की सुविधाएं चाहिए। मैंने तो सुना था कि लेखक लोग तो टाट और दरी पर बैठने वाले लोग होते हैं। मेरे इन्हीं शब्दों पर उन्होंने भारी विरोध किया और बहस बढ़ने लगी, इतना ही नहीं वो वापिस लौटने लगे खड़े पैर। मैंने भी कह दिया कि वापिस कुल्लू लौटूंगा रात की बस से ही। वो एकदम सही थे। कौन सुनेगा ऐसी बात एक पहली बार मिलने वाले आदमी से। वो देश के बहुत बड़े लेखक और सम्पादक तो हैं ही। खैर राजकुमार राकेश ने बड़े ही धैर्य से बात को संभाला और हम आगे बढ़े। शाम ढल रही थी, इतने में बरसात शुरू हो गई। सड़क पर कर हम एक पेड़ के नीचे चाय की रेहड़ी पर रुके। हमने चाय पी और मैं कोई भी बात करने की स्थिति में नहीं था। मैं बहुत ही असहज महसूस कर रहा था, प्रियंवद से नज़र मिलाना मुश्किल हो रहा था। बातों बातों में वे दोनों कह रहे थे कि कैसे होगा इधर कार्यक्रम। मैंने बीच में कह दिया कि कुल्लू में कैसा रहेगा। प्रियंवद थोड़े मुस्कुराते हुए कहने लगे, करवा पाओगे। राजकुमार राकेश ने मेरी बात का समर्थन किया। हम तीनों रात में चंडीगढ़ में एक साथ रहे। हालांकि बाद में संगमन 2014 कुल्लू के बजाय मंडी में सम्पन्न हुआ। उस रात प्रियंवद की कही एक बात मुझे आज भी याद है कि हमारा लेखक वर्ग सबसे अधिक गैर जिम्मेदार है।
अब आपको मैं प्रियंवद के आलेख का वो जरूरी हिस्सा सुनाता हूँ क्योंकि इधर मानसिक असन्तुलन की बात हो रही है। बहुत से कलाकार, लेखक, दार्शनिक, कवि अवसाद में जिये, कई तो मानसिक रूप में विक्षिप्त हो गए। पंजाब के कवि लाल सिंह दिल की मौत भी इन्हीं हालात में हुई। प्रियंवद कहते हैं-
यह धुआँ-सा कहाँ से उठता है !
कुछ दिन पहले राजी सेठ जी का फोन आया था-‘देवेंद्र इस्सर नहीं रहे।’ इस फोन से कुछ दिन पहले ‘अकार’ के सिलसिले में राजी सेठ जी से देवेंद्र इस्सर के बारे में बातें हुई थीं। उसी समय उन्होंने बताया था कि उनकी स्थिति बहुत खराब है। परिवार में कोई देखभाल नहीं करता। शारीरिक तौर पर बहुत समस्याएं थीं। अकेले रहते थे।
‘कब?’ मैंने पूछा
‘करीब पंद्रह दिन पहले... लेकिन पता आज लगा इसीलिए तुमको अब बता रही हूं’ कुछ और वाक्यों के बाद यह बात खत्म हो गई। फिर भी कुछ बातें मन में रह गईं।
यह एक बड़े और विस्मृत किए जा चुके लेखक की कायिक मृत्यु थी। कायिक मृत्यु तो सबकी होती है। इस तरह देखें तो इसमें विशेष कुछ नहीं था। लेकिन काया की मृत्यु के अलावा एक लेखक की मृत्यु अंदर के रचनाकार के मरने से भी होती है। उसका रचनाकार मर जाता है और उसे अपनी इस मृत्यु के बारे में स्वयं पता तक नहीं चलता। इस मृत्यु के विविध रूप होते हैं। यह काया की मृत्यु की तरह सीधी, सरल और प्रत्यक्ष नहीं होती। कोशिश करता हूं कि मन की इन सलवटों को सिलसिले के साथ खोल सकूं।
वह स्थिति सबसे जटिल होती है जब लेखक के अंदर उसका रचनाकार होना ही उसको तोड़ने लगता है। धनबाद ‘संगमन’ में लवलीन आई थीं। उस समय वह डिप्रेशन की बीमारी से गुजर रही थीं। दवाएं ले रही थीं। रात में जब हम साथ बैठे तो वह एक सिगरेट से दूसरी सिगरेट जला रही थीं... शराब भी साथ थी। तब उन्होंने बताया कि उनके डॉक्टर ने उपचार के एक हिस्से की तरह यह करने को कहा है। एक बात और जो उनके डॉक्टर ने कही थी कि हर लेखक हमेशा सामान्य और मानसिक असंतुलन की सीमा रेखा पर चलता रहता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उसके अंदर हमेशा एक रचनात्मक मानसिक संघर्ष और तनाव रहता है जिसके कारण उसके मानसिक असंतुलन की ओर चले जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। जाहिर है हम सब लेखक इस स्थिति से गुजरते हैं या निरंतर इसी में रहते हैं। खासतौर से वे जो अपने संपूर्ण वर्तमान का विरोध करते हुए प्रतिपक्ष का साहित्य रचते हैं, और इनमें भी वे जो गहरी संलग्नता, आवेग और उत्तेजना के साथ अपनी रचनात्मकता से जुड़े रहते हैं। दार्शनिक भी सदैव इसी मानसिक स्थिति के आस-पास रहता है। वैसे भी दार्शनिक वास्तविक और प्रत्यक्ष जगत को अस्वीकार करता है। इसी नकार के कारण वह अपनी कल्पनाओं या स्वप्नों या आग्रहों के अनुरूप अपने अंदर वास्तविक जगत के समानांतर एक जगत बना लेता है। उसका अपना सृजित यह जगत उसके प्रत्यक्ष, वास्तविक जगत से मुठभेड़ करता रहता है। निरंतर चलने वाली इस मुठभेड़ की थकान धीरे-धीरे उसकी चेतना को ढंक लेती है। उसकी हर शिरा को तोड़ देती है। विक्षिप्त हो जाने वाले दार्शनिकों की लंबी सूची है।
इसी से जुड़ी एक और जटिल स्थिति है जिसे इस रोग से कुछ ठीक होने के बाद लेखक समझ नहीं पाता। शैलेश मटियानी और स्वदेश दीपक के जिक्र से इसे समझना सरल होगा। शैलेश मटियानी आई.आई.टी. कानपुर में थे जब उन्हें अपने पुत्र की हत्या की सूचना मिली। इस घटना ने ही उनके मानसिक संतुलन पर तत्काल प्रभाव डाला था, लेकिन यह घटना ही उनके मानसिक असंतुलन का एकमात्र कारण हो, ऐसा नहीं था। वह इसके बहुत पहले से लगातार अभाव, संघर्ष और साहित्य की दुनिया के कुछ लोगों की क्रूरता से अकेले जूझ रहे थे।
पुत्र की हत्या ने उनका मानसिक संतुलन बिगाड़ दिया था। लंबे समय तक उनका इलाज चला। बाद में वह काफी ठीक भी हो गए। फिर उन्होंने वही गलती की जो ऐसी स्थिति में कमोबेश हर लेखक कर देता है, और डॉक्टर भी जिसे करने की सलाह देते हैं। उन्होंने फिर लिखना शुरू कर दिया। ‘अकार’ के प्रवेशांक के लिए मटियानी जी ने शानदार लंबी कहानी ‘नदी किनारे का गांव’ लिखी। कुछ समय बाद ही मटियानी जी फिर मानसिक असंतुलन के शिकार हो गए। उसके बाद वह उससे निकल नहीं पाए, उनकी मृत्यु के दो दिन पहले गिरिराज किशोर जी जब अस्पताल में उनसे मिले तो वह चेन से पलंग के साथ बंधे हुए थे।
स्वदेश दीपक भी जब थोड़ा ठीक हुए तो उन्होंने ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ जैसी विलक्षण कृति लिखी। मैं जब इसकी किश्तों को पढ़ रहा था तो उसकी कौंधती हुई, अंदर तक धंसने वाली भाषा की गहनता और लय से हतप्रभ था। वैसे तो स्वदेश दीपक के पास यह भाषा हमेशा से ही थी, लेकिन इस रचना की भाषा में कहीं कुछ असामान्य था। यह लगभग नीत्शे की भाषा के आस-पास की और अंदर तक छीलकर रख देने वाली भाषा थी। ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ लिखने के दौरान निश्चित ही वह पूरे आवेग और उत्तेजना में रहे होंगे। उन्हीं स्मृतियों और क्रूर अनुभवों में लौट गए होंगे जो अवचेतन मैं शायद लुप्त हो चुके थे। एक दिन सुनाई दिया कि स्वदेश दीपक का कोई पता नहीं है कि वे कहां हैं। आज तक भी वे लापता हैं।
लेखक की एक और तरह की मृत्यु धीरे-धीरे उसके रचनाकार के सूखते जाने से भी होती है। यदि वह सचेत है तो इस मृत्यु की आहट सुन लेता है। निर्मल वर्मा की कहानी ‘सूखा’ संभवतः इस विषय पर हिंदी की अकेली कहानी है। हेमिंग्वे ने आत्महत्या इसीलिए की क्योंकि वह अपने अंदर के रचनाकार के सूख जाने को महसूस कर रहे थे और इसे स्वीकार नहीं कर पाए। 1952 में ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’ आया था। इसके बाद 1961 में आत्महत्या तक हेमिंग्वे कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं लिख पाए। उसके पहले वह गहरे अवसाद में रहे। काफ्का ने अपने मित्र मैक्स ब्राड से कहा था कि उसकी मृत्यु के बाद वह उसकी सब रचनाएं जला दे। यह विरक्ति यहां तक पहुंची थी कि काफ्का ने ब्राड को आखिरी पत्र में लिखा था कि ‘उसका प्रत्येक शब्द, डायरी, पत्र, लिखा हुआ सब कुछ, बिना किसी अपवाद के जला दिया जाए और वह भी जितनी जल्दी संभव हो...।’ बहुत कुछ स्वयं काफ्का ने आग की लपटों में कई बार डाला था। करीब 20 नोटबुक्स डोरा ने आग में डाली थीं जिन्हें काफ्का अपने पलंग पर लेटे जलते हुए देखता रहा था।
इसी का और विस्तार है जब कोई रचनाकार या कलाकार उस पूरे परिदृश्य, उस पूरे जगत से ही विरक्त हो जाता है। ग्रेटा गार्बो ने स्वयं को एक छोटे से फ्लैट में बंद करके सिने जगत को हमेशा के लिए त्याग दिया था। यहां तक कि कोई उसकी झलक भी न पा ले, इसलिए वह खिड़की तक नहीं खोलती थी। फोटोग्राफर कैमरा लिए घंटों सड़क पर छुपकर बैठे रहते थे। यही सुचित्रा सेन ने किया है। अपने घर में स्वयं को पूरी तरह बंद कर लिया है। सिर्फ बेटी से मिलती हैं। दादा साहब फालके पुरस्कार देने की जब बात हुई थी तो कोई उनसे संपर्क ही नहीं कर पाया।
अंदर का रचनाकार धीरे-धीरे सूखता है, अचानक नहीं। इसी सूखने के साथ अपने ही लेखन के प्रति व्यर्थताबोध और विरक्ति जन्मती है। मार्क्वेज ने भी कुछ सालों पहले घोषणा की थी कि वे अब नहीं लिखेंगे। उन्हें भी लगा था कि जो कुछ, जिस उद्देश्य से लिखा वह समझा ही नहीं गया। लेकिन बाद में मार्क्वेज ने एक छोटा उपन्यास लिखा, यह कहकर कि उन्हें समझ में आया कि वह लिखने के अलावा कुछ और नहीं कर सकते। इस बहुत छोटे उपन्यास ‘मेमोरीज ऑफ माई मेलन्कलि होर्स’ (मेरी उदास वेश्याओं की स्मृतियां) में साफ दिखता है कि मार्क्वेज अपनी रचनात्मकता की सूखी जड़ों से जूझ रहे हैं। जिस तरह शरीर के अंगों का क्षरण निश्चित है, उसी तरह शायद लेखक की रचनात्मकता का धीरे-धीरे सूखना भी निश्चित होता है। लेकिन इससे जूझना ही उसके पास एकमात्र विकल्प है। उसी तरह, जैसे शरीर के क्षरित होते अंग से व्यक्ति जूझता है और जीवित रहता है। वह यह लड़ाई लड़े या फिर हेमिंग्वे की तरह आत्महत्या करे, दो ही विकल्प हैं। इसलिए इस जूझते रहने का स्वागत होना चाहिए। इसे समझना चाहिए। इसे स्वीकार करना चाहिए, बजाए ‘न लिखने का कारण’ जैसी नकली बहसों के बहाने मुर्दों को पंगत में बैठाकर खुद ही अपने मृत्युभोज करने का निमंत्रण देने के। इस जूझने में पूरी संभावना है कि रचनाकार नई ऊर्जा के साथ उसी तरह लौट आए जैसे व्याधि को जीतकर लौटता है। अब तो कैंसर से भी जूझकर लोग नया जीवन जीने लगे हैं।
लेकिन अंदर का यह रचनाकार आखिर सूखने क्यों लगता है? क्या हो जाता है? क्या प्रक्रिया होती है? रविशंकर की अभी मृत्यु हुई। वे 92 वर्ष की आयु के थे। सक्रियता से सितार बजाते थे। पिकासो भी 92 वर्ष तक पेंटिंग बनाते रहे। खुशवंत सिंह 96 वर्ष के हो रहे हैं। कुछ दिनों पहले तक उनका कॉलम आता रहा। जोहरा सहगल 100 वर्ष की हो चुकी हैं, लेकिन एक नवोदित कलाकार की तरह जिज्ञासा, उल्लास और कला की उत्तेजना के साथ बातें करती हैं। हुसैन अंतिम समय तक पेंटिंग बनाते रहे। फिर किसी के अंदर यह सूखा क्यों, कैसे पड़ जाता है? जरूर कुछ विशेष कारण होते होंगे। यदि रचनाकार के सूखने की किसी पौधे के सूखने से तुलना करें तो या तो खाद-पानी मिलना बंद हो जाए या कीड़ा लग जाए या धूप-रौशनी-हवा न मिले या समय-समय पर कटाई-छंटाई न हो। खाद-पानी यानी संवेदना-सरोकार-विचारशीलता खत्म हो जाए, कीड़ा लग जाए यानी संलग्नता, समय और ऊर्जा को दूसरे सरोकार खींचने लगें, धूप-हवा-रौशनी न मिले यानी अध्ययन और ज्ञान के दूसरे स्रोतों से संपर्क समाप्त हो जाए और कटाई-छंटाई न हो यानी उसकी बुरी रचनाओं और अहंकार को भी सराहा जाए। साहित्य की दुनिया में धीमी सांस और कछुए की चाल ही लेखक की नाड़ी होनी चाहिए वर्ना तो बुलबुले की तरह हवा में कुछ देर तैरकर फूट जाने वालों से साहित्य का नाबदान भरा पड़ा है। इसके अलावा दो चार कहानियां ‘फ्लूक’ में लिख लेने वाले या अपने से पहले की रचनाओं को अतिक्रमित न करने वाले, शेयर मार्केट की तरह साहित्य के मार्केट में बहुत कम समय में, बहुत कम ‘इन्वेस्ट’ करके, बहुत जल्दी, बहुत अधिक ‘रिटर्न’ पाने की उम्मीद में लिखने वाले या जीवित रहने की कठोर और बड़ी परिस्थितियों में निरंतर जूझने वाले लेखकों का रचनाकार भी बहुत जल्दी थक कर दम तोड़ देता है। सबसे दयनीय मृत्यु उनकी होती है जो आत्ममुग्धता, अहंकार और छोटे रास्तों पर विश्वास करते हुए, झूठी यश-लिप्सा के चलते हैमलिन के बांसुरी वादक के पीछे नाचते-गाते चूहों की तरह खुशी से आत्महत्या के मार्ग पर चल देते हैं। शायद इनके लिए ही जार्ज मेरेडिथ ने लिखा होगा-
ईश्वर जानता है इस दुःखमय जीवन में
किसी दुरात्मा की आवश्यकता नहीं है
हमारी कुवासनाएं ही जाल बुनती हैं
हमारी अंतरात्मा ही हमारे साथ घात करती है!
लेखक के ‘रचनाकार’ की हत्या भी की जाती है।
किसी नए लेखक के रचनाकार की हत्या करने का सबसे सरल और मासूम तरीका होता है उसकी कमजोर रचना या किसी भी रचना की इतनी अधिक प्रशंसा करना कि वह अपनी महानता और आत्ममुग्धता के बोझ से दबकर खुद ही दम तोड़ दे।
इसी के बरअक्स हत्या करने का दूसरा तरीका लेखक की उपेक्षा करना है। उसकी अच्छी रचनाएं न छापना, पुस्तक न छापना, कहानियों पर बात न करना या फिर अत्यंत कठोर और एकांगी आलोचना करते रहना। दिल्ली के बाहर पूरे देश के अनेक ऐसे युवा लेखक हैं जिनके साथ यह व्यवहार हो रहा है। वे क्षुब्ध, आहत और आक्रोशित हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि बगुलों को सम्राट बनाने वाले दिल्ली के कुछ बिचैलियों, जमूरों, दलालों और नक्कालों द्वारा मजबूती से बुने गए इस जाल को कैसे तोड़ें ? यदि लेखक में अपनी रचना के प्रति आत्मविश्वास नहीं है तो वह थक कर कुंठा और निराशा का शिकार हो जाता है। जरूरी है कि हमारे युवा दोस्त स्वयं आत्म विश्लेषण करें, स्वयं देखें कि उन्होंने जिस दिन साहित्य की जमीन पर पैर रखा था और अपने आप से जो वायदे किए थे, क्या वे उन्हें पूरा कर पाए? यदि नहीं तो उनसे कहां पर, क्या चूक हुई और इसमें उनके अंदर या बाहर, सबसे बड़ी बाधा क्या थी? और वे इस ‘बाधा’ को चुनौती देने वाले की छाती पर पांव रखने के आत्मविश्वास और शक्ति से बचे हैं या सिर झुकाकर अपने विचलन को और अपने वास्तविक लेखक की पराजय को स्वीकार कर चुके हैं।
मृत्यु के इस क्रम में अब अंतिम बात! किसी विधा के खत्म होने पर केवल उसी विधा से जुड़ा लेखक खत्म होता है। कोई विधा क्यों खत्म हो जाती है इसके अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक या आर्थिक कारण होते होंगे। मुद्रित साहित्य से बाहर ऐसा बहुत दिखाई देता है, खासतौर से वाचिक, मौखिक और मंचीय परंपरा में। आज कुछ विधाएं फिर संकट में हैं। ललित निबंध, खंड काव्य आदि लगभग समाप्त हैं। आलोचना और कविता पर भी थोड़ा दूर सही, लेकिन यह संकट मंडरा रहा है। इस बात को थोड़ा और विस्तार दें, तो हिंदी साहित्य का मुद्रित शब्द ही संकट में दिखता है। हिंदी लेखक और भाषा समाज में हाशिए पर फेंके जा चुके हैं। इसके बाद भी अगर हिंदी में खूब चहल-पहल दिख रही है, तो यह कुछ और नहीं राजभाषा के नाम पर मिलने वाले करोड़ों सरकारी रुपए हैं जो दिल्ली में सजी हुई साहित्य की मंडी में रौनक बनाए हुए हैं जहां साहित्य के आवरण में हर तरह की दुकान चल रही हैं। मूल्य की पट्टियां गले में लटकी हैं। अभ्यस्त हाथ पूरी निर्लज्जता के साथ चौराहों पर बैठकर रोज एक नए ‘र्फास’ की स्क्रिप्ट लिख रहे हैं। देश की जनता की खून-पसीने की कमाई से ‘एजुकेशन सेस’ के नाम पर अरबों-अरब वसूल कर यू.जी.सी. के माध्यम से विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों को दिए जा रहे हैं। इन रुपयों का कहां क्या हो रहा है। किस चीज पर कितना लुटाया जा रहा है सब देख रहे हैं। राज्य अकादमी, सरकारी, अर्द्धसरकारी हिंदी संस्थानों के वित्तीय स्रोत सूंघते हुए, नथुने उठाए लोग आपस में गुर्राते दिखते हैं। हिंदी अपनी आंतरिक शक्ति से नहीं बल्कि रुपयों की आक्सीजन पर जीवित रखी जा रही है। जिस दिन यह आक्सीजन हटेगी और जो निश्चित हटेगी, हिंदी भाषा तब मरेगी ही और उसके साथ हिंदी लेखकों की एक पूरी जमात, पूरा जगत भी मर जाएगा। विश्व इतिहास का यह अनोखा दृष्टांत होगा जब काया के जीवित रहते हुए भी उसके अंदर एक साथ इतने रचनाकारों की मृत्यु होगी। अपना मृत्युलेख हिंदी लेखक खुद लिख रहा है। उसकी मूल्यविहीन तटस्थता, आत्मघाती सहनशीलता और कायर चुप्पी डरावनी है।
अब तेजेंदर लूथरा की कविता का यह अंश पढ़ें-
वो आज भी आधा खुश था
आधा उदास था
उसे किसी इंकलाब की खबर न थी ।
बांसुरी बेचने वाले के माध्यम से कवि ने धरती के हरेक अंतिम आदमी की स्थिति को बेबाकी से सामने लाया है । पूँजीवाद के इस दौर में अब गरीब और कुचला हुआ आदमी धीरे धीरे पीठ सीधी करने लगा है । उसके प्रार्थना गीत अब क्रांति गीत बन रहे हैं । उसे अब ईश्वर के नाम पर बेवजह डराना सम्भव नहीं लग रहा । यही आदमी अब ईश्वर से सीधे सीधे सवाल पूछने की हिम्मत जुटा रहा है । क्या यह कम है कि वो अब ईश्वर से आँख मिलाकर बात कर रहा है । यहाँ कवि अपनी बात कहने में पूर्ण रूप से सफल हुआ है ।
लुहार का डर कविता में कवि अब लोहे की धारदार तलवार बनाकर पराजय का गला रेतने निकल पड़ा है । अब सोने की तलवारें बनाने वाले स्वर्णकारों के दिन भी लद गए ।
मशीनी युग में हम पूरी तरह से उपकरणों पर निर्भर हैं । हिसाब किताब से लेकर सुख दुःख बांटने तक में हम मोबाईल और इंटरनेट पर निर्भर हैं । फिर भी कवि ने एक बेहद महत्वपूर्ण बिंदु पर एक कविता मुझे जीने दो में बात की है -
जैसे मुस्कुराने
अभिवादन
और स्वागत करने में
मुझे मशीन से बेहतर होना पड़ेगा ।
ये पंक्तियां सूत्र वाक्य जैसी हैं । इन पर आगे लम्बी बहस हो सकती है ।
एक कम महत्व वाला आदमी कविता में कवि ने कमाल की बात की है । दरअसल कोई भी कम महत्व का नही होता । हम ही अपने लाभ के लिए लोगों का वर्गीकरण कर देते हैं । जब गरीब सवाल पूछे तो वर्ग संघर्ष आरम्भ हो जाता है । पर अभी तो -
हर घर , हर जगह
होता है , एक कम महत्व वाला आदमी
वो बोलता नही
बस सुनता है
सिर्फ पूछने पर देता है जवाब ।
तेजेंदर सिंह लूथरा |
वो होगा यहीं कहीं
आखिर कहां गया होगा ?
इसी शहर में कहीं रहता होगा
बस मुझसे नजरें चुराता होगा।
शब्दों के निरर्थक जोड़ तोड़ से कवि सोचता है कि कविता बन गई क्योंकि उसे वाहवाही भी मिल जाती है और यही भ्रम में भी डाल देती है। कविता लिखने से पूर्व एक संवेदनशील और बेहतरीन हृदय वाला मनुष्य बनना बहुत जरूरी हैं। ऐसा व्यक्ति ही जीवन व समाज मे व्याप्त जटिलता को महसूस कर सकता है। कवि के व्यक्तिगत जीवन तथा उसकी विचारधारा को जानना भी जरूरी होता है ताकि उसकी रचना का ठोसपन मालूम हो सके। बहुत से कवि दोहरा जीवन जी रहे हैं। कवि तजेन्दर लूथरा आज के दौर के जागरूक कवियों में से एक हैं। वो समाज और राजनीति में घट रही खराब बातों का जमकर विरोध करते हैं। मैं आभारी हूँ आपका कविता में कवि ने प्रश्नों की अद्भुत चोट की है -
कि जैसे कौन तय करता है कि मरेगा कौन
और किस कीमत पर
कौन तय करता है कि बचेगा कौन
और उसकी बोली कैसे लगती है।
अगली पंक्तियों को पढ़ने पर पाठक का हृदय तड़पने लगता है। मन विद्रोही होने लगता है-
कौन है जो किसी का मरना और किसी का मारना
बस दूरबीन लगाकर देखता है...
सवाल और भी हैं लेकिन
मैं ज़्यादा सवाल पूछकर
आपको शर्मिंदा नहीं करना चाहता।
शोषण व अत्याचार से पीडि़त होती जनता के दुख कवि हृदय को पीड़ित करते हैं। सच्चा कवि इन शोषित और लाचार लोगों के दुखों से बेचैन होकर इस पूंजीवादी व सांमतवादी व्यवस्था से दो दो हाथ करने लगता है। वह संघर्षशील आम आदमी के पक्ष में शोषक व उत्पीड़क पूंजीवादी व्यवस्था का तीखा प्रतिरोध अपनी रचनाओं के माध्यम से करता है। लोकधर्मी कवियों की यह बेचैनी आजकल बहुत कम दिखलाई देती है। ढेरों काव्य संग्रह प्रकाशित किये जा रहे हैं और पुरस्कार बांटने की संस्कृति पनप रही है। जब तक पुरस्कार न मिले तब तक वह कवि नहीं समझा जाता हैं। पुरस्कार के लोभ में ही लिखी जा रही ज्यादातर कविताएं इन दिनों सामने आ रही हैं। कवि तजेन्दर सिंह लूथरा एक प्रतिबद्ध बौद्धिक ईमानदारी के साथ सृजनरत कवि हैं-
यहां से आगे नहीं जा पाऊंगा मैं
यहां सोच भी कुंद है
और मान्यताओं की गुफा भी बंद।
मुझ में ताकत ही नहीं बची है
या मुझे बचपन से ही
ठीक से चलना नहीं सिखाया गया है
कसूर किसका है
बहस बेकार है।
लूथरा की कविताएं गहन जीवन राग से भरी हैं। कवि अपने आसपास की छोटी छोटी घटनाओं को बिम्बों और रूपकों में ढाल कर रचनाएं रचता है। भाषा मे सादगी और साधारण शिल्प के बावजूद भी शैली सुंदर है-
चाहता हूं
अकेला हो जाऊं
कोई आसपास न रहे
ज्यादा देर तक
आए और चला जाए
अपने आप।
कवि चुनौती के आधार पर जीवन व समाज के सत्य की पड़ताल करता है। एक कवि समाज हित में बेहतर से बेहतर परिवेश की कल्पना करता है।
कवि की पैनी नजर जीवन और समाज के भयावह यथार्थ पर टिकी रहती है-
और एक दिन जब नहीं रहता
यह कम महत्व वाला आदमी
तो उसके तमाम सवाल
उसकी झिझक, उसकी शंका
उसकी पिछली पंक्ति, उसका कोना
उसकी ओढ़न, उतरन, बिछावन
उसकी पौनी करवट
उसकी कटी छुट्टी
उसका टूटा, खिसका समय
उससे भी कम महत्व वाले आदमी को
बड़े परोपकार भाव से
थमा दिया जाता है।
कविता को सहज जन संवाद का माध्यम बनाना कवि जानता है। कवि की कविताओं में सरल व कलात्मक ढ़ंग से सामाजिक यथार्थ की कुशल अभिव्यक्ति मिलती है। कवि ने कुछ मखमली प्रेम कविताएं लिखी हैं। प्रेम कविताएं इन दिनों अश्लील हो चली हैं। प्रेम निश्छल और मुक्त हो तो बात बनती है-
तुम्हें रुला भी दूंगा
कुछ बुरा बोल के
और रो भी दूंगा
तुम्हें रोता देखकर
बस इसी तरह से
दोनों तरफ हूँ मैं।
प्रेम के प्रति विश्वास प्रकट करना भी कैसे भूला जा सकता है। सच्चा और निस्वार्थ प्रेम मिलना बहुत कठिन है। प्रेम में विश्वास के आधार पर चलना होता है। कवि ने विनम्रता से कह दिया-
मैं तुमसे कुछ माँगूँ
तुम शर्तिया दे ही दोगे
पर मेरे मांगने
और तुम्हारे देने में
जो एक पल का वक्फा है
एक पल की कशमकश का वक्फा
मुझे डराता है।
लूथरा की कविताओं में अनुभूतियां हैं, यादें हैं, संघर्ष है, समाज का ताना बाना है, दुनियादारी और प्रेम है।
०००
परखः छः को नीचे लिंक पर पढ़िए
मैं इन्द्र धनुष होना चाहता हूं
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/blog-post.html?m=1
संपर्क:
गणेश गनी
9817200069
साहित्यिक दुनिया मे हत्या और आत्महत्या के बारे में सटीक विश्लेषण किया ।
जवाब देंहटाएंजरूरी पढ़े जाने वाला आलेख
जैसे मुस्कुराने
अभिवादन
और स्वागत करने में
मुझे मशीन से बेहतर होना पड़ेगा ।
यह सूत्र वाक्य तो अत्यंत जरूरी जीवन मे मशीन बनने से बचे रहने के लिए ।
शुभकामनाएं गणेश गनी जी
बहुत ही बढ़िया लिखा। हर रचनाकार को इसे पढ़ने की आवश्यकता है !!
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई और शुभकामनाएँ !!
Kam mahatvapurna vala Aadmee-- Ese padhne ke baad pata chala kee vah kitna mahavapurna hai. Luthrajee ke saath G.Ganeejee ka Dhanyavad
जवाब देंहटाएं