भरत प्रसाद |
पूरे
१९
बारह साल की हो चुकी है आज की सदी। नया रंग, नया रूप,
नयी
चाल, नयी माया, नया जाल.........। बीती शताब्दी मानो सचमुच बीत
ही चुकी हो। मनुष्य और मानवता के संकट की शुरूआत जिस 20 वीं शताब्दी
में हुई - वह मौजूदा सदी में बेलगाम होने के लिए मचल रही है। यह सदी विकृत करेगी
मनुष्य की परिभाषा, खण्डित करेगी इंसान का व्यक्तित्व, रहस्यमय
और जटिल बनाएगी मनुष्य की संरचना। आन्तरिक या आत्मिक विकास जहाँ मनुष्य को गैर
जटिल और गाँठविहीन बनाता है, वहीं भौतिक या लौकिक विकास उसे जटिल
जालों का रहस्यमय पुतला बना देता है। खांटी भौतिक विकास वर्तमान मनुष्य की
आत्मघाती नियति बन चुकी है। अपनी मनुष्यता की अनिवार्यतः हत्या करवाने वाला यह
मार्ग विकल्पहीन हो चुका है, जिससे होकर लगभग प्रत्येक मनुष्य को
गुजरना है और आखिरकार खुद को मिटाना ही है।
बाजारवाद,
भूमण्डलीकरण,
उत्तरआधुनिकता
जैसे चमत्कारिक शब्दों का जन्म यद्यपि 20 वीं सदी में हुआ, किन्तु
इनका उभार और विकास मौजूदा शताब्दी की सर्वव्यापी घटना बनने जा रहा है। असम्भव
नहीं कि 21 वीं सदी में पृथ्वी के ईश्वर यही तीनों प्रकोप माने जाएँ। जीवनमूल्य,
अन्तःप्रवृत्ति,
मानस,
बौद्धिकता,
अन्तर्दृष्टि
हमारा ऐसा कौन सा आन्तरिक या बाह्य पक्ष है, जिसको बाजारवाद
ने स्थायी रूप से प्रभावित न किया हो। प्रकृति का चरित्र अपरिवर्तनीय है, समुद्र,
पर्वत,
नदी,
आकाश
एकनिष्ठ और अनथक भाव से अपनी भूमिका अनन्तकाल से निभाए जा रहे हैं, किन्तु
चन्द हजार वर्षों का यह होमोसेपियन अपना रंग, ढंग, आचरण,
संकल्प,
कर्तव्य
लगातार बदल रहा है, जैसे-जैसे उसके कदम उन्नति की सीढ़ियाँ पार कर
रहे हैं, वैसे-वैसे वह मुखौटे पर मुखौटा चढ़ाए जा रहा है। ये मुखौटे बनावटी होने
के बावजूद प्राकृतिक चेहरे की जगह लेते जा रहे हैं और मनुष्य का स्वाभाविक,
शारीरिक
चेहरा न जाने कब का गायब हो चुका है ? आज का आदमी बुद्धिमान है, शक्तिमान
है, विज्ञानी है, सजग है, माहिर, पारंगत
और परम सफल है किन्तु अपना मूल चेहरा खो बैठा है, जिस चेहरे के बल
पर वह अपने जीवन में या मृत्यु के बाद भी स्थायी, मजबूत और
श्रेष्ठ व्यक्तित्व का दर्जा हासिल करता है। बाजार की आत्मा है पूँजी, इच्छा
है पूँजी, कल्पना है पूँजी, दृष्टि है पूँजी। बाजारवाद समस्त
भूमण्डल को पूँजी की निगाहों से घूर रहा है। वैसे पूँजी की यह तानाशाही अवस्था
मनुष्य की खुदा बनने पर आमादा है, किन्तु विश्व में इस तानाशाही को कुछ
प्रतिशत पूँजी सेवकों की सोच ने ही जन्म दिया है। मनुष्य के किसी भी प्रकार की कला,
रचनात्मकता
अथवा नैसर्गिक कौशल पर किया गया अभी तक सबसे भयानक और अचूक हमला है। सर्जक
सामंतवाद से नहीं टूटा, तानाशाही से नहीं टूटा, साम्राज्यवाद के
सामने नहीं झुका और साम्प्रदायिकता के समक्ष घुटने नहीं टेका किन्तु - किन्तु यह
बाजारवाद सर्जक को बेतरह झुका चुका है। नतमस्तक हैं लेखक, कवि, आलोचक
इस बाजारवाद के आगे। घुटने पेट में धँस गये हैं इस दानवाकार पूँजीपुत्र के आगे।
पूँजीवाद अपने विकास की दशा में अनेक विकृतियेां का जन्मदाता होने के बावजूद हद
दर्जे का अमानवीय नहीं बना था ; किन्तु यह बाजारवाद ? कुछ
कहने की आवश्यकता नहीं । इस बाजारवादी युग
का कवि ‘न भूतो न भविष्यति’ के दर्जे का
महत्वाकांक्षी है। अपने सिर्फ अपने व्यक्तित्व की सनक के आगे, साहित्य
के व्यक्तित्व की चिन्ता गायब हो चुकी है। सर्जक के लिए सृजन अथवा साहित्य अब
साधना नहीं साधन है, अभ्यास नहीं, फैशन है,
नैसर्गिक
स्वभाव नहीं, बनावटी कवायद है। कविता का माथा बुलंद करने की
दीवानगी अब एक भी कवि की उदात्त सनक नहीं रही। बाजारजीवी कवि के लिए कविता फुटबाल
है, रंगीन चश्मा है, वैशाखी है, ढोल है और
प्रसिद्धि पाने का सर्टीफिकेट। पूँजीपरस्त की तर्ज पर कहें तो आज का सर्जक
बाजारपरस्त हो चुका है। प्रायोजित समीक्षा, प्रायोजित
समर्थन, प्रायोजित आत्मप्रचार, सुनियोजित स्थापना, आज
के कवि और लेखक की प्रवृत्ति बन चुके हैं। सपने में पुरस्कार, प्रशंसा
और जय जयकार की बारिश होना उसकी नींद की सामान्य घटना हैं। साहित्य मानो उसके लिए
स्थायी नौकरी हासिल करने की प्रतियोगिता हो, जिसमें कैरियर
बनाने के लिए वह कमर कसे हुए है। इस नौकरी को पक्का करने के लिए वह आत्मा का,
विवेक
का, विचारों का, भावना का, प्रतिबद्धता और
पक्षधरता का सौदा करने के लिए, अपने आपको बेंच देने के लिए सौ से कई
गुना प्रतिशत तैयार बैठा, नहीं-नहीं तनकर खड़ा है। यह अपराजेय
बाजारवाद लेखक की नैसर्गिक कल्पनाशीलता को नष्ट कर रहा है, अनुभूति की ताकत
को जला-सुखा रहा है, बर्बाद कर रहा है हमारा मानवीय विवेक, खोखला
किए जा रहा है हृदय की संरचना को, भीतर-भीतर चाल रहा है मौलिक भावनाओ ंकी
शक्ति को। यह बाजारवाद हमारे कद को स्थायी रूप से बौना कर चुका है, बुद्धिमान
जानवर के रूप में तब्दील कर चुका है। आज हमारी आकांक्षा पर, सपनों पर,
साहस
पर, प्रवृत्तियों पर बाजार का एक छत्र साम्राज्य है। अब यह मजबूरी या
आवश्यकता से चार कदम आगे नियति बनने की ओर अग्रसर है। बाजार के इस ईश्वरनुमा
घटाटोप को निर्णाायक चुनौती देने वाली आज एक भी विचारधारा नहीं बची, न
गाँधीवाद, न बौद्ध दर्शन और न ही माक्र्सवाद। कवि, लेखक बाजारवाद
के खिलाफ ताबड़तोड़ लिख रहे हैं, किन्तु वे खुद उसके मायामोह में
गिरफ्तार हैं। अपने बारे में लिखवाने का जुगाड़ आज कौन नहीं कर रहा ? अपना
नाम डलवाने के लिए आज कौन सम्बन्ध नहीं भिड़ा रहा ? चर्चा में
रात-दिन छाए रहने का तिकड़म कौन नहीं कर रहा ? साहित्यकार के
व्यक्तित्व में आयी इस भयावह विकृति के लिए सिर्फ उसी का माथा फोड़ने से कुछ हासिल
नहीं होगा। लताड़िए उसे - वह अपना प्रमोशन करेगा, व्यंगबाण चलाइए
उस पर - स्थापित होने के लिए अतिरिक्त उपाय ढूँढ़ेगा, खारिज कीजिए उसे
- वह अपनी जुगाड़ू चाल चलेगा। आज का साहित्यकार मान बैठा है कि जो सिर्फ लिखकर
स्थापित हाने की खुशफहमी में जीया वह मर जाएगा, जो खांटी
साधू-संत की तरह कलम के बूते मैदान जीतने का सपना पाला, वह
मृत्युपर्यन्त हाशिए पर पड़ा रोता रहेगा। इस समय जो झाड़-झंखाड़नुमा प्रतिभा का है -
वो, और जो मशालधर्मी प्रतिभा का है, वो भी इस बाजार
के मायाजाल में फंसाधंसा हुआ है। कवि को अपनी कलम से ज्यादे अपने तन्त्र पर भरोसा
है, अपने परिश्रम से ज्यादे अपने जोड़-घटाना पर विश्वास है, अपने
रचनात्मक संकल्प से ज्यादा प्रसिद्धि के प्रायोजित विकल्पों पर आस्था है। जो
बाजारवाद के विरूद्ध है, वो भी बाजारपरस्त है, जो
बाजारतन्त्र के खिलाफ कलम घिस रहा है, वो भी तुरत-फुरत फायदे को लूटने के लिए
अभिशप्त है।
ज्ञान,
कला,
तथ्य,
सूचना
के असीम स्रोतों और सम्भावनाओं से सम्पन्न है युवा सर्जक। बेवसाइट्स, ब्लाॅग,
फेसबुक
अध्ययन, ज्ञान के अत्याधुनिक स्रोत बन चुके हैं। इसके अतिरिक्त
छोटे-मझोले-बड़े सैकड़ों प्रकाशकों के द्वारा प्रकाशित साहित्य, विचारधारा,
समाजविज्ञान,
इतिहास,
मनोविज्ञान
इत्यादि की उच्च स्तरीय पुस्तकें अभूतपूर्व ढंग से रचनाकार को सुलभ हैं।
साहित्येतर विषयों के ज्ञान का ऐसा अधिकारी व्यक्तित्व साहित्यकार शायद ही पहले
कभी रहा हो। मिल्टन, शेक्सपीयर, वडर््सवर्थ और
ईसापूर्व कालीन होमर तक की अमर कृतियाँ हिन्दी में सुलभ हैं। राष्ट्रीय क्या
अन्तर्राष्ट्रीय दोनों स्तर के समाजशास्त्रियों की किताबें हिन्दी का रूप धारण कर
सामने प्रस्तुत हैं। इस पर भी बात नहीं बनी तो कम्प्यूटर स्क्रीन पर माउस का तीर
दौड़ा दीजिए, दुनिया की किसी भी भाषा के मार्गदर्शक
साहित्यकार, दार्शनिक, इतिहासकार को
अपने ज्ञानकोश में कैद कर लीजिए। रचनात्मक कला की बारीकियाँ बताने वाली पुस्तकें
आज के पहले कहाँ इतनी रही हैं ? एक तरह से कहा जाय तो कला, ज्ञान-विज्ञान
और साहित्य के प्रकाशन का अभूतपूर्व युग है यह। बावजूद इसके कहना जरूरी है कि तथ्य,
और
सूचनाएँ हमें विद्वान और ज्ञानी तो बना देती हैं, किन्तु अनुभूति
की गहराइयों तक उतार नहीं पातीं। ज्ञानपूर्ण अध्ययन का पुतला लेखक पढ़-पढ़कर विद्वान
तो बन जाता है किन्तु वेदना व भावना की कसौटी पर दोयम दर्जे का ही रह जाता है। कुछ
मौलिक दिशाएँ खोज पाने, कुछ अद्वितीय रास्ते तलाश पाने और कुछ
अभूतपूर्व चिंतन कर पाने लायक वह नहीं रह जाता। वह तमाम माध्यमों से प्राप्त ज्ञान
का रंग-बिरंगा नजारा अपनी पुस्तकों में पेश तो कर सकता है, किन्तु अपने
उद्दाम और सूक्ष्म स्तरीय रचनाशीलता का विश्वास नहीं जगा पाता। इसीलिए आज के
दिनांक, माह और वर्ष में ज्ञान-सम्पन्न साहित्यकार एक से बढ़कर एक हैं,
किन्तु
असाधारण संवेदना सम्पन्न सर्जक खेाजने पर बड़ी मुश्किल से कहीं मिलेगा।
मौजूदा
शताब्दी के अभ्युदय के ठीक पूर्व साहित्यिक परिदृश्य में स्थापित होने वाले कवियों
में कात्यायनी, हरिश्चन्द्र पाण्डेय, मदन कश्यप,
देवी
प्रसाद मिश्र, अष्टभुजा, एकांत
श्रीवास्तव, बोधिसत्व, बद्रीनारायण,
हरिश्चन्द
पाण्डे का नाम सर्वप्रमुख है। इन कवियों के बाद कविता के मैदान में जगह बनाने में
कामयाब हुए प्रताप राव कदम, आशुतोष दूबे, संजय कुदन,
सुन्दर
चन्द ठाकुर, अग्निशेखर, पवन करण,
श्रीप्रकाश
शुक्ल, संजय कुंदन, पंकज चतुर्वेदी, मोहन डहरिया,
प्रेमरंजन
अनिमेष जैसे कवि। 2004-05 के आसपास अचानक ही ऐसी नयी तरंगों का
सैलाब नजर आता है, जिसने वर्तमान कविता की परिधि को अपनी गति,
उछाल
और हलचल से भर दिया। अलग-अलग भाव, भंगिमा, लम्बाई और गहराई
के साथ बहने, मचलने वाली ये सृजन की लहरें न जाने क्यों एक
पुख्ता यकीन, समर्थ भविष्य और फलक के कीमती विस्तार का
विश्वास पैदा करती हैं। सुरेशसेन निशांत, रंजना जायसवाल, केशव तिवारी,
महेश
चन्द्र पुनेठा, बसंत त्रिपाठी, निर्मला पुतुल,
अरुणदेव,
राकेश
रंजन, अंशु मालवीय, उमाशंकर चैधरी, हरे प्रकाश
उपाध्याय, कुमार अनुपम, आत्मारंजन, प्रज्ञा रावत,
संतोष
चतुर्वेदी, निशांत, ज्योति चावला,
नील
कमल, अशोक सिंह, सुशील कुमार, शैलेय, रामजी
तिवारी, शहंशाह आलम, रजतकृष्ण, शंकरानन्द,
नरेश
मेहन, मनोहर बाथम, पंकज पराशर अपनी निरन्तर सक्रियता
और उपस्थिति से साहित्यिक समाज को आकर्षित
करने का आत्मसंघर्ष करते नजर आते हैं। एक साथ कई दिशाओं की ओर चल-निकल-मचल पड़े इन
कवियों का अंदाजे-बयाँ अलग-अलग, विषयों का चुनाव
जुदा-जुदा, काबिलियत भिन्न-भिन्न और अभिव्यक्ति की जमीन
अपनी-अपनी, किन्तु सब मिलकर जिस उम्मीद को पुख्ता और
पुख्ता...... बना रहे हैं - वह निश्चय ही कविता के देश का पुनर्जागरण करने वाला
है। इन्हीं कवियों के ठीक समानान्तर उभरे हैं - वीरेन्द्र सारंग, कमलेश्वर
साहू, रविकांत, मनोज कुमार झा, प्रदीप जिलवाने,
राज्यवर्धन,
लीना
मलहोत्रा, रेखा चमोली, विमलेश त्रिपाठी, मिथिलेश
कुमार राय, संतोष अलेक्स, नीलोत्पल,
सौमित्र,
शिरीष
कुमार मौर्य, बुद्धिलाल पाल, अच्युतानन्द
मिश्र, आशीष त्रिपाठी जैसे युवा कवियों का नाम युवा उम्मीद के तौर पर लिया
जा सकता है।
कविता
के वर्तमान परिदृश्य में अपनी उपस्थिति से ध्यान खींचने वाले कवि पवन करण मूलतः
अत्याधुनिक मनोवृत्तियों के कुशल व्याख्याकार हैं। ‘इस तरह मैं’
और ‘स्त्री
मेरे भीतर’ से होते हुए ‘कोट के बाजू पर
बटन’ तक की सृजन यात्रा उनके कवि-व्यक्तित्व के उतार-चढ़ाव का ग्राफ भी
प्रस्तुत करती है। ‘इस तरह मैं’ में न सिर्फ
जीवन से अभिन्न विषयों को अनुराग, कृतज्ञता और उछाह के साथ चित्रबद्ध
किया गया है, बल्कि उनके मूल्य को जीवनमय भाषा में सम्मानित
किया गया है। ‘स्त्री मेरे भीतर’ पुरुष कवि की
आत्मा में चहलकदमी करती स्त्री के वजूद का प्रकाशन ही नहीं, बल्कि स्त्री के
भीतर अपना व्यक्तित्वांतरण किए हुए दुस्साहसिक कवि का अन्तर्नाद है। पवन करण
प्रायः ऐसे विषयों को उठाते हैं, जो हमारी, आपकी नजरों से
गिर चुके हैं, जिस पर मुँह खोलना हम अपमानजनक समझते हैं,
जिसके
पक्ष में खड़ा होना मानो अक्षम्य अपराधी घोषित होना है। उपेक्षित, अवैध
और घृणा की हद तक त्याग दिए गए विषयों के पक्ष में खड़े होने के एकला दुस्साहस ने
ही पवन करण को अपनी पीढ़ी में अलग महत्व का कवि बनाया है।
‘वे
लकड़हारे नहीं हैं’ से अपनी अनिवार्य उपस्थिति दर्ज कराने वाले
सुरेश सेन निशांत सतह पर फैले अस्त-व्यस्त-पस्त आम जीवन के गायक हैं। उपेक्षित
बचपन, दमित स्त्री, हार-हारकर जीते मनुष्य के प्रति अकथ
भावुकता से परिपूर्ण निशांत का हृदय उनकी कीमत पर बोलते हुए कभी नहीं अघाता। सौम्य,
शान्त
किन्तु सुदृढ़ और गहरा आक्रोश सुरेशसेन के कवि की मूल ताकत है। कहन की शैली में सहज
होकर भी अर्थों के स्तर पर इतने आसान नहीं हैं सुरेश सेन। विषय की वास्तविकता को
पाठक के हृदय में स्थापित कर डालने के मौन संकल्प के चलते ही उन्होंने सहज
अभिव्यक्ति का रास्ता चुना। यही सहजता कई बार सीधे-सादे अर्थों की सरलता में
तब्दील हो जाती है, जिसमें नये-नये भावेां और विचारों के प्रकाशन
की जगह कहे-सुने गए अर्थों का दुहराव सा नजर आता है, किन्तु अपने
एक-एक विषय के प्रति अटूट आत्मीयता से भरे सुरेश सेन निशांत प्रगाढ़ भावनात्मकता की
ताजगी कविता में भरते ही रहते हैं।
‘इस
मिट्टी से बना’ (2005 ई.) और ‘आसान नहीं विदा
कहना’ (2010 ई.) काव्य संग्रहों के सर्जक केशव तिवारी
मौजूदा सृजन परिदृश्य में अपनी पहचान रखते हैं। घर-गृहस्थी के जंजाल और जीवन की
भागाभागी में पीछे छूट चुके गाँव, जवार, अंचल, पुरवा
की याद केशव तिवारी को चैन से रहने नहीं देती । इनका जनपद कोई लिखा-लिखाया, पढ़ा-पढ़ाया
गया किताबी कथाओं
जैसा जनपद नहीं, बल्कि बचपन से
लेकर आज तक स्मृतियेां के पोर-पोर में रचा-बसा, जीता-जागता,
बतियाता
हुआ जनपद है। वे जनपद को सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखते, बल्कि अपने
अन्तर्वाह्य व्यक्तित्व पर चढ़े हुए उसके अथाह ऋण को थोड़ा-बहुत उतार लेने के लिए
जनपद को सुमिरते हैं। ‘बात करेंगे गम की, रात काटेंगे रम
की’ का मुहावरा इन दिनों साहित्य जगत में सबके सिर चढ़कर बोल रहा है। केशव
तिवारी की शब्द-सत्ता में बृहत्तर जनजीवन की उपस्थिति चटक, सप्राण और
गतिमान है, किन्तु समकालीन भारत के अन्य दर सत्य, अप्रत्याशित
घटनाएँ, व्यक्ति-मन का अबूझ स्तर उनकी सृजन-यात्रा का अनिवार्य हिस्सा बहुत
कम बन पाते हैं। सामयिक मुद्दों के स्तर-स्तर में घुसकर उसमें छिपे एक-एक रहस्य को
खोलना और राजनीतिक, सांस्कृतिक मोर्चे पर एक मंत्र-सिद्ध साधक की
तरह विषय को साधना केशव तिवारी के लिए चुनौती की तरह है।
उत्तरांचल
के जनजीवन और मानवतापूर्ण प्रकृति के पक्ष में अपनी चिन्ता और बेचैनी का राग छेड़ने
वाले महेश चन्द पुनेठा मौजूदा परिदृश्य के परिचित स्वर हैं। 2009
में प्रकाशित ‘भय अतल में’ संग्रह ने
पाठक-मानस को आकर्षित करने में सफलता हासिल की है। उपेक्षित व्यक्ति, वर्ग,
समाज,
अंचल
के प्रति अनुराग से भरे पुनेठा गुमनाम जनजीवन की आत्मा के गायक नजर आते हैं। बदरंग
और बेखास दिखते जीवन की कठिन जटिलताओं में उतरकर उसे सरलतापूर्ण भंगिमा में पेश कर
देना पुनेठा की कविताई का रहस्य है। अडिग रहना, सच जीवित रहने
की सम्भावना बरकरार रखना है। अविचल रहना जिंदा रहना है। अनम्य बनना, ईमानदारी
को जीना है। ‘अस्तित्व और सुंदरता’ शीर्षक कविता
इसी मूल्य को वाणी देती है। पुनेठा जी की कविता में जीते-हारते-मरते-गलते जनजीवन
के प्रामाणिक चित्र हैं, किन्तु उन बोलते-बतियाते चित्रों में
उम्दा दर्शन कैसे पैदा किया जाय, यह कला सीखना कवि के लिए अभी शेष है।
किसी भी कवि को यदि काल के मृत्युदायी चक्रवात में विलीन हो जाने से अपनी कविता को
बचाना है तो उसमें मर्मपूर्ण जीवनदर्शन की आग जलानी ही पड़ेगी।
युवा कविता की ताकत और..............
सृजन की बारीकियों का जानकार होना और
राष्ट्रीय-अनतर्राष्ट्रीय काव्य-परम्परा के शिखरों से परिचित होना, इस
पीढ़ी की ताकत कही जा सकती है। उनकी शक्ति इसमें भी है कि वे कविता में विषयों की
सम्भावनाओं का अभूतपूर्व विस्तार कर रहे हैं। स्थूल, दृश्यमान और प्रत्यक्ष
दिखते विषयों के आकर्षण से कई कदम आगे बढ़ चुका है आज का कवि। अब उसकी पहुँच
सूक्ष्म, अदृश्य और प्रत्यक्ष सत्यों तक है। वह ध्वनि का, तत्व
का, मर्म का शब्दकार बनता नजर आता है। चित्त को, बुद्धि और मानस
को उचित और अनुचित ढंग से प्रभावित करने वाले मायावी बाजारवाद को समझने में कामयाब
दिखती है यह पीढ़ी। इन सबसे अलग और उल्लेखनीय यह भी कि उसे सिमटती जा रही
सृजन-सत्ता की पीड़ा है, पलायन कर चुके मर्मी पाठकों को पुनर्जीवित करने
की चिन्ता है, और कविता का गौरव लौटाने का सपना उसकी आँखों
में अंगड़ाई लेने लगा है। समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, इतिहास, राजनीतिशास्त्र
के ज्ञान में दक्ष यह युवा वर्ग उसे साहित्यिक परिधि में लाने की कला सीख रहा है।
साहित्येतर विषयों को रचनात्मक दृष्टि से
मूल्यवान बनाने की दक्षता इस पीढ़ी की उपलब्धि मानी जा सकती है। इतना ही नहीं, बिना किसी घोषणा
के गाँव की ओर, जिला-जवार-जनपद की ओर खेत-पगडंडी, धूप-छाँव
की ओर ललक के साथ लौटने का विवेक भी युवा पीढ़ी की मूल्यवान ताकत है।
इन जरूरी और कीमती क्षमताओं से सम्पन्न रहने के
बावजूद युवा पीढ़ी के भीतर विषय से एकाकार होने की दक्षता खत्म होती जा रही है।
विषय से एकाकार होना, विषय के सम्पूर्ण सत्य को आत्मसात कर लेना है,
खुद
के व्यक्तित्व का उस विषय में रूपान्तरण कर लेना है, और अंग-अंग में
उस विषय का वजूद धड़कने लगना है। एक मात्र मनुष्य ही वह चमत्कार है, जो
सृष्टि की किसी भी दृश्य-अदृश्य, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सत्ता में
अपना व्यक्तित्वांतरण कर सकता है, अनुभूति और पारदर्शी कल्पना के बूते
विषय के स्तर-स्तर का साक्षात्कार कर सकता है और शताब्दियों से अज्ञात, अपरिचित
सत्यों का उद्घाटन कर सकता है। घटना, दृश्य, तथ्य और मनुष्य
के बारे में इतिहास, समाजशास्त्र, विज्ञान की ताकत
जहाँ समाप्त होती है, साहित्य और दर्शन की क्षमता वहाँ से आरम्भ होती
है। भक्तिकालीन कवि विषय को रचते नहीं थे, बल्कि खुद विषय बन उठते थे और फिर खुद
को ही अभिव्यक्त करते थे। मीरा मीरा कहाँ रह गयीं ? कबीर ब्रह्ममय
हो चले और गुरुनानक ? समूचा भक्तिकाल व्यक्तित्व और विषय की एकता का
अप्रतिम उदाहरण है। आज का युवा कवि दर्शक, विश्लेषक, चित्रकार और
गवाह है। वह विषय के सत्यों को सुमिरता नहीं, आह्वान नहीं
करता, अन्तरतम से पुकारता नहीं और न ही उसका सत् निचोड़ डालने की जिद विकसित
कर पाता है। बहुतेरे युवा कवियों की लाइलाज कठिनाई यह है कि वे विषय के स्थूल,
प्रत्यक्ष
और जाने-पहचाने यथार्थ में उलझे रह जाते हैं। वे ऊपरी सत्य की तरंगों में तैरते रह
जाते हैं, भीतर गोता नहीं लगा पाते। आकाश को पुकारो, आकाश उतर आयेगा
हृदय में, दिशाओं को पुकारो दिशाएँ चल पड़ेंगी आपकी ओर, पृथ्वी को पुकारो,
वह
उठ आएगी आपकी आत्मा में ! दिल से, दीवानगी से, चरम ईमानदारी से
बार-बार पुकार कर देखो तो।
युवा कवि समुदाय की दूसरी बीमारी विषयों की
महत्ता के प्रति समुचित, सम्पूर्ण न्याय न कर पाना है। उसे वह
मजबूत भाषा, सटीक शैली और सूक्ष्म व्यंजनात्मकता न दे पाना,
जिसका
वह विषय हक रखता है। सौ तरह के विषयों को उठा लेने मात्र से वे उठ नहीं जाते,
पूरे
नहीं हो जाते, सृजित नहीं हो जाते। कैसा आश्चर्य है - हूबहू
एक ही घटना, व्यक्तित्व, वस्तु पर
जाने-अनजाने पचास कवियों द्वारा लिखा-रचा जाता है, और वे घटनाएँ
व्यक्तित्व और वस्तुएँ अपने रहस्यों के प्रकाशन में बाकी रह जाती हैं। करेाड़ों
वर्षों से दृश्यमान सृष्टि और लाखों वर्षों से विकसित हो रहे मस्तिष्क और मन के
सत् को सृजन में निचोड़ लेने का दावा महज एक कल्पना ही हो सकती है। जब एक हरी दूब,
एक
पीली पत्ती, एक सूखा दरख्त, एक शुष्क चेहरा
सैकड़ों तरह की कविताएँ पाने की सम्भावनाएँ रखते हैं, तो फिर एक रंग
में फैले आकाश, एक ढंग से फैली पृथ्वी, एक रस में बहती
हवा और असीमित भंगिमाओं में फैली हुई सृष्टि की तो बात ही अलग है। लगभग हर विषय
अपनी मुकम्मल अभिव्यक्ति के लिए मौलिक भाषा, अभिनव शिल्प और
सशक्त कल्पनाशील दृष्टि की मांग करता है। विषय की सत्ता पर कवि की पकड़ असाधारण हो
जाय, इसके लिए चाहिए अथक साहस, जिद्दी किस्म का सृजन कौशल, दृश्य को विचार
में, मर्म में, दर्शन में तब्दील करने का चट्टानी संकल्प। जिस
तरह चित्र मात्र चित्र, दृश्य, केवल दृश्य और स्थूल सिर्फ स्थूल नहीं
है - उसी तरह पुरुष केवल पुरुष, स्त्री केवल स्त्री और जड़-सृष्टि मात्र
जड़ सत्ता ही नहीं है। बताइए, वह कौन सा दृश्य, अदृश्य,
स्थूल-सूक्ष्म,
प्रत्यक्ष
अथवा अप्रत्यक्ष सत्ता है, जिसे दर्शन या मौलिक विचारेां से
श्रृंगारित नहीं किया जा सकता। हर विषय की अपनी एक जुबान होती है, वह
आपसे लगातार बोल रहा है, बहुत कुछ कह रहा है सुनिए उसे। चेतावनी
दे रहा है - समझिए उसे, आपके द्वारा थोप दिए गए शब्द ‘जड़ता’
से
मुक्ति पाना चाह रहा है, अपनी सामंतवादी दृष्टि से आजाद करिए
उसे।
‘पहली बार’ (काव्य संग्रह - 2009)
के
बहाने बार-बार युवा परिदृश्य में दखल देने वाले संतोष कुमार चतुर्वेदी नयी सदी की
कविता के पहचाने हुए स्वर हैं। इतिहास, आलोचना, कविता और
सम्पादन में एक साथ सक्रिय संतोष कुमार अपनी गंभीर प्रतिबद्धता का विश्वास पैदा
करते हैं। वे अपनी शिक्षित बुद्धि को मथने वाले विषयों का चुनाव हिम्मत के साथ
करते हैं। एक साथ जनजीवन की दर्द भरी संघर्ष यात्रा और रहस्यमय अर्थ वाले कठिन,
असाध्य
विषयों को साधना किसी भी युवा कवि के लिए ‘रिस्क’ लेने जैसा है।
मगर संतोष कुमार अपनी अर्थ-अन्वेषक दृष्टि के बल पर इस रिस्क को अपने अनुकूल आसान
बना लेते हैं। अर्थ में ध्वनि के लिए, दूरगामी व्यंजना के लिए कविता में
अवकाश छोड़ना शर्त की तरह है। संतोष कुमार यह अवकाश सफलतापूर्वक पैदा करते हैं,
किन्तु
थोड़े-मोड़े शब्दों में नहीं, बल्कि हिक्क भर बातें कह करके।
अर्थासिक्त और मंत्रबद्ध शब्दों में कविता को तराश लेना किसी शिखर सिद्धि से कम
नहीं है। जी भर विस्तार करने का द्वारा ही अपनी रचनात्मक सोच का उद्घाटन करने वाले
संतोष कुमार को अपनी गद्यमय संवाद शैली पर पुनर्विचार करना चाहिए। पेशे नजर हैं -
सच्चाई शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ - ‘सच बोलना अब बिल्कुल मना है/ जो बोलेगा
वह ठिठुरेगा/ सड़क के किनारे पागलों की तरह/ लोग चिढ़ाएंगे उसे/ फेकेंगे पत्थर।’
(पहली
बार - पृष्ठ संख्या - 17)
पूर्वोत्तर भारत के समकालीन शब्दकारेां में
दिनकर कुमार का नाम प्राथमिक तौर पर उल्लेखनीय है। ‘क्षुधा मेरी
जननी’ और ‘लोग मेरे लोग’ जैसे जमीनधर्मी
संकलनों के द्वारा अपनी हस्तक्षेपकारी उपस्थिति दर्ज कराने वाले दिनकर कुमार
भावप्रवण सहजता का दामन कभी नहीं छोड़ते। दिनकर के लिए कविता शब्दों का खेल नहीं,
अर्थों
का घुमाव-फिराव नहीं- बल्कि अन्तर्वेदना को प्रतिरोध की धार देने का विकल्प है।
उनकी लगभग सभी कविताएँ संकल्प, बेवशी, जिद्द, और
बेहतर भविष्य की छटपटाहट लिए हुए हैं। ‘एक बोड़ो कवयित्री के गाँव में, भय
के फ्लाईओवर के नीचे, मुस्कुराओ, क्षुधा मेरी
जननी, एक किराएदार का एकालाप जैसी दर्जनों कविताएँ क्रूर समय के समक्ष मूक,
पीड़ित,
पराजित
जनता का बयान दर्ज कराती हैं। विषय के गूढ़ मर्म को बातचीत या वर्णन के अंदाज में
पेश करना आम पाठकों के लिए जहाँ उत्तम सिद्ध होता है, वहीं
साहित्य-मर्मियों के लिए कलाविहीन, साधारण और काफी हद तक अनाकर्षक भी।
इसीलिए कलात्मक सहजता का बेजोड़ सन्तुलन कालजयी कविता के लिए अनिवार्य घोषित
किया गया है । ‘जन्मभूमि’
कविता
में छलक-छलक उठा है सुदूर पीछे जा चुका अलबेला बचपन। ‘मरना पड़ता है’
कविता
में जीने की अपमानजनक शर्त का खुलासा किया गया है। ‘दरिद्रता का
उपनिवेश’ कविता विलक्षण वेदना के साथ आम भारतीय की दुखभरी और शाश्वत बदहाली का
सन्ना देने वाला चित्र प्रस्तुत करती है। देखिए चन्द पंक्तियों की छटपटाहट -
दरिद्रता के उपनिवेश में चलती-फिरती छायाएँ हैं/ छायाओं के सहारे चलती-फिरती
छायाएँ हैं/ छायाओं के आँसू - पोंछती हुई छायाएँ हैं। छायाओं को ढांढस बंधाती हुई
छायाएँ हैं। (क्षुधा मेरी जननी, पृ. सं. - 33)
एक सुपरिचित युवा कवि का नाम ‘निशांत’
है ;
उत्तर
प्रदेश का बस्ती जिला स्थायी पता है। अष्टभुजा शुक्ल का जनपद, सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना की जमीन। तो उल्लेखनीय यह है कि ‘जवान होते हुए
लड़के का कबूलनामा’ और जी हाँ लिख रहा हूँ’ .......... काव्य
संग्रह निशांत के हैं। अक्सर लम्बी कविताओं में अपनी प्रतिभा को सन्तुष्ट करने
वाले निशांत युवा मन की विविध दशाओं, संघर्ष, विवशता, गुमनामी,
प्रेमपीड़ा
के प्रतिबद्ध गायक हैं। पाँच प्रदीर्घ कविताओं का संकलन ‘जी हाँ लिख रहा
हूँ’ निशांत में सृजन की लम्बी साँस खींचने के धैर्य का परिचायक है।
निरपेक्ष और यथार्थपरक आत्मालोचन, आत्मान्वेषण की दृष्टि से महत्वपूर्ण
कविता ‘कबूलनामा’ निशांत की वर्तमान रचनात्मकता का पुख्ता उदाहरण
है। अपनी दुर्बलताओं, वासनाओं, दोहरेपन,
चालाकी,
नफरत
और स्वार्थी इच्छा की स्वीकारोक्ति कठिन साहस है। किन्तु ‘कबूलनामा’
में
निशांत ने यह साहस खुलकर दिखाया है। जिस तरह सभी विषय सृजन की कसौटी पर खरे उतरने
योग्य नहीं होते, उसी तरह क्षण-क्षण चित्त में उठते-गिरते,
बोलते-विलुप्त
होते अनवरत भाव भी। मर्मी और तत्वपूर्ण भावों का बारीकी से चुनाव करने की परिपक्व
दृष्टि विकसित करना निशांत के लिए अभी बाकी है।
कभी महाकाव्य को सृजन का मानदण्ड माना जाता था,
विलुप्त
हो गया वह। प्रसाद, निराला, पंत, मुक्तिबोध
और अज्ञेय जैसे शिल्पी कवियों ने लम्बी कविताओं की राह दिखाई और इस ढर्रे की मानक
कविताएँ सम्भव कीं। आज की युवा पीढ़ी लम्बी कविताएँ रचने के मोह में कैद है और अनेक
युवा कवि स्मरणीय लम्बी कविताएँ खड़ा करने की भरपूर कवायद कर रहे हैं, मगर
अफसोस। दूसरी ‘राम की शक्तिपूजा’ या ‘अंधेरे
में’ निकलना तो बहुत दूर ‘पटकथा’ (धूमिल) के आसपास
भी वे कविताएँ नहीं ठहर पा रहीं। दस्तावेजी लम्बी कविता की लकीर खींच देने वाला
फिलहाल एक भी युवा कवि नजर नहीं आता। कहना जरूरी है कि ‘राम की
शक्तिपूजा’, ‘अंधेरे में’ और ‘पटकथा’
के
शिल्पकार भी युवा ही थे।
दरअसल बड़ी कविता सिर्फ प्रतिभा, कलात्मक
दक्षता और निरन्तर शब्दाभ्यास से नहीं, बल्कि तपे और तराशे हुए व्यक्तित्व,
अंग-अंग
में कसी हुई इंसानी भावाकुलता, अपराजेय अन्तर्दृष्टि और मानवमूल्येां
को जीने की दीवानगी से सम्भव होती है। उर्जस्वित व्यक्तित्व को पाए बगैर कलम के
मैदान में उतरना, अनाड़ी सैनिक की तरह कच्चे हाथों से तलवार
भांजने जैसा है। युवा कवियों के शब्दकोश से ‘व्यक्तित्व’
शब्द
बेतरह नदारत हो चला है। यहाँ तक कि अनाम रहने के दिनों में जो ताजातरीन जेनुइन
भावुकता और ईमानदारी बची हुई थी, वह भी उसकी प्रसिद्धि और
प्रतिष्ठा के भेंट चढ़ जाती है । साहित्य में अपना कद पा लेते ही, व्यक्तित्व में बौनों को भी पीछे छोड़ देना आज
के क्या युवा, क्या बुर्जुग लगभग सभी साहित्यकारों की नियति
बन चुकी है। रचनाकार के व्यक्तित्व का अर्थ है - अनेाखे एहसासों का टटकापन,
मौलिक
अर्थों, तथ्यों और विचारों की निरन्तर खोज करते रहने की उत्कट दीवानगी,
और
अपनी कलम को अपने व्यक्तित्व से आगे न निकलने देने का अखण्ड संकल्प।
कवि या सर्जक के द्वारा आत्मसात किया गया ज्ञान
ही उसकी रचनात्मकता की मूल ताकत बनता है। वह कलात्मक प्रतिभा लगभग अंधी और विकलांग
है, जिसमें विविध ज्ञान का बल नहीं भरा है। यह ज्ञान समाज, इतिहास,
राजनीति,
धर्म,
दर्शन,
मानव
विज्ञान, मनोविज्ञान, व्याकरण, इत्यादि किसी भी
क्षेत्र से सम्बन्धित हो सकता है। साहित्य में सृजन की मौलिकता और जादुई कलात्मकता
बद्धमूल है। कलम तो वही है जो इतिहास, समाज, मनोविज्ञान,
दर्शन
के सत्य को चित्ताकर्षक अन्दाज-ए-बयाँ में प्रकाशित कर दे। तात्विक ज्ञान को
कलात्मकता की धार देकर साहित्य में प्रकाशित कर दे। तात्विक ज्ञान को कलात्मक की
धार दे देना साहित्य कहलाता है। जीवन का ऐसा कोई भी पक्ष नहीं, जिसे
साहित्य में अभिव्यक्त न किया जा सके। प्रकृति, जड़-चेतन सृष्टि
और अमूर्त यथार्थ के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। आज के युवा कवि के सामने
न सिर्फ योग्य व्यक्तित्व के गठन की चुनौती है, बल्कि समय के
दृश्य-अदृश्य यथार्थ को, सूक्ष्म-स्थूल ज्ञान को, आत्मसात
करने की भी चुनौती है। युवा कवि का अपनी परम्परा के श्रेष्ठ से सुपरिचित होना,
उसके
मौलिक कर्तव्य के अन्तर्गत है ही, विविध ज्ञान के हर रंग का ग्राही होना
भी जरूरी शर्त की तरह है। ज्ञान देता है - तर्क की समझ, ज्ञान देता है -
गहरा आत्मविश्वास, ज्ञान देता है - उचित संदेह करने का साहस। यह
ज्ञान पहले तथ्य, फिर चिंतन, फिर संस्कार और
अन्ततः स्वभाव का रूप धारण करता है। इस प्रकार सृजन के श्रेष्ठ और ज्ञान के
विस्तार से सम्पन्न युवा सर्जक अपने आप ‘कलम का सिपाही’ बन उठता है।
यथार्थ के स्थूल और दृश्य सत्य को जान लेना, जितना ही आसान
है, उसके अदृश्य, सूक्ष्म और अभौतिक सत्य को, आन्तरिक
मर्म को छू लेना, समझ जाना, आत्मसात करना
उतना ही कठिन। युवा पीढ़ी अभी फिलहाल यथार्थ के बाह्य रूप को जानने तक ही सीमित है।
विषय के बाह्य सत्य से अन्तःमर्म तक की यात्रा कवि के साधारण से असाधारण बनने की
चरम यात्रा है।
युवा कवयित्री ज्योति चावला समकालीन कहानी में
भी दखल रखती हैं। ‘माँ का जवान चेहरा’ जो कि ज्योति का
पहला काव्य-संकलन है - निश्चय ही एक संवेदनशील सृजनस्वर का मजबूत प्रमाण देता है।
जीवन के छोटे-छोटे संघर्ष, आत्मपीड़ा, दुश्वारियाँ,
अनगढ़
आत्मीयता, सम्बन्धों की अवर्णनीय अभिन्नता और आसपास के समाज में पसरे यथार्थ का विश्वसनीय आइना हैं ये कविताएँ।
ज्योति बिल्कुल सहज-स्वाभाविक अंदाज में विकसित करती हैं कविताएँ और उसे
अभिव्यक्ति का चरम रूप देते-देते किसी न किसी मर्मस्पर्शी भाव से प्रज्ज्वलित कर
देती हैं। वे कहानीकार हैं तो स्वाभाविक है - कविताओं में भी जाने-अनजाने कहानी की
दखल रहे। यह कुछ अनुचित भी नहीं, किन्तु कथात्मकता की अति कविता में
मूल्यवान गैप के रेामांच को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। ज्योति चावला ने अपनी कविताओं
में अपने कहानीकार को सजगतापूर्वक
सन्तुलित किया है, किन्तु सभी कविताओं में यह प्रयास नहीं सध पाया है ; इसीलिए
कुछ कविताएँ अतिरिक्त ग़द्यात्मकता का तनाव पैदा करती हैं। दयाराम, अधूरा
अक्स, सच, एक सवाल, सुईधागा,
पुराने
घर का वह पुराना कमरा, माँ का जवान चेहरा ऐसी अनेकअर्थी कविताएँ
बार-बार ज्योति चावला के भावी समर्थ कवयित्री का विश्वास जगाती हैं। कुछ पंक्तियाँ
- सोचती हूँ कि काश होता एक ऐसा ही/ सुई और धागा मेरे पास भी/ होता ऐसा ही कौशल
साध लेने का/ तो सिल देती दो टूक हुए हृदय को। (सुई-धागा ; पृ. सं. 26,
माँ
का जवान चेहरा)
धूमिल की ‘पटकथा’ या
भगवत रावत की कविता - ‘कहते हैं कि दिल्ली की है आबोहवा कुछ और’
जैसी
कविताओं को समकालीन कविता की उपलब्धि के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है।
विजेन्द्र, नरेश सक्सेना, मंगलेश डबराल,
उदय
प्रकाश, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति, अरुणकमल,
कात्यायनी
जैसे वर्तमानदर्शी कवियों ने अपनी-अपनी क्षमतानुसार हिन्दी कविता को ताकत दी है।
कुँवर नारायण और केदारनाथ सिंह की भूमिका को भी बेहतर योगदान के रूप में रेखांकित
किया जाना चाहिए। किन्तु एक सवाल, एक आश्चर्य, एक पहेली,
बार-बार
मन में सिर उठाती है कि समूचे 40 वर्ष की समकालीन कविता एक मुक्तिबोध,
एक
नागार्जुन या एक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला क्यों नहीं पैदा कर सकी ? ‘सरोज
स्मृति’, ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘अंधेरे में’
की
गौरव-यात्रा जहाँ की तहाँ क्यों ठहरी हुई है ?समकालीन कविता
ने अपनी धरती, अपना आकाश, अपनी दिशाएँ तो
बना लीं, किन्तु रात को दिन में तब्दील करने वाला आफताब किधर है ? प्रसिद्धि,
स्थापना,
पुरस्कार
की सत्ता जैसे-जैसे विकसित हुई हे, वैसे-वैसे कविता ने अपनी शिखरत्व की
संभावना को खोया। सृजन के बृहत्तर सरोकारों से लगभग कटा हुआ समकालीन कवि बड़ी
तैयारी की काबिलियत खो चुका है। सम्पूर्ण मानव जीवन के लिए समर्पित होने से पलायन
करने वाला समकालीन कवि अपने प्रतिभा के विकास को कौन कहे, जितना वह है -
उसे भी ढंग से नहीं बचा रहा। इस दौर में अधिकांश कवियों की जद्दोजेहद अपने नाम का
सिक्का चल जाने तक है - दृश्य में कुछ उजास आए, न आए, हताशा,
निराशा,
नाउम्मीदी
की धुंध छँटे, न छँटे आज के कवि को फर्क नहीं पड़ता। जीते जी
उसने अमरता का स्वाद चख लिया, अपनी जय-जयकार का अमृत कानों से पी
लिया, फिर किस बात की चिन्ता ? कविता का सेंसेक्स लगातार गिर रहा है
और हमारे कवि गजब की बेफिक्री में झूमते-गाते चले जा रहे हैं।
समय की प्रतिनिधि रचना सर्वगुण ग्राही
व्यक्तित्व की मांग करती है। ऐसा व्यक्तित्व जो दूसरों की क्षमता, प्रतिभा
और कला को सीखने में सिद्धि हासिल किए हुए हैं। रचनात्मक क्षमता का धनी व्यक्तित्व
दूसरे सर्जक की प्रतिभा से यदि सीखता है तो हूबहू प्रभाव ग्रहण करने के अर्थ में
नहीं, बल्कि उस प्रतिभा के मर्म को ‘रीक्रिएट’
या
ट्रांसक्रिएट करने के अर्थ में। निराला, मुक्तिबोध या नागार्जुन को पढ़कर यदि हम
उन्हीं की नकल करने पर उतर आए तो उनकी रचनाशीलात से क्या सीखा, खाक
? निराला से सीखने का अर्थ है - उनकी संकल्पमय मेधा का आह्वान करना है,
अपने
भीतर उदार खुद्दारी का निरालापन लाना है । मुक्तिबोध से सीखने का अर्थ ईमानदारी के
साथ परमभक्त की तरह पेश आना है, और अपनी एक-एक कविता को घातक समय से
लोहा लेने के लिए हथियार की तरह
चमकाना है। अपनी एक भी कविता को यूँ ही खर्च नहीं कर देना
है, जो पाठक की चेतना में बिना कोई हलचल पैदा किए समाप्त हो जाए। ठीक इसी
तरह नागार्जुन। सीखिए इनसे दुस्साहस, कबीरी फक्कड़ता, उपेक्षितों के
साथ जीने-मरने की आश्चर्यजनक दीवानगी और सीमाओं को चुनौती देने का अखण्ड विवेक।
बड़ी रचना का सम्बन्ध पेजों की संख्या, मौलिक शैली, भारी-भरकम भाषा
या विषय की नवीनता से बिल्कुल ही नहीं है। बल्कि वह तो सर्जक के आत्मदर्शी संकल्प,
ऊँची
अभिव्यक्ति की जिद, विषय के स्तर-स्तर में घुसपैठ लगाने की हुनर और
मर्म के अनुकूल समर्थ भाषा साधने की क्षमता पर निर्भर है। बड़ी रचना सौ-सौ पेज खर्च
कर डालने के बावजूद सम्भव नहीं, यदि सर्जक में अभिनव व्यंजना की झंकार
भरने की जिद नहीं है तो। शब्द लिखे, तो मानो हृदय के टुकड़े पिरो रहा है।
वाक्य रचे तो मानो अपनी धमनियाँ बिछा रहा है। अर्थ को कुछ इस तरह मथे मानो भावों
को चिंतन की आँच में खौला-खौला कर पका रहा है। इसमें क्या दो मत कि बड़ी रचना चाहत,
महत्वाकांक्षा
या अभ्यास से नहीं, बल्कि अपने भीतर रौशन आत्मा की सिद्धि से सम्भव
होती है।
प्रो.भरत प्रसाद
अध्यक्ष- हिन्दी विभाग, नेहू,
शिलांग
मोबा. ०९७७४१२५२६५
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