समीक्षा
उन्हीं में पलता रहा प्रेम (काव्यसंग्रह) : पूनम शुक्ला
राजकिशोर राजन (पटना)
कविता के प्रयोजन जीवन से अलग नहीं होते और जीवन को प्रेम ही पालता है, बचाता है, जिस प्रकार नदियों को बचाता
है पानी, सुगंध को फूल, धरती को वनस्पतियां। ‘उन्हीं में पलता रहा प्रेम ‘ शीर्षक कविता के नाम पर ही
संग्रह का नामकरण किया गया है अतएव उसी कविता से बात शुरू की जाये। इस कविता में
स्त्री जीवन के भीतर और बाहर का यथार्थ विशिष्टता के साथ व्यक्त हुआ है। कवयित्री
की सघन संवेदना अनुभूति का हिस्सा बनकर अभिव्यक्त होती है और विरुद्धों का
सामंजस्य इस कविता में विशेष रूप से अवलोकनीय है। आतंरिक लय और सहजता के कारण
कविता पठनीय भी है------
रास्ते रुके
पर चलते रहे कदम
हवा रुकी
पर चलती रही श्वास
आँखें खुलीं
चेहरे पर उड़ती रही राख
बादल ठिठका
पर स्नेह की बारिश हुई
सूरज दूर से झांकता रहा
बोए गए बीज नफ़रत के
उन्हीं में पलता रहा प्रेम
पूनम शुक्ला की कविताएँ ऊपर से जितनी सहज प्रतीत होती हैं वैसी हैं नहीं। इनकी
काव्यभाषा पाखंड का चादर तान पगुराने वाली नहीं हैं। भारी-भरकम शब्द और चालाकी ऐ
सिले वाक्य हमें चकित भले कर दें, बुद्धि को प्रभावित भले कर दें पर उनमें
मिलने-खिलने-बतियाने की ताकत नहीं होती। वे बस कागज़ पर अकड़ते रहते हैं। इनकी एक
कविता है ‘फूल, पत्तियां, फल ‘। यह बड़े फलक की कविता है
और बड़े फलक की कविता सिर्फ भाषा या शिल्प से नहीं जीवनानुभवों से उपजती है। दरअसल, कवि का जीवनानुभव, उसका जीवन ही कविता का जीवन
है। जिस कवि का जीवन, जितना बड़ा होगा, उसकी कविता भी उतनी बड़ी
होगी। अगर कोई बकरी का जीवन जिए और बाघ, पहाड़ पर कविता लिखे तो वह
स्वतंत्र है, लिख सकता है पर रेणु के शब्द में कहा जाए तो वह ‘धुरखेल ‘ ही होगा। इस कविता में कभी
न हार माननेवाली ज़िद, विषम से विषम परिस्थितियों में भी अटूट भरोसा और हौसले की
उड़ान है। इस संसार में जिसके पास जितना है वह उतना ही दरिद्र है। जिनके पास
रंग-बिरंगे फूल हैं उनके पास सुगंध की कमी है, जिनके पास फूल और सुगंध
दोनों हैं उनके पास रंग की कमी है। पर जिनके पास कुछ भी नहीं है वे अदम्य उत्साह
से आगे बढ़ते जाते हैं क्योंकि यहाँ जीवन में पल -पल संघर्ष है और जहां संघर्ष है
वहीं जीवटता है, जिजीविषा है, गति है यानी जीवन है--
जिनके पास रंग-बिरंगे फूल थे
उनके पास सुगंध की कमी थी
जिनके पास फूल थे सुगंध थी
उनके पास रंग की कमी थी
दरअसल, जीवन-जगत से अजहद प्रेम करने वाला ही संसार की समस्त
कुरुपताओं-विद्रूपताओं के खिलाफ खड़ा हो सकता है और संसार को सुन्दर बनाने का सपना
बुन सकता है। जो लोग महज ज्ञानी-गुणी -बुद्धिजीवी हैं वे एक वक्त के बाद
निराश-हताश हो जाते हैं और कई बार तो पाला भी बदल लेते हैं। इन कविताओं में
जीवन-जगत के प्रति असीम राग है और इसीलिए उसे प्रेम, सपनें तथा संसार पर भरोसा
भी है।
इन दिनों स्त्री-विमर्श सहित विभिन्न विमर्शों से कविता की दुनिया विस्तृत हुई
है पर उसी मात्रा में नारे, टिप्पणियों, सूचनाओं का जाल भी फैला है, जिसका जीवनानुभव से
रंचमात्र भी सम्बन्ध नहीं। मार्क्स को पढ़-लिख-गुन कर आप कलावादी तो बन सकते हैं, जनवादी नहीं जब तक की आपका
सम्बन्ध श्रम से नहीं हो, आपका जीवन वैसा नहीं हो। आज हिंदी कविता ही नहीं समाज भी
इसी प्रकार के नकली जनवाद से आक्रांत है। संतोष की बात है कि संग्रह की कविताओं
में एक ईमानदारी है, दूसरे की देखा-देखी नहीं है। इस संग्रह की कविताओं में
विविधता है, विभिन्न विषयों पर कविताएँ हैं और सबसे बड़ी बात की ये मौलिक
हैं। प्रेम से लेकर समाज, राजनीति, पर्यावरण, आधुनिकता, स्त्रीविमर्श आदि विषयों पर ये कविताएँ आधारित हैं पर उनके
केंद्र में प्रेम, मनुष्यता और समानता है। संग्रह
की पहली कविता ‘लिखो कि उग आएं सबमें पंख ‘राजनीति के चरित्र को
उद्घाटित करती है। कविता साफ़ साफ़ शब्दों में प्रश्न करती है कि राजनीति पर अनगिन
कथाएँ, कविताएँ लिखी गयीं, फ़िल्में बनीं पर कहाँ कुछ
बदला!अब इस राजनीति पर लिखना व्यर्थ है, बेहतर हो हम ऐसा लिखें कि
उग आएं सबमें पंख। कहने का आशय की कवयित्री को नहीं लगता की जड़ राजनीति का चरित्र
बदलेगा, उससे कोई परिवर्तन होगा। ऐसी सोच आज करोड़ों लोगों की सोच भी
है जिनका राजनीति से मोह भंग हो चुका है। इस देश में राजनीति अब व्यापार है जिसमे
देश और समाज को बदलने की आकांक्षा सिरे से गायब है। बड़े बड़े पूंजीपतियों के बल पर
सरकारें चलती हैं जबकि करोड़ों लोगों को लगता है कि सरकार उनके द्वारा ही चुनी हुई
है। कवयित्री का मानना है कि परिवर्तन बिना राजनीति के भी हो सकता हैं अगरचे हम
सभी में इसके प्रति प्रबल कामना हो। वाल्तेयर ने कहा है कि ‘लोग जैसे होते हैं, वैसी ही उन्हें सरकार मिलती
है ‘ तो क्या इस देश में सिर्फ राजनीति से पीछा छुड़ाने से बात बन
जायेगी!मेरा मानना है नहीं। राजनीति के तह में जाना होगा जहाँ आंदोलनकारी इरोम
शर्मिला को उंगलियों पर गिनने लायक वोट मिलते हैं वहीं डकैत, लुटेरों को जनता भारी मतों
से अपना प्रतिनिधि चुनती है। यह भी हो सकता है कि समाज में किसी जननायक के नहीं
रहने के कारण आमजन के पास कोई विकल्प नहीं हो। परिवर्तन लानेवाले बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार आदि अपनी महत्तर
भूमिका को तिलांजलि दे अब राजनीति के आगे आगे नहीं किसी न किसी राजनितिक दल के
पीछे ढोल बजाते चल रहे हैं और स्वयं की करनी से आमजन से बुरी तरह से कट गए हैं। याद
रखना होगा कि कविता कवि की कथनी नहीं, उसकी करनी है। आज हम दिल पर
हाथ रख ईमानदारी से स्वीकार कर सकते हैं कि मेरी कविता, मेरी कथनी नहीं, मेरी करनी है। उत्तर स्वयं
मिल जाएगा। जैसा कि त्रिलोचन ने लिखा है---
दौड़ दौड़कर असमय समय न आगे आये
वह कविता क्या जो कोने में बैठ लजाये
संग्रह की कविताएँ कोने में बैठ लजानेवाली नहीं हैं, वे विभिन्न मुद्दों पर खुल
कर अपना पक्ष रखती हैं, इनसे सहमति असहमति हो सकती है और होना भी चाहिए चूँकि कविता
के प्रजातंत्र में इसकी गुंजाईश नहीं होगी तो फिर कहाँ होगी।
स्त्री विमर्श, दलित विमर्श हिंदी में भी अपनी स्वतंत्र पहचान बना चुके हैं
पर जरा ठहरकर गौर करें, साहित्य का उद्देश्य क्या
है, वह तो चर-अचर सबको जोड़ता है, हम आज जोड़ रहे हैं कि तोड़ रहे हैं!वैसे इन विषयों पर चर्चा करने का यह उचित
स्थान नहीं है। इन दिनों स्त्री विमर्श के नाम पर जो लिखा जा रहा है वह अपनी जमीन
और जड़ से कटा हुआ आयातित विमर्श ही प्रतीत होता है जो समग्रता से गांव-गिराम को
मिला वस्तुस्थिति का निरपेक्ष मूल्यांकन नहीं करता अपितु एक कृत्रिम महानगरीय
चर्चा करता है और तुर्रा यह की प्रतिरोध खड़ा करता है! इस संग्रह में कई कविताएँ हम स्त्री विमर्श के
अंतर्गत रख सकते हैं पर फर्क है कि वे जड़-जमीन से जुडी हुई हैं और अनुभवसिक्त हैं।
उन्हें अपनी मिट्टी से उखड़ना स्वीकार नहीं। जैसे कि ‘शरीर धरने का दंड ‘, ‘विस्तार चाहती हूँ ‘, ‘झाँकने लगता है एक हरा पत्ता ‘ आदि। इन कविताओं में
विभिन्न कोणों से स्त्री की पीड़ा, नाइंसाफी, गैर बराबरी, शोषण को अपने अनुभव के आंच से दीप्त कर कवयित्री ने शब्द दिया है। पर यह
स्त्री तमाम प्रतिकूलताओं के मध्य अपना पथ स्वयं प्रशस्त करती है। न वह शोक करती
है न हारती है न हताश-निराश हो धम् से धरती पर बैठती है। चलताऊ स्त्री विमर्श यहाँ
नहीं है कि ‘सब दोष नन्द घोष ‘ और फिर अवकाश। इन कविताओं
में अपने पर भरोसा रखनेवाली खुदमुख्तार स्त्री का स्वर गूंज रहा है। इस संग्रह में
स्त्री एक देह से मुक्त एक व्यक्ति के रूप में खड़ी है। इन कविताओं में स्त्री
सिर्फ पुरुष पर आरोपों की झड़ी लगा कर सुबकती स्त्री विमर्श की इतिश्री नहीं करती
अपितु अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है। इन कविताओं में काँटों के बीच भी एक हरा
पत्ता झांकता है।
एक बेहतर दुनिया का सपना इन कविताओं में पलता है, जीने और रहने लायक दुनिया
जहां प्रेम पलता रहे, जरे-मरे और कुम्हलाये नहीं। कवि और कविता का सपना भी तो यही
है ठीक ऐसे समय में जब प्रेम को नष्ट करने में संसार लगा है।
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आर्य प्रकाशन मंडल
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