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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 दिसंबर, 2015

पानी 'आब' पर सभी अशआरों वाली एक पोस्ट : प्रस्तुति : मीत

आज पोस्ट की मेरी बारी है. मैं आपको किसी एक शायर की ग़ज़ल पढ़ाने की बजाए. कुछ अलग-अलग शायर के शेर पढ़वाना चाहती हूँ. हालाँकि सभी शेर में पानी/आब का ज़िक्र है। कमाल की बात है कि
पानी का न अपना कोई रंग है, न स्वाद ,न ख़ुशबू, न शक्ल, यही इसकी खूबी है, यही ख़ूबसूरती और यही शायद इसे क़ुदरत की सबसे शायराना चीज़ों में से एक बनाता है। शायरी इसे और शायरी को ये क्या रंग, क्या शक्ल देते हैं; देखते हैं.
मैंने कोशिश की है कि आपके लिए बेहतरीन शेर चुन सकूँ...ताकि आप दो दिन इन पर बात कर सके...इनके बहाने से कुछ अपनी तरफ़ से भी अच्छे पेश कर सके....तो पेश है आपके लिए..चंद शेर...

000 मीत
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क़िस्से से तिरे मेरी कहानी से ज़ियादा
पानी में है क्या और भी पानी से ज़ियादा

अबरार अहमद
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ज़ीस्त का ए'तिबार क्या है 'अमीर'
आदमी बुलबुला है पानी का

अमीर मीनाईल
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वो जो प्यासा लगता था सैलाब-ज़दा था
पानी पानी कहते कहते डूब गया है

आनिस मुईन
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जाने वाले मुझे कुछ अपनी निशानी दे जा
रूह प्यासी न रहे आँख में पानी दे जा

मिद्हतुल अख़्तर
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प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर
मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े

इक़बाल साजिद
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डूब जाते हैं उमीदों के सफ़ीने इस में
मैं न मानूँगा कि आँसू है ज़रा सा पानी

जोश मलसियानी
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ज़िंदगी है इक किराए की ख़ुशी
सूखते तालाब का पानी हूँ मैं

अब्दुल हमीद अदम
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कैफ़ियत ही कोई पानी ने बदल ली हो कहीं
हम जिसे दश्त समझते हैं वो दरिया ही न हो

ज़फ़र इक़बाल
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दश्त की प्यास किसी तौर बुझाई जाती
कोई तस्वीर ही पानी की दिखाई जाती

रम्ज़ी असीम
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अन्दर थी जितनी आग वो ठंडी न हो सकी
पानी था सिर्फ़ घास के ऊपर पड़ा हुआ
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इक़बाल साजिद

सरसब्ज़ रखियो किश्त को ऐ चश्म तू मिरी
तेरी ही आब से है बस अब आबरू मिरी
नज़ीर अकबराबादी
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निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थे
ये शहर आब को तरसेगा चश्म-ए-तर के बग़ैर
सलीम अहमद
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तमाम उम्र जिसे आब-ए-तल्ख़ से सींचा
अब उस शजर का कोई फल कहाँ से मीठा हो

सय्यद सफ़ी हसन
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तिरी तेग़ की आब जाती रही है
मिरे ज़ख़्म पानी चुराए हुए हैं

मिर्ज़ा असमान जाह अंजुम

ठहर गई है तबीअत इसे रवानी दे
ज़मीन प्यास से मरने लगी है पानी दे

शहज़ाद अहमद
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गहरी ख़मोश झील के पानी को यूँ न छेड़
छींटे उड़े तो तेरी क़बा पर भी आएँगे

मोहसिन
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पैहम मौज-ए-इमकानी में
अगला पाँव नए पानी में

राजेन्द्र मनचंदा बानी
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पानियों में खेल कुछ ऐसा भी होना चाहिए था
बीच दरिया में कोई कश्ती डुबोना चाहिए था

सरफ़राज़ ख़ालिद
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दाग़-ए-जिगर का अपने अहवाल क्या सुनाऊँ
भरते हैं उस के आगे शम्-ओ-चराग़ पानी

जोशिश अज़ीमाबादी

ले बैठी दिल की दीवार
बारिश खारे पानी की

डाॅ विकास शर्मा 'राज़'
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जैसे भेस भर ले इश्क में महबूब का अपने कोई
पानी की धुन में बावरा सहरा मुझे ऐसा लगा

कुमार साइल
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मैं सबके लिए अपनी कहानी नहीं कहता
क्यों बहता है दरिया कभी पानी नहीं कहता

वसीम बरेलवी

देख दरिया को कि तुग़ियानी में है
तू भी मेरे साथ उब पानी में है

शहरयार

शिकवा  कोई दरिया की रवानी से नहीं  है !
रिश्ता  ही मेरी  प्यास  का  पानी  से
नहीं  है !!
शहरयार

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टिप्पणियाँ:-

बलविंदर:-
चंद अशआर पानी पर मेरी जानिब से भी हाज़िर हैं....

एक आंसू ने डुबोया मुझको उन की बज़्म में
बूँद भर पानी से सारी आबरू पानी हुई
"ज़ौक़"

हर तरफ़ हद्द-ए-नज़र तक सिलसिला पानी का है
क्या कहें साहिल से कोई राब्ता पानी से है
"असीम" वास्ती

पानी पे तैरती हुई ये लाश देखिये
और सोचिये के डूबना कितना मुहाल है
"वासीम" बरेलवी

ये भी पानी है मगर आँखों का ऐसा पानी
जो हथेली पे रची मेंहदी उड़ा कर ले जाए
"बशीर" बद्र

फ़रहत अली खान:-
वाह वाह। बहुत उम्दा अशआर है; एक से बढ़कर एक। एक-आध होता तो ज़िक्र करता, यहाँ तो सभी अशआर अच्छे हैं।
धन्यवाद मीत जी। अलग-अलग अशआर को प्रस्तुत करने का ये अच्छा तरीक़ा है कि सभी एक ही उन्वान से ताल्लुक़ रखते हों।

मैं बलविंदर जी से सहमत हूँ कि किसी दूसरे की किसी ग़ज़ल से कोई मिसरा, ज़मीन, क़ाफ़िया या रदीफ़ उठा लेना कोई बुराई नहीं मानी जाती है। कई बार गुलज़ार साहब, शहरयार साहब जैसे शायरों पर ये इल्ज़ाम लगा दिया जाता है, मगर ये न्यायोचित बात नहीं है।
इसके अलावा एक और बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि चूँकि ग़ज़ल(और छंदयुक्त नज़्म/कविता, दोहा) पूरी तरह से 'बहर'(या अन्य तरीक़े) के नियमों का पालन करती है, सो हो सकता है कि किसी एक भावना को ज़ाहिर करने की कोशिश में दो अलग-अलग शायर लगभग एक सा ही मिसरा कह जाएँ।
जबकि आज़ाद नज़्म और छंदमुक्त कविता के मामले में ऐसा नहीं है, यानी किसी नियम में बंधे न होने के कारण किसी एक भावना का इज़्हार करने बे-गिनती तरीक़े हो सकते हैं।

रुचि गांधी :-
इतने ख़ूब-सूरत अशआर पेश करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया "मीत" जी आपका उनवान का चुनाव भी बेहद खूबसूरत रहा....हिन्दी और उर्दू ज़बान में पानी के मायने प्रयोग के हिसाब से    मुख्तलिफ़ होते हैं। 
चंद अशआर मेरी जानिब से....

आँखों में पानी रखों, होंठो पे चिंगारी रखो
जिंदा रहना है तो तरकीबे बहुत सारी रखो
राह के पत्थर से बढ के, कुछ नहीं हैं मंजिलें
रास्ते आवाज़ देते हैं, सफ़र जारी रखो

राहत इन्दोरी  

मिट्टी के इस चूल्हे में
इश्क़ की आँच बोल उठेगी
मेरे जिस्म की हँडिया में
दिल का पानी खौल उठेगा
आ साजन, आज पोटली खोल लें
हरी चाय की पत्ती की तरह
वहीं तोड़-गँवाई बातें
वही सँभाल सुखाई बातें
इस पानी में डाल कर देख,
इसका रंग बदल कर देख

_अम्रता प्रीतम

फ़रहत अली खान:-
सबने लफ़्ज़-ए-पानी से जुड़े कई उम्दा अशआर सुनाए। कुछ मेरे भी ज़ेहन में आ रहे हैं:

पानी-पानी कर गयी मुझको क़लन्दर की ये बात
तू झुका जब ग़ैर के आगे, न तन तेरा न मन
(अल्लामा मुहम्मद इक़बाल)

ज़ब्त कीजे तो दिल है अंगारा
और अगर रोइए तो पानी है
(फ़िराक़ गोरखपुरी)

कुँवर बेचैन:-
दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना
      ---कुँअर बेचैन

पानी का धागा टूटे ना बिन बात
घूम रही धरती की तकली
कात रही बरसात
पानी का धागा टूटे ना बिन बात
----कुँअर बेचैन

एक मासूम जवानी ने खुदकुशी कर ली
इक मुहब्बत की कहानी ने खुदकुशी कर ली
धूप ने इतना सताया कि उससे घबराकर
रेत में डूब के पानी ने खुदकुशी कर ली
      --कुँअर बेचैन

बलविंदर:-
दो परिंदे एक ही पत्थर से मारे वक़्त ने
आग बस्ती को अता की, आँख का पानी मुझे
इंद्र स्वरूप "नादाँ"

आँख में पानी कहाँ जो धोइये
पैराहन यादों के मैले हो गए
निदा फ़ाज़ली

कविता गुप्ता:-:
मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में
हम अपनी आँख का पानी बचा के रखते हैं

-हस्तीमल हस्ती

बलविंदर:-:
पानी आँख में भर कर लाया जा सकता है
अब भी जलता शहर बचाया जा सकता है
अब्बास ताबिश

फ़रहत अली खान:-
वैसे तो अभी सीखने के फ़ेज़ में हूँ, फिर भी कुछ दिन पहले शुरु की गयी अपनी एक ताज़ा ग़ज़ल में आज ही एक नया शेर जोड़ा है, उन्वान यही है तो सोचा कि इस्लाह के लिए शेयर करूँ:

आँख से पानी जारी होता है कैसे
ऐ दिल, तू तो सूखा-सूखा लगता है
(फ़रहत ख़ाँ 'फ़रहत')

रुचि गांधी :-
बुलबुला फिर से चला पानी में गोते खाने
न समझने का उसे वक़्त न समझाने का

पानी सस्ता है तो फिर इसका तहफ़्फ़ुज़ कैसा
खून महंगा है तो हर शहर में बहता क्यूँ है

बलविंदर:-:
तल्ख़ इतनी थी के पीने से ज़बाँ जलती थी
ज़िन्दगी आँख के पानी में मिला ली मैं ने
ना-मालूम

रुचि गांधी :-
वहाँ से पानी की एक बून्द ना निकाल सके,
तमाम उम्र जिन आँखों को झील हम लिखते रहे....

नामालूम:-
बहते  हुए  पानी  ने ..
    पत्थरों  पर. निशान. छोड़े  हैं 
         अजीब. बात. है
पत्थरों  ने  पानी  पर.
        कोई. निशान. नहीं  छोड़ा  !

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