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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 अगस्त, 2020

रंजना मिश्र की कविताएँ

 

रंजना मिश्र




पंडित जसराज के लिए

 

( षडज) 

उजाले के होते हैं नन्हे द्वीप

नन्ही कंदीलें अपने भीतर बसाए

क्या बसता है तुम्हारे भीतर?

 

( ऋषभ) 

याद है मुझे

कई बरस पहले भज गोविंदम सुनते हुए

भीतर कहीं कुछ दरक गया था

रोशनी की एक किरण

उस अंधेरी गुफा तक जा पहुँची

जहाँ बैठा था

ढेर सारा डर

काले रंग का संशय

और गहरा भूरा अविश्वास

क्या वह दुख था पंडितजी?

अलग अलग मुखौटे लगाए

आत्मा के मुख्तलिफ कोनों में छिपा?

जीता जागता, साँसे लेता - तार सा पर ठहरा दुख

जो नि ध म और कोमल ग की सीढ़ियाँ उतरता

बह आया था आँखों के रास्ते

पिघलते हैं विशाल हिमखंड जैसे

 

(गंधार) 

मैं बार बार लौटी

भटकती रही

उन सुरों के इर्द गिर्द

अपने दुखों का मुआयना करती

जैसे भटकते हैं हम

सूने पवित्र खंडहरों में

जो अब रहने लायक नहीं

प ध नि, प ध सा ने समझाया

दुख ही तो है -

ठहरेगा नही देर तक

किसी स्वर पर

चंचल प्रकृति सिर्फ़ लक्ष्मी की नहीं होती

'मेरो अल्लाह मेहरबान' के साथ

मन देर तक तिरता रहा

आश्वासन की उंगली थामे

औलिया पीर पैगंबर ध्यावे' के साथ सारे भ्रम रह गए पीछे

गोविंदम गोपालम सुनते हुए जाना कि

मन न तो आस्तिक है न नास्तिक

वह तरल होता है

और ढूंढता है एक लय

जो उसे भर दे

अथाह सुख से

मैदानों में धीमी गति से बहती नदियाँ देखी हैं न?

 

 

 

 

(मध्यम) 

गोविंद दामोदर माधवेति सुनते हुए

कृष्ण आ खड़े हुए सामने

मैने तो नहीं देखा किसी मिथकीय कृष्ण को

न ही कोशिश की उस कृष्ण को जानने की

जो प्रेमी से योद्धा में बदल गया

पर जब तुम गाते हो

तो प्रेमी का दुख और योद्धा की विवशता

मेरी कल्पना में एकाकार हो उठते हैं

उस दिन जब आपने गाया

पवित्रम परमानंदम, त्वम वन्दे परवेश्वरम

तो मैं जान गई

अगर होगा कहीं परमेश्वर

तो वह अपनी दुनिया आपके सुरों के सहारे छोड़

आपके सुरमंडल में डूबता उतराता होगा

उठा ली होगी उसकी दुनिया आपके सुरों ने

अपने काँधे पर

वैराग का रंग तो जोगिया होता है पंडित जी

वह कैसे सुर में गाता है?

 

(पंचम) 

कौन से दुख की पोटली छिपाए फिरते हो ?

कालिघाट की प्रोतिमा क्या अब भी छुपी बैठी है कहीं ? स्वरों में?

आप जानते हैं न

वे आपसे मिलने आई थीं

विदा नहीं ले पाईं

बस चली गईं

फिर लौट नहीं पाईं

आप ज़रूर जानते हैं

पीड़ा के कितने सप्तक काफ़ी होते हैं

सुख के एक क्षण का न्यास जीने के लिए

और सुख अगर देर तक ठहर जाए

तो अनुवादी से पहले विवादी में क्यों बदल जाता है

उस दिन जब दुख के अति तार से प्रोतिमा का हाथ थामकर

आप उन्हें प की साम्यावस्था तक ले आए थे

तो क्या वह उनकी नई यात्रा की शुरुआत थी?

 

(धैवत) 

आपके स्वर कहते हैं

सुखावसानम ईदम एव सारम

दुखावसानम इदं एक ध्येयम

सारे सुख, दुख की यात्रा करते हैं

और सारे दुख लौट पड़ते हैं

सुख के घर

ये कैसा सूत्र है जो

मुझे मुक्त करता है

विशाल और उदार को इंगित करता है

ठीक तुम्हारे स्वरों की तरह?

कौन हैं आप पंडितजी

स्वर्ग से निषकासित कोई गंधर्व

कोई संत वैरागी

अपने स्वर में उजाले बसाए जो घर घाट गाता फिरता है

और मन को बार बार

पंचम की स्थिरता तक ले आता है

ठीक उस कृष्ण की तरह जिसने युद्ध के मैदान में अर्जुन को गीता समझाई थी

 

(निषाद) 

नहीं जानती आपका दुख मुझे खींचता है

या उस के पार जाकर स्वरों में ढूँढना उसका संधान

जानती हूँ तो बस इतना ही

जब तक रोशनी अपना सुरमंडल लिए

बैठेगी मंच बीचोबीच

उज्ज्वल हो जाएगी यह धरती

सातों आसमान

और मेरा मन

मैं आश्वस्त हूँ

कि बार बार लौटूँगी

घनीभूत पीड़ा के अंतहीन क्षणों से

तुम्हारे स्वरों तक

अपनी ही राख से

नया रूप धर कर.

 

****

 

नोट: संगीत की व्याकरणीय शब्दावली के कुछ शब्द हैं इस कविता में, वैसे वे हिन्दी के शब्द ही हैं और उनका मतलब भी कमोबेश वही रहता है जैसे सप्तक = सात स्वरों का एक सप्तक होता है. अनुवादी - राग की सुंदरता बढ़ाने के लिए अल्प मात्रा में प्रयुक्त स्वर, विवादी - राग में जिस स्वर के प्रयोग से विवाद उत्पन्न हो जाए, और न्यास - ठहराव, हर राग में ठहरने के कुछ निश्चित स्वर होते हैं, उन्हें न्यास के स्वर कहते हैं. तार सा - मध्य सप्तक की सा, जहाँ से क्रमशः स्वर ऊँचे होते जाते हैं. अति तार - तीसरे सप्तक की सा.प अपनी जगह नहीं छोड़ता, सा की तरह - इसलिए इन्हें स्थिर स्वर कहते हैं.

 - रंजना मिश्र, पुणे


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