image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 जनवरी, 2019

परख बत्तीस

एक टुकड़ा धूप!



शशि कुमार


एक दिन स्कूल से लौटती बाहर हम बच्चों ने निर्णय लिया कि आज दरिया के किनारे वाले रास्ते से होकर जाएंगे। अभी सूरज नहीं डूबा था। थोड़ी दूर जाने के बाद हम सब एक झरने के पास रुके और निर्णय लिया कि पहले नहाएंगे, फिर आगे बढ़ेंगे। हम सब झरने के नीचे मस्ती करते हुए नहाए और फिर थोड़ी आगे जाकर चनाब के किनारे रेत पर बहुत देर तक कबड्डी खेलते रहे। समय का ध्यान नहीं रहा क्योंकि घड़ी तो किसी के पास थी ही नहीं, लेकिन पहाड़ों पर कम होते उजाले ने बता दिया कि अब जल्दी चलना चाहिए। हम सभी तेज तेज कदमों से आगे बढ़े। रास्ता बहुत संकरा और कठिन था। इस पर अक्सर लोग नहीं चलते थे क्योंकि यह आम रास्ता नहीं था। मैं धीरे धीरे पीछे रह गया। मुझे लग रहा था कि रात होने ही वाली है। मेरे कदम थोड़ा और तेज़ी से बढ़ते गए। अब घर से थोड़ी ही दूरी पर था। मैंने महसूस किया कि अंधेरा हो चुका है और मुझे पगडंडी नहीं दिख रही। डर के मारे मैं मन ही मन प्रार्थना करने लगा। मुझे अपने बैग में रखी पुस्तक में एक जगह पर बने सूरज के खिलखिलाते चित्र का ध्यान आया। मैंने यूँ ही पीठ पर लदे बस्ते की ओर गर्दन मोड़ी, तो मैं स्तब्ध रह गया। एक छोटा सा खिलखिलाता हुआ, बड़ी बड़ी आंखों वाला सूरजमुखी के फूल जितना सूरज बस्ते से निकलकर मेरे दाएं कन्धे पर बैठा मुझे रास्ता दिखा रहा था। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैंने आगे बढ़ते हुए देखा कि दूर अंधेरे में डूबे गांव में एक घर के झरोखे पर कंदील जल रही है-

एक टुकड़ा धूप
आओ बचाकर रखें
अपनी जेब में कहीं
कि जब फैला होगा अँधेरा दूर तक
जब सूरज भी होगा गुम
तो जेब से निकाल वो धूप का टुकड़ा
जी सकें फिर से हम
सहज हो उजाले में।

एक टुकड़ी छाँव
आओ बचाकर रखें
घर के किसी कोने में
कि जब जीवन की चिलचिलाती धूप में
न हो हवा दूर तक साँस लेने को भी
तो उस एक टुकड़ी छाँव में ले सकें हम
एक लम्बी ठंडी आह।

एक टुकड़ा चाँदनी
आओ बचाकर रखें
अपनी छोटी सी खुली छत पर
कि जब कभी मन हो उदास
न हो कोई भी आसपास
जी सकें आगोश में ले
एकदम अकेले में
उस अँधेरी रात को भी।

शशि कुमार की कविता में धूप, छांव और चाँदनी है। पाठक को जो भाए, वही लेकर अपने भीतर खुशी घोल सकता है। कवि कहता है कि हमारे समय और तुम्हारे समय के बीच भी होता है एक बीच का समय-

हमारे समय
और तुम्हारे समय के बीच भी
होता है एक समय
जो चुपके से बदल देता है
हमारे खाने-पीने
पहनने-ओढ़ने
सोचने-विचारने के तरीके को
बस अपनी बात को
ठीक बताने के स्वभाव को
ये समय दिखाई नहीं देता
पर जाने कब बना देता है
एक शालीन स्त्री को बेलज्ज
एक शिष्ट युवक को ढीठ
विनम्र बच्चे को चुस्त
एक सयाने बुजुर्ग को रूढ़िवादी
और दकियानूस
ये समय
बहुत धीरे से देना सिखा देता है
हर बात में तर्क
ये चुपके से रिश्तों में भी आ धमकता है
हर रिश्ता लगने लगता है
अविश्वसनीय
स्वार्थी और बोझ
कुछ ज्यादा नहीं करता ये समय
बस ला देता है
पीढ़ी का अन्तराल
और हम हमेशा के लिए
उलझ जाते हैं
हमारे समय और तुम्हारे समय के बीच।

शशि की कविता के विषय भले ही नए और ताज़ा न भी हों, परन्तु बनावट और बुनावट के साथ शैली और भाषा प्रभावित करती है-

कई दिनों की बर्फ़बारी के बाद
उस दिन पहाड़ों में सूरज उगा था
और तुम्हारी सुर्ख बिंदी
कुछ ज्यादा ही लाल हो गयी थी
      जब मुंडेर पर धूप सेकने आयी
      चहचहाती कुछ चिड़ियों को
      तुमने मेंहदी वाले हाथों से
      दाना खिलाया था
      और मैं गर्म चाय का प्याला पकड़
      बस देख रहा था
      तुम्हारी उनींदी सी सुरमई आँखें

कवि ने जीवन में दुःख को सुख से भी अधिक अहमियत दी है कि दुःख माँजता है। सुख तो सुख है, इसमें आदमी दूसरे का दुःख दर्द कहाँ समझ पाता। यह भी सच है कि सुख में अपने पराए, दोस्त दुश्मन, अच्छे बुरे का कहाँ पता चल पाता है-

दुःख माँजता है
इतना कि
मुलम्मा छूट जाता है कई चेहरों का
कलई उतर जाती है कई रिश्तों की
जब दुःख माँजता है उनको कसकर

दुःख माँजता है जब
तौलता है हमारा धैर्य, गरूर और खरापन
कि हलके तो नहीं पेंदी के
घिसकर छेद हो जायेंगे हममें
या टिके रहेंगे मजबूती से रगड़ में भी

दुःख माँजता है इतना कि
कालिख उतारकर कभी चमका ही देता है
हम लोहों को भी
जैसे चमकता है खरा सोना।

बहुत कुछ ऐसा भी है जिसे कविता में भी कहना मुश्किल होता है। कुछ भाव व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिलते। तब हम निःशब्द हो जाते हैं। विक्टर ह्यूगो ने कहा है, संगीत उन भावों की अभिव्यक्ति हैं जिन्हें कागज पर उतारना सम्भव नहीं है ,लेकिन उनके प्रति खामोश भी नहीं रहा जा सकता !
शशि तो कहते हैं कि जब हम प्रेम में होते हैं तो प्रेम कविता कहाँ लिखी जाती है-

प्रेम में रहते हुए
नहीं लिखी जाती कोई प्रेम कविता
प्रेम को जीने का मज़ा
कोई क्यों छोड़ दे भला
क्यों पकड़े कलम
उकेरे शब्द कागज़ पर
वो भी कैसे
गूँगे के गुड़ की तरह
खाता ही नहीं
पीता भी है जो प्रेम
ओढ़ता बिछाता नहाता भी है जिसमें
उसे कविता में कैसे उतारे कोई
उसके तो  हाव-भाव में तब बहती है कविता
होठों पे फूल
आँखों में खुमारी बन
दुनिया खूबसूरत हो जाती है तब
प्रेम कविताएँ तो लिखी जाती हैं
जब हो पतझड़
अकेले फूल कोई चटका हो जब
जब बिखरे हों जीवन के पन्ने
प्रेम कविता तब एक पन्ने पर उतर आती है।
००

गणेश गनी

परख इकतीस नीचे लिंक पर पढ़िए


1 टिप्पणी: