आज मैं आपको लोकप्रिय. शायर
शहरयार साहब की ग़ज़ल. पढ़वाना चाहती हूँ , मैं उनकी ग़जल. प्रस्तुत. करूँ.....उससे पहले हम उनके बारे में जान लेते हैं !
शहरयार साहब. का जन्म 6 जून 1936 लखनऊ में हुआ था
यूँ तो आपका असल नाम अख़लाक मुहम्मद खान था
लेकिन आप शायर के तौर पर शहरयार.के नाम से जाने गए !
आपकी मुख्य कृतियाँ
इस्में आज़म , ख्वाब का दर बंद है , मिलता रहूँगा ख्वाबों में .आदि हैं..
आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार ,फ़िराक सम्मान इकबा़ल सम्मान से नवाजा़ गया .
१३, फरवरी २०१२ अलीगढ़ में आपका निधन हुआ ...
१३ फरवरी की उस घड़ी ने भले ही शहरयार साहब को हमसे छीन. लिया हो..लेकिन उन्हें हम कभी. भूल. नहीं सकते ..
साथियों पूरे.सम्मान के साथ. आज पढ़ते हैं
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शहरयार साहब की ग़ज़लें...
वो बेवफा़ है हमेशा ही दिल दुखाता है !
मगर हमें तो वही एक शख्स़ भाता है !!
न खुशगुमान हो उस पर तू ऐ दिल- ए - सादा !
सभी को देख.के वो शोख़ मुस्कुराता. है !!
जगह.जो दिल.में नहीं.है मिरे लिए न सही!
मगर ये क्या कि भरी बज़्म से उठाता है !!
तिरे करम की यही.यादगार बाकी है!
ये एक दाग़ जो इस दिल.में जगमगाता है !!
अजीब चीज़ है ये वक्त़ जिसको कहते हैं !
कि आने.पाता नहीं और बीत जाता है !!
कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का!
नाम लेता ही नहीं वक्त गुजऱ जाने का !!
जाने वो कौन है जो दामन -ए-दिल.
खींचता है !
जब कभी हमने इरादा किया मर जाने का !!
दस्तबरदार अभी तेरी तलब से हो जाएँ !
कोई रास्ता भी तो हो लौट के घर आने का !!
लाता हम तक भी.कोई नींद से बोझल रातें !
आता.हमको भी मजा़ ख्वाब में मर जाने का !!
सोचते ही रहे पूछेंगे तेरी आँखों से !
किससे सीखा है हुनर दिल में उतर जाने का !!
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कुछ और
एक
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ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है
हर घडी होता है अहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक़ यह ज़मीन कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है, यकीन कुछ कम है
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज़्यादा है, कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
यह अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है
०००
दो
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ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं
जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं
अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हम को बुलावे दश्त से जब-तब आते हैं
जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं
काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या-क्या करतब आते हैं
०००
तीन
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ख़ून में लथ-पथ हो गये साये भी अश्जार के
कितने गहरे वार थे ख़ुशबू की तलवार के
इक लम्बी चुप के सिवा बस्ती में क्या रह गया
कब से हम पर बन्द हैं दरवाज़े इज़हार के
आओ उठो कुछ करें सहरा की जानिब चलें
बैठे-बैठे थक गये साये में दिलदार के
रास्ते सूने हो गये दीवाने घर को गये
ज़ालिम लम्बी रात की तारीकी से हार के
बिल्कुल बंज़र हो गई धरती दिल के दश्त की
रुख़सत कब के हो गये मौसम सारे प्यार के
००० प्रस्तुतिः डॉ रश्मि व्यास
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टिप्पणियाँ:-
फ़रहत अली खान:-
शहरयार साहब आला दर्जे के शायर थे।
कल पोस्ट की गयी दोनों ग़ज़लों में मुझे पहली वाली ज़्यादा पसंद आयी। दोनों ही ग़ज़लों के आख़िरी शेर हासिल-ए-ग़ज़ल हुए हैं।
आज की ग़ज़लें तो और भी क़ाबिल-ए-वाह-वाह हैं, ख़ास-तौर पर पहली और दूसरी।
पहली ग़ज़ल का दूसरा, दूसरी का तीसरा और तीसरी का तीसरा शेर हासिल-ए-ग़ज़ल हुए हैं।
एक बेहद संजीदा शायर के कलाम से वाबस्ता कराने के लिए रश्मि जी और सत्या जी का शुक्रिया।
शहरयार साहब का एक शेर याद आ गया:
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
यही तो वक़्त है सूरज तेरे निकलने का
बलविंदर:-
समकालीन उर्दू शाइरी के सब से विश्वसनीय हस्ताक्षर तबे "शहरयार", इनकी शाइरी सामाजिक प्रतिबद्धता को दर्शाती है, यही कारण है कि इनकी कविता स्वान्तः सुखाय न हो कर संसार का दुःख-दर्द समेटे हुए है।
इनकी ये ग़ज़लें उर्दू-अदब का एक मेयार हैं। इन्हें नज़र-नवाज़ करने के लिए आप का बहुत बहुत शुक्रिया "रश्मि" जी।
बलविंदर:-
चाँद मुख़्तलिफ़ अशआर पेश हैं "शहरयार" साहब के....
आँधियाँ आती थीं लेकिन कभी ऐसा न हुआ
ख़ौफ़ के मारे जुदा शाख़ से पत्ता ना हुआ
अब रात की दीवार को ढाना है ज़रूरी
ये काम मगर मुझ से अकेले नहीं होगा
बे-नाम से इक ख़ौफ़ दिल क्यूँ है परेशां
जब तय है की कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा
हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें
तिरा ख़याल भी तेरी तरह सितम-गर है
जहां पे चाहिए आना वहां नहीं आता
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