सतीश छिम्पा |
अमर शहीद पाश :-- कुछ बेतरतीब नोट्स
और नामदेव ढसाल
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पाश की पहली कविता
1967 में छपी थी। यह वही समय था जब युवा रक्त
की गर्मी इंकलाब के लिए सदियों की जमी बर्फ को पिघला रही थी। उस वक़्त वे भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी से सीधे नही जुड़े हुए थे, बहुत बाद में वे और उनके मित्र आदि बाबा बुझासिंह आदि की
पार्टी क्लास और उसी से आगे इस लहर में शामिल हुए, क्रांतिकारी रूप में नहीं बल्कि- सिमपेथाईजर रूप में, आगे जाकर वे नागा रेड्डी गुट से संबंध
हुए। पर खुद को क्रांतिकारी रूप से हमेशा दूर रखा पाश की राजनीतिक
गतिविधियां काफी तेज रही हैं। वह जब क्रांतिकारी था ही नही तो उस रूप में उनकी
मुख्य पहचान किसी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बनी, बल्कि एक क्रांतिकारी और जुझारू कवि के
रूप में भी।
पार्टियों के नियम, गुण और वहां पैठी जीवित सोच उसकी
समझ से बाहर ही रही। दर्शन की गम्भीरता, द्वंद्वात्मक सिद्धांतो की कम समझ और अराजक वय हर...
पाश को हर एक गूढ़ बात कचोटती थी। यह पाश की खीज नही थी बल्कि उसकी खुद
की नासमझी का दुख था। जो इस भटकी कविता की लाइन में है : ‘यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था / कि दुनिया के सबसे
पवित्र शब्द ने / बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊं / मार्क्स का सिंह जैसा सिर /
दिल्ली के भूलभुलैयों में मिमियाता फिरता / हमें ही देखना था / मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे समयों में होना था...
9 सितम्बर 1950 को तलवंडी सलेम, जिला जलंधर में जन्मे थे अवतार सिंह संधू
मगर पाश का जन्म हुआ था 1967 के नक्सल किसान उभार से, खेतों के इस बेटे ने ना सिर्फ खेतों
बल्कि कविताओं में भी अपना लहू और पसीना बहाया था। पाश जो पंजाब का लोर्का थे, लोर्का की तरह ही शहीद हुए थे। मगर पाश
मरा कब करते हैं, फिदेल के शब्दों में कहूँ तो "
विचारों का वध सम्भव नहीं", पाश आज भी युवाओं, छात्रों के दिलों में जीवित है। हत्यारों
का अस्तित्व मटियामेट हो गया और यह लाल यौद्धा अमर है। अमर शहीद अवतार सिंह पाश की
डायरी के कुछ अंश जो यहां देने जरूरी हुए :-
अनुवाद (सतीश छिम्पा)
7 जनवरी 1982
" वो मेरा वर्षों को झेलने का गौरव देखा
तुमने
इस जर्जर शरीर में लिखी
लहू की शानदार इबारत पढ़ी तुमने
कविता हो ना हो, इतिहास को यूँ साँस लेते हुए
मृत शरीर की ज़िंदा लोथ के साथ
मात्र शरीर के धागे से जुड़ा होना, देखा तुमने "
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27 दिसम्बर 1971
" आज का दिन गुल दाउदी के फूलों जैसा था, सुगंध रहित। मैं इस में गुलमोहर के नक्श
तलाशता हूँ।"
(प्रभ जी आप आए, बस आए और आ ही गए)
11 अगस्त 1972 (डायरी, पाश)
" मैं सोचता हूँ, रूस में अगर कोई लेनिन ना होता तो वहां
गोर्की का पैदा होना बिलकुल ही असम्भव था। घटनाओं को संतुलित रखकर समय को आगे
बढ़ाना किसी बहुत महान सियासतदान का काम है। और अगर समय ऐसे ना बढ़ता तो गोर्की की
मनुष्य मात्र की अच्छाई प्राकृतिक सी होकर रह जाती।
भारत में नए लेखक
गोर्की से मिलते जुलते नाम रखने की कोशिश कर रहे हैं, पर यहां लेनिन कहाँ हैं। लेखक आखिर समय
का पैर भी नहीं उठा सकते हैं। मनुष्यों को मुहब्बत करना बहुत मुश्किल है और इससे
सुंदर कुछ भी रचा नहीं जा सकता।"
और पंजाब का भी एक
लोर्का था..... लोर्का, जिसकी कविता 'एक बुल फाइटर की मौत' कविता सुनकर तानाशाह फ्रांको ने कहा था,"यह आवाज़ चुप होनी चाहिए।" और
फ्रांको के पिट्ठुओं ने लोर्का का कत्ल कर दिया,मगर लोर्का न सिर्फ स्पेन में बल्कि विश्व में अमर हो गया,उसी तरह पंजाब में 23 मार्च 1988 को तलवंडी सलेम
में अपने खेत में लगे ट्यूबवेल पर नहाते वक्त मित्र हंसराज के साथ अवतार सिंह
सन्धु पाश की आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी।सत्तर के दशक में
नक्सलबाड़ी लहर के आग्गु क्रांतिकारी कवि पाश न केवल पंजाबी बल्कि विश्व कविता में
महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं,पाश ने खुद लिखा है कि,"जो सफ़र मेरी कविता ने किया उसी तरह का
सफ़र मेरे जीवन का है।मार्क्सवाद के बारे में गहन शिक्षा सीपीआई के पार्टी स्कूलों
में हासिल की,ज़िन्दगी के बारे में प्रगतिशील नज़रिया
हासिल करने के बावजूद अगर मुझे 1970 के शुरू में
नक्सली कॉमरेडों से मेलजोल रखने के लिए जेल ना हो गयी होती तो अब तक मैं
मोहब्बत और पहचान के निगुणेपन आदि विषयों पर लिखने वाला कवि होता।"
"किरचां खिंडा दिंदी सी पाश दी
कविता" नामक संस्मरण में पाश के दोस्त शमशेर सन्धु लिखते हैं कि,-
"जगराओं के एल.आर.एम. कॉलेज में कवि
दरबार था जिसमे पाश को लाने की जिम्मेदारी मेरी थी।कवि दरबार शुरू होने लगा तो पाश
कहने लगा, "मैं तो आधे'क मिनिट की कविता सुना के खे'ड़ा छुड़ा लूंगा। तेरे आड़ी का मान रख लूंगा पर मुझे बार-बार स्टेज पर और कविताएँ
सुनाने के लिए मजबूर मत करना। पाश ने वहां जो छोटी सी 9 लाइनों की कविता सुनाई उसकी याद ज्यों की
त्यों तरोताज़ा है। पाश ने अभी एक ही लाइन अपनी गरजती आवाज़ में बोली थी कि खचाखच
भरा पांडाल नारों से गूंज उठा। पाश ने एक हाथ लहरा कर विद्यार्थियों को शांत करने
की कोशिश की पर विद्यार्थियो का तो जैसे खून खोलने लग गया। नारे और ऊँचे और ऊँचे
होते गए......
"इंकलाब
ज़िंदाबाद,ज़िंदाबाद
प्रिथीपाल रंधावा
अमर रहे,अमर रहे
पाश की कविता
ज़िंदाबाद,ज़िंदाबाद।"
नारों की गूँज कुछ कम हुई तो पाश ने छोटी
पर पूरी कविता सुनाई।कविता क्या थी,जैसे कोई शक्तिशाली बम फट गया हो,जैसे चारों तरफ किरचें खिंड गयी हो।कविता थी 'पंजाब स्टूडेंट यूनियन' के आग्गु प्रिथीपाल रंधावा के बारे में,जिसका कत्ल हो गया था।
प्रिथी नूं
"जिदण तूं प्रिथी जम्मिया
केहड़ा दिन सी माँ"
कविता खत्म करके पाश कॉलेज के पांडाल से बाहर की ओर रवाना हुआ तो यूँ लगा जैसे
सारा पांडाल ही उसके पीछे चला जा रहा हो।कॉलेज के गेट तक पहुँचने तक उसके
प्रशंसकों ने उसे नज़दीक से देखने के लिए घेर लिया।किसी न किसी तरह पाश को हमने भीड़
से निकाल लिया।आधा'क फर्लांग दूर निकल आए।फिर भी बहुत सारे
लड़के पीछे-पीछे आ गए।उनकी सिर्फ एक ही ज़िद थी कि पाश उन्हें एक कविता और सुनाए,उनके प्यार को सम्मान देते हुए पाश ने 'मैं घास हूँ' नामक कविता सुनाई थी।"
"सन्नाटा छा गया
पाश की कविता से" नामक संस्मरण में शमशेर सन्धु लिखते हैं कि,"खालसा कॉलेज लुधियाना में साहित्यिक
समागम था।हमे शाम को मॉडल टाउन की रिहाइश से सन्देश मिला कि सुरजीत पातर के
कमरे में पहुँचो।वहां पहुंचे तो माहौल शादी वाले घर की तरह का था।सेखों साब ने
सबको चुप करवाया और कहा अब कोई नहीं बोलेगा,अब पाश कविता सुनाएगा।
पाश ने पहले तो हल्के से हासे और अंदाज़
में कहा,"चन्दरयो इक कविता हुक्म करण
लगियां।" किसी भोले बंदे ने आगे से कहा,"काका,कविता हुक्म नीं
करीदी, सगों कहिदा हुँदा कविता अर्ज़ कर
रिहां।"
फिर कोई और आवाज़ उभरी,"पाश वरगे कवि कविता अर्ज़ नीं करदे हुंदे, हुक्म ही करदे हुंदे आ"फिर सन्नाटा
छा गया,पाश ने अपनी गहरी और भरी हुई आवाज़ में
कविता सुनाना शुरू किया,----
"मेरे तों आस ना कर्यो
कि मैं खेतां दा
पुत्त हो के
तुहाडे चगळे होये
स्वादां दी गल्ल करांगा
मैं तां जद वी
कित्ती
खाद दे घाटे
किसी गरीबड़ी दे
हिक वांग पिचक गए
गन्नेयां दी गल्ल
ही करांगा
मैं बैंक दे
सेकेट्री दी खचरियां मुच्छां
सरपंच दी थाणे तक
लम्मी पुच्छ - ते उस पूरे चिड़ियाघर दी
जो मैं आपणी हिक
उत्ते पाळ रख्या है
जां ऐदां दी ही
कोई करड़-बरड़ी गल्ल करांगा
मैं जट्टां दे साध
होवण ते उरां दा सफ़र हां
मैं बूढ़े मोची दी
गुमी होइ अक्खां दी लौ हां
मैं टुंडे हौलदार
दी सज्जी हत्थ दी याद हां केवल
मैं पिण्डे वक्त
दे चपा सदी दा दाग हां केवल।"
पाश ने कविता क्या सुनाई। वहां सन्नाटा
छा गया। जैसे कोई जोरदार बम चलने के बाद कान सां....सां....करने लग जाते हैं। बीस
मिनिट तक कमरा सन्नाटे में डूबा रहा।"
पाश क्रान्ति का कवि था, मेहनतकशों और सीमांत किसानो की आवाज़ था।
इंदिरा गांधी की मौत पर पाश ने "बेदखली के लिए विनय पत्र" नामक कविता
लिखी थी,-
"मैंने पूरी उम्र जिसके विरुद्ध सोचा
और लिखा
अगर उसकी मौत के शोक में
सारा देश ही सम्मिलित है तो इस देश से
मेरा नाम काट
दो।"
"धर्म दीक्षा लई विनय पत्र" नामक
कविता में वे
भिंडरावाला के लिए लिखते हैं-
"मेरा एक ही बेटा है धर्म गुरु
और मर्द बेचारा सिर पर नहीं
तेरे इस तरह गरजने के बाद
मर्द तो दूर दूर तक रहते ही नहीं।"
पाश खुलकर मोहब्बत किया करता था,खुल कर जीता और रहता था।
पाश 1980 से ही आतंकियों के निशाने पर था,मगर उनके नापाक इरादो को कामयाबी नहीं मिल रही थी।पहले
राजसत्ता और फिर आतंकवाद का सामना करते पाश का जीवन संघर्षों से भरा हुआ था। पाश
की हत्या करने वाले शायद जानते नहीं थे कि उन्होंने सिर्फ पाश के शरीर को मारा है,उसकी कविता को नहीं।आज उन हत्यारों का कोई नामलेवा नहीं है
मगर पाश की कविता विश्व परिदृश्य पर गूंज रही है,करोड़ो छात्र नौजवानो के दिल में बसी हुई है और जबान पर चढ़ी हुई है।
०००००००००00000००००००००
समकालीन फासिस्ट
अपसंस्कृतिक कट्टरता भरी बदबूदार राजनीति के उस समय
और अब इस दौर में अवतार ‘पाश’ की कविताओं का ईमानदार मूल्यांकन किया जाए तो यह काव्यात्मक
महानता के रूप में सन 1967- 72 तक और उसके बाद 1975-76 तक का समय था, राजनीतिक सरगर्मियों के कारण आता है और
इसको हम आगे भी यदा कदा देखते हैं- जैसे मोगा गोलीकांड या उसके वैचारिक भटकावों के
थोड़ा पहले के समय मे या अराजक्ताओं के समय। पाश हर एक महान कवि की तरह ही हमे भी
उसी तमाम भटकावों के साथ नज़र आता है। और ईमानदारी भी, भले जरनैल सिंह भिंडरांवाला या इंदिरा
गांधी या साका नीला तारा (ऑपरेशन ब्लू स्टार) या दिल्ली सिख दंगे.... पाश इस समय
सबसे ईमानदार व्यक्ति रूप में उभरता है।
अराजक्ताओं से इनकार किया जाना अपमान करना है। पाश को पढ़ते हुए एक सवाल मन
में उठता है कि पाश कवि था, उसके पहचान वाले क्रांतिकारी
थे..... इस भेद को छोटा आंकना शब्द की बेअदबी है । कूड़ा ढेरी बनी राजनीति, जेल में बंद हत्यारो, बलात्कारी उम्मीदवारों की जीत पर उसकी
कविताओं का सुर बदल जाता या नही बदलता या तटस्थ होता, यह सब क्यास बेमानी है।
पाश की कविताएं इसलिए बार-बार याददिहानी
कराते हुए ध्यान दिलाती हैं कि वे मार्क्सवाद या शहीदों की शहादत के कारण ही
अस्तित्व में है वह खुद्दारी वाले शख्स थे- नतीजतन, उनकी कविता की धार आज मर ही चुकी होती.... आज
और कल ज्यादा मारक होती। उनके शब्दों में मुर्दा शांति भरी होती और समझौता भी होता, उनकी अभिव्यक्ति प्रदूषित हो चुकी होती। पर पाश की कविताएं बीच का रास्ता नहीं
जानतीं, न बताती हैं. वे तो प्रेरित करती हैं
विद्रोह करने के लिए, सच को सच की तरह देखने के लिए, उससे आंखें मूंद कर समझौता करने के लिए
नहीं :
‘हाथ अगर हों तो जोड़ने के लिए ही नहीं होते
न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं
यह गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ अगर हों तो
‘हीर’ के हाथों से ‘चूरी’पकड़ने के लिए ही
नहीं होते
‘सैदे’ की बारात रोकने के
लिए भी होते हैं
‘कैदो’ की कमर तोड़ने के
लिए भी होते हैं
हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते
लुटेरे हाथों को तोड़ने के लिए भी होते
हैं.’
सोचना चाहता हूं कि आज जब गला फाड़कर ‘भारत माता की जै’ चिल्लाना ही ‘राष्ट्रभक्ति’ का पर्याय बनता जा रहा है, जब लाठी के बल पर राष्ट्रगीत का ‘सम्मान’ स्थापित करवाया जा
रहा है, ऐसे समय में पाश की इस कविता को कैसे
लिया जाता : ‘मैंने उम्रभर उसके खिलाफ सोचा और लिखा है
/ अगर उसके अफसोस में पूरा देश ही शामिल है / तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें
.../ ...
इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का, मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं
मैं उस पायलट की चालाक आंखों में चुभता हुआ भारत हूं,
हां, मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में /
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है तो मेरा नाम उसमें
से अभी खारिज कर दो.’
क्या ‘भारत का नागरिक
होने पर थूकने’ या ‘गुंडों की सल्तनत’ की अभिव्यक्ति पाश को राष्ट्रद्रोहियों
की कतार में खड़ा करवा देती? या यह समझने का
धैर्य ‘राष्ट्रभक्तों’ में होता कि यह कविता नवंबर 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के खिलाफ शांत
क्रोध में भरकर पाश ने रची थी. इस कविता में मारे गये निर्दोष सिखों के प्रति गहरी
सहानुभूति थी, तो दूसरी तरफ सत्ता की गलत नीतियों के
प्रति विद्रोह भी.
भारत को अपने लिए सम्मान मानने वाले पाश के शब्दों में :
‘इस शब्द के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर है
जहां अनाज उगता है
जहां सेंध लगती है...’
पाश वाकई जिंदा कवि थे, भटकावों में भटकते हुए.... इतने खतरनाक कि खालिस्तान समर्थक
आतंकवादी उनकी कविताओं से डरते रहे. और आखिरकार जब पाश महज 36 बरस के रहे थे आंतकवादियों ने उनकी उम्र
रोक दी, पर वे उनकी आवाज नहीं रोक पाए. तभी तो
जहर घुली इस हवा में भी पाश की आवाज गूंजती है. जब विरोध के स्वर को देशद्रोही
बताया जा रहा हो, जब समस्याओं को सुलझाने की जगह
राष्ट्रभक्ति की आड़ लेकर दबाया जा रहा हो, जब आपकी हर गतिविधि को राष्ट्र सुरक्षा के नाम पर संदिग्ध
करार दिया जा रहा हो तो पाश की यह आवाज फिर गूंजने लगती है ।
मुमकिन है कि उसके भटकाव के ऐसे खतरों से उसको आगाह करती
हुई कविता उसी को दबाने लगी थी। फिर कोई अतिवादी डर जाता और गर पाश जिंदा होते तो
फिर खुद मर जाता, भटकावों और विचलनों से, खुद को खुद मार दिए जाने का उसका अनुभव
भी रहा है।. पर इतना तो तय है कि जितनी बार वे मारे जाते उतनी बार उनकी कविताओं की
आवाज अब प्रदूषित होकर दूषित सुर में जन-जन तक पहुंचती है।
कविता का प्रतिरोधी क्रांतिकारी स्वर : नामदेव ढसाल
(मराठी कविता में दलित
मुद्दे को मार्क्सवाद के साथ रखकर जो काव्यगत प्रतिरोध इन्होंने खड़ा किया वो
विद्रोही कवि की बजाए इंकलाबी कविता परम्परा को स्थापित करता है जो धूमिल, पाश, संतराम उदासी, लालसिंह दिल और गोरख
पांडेय की महान मुक्तिकामी क्रांतिकारी कविता परम्परा से थे)
( दलित पैंथर का महान
यौद्धा-- नाम देव ढसाल)
भारतीय भाषाओं की क्रांतिकारी या कहें विद्रोही कविता में जिस तरह से धूमिल, मनुज देपावत, रेवंत दान चारण, तेज सिंह जोधा, अवतार पाश, संतराम उदासी, लालसिंह दिल, आदि प्रसिद्ध हैं उसी
तरह, उसी धारा में मराठी के दलित कवि और सोशल एक्टिविस्ट 'नामदेव ढसाल' का भी नाम जाना जाता
है। ढसाल की कविताएं तत्कालीन भारतीय समाज की जड़बद्ध रूढ़ियों के परखच्चे उड़ाते हुए
ना केवल मराठी साहित्य की मुख्य धारा में बल्कि अनुदित होकर भारतीय भाषाओं में भी
स्थापित हो चुकी थी। सन 1972 ई. में नामदेव ढसाल का कविता संग्रह 'गोलपीठा' छपा जिसने भारतीय कविता
धारा को ना केवल नया स्वर दिया बल्कि रूप भी दिया था। जितनी उग्र और आक्रोश भरे
लहजे के कारण ना केवल ढसाल प्रसिद्ध हुए बल्कि राजसत्ता की आंख की किरकिरी भी बन
गए थे। नामदेव ढसाल, उसी परंपरा के थे जिस परम्परा के धूमिल, गोरख पांडेय, अदम गोंडवी, जोधा, और उदासी आदि थे। यह
समानता कोई संयोग नहीं बल्कि भारतीय राजनीति के बदलते परिदृश्य और प्रवृति की देन
थी। ठीक उसी समय उभरे नक्सलबाड़ी सशस्त्र किसान महा उभार ने इन सभी को बहुत गहरे तक
प्रभावित किया था और भारत की पूंजीवादी फ़ासिस्ट राजसत्ता से सीधे टकराव का हौसला
भी दिया। यह आपको भले अजीब लगे लेकिन ढसाल, गोरख पांडेय, पाश, धूमिल, विद्रोही और उदासी आदि
सभी क्रांतिकारियों के उभार और कार्यकाल एक जैसा, एक ही समय, मतलब नक्सलबाड़ी के उभार
के साथ ही होना, इसको और ज्यादा प्रासंगिक और मजबूत बनाता है। ना केवल
महाराष्ट्र के बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं में इस बहस और ज्वलंत और जीवंत
मुद्दे को लेकरे विमर्श की भूमिका बननी शुरू हो गई थी। यह इस मूवमेंट का
जोरदार सकारात्मक उभार था जब ब्राह्मणवादी प्रदूषित परम्पराओं को तोड़ा जा रहा था
और मुख्य धारा से अलग स्वतंत्र अस्तित्व के साथ दलित संघर्ष, अस्तित्व, प्रतिबद्धता पर
वैज्ञानिक बहसों के साथ विमर्श होने लगा था। यह भारतीय क्रूर राजसत्ता के सामने
नक्सलबाड़ी उभार के साथ खड़ी एक और बहुत विशाल और व्यापक चुनौती थी। इसके अवसान और
अन्य कारकों पर अलग से चर्चा की जाएगी।
विष्णु खरे ने इस महान
विद्रोही कवि के लिए कहा था, - "नामदेव ढसाल: 'वह भारतीय कविता का
आम्बेडकर था'"। यहां तक कि बीबीसी ने भी योग्यता और विलक्षणता को
देखकर नामदेव ढसाल: 'विद्रोही परंपरा के सबसे बड़े कवि थे'"- कहा था। यही वो पीढ़ी थी
जो भारतीय कविता की क्रांतिकारी मुक्तिकामी पीढ़ी कहलाती हैं।
नामदेव का जब पहला
संग्रह 'गोलपीठा' छपा तब ये सभी जरूरी और अराजकता की स्थितियां
उत्प्रेरक की तरह काम करने लगी थी। भारतीय ब्राह्मणवादी मनुवादी इलाकों में एक
भूचाल-सा आ गया। इसकी भाषा इतनी ज्यादा विद्रोही और कठोर थी कि ब्राह्मणवादी
समीक्षकों आलोचकों और लेखकों से पची ही नही, और अपच के कारण ईर्ष्या
द्वेष का फ़ूड पॉइज़निंग हो गया। नामदेव ढसाल के शब्द इतने कठोर थे कि रूढ़िवादी समाज
की निर्मम मगर जरूरी आलोचना के साथ ही एक पूरा जातीय समाज साहित्यिक हाशिए पर आ
गिरा। नामदेव ना केवल मनुवाद बल्कि पूंजीवादी वहशी व्यवस्था के भी प्रतिरोध में
थे। वे भूख और अन्याय, असमानता, गरीबी, शोषण और कुपोषण से
जूझते वर्ग के पेट की आग को कविताओं के माध्यम से लावा का दावानल बनाकर हमला
कर रहे थे।‘गोलपीठा’ कविता संग्रह में वे बहुत बेबाकी से पूंजीवादी समाज
की पूंजी जनित अपसंस्कृति मूल्यों को विध्वंसात्मक तरीके से तोड़ने का प्रयास करते
है। उनकी कविता में वेश्यावृत्ति सामाजिक नहीं बल्कि पूंजीवादी राजनीति के चलते
पैदा हुई बीमारी है। वे इस अपसंस्कृतिक राजनीतिक समाजिक समाज की इस वहशी परम्परा
को निर्मम तरीके से उखाड़ने का प्रयास करते हैं। बानगी देखें :-
लीक हुआ सूरज बुझने लगा रात की बाहों में/ तब मैं
पैदा हुआ फुटपाथ पर/ चीथड़ों में पला और अनाथ हो चला/ मुझे जन्म देने वाली मां/ चली
गई आकाश के बाप की ओर/ फुटपाथ के भूतों की यातनाओं से/ऊबकर धोती का अंधेरा धोने के
लिए/ और फ्यूज आदमी की भांति मैं बढ़ता रहा रास्ते की गंदगी पर/ पांच पैसा दे दो, पांच गाली ले लो कहता
हुआ /दरगाह के रास्ते पर।
इस कविता में नामदेव
नैरेटर की भूमिका में है और जिस कथ्य को सामाजिक जनवादी रूप में द्वंद्व के साथ
उपस्थित किया है वो पीड़ित महिलाओं की शोषित चालो से बीमार हुई आत्मा के
द्वंद्व और मंथन और विवाद की शुरुआत है। असमानता और दरिद्र प्रश्नों से घिरा
सामाजिक बीमारी का अंतिम हिसा, सड़ने को आता है।
इस कविता में मार्क्सवादी दुस्साहसवादी दीठ का यूँ ही प्रस्फुटन नहीं हुआ
बल्कि उसके परिदृश्य में कहीं न कहीं समकालीन नक्सल किसान महाविद्रोह का उभार कायम
है- तभी तो वे लिखते हैं कि- "पांच पैसे दे दो, पांच गालियां ले लो, पूंजी पर तो सामूहिक
वर्गीय समाज का हक साझा है। इसीलिए नामदेव पैसे के लिए हाथ नही पसारता। जब नामदेव
कविता की भाषा मे चारू मजूमदार या सुनीति कुमार घोष को ले आते हैं तो स्वाभाविक है
कि मनुवादी समाज विवाद स्वरूप मतभेद उभारने में पीछे नहीं ही रहता है।
दलित पैंथर ने और ढसाल
ने आम दलित सामाजिक जीवन राजनीति को क्या दिया, यह बाद का मुद्दा है
मगर एक जो महत्वपूर्ण बदलनव हुआ वो यह कि कलवाद कविताओं के कारण साहित्य में जो
शून्यता छाई हुई थी उसे नामदेव ने हाशिए पर खिसकाकर जीवन की कविता को स्थापित कर
दिया था। ढसाल की कविता में इस पॉलिटिकल सोशली मूवमेंट के कारण जो बदलाव आया था वो
मराठी कला एवं साहित्य में शरुआती समय की प्रतिरोधी धारा के रूप में स्थापित हो
गया था। यथा :--
मेरी कविता, तुम ही साक्षात, सुन्दर, सुडौल/पुराणों की
ईश्वरीय स्त्रियों से भी अधिक सुन्दर
वीनस हो अथवा जूनो/ डायना हो या मैडोना
मैंने उनकी देह पर चढ़े झिलमिलाते वस्त्रों को खांग
दिया है/ मेरी प्रिय कविता, मैं नहीं हूँ छात्र 'एकोल-द-बोर्झात' का/ अनुभव के स्कूल में
सीखा है मैंने जीना/ इसके अलावा और भी मनुष्यों जैसा कुछ-कुछ/ शून्य भाव से आकाश
तले घूमना मुझे ठीक नहीं लगता/ बादलों के सुंदर आकार आकाश में सरकते आगे आते-जाते
हुए/ देखने से भर जाता है मेरा अंतरंग ।
इसे पढ़ने के बाद पता
लगता है कि नामदेव की कविता आक्रोश को स्टेटमेंटिय तरीके से फैंक कर नहीं मारी
जाती बल्कि वैज्ञानिक द्वंद्ववादी दृष्टिकोण यहां स्थापित होता है। मुक्ति का
संघर्ष द्वंद्वात्मक्ता के पुख्ता धरातल से होकर ही स्थापित होता है। बहुत से आलोचक
या द्वेषी लोग नामदेव ढसाल के अंत समय मे शिव सैनिक बन जाने की जो ओछी राजनीतिक
बातें फैलाते हैं उन्हें गलत साबित करने के लिए आपको इस बात को जानना चाहिए कि,
"जब नामदेव ढसाल अंत समय मे भयंकर रूप से बीमार थे तब उनकी सेवा सुश्रुषा के
लिए कोई भी, मतलब एक भी व्यक्ति नहीं आया था सहारा देने के लिए, यहां तक कि उनकी आवाज
भी चली गई थी, वे एक तरह से गूंगे हो गए थे,-- जबकि जब इस बात का बाला
साहेब ठाकरे को पता लगा तब उन्होंने उन्हें बेहतरीन सेवाओं वाले हॉस्पिटल में
भर्ती करवाया और अपने साथ भी रखा, वे बिल्कुल तंदुरुस्त हो
गए थे, और ठाकरे के इसी काम के प्रति वे आभारी भी रहे, और एक जिंदा
क्रांतिकारी का यह फ़र्ज़ भी है कि वे अहसानफरामोश ना बने। यहां बात भावनात्मकता की
है, वैचारिक दोलन या विचलन की नहीं हैं, वे आजीवन मुक्तिकामी
संग्रामी ही रहे थे।
नामदेव की सबसे चर्चित
कविताओं में से एक आपके लिए.....
कामाठीपुरा
कैलेंडर को पीछे छोड़
सदियों के जख्म देह पर मढ़े
निशाचर साही यहाँ आराम फरमा रहा है
लुभावने धूसर गुलदस्ते की भांति
अपने ही सपनों में गुम
गूंगा हो गया है इन्सान
और उसका ईश्वर जनखा
यह ठठरी क्या गाएगी
लगे तो सख्त आँखों का पहरा लगा दो
उनके आंसुओं को भी सहेज कर रख लो
उसका मोहना रूप देख टूट जाते हैं सारे ताले संयम के
वह हडबडा कर जागता है
काँटों वाले अपने फन से खुरच खुरच
जख्मों को आर पार कर देता है
रात होती है तेयार अभिसार को
वैसे वैसे जख्मों में खिलने लगते हैं फूल
बहुत बहुत दूर तक फैल जाता है फूलोंका समुंदर
इसमें में मोरनी के साथ नाचता है रतिमोर
यह नरक
यह चक्कराते भवंर
यह चुभती पीड़ा
यह घुंगरू पहन नाचती वेदना
छील अपनी चमड़ी को एकदम जड़ सेछील दे
निचोड़ ले अपने आप को
सनातन जहर भरे इस गर्भाशय को होजाने दे निर्जीव
इस सख्त मांस के गोले में
नहीं उमगना चाहीये अंगों का कोई अंकुर
यह ले पोटेशियम साइनाइड
चख ले इसका स्वाद
क्षण के कितनवें तो हिस्से में मरती बार
लिख रख जा अभिप्रेत होता जा रहाछोटा ‘एस’
मीठा या खारा, विष का अस्वाद लेने के लिए यहाँ कतारेंलगी हैं/ शब्द
की तरह यहां मौत भी भर भरआती है
बस थोड़ी ही देर में यहाँ बरसने लगेगा
कमाठीपुरा, सभी मोसमों को बगल में दबाये
तू कीचड़ में पलाथा मार बैठा है
इन छिनाल सुखों दुखों के आगे जाकर
में तेरे कमल होने की राह देख रहा हूँ
कीचड़ का कमल
( मराठी के महान विद्रोही कवि नामदेव ढसाल)
●नामदेव ढसाल (एक
संक्षित परिचय)
●जन्म -15 फ़रवरी 1949
ई. को और निधन15 जनवरी 2014
● जन्म स्थान पूना के
निकट एक गाँव में, (महाराष्ट्र) ।
●प्रमुख कृतियांगोलपीठा
(1972), मूर्ख म्हातार्याने डोंगर हलवले (1975),
आमच्या इतिहासातील एक अपरिहार्य पात्र : प्रियदर्शिनी (1976),
तुही यत्ता कंची (1981), खेळ (1983), गांडू बगीचा (1986),
या सत्तेत जीव रमत नाही (1995), मी मारले सूर्याच्या
रथाचे घोडे सात, तुझे बोट धरुन चाललो आहे आदि कुल ग्यारह कविता-संग्रह
।
●विविध दलित पैंथर
आन्दोलन के संस्थापक (1972),
● बुद्ध रोहिदास विचार
गौरव पुरस्कार (2009),
●साहित्य जीवन गौरव
पुरस्कार (2004)
● पद्मश्री पुरस्कार ।
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