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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 जनवरी, 2016

सीवरेज में मौत का जिम्मेदार कौन? : सुनील कुमार

सीवरेज में मौत का जिम्मेदार कौन?

सुनील कुमार

हम सबों को सफाई अच्छी लगती है। सबों की चाहत होती है कि हमारा घर, काम करने का स्थान, रास्ते, नाले साफ-सुथरे हांे। मेहनतकश वर्ग अपने जीवन-यापन के लिए रोजमर्रा के कामों में व्यस्त रहता है लेकिन वह साल में एक बार दीपावली में अपने घरों की साफ-सफाई कर लेता है। घरांे की सफाई तो मेहनतकश वर्ग कर लेता है लेकिन घरों के टायलेट, सीवर, नाले, सड़क की सफाई मेहनतकश वर्ग का एक खास समुदाय करता है। यह समुदाय दलितों की वाल्मिकी जाति से आता है। हम गंदे नाले, सीवर की बदबू से नाक बंद कर लेते है। उस बदबूदार सीवर में भी इस समुदाय के लोग नंगे बदन, जान जोखिम में डालकर 20-30 फीट गहरे सीवर में उतर कर सफाई करता है। इसी समुदाय द्वारा किये गये सफाई के कारण ही हम अपने घरों के टायलेट, बाथरूम व किचन के पानी को आसानी से घरों से बाहर नालों तक पहुंचा पाते हैं। घर के ड्रेन या सीवर बंद हो जाने पर घरों और मुहल्ले के लोगों के लिए परेशानी हो जाती है तो इसी समुदाय के लोग आकर हमारी परेशानी को दूर करते हैं।

I

दीपावली के दिन जब हम छुट्टियां मना रहे होते हैं उस समय भी कुछ लोग आपकी खुशियांे में रंग भरने के लिए अपनी खुशियों को न्यौछावर करते हैं। 11 अक्टूबर, दिपावली के दिन जब हम सब दीपावली की तैयारी कर रहे थे उस समय 22 साल का नौजवान विनय दिल्ली जल बोर्ड के केशवपुर सिवेज ट्रीटमेंट प्लांट के गहरे सीवर में उतरा हुआ था। विनय की कुछ माह पहले ही रचना के साथ शादी हुई थी और न जाने क्या-क्या ये दोनों अपने लिए सपने बुन रहे होंगे। वह सपना कुछ माह में ही हमेशा के लिए समाप्त हो गया। विनय वाल्मिकी समुदाय के थे। विनय के पिता का बचपन में ही एक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी जो कि दिल्ली बोर्ड में कार्यरत थे। पिता की मृत्यु के बाद विनय की मां सीमा को उनकी जगह पर 16 साल से पहले दिल्ली जल बोर्ड में नौकरी मिल गई और वे 2012 से केशवपुर सिवेज ट्रीटमेंट प्लांट में पिउन के पोस्ट पर कार्यरत हैं। सीमा पति के मृत्यु के बाद अपने दो पुत्रों और पुत्र वधु (बहु) के साथ उत्तम नगर के संजय एन्कलेव में एक बेड रूम की फ्लैट में रहती हैं। बहु रचना यूपी से बीएससी कर रही है। वहीं दूसरा बेटा अशोक भी कॉलेज में पढ़ रहा है। विनय संजिदा इंसान था, वह दूसरों का ख्याल रखता था। वह केशवपुर सिवेज ट्रीटमेंट प्लांट में ठेकेदारी के तहत पम्प ऑपरेटर का कार्य करता था। दीपावली के दिन उसकी सुबह 7 से 2 बजे की ड्यूटी थी। ठेकेदार अधिक से अधिक मुनाफा बटोरने के लिए मजदूरों/कर्मचारियों की संख्या कम रखता है और उनका खून निचोड़ता है। ठेकेदार हेल्पर से मशीन ऑपरेटर तो कभी मशीन ऑपरेटर से हेल्पर का भी काम करवा लेता है। विनय को पम्प ऑपरेटर होते हुए उसको अकेले सीवर में बिना सेफ्टी को उतारा गया। जबकि नियम है कि वही व्यक्ति सीवर में उतरेगा जिसको ट्रेनिंग मिली हुई है और उसके साथ समुचित स्टाफ (दो हेल्पर, सुरक्षा गार्ड, जल बोर्ड का एक अधिकारी ) भी हो। विनय को बिना सेफ्टी और अकेले 15 फीट गहरे सीवर में उतार दिया गया। काम के दौरान गैस से मुर्क्षित होकर या पैर फिसलने के कारण विनय 300 एम एम के पाईप के अन्दर फंस गया और उसकी मृत्यु हो गई। विनय के घर 2.30 बजे फोन आता है और पूछा जाता है कि विनय घर पहुंच गया है, उसको 11 बजे से खोजा जा रहा है वह मिल नहीं रहा। विनय की मां एक पड़ोसी को लेकर केशवपरु सिवेज ट्रीटमेंट प्लांट पहुंचती है तो विनय का टू-व्हीलर प्लांट के अन्दर ही था और उसका कपड़ा उसी सीवर के पास पड़ा था। जिसमें विनय उतरा था। टू-व्हीलर और कपड़े होने के बाद भी कम्पनी के लोगों द्वारा कहा जाता रहा कि वह कहीं चला गया और कई तरह की बातें बनाई गईं। विनय की मां द्वारा पुलिस को खबर करने के बाद भी उसकी रिपोर्ट नहीं लिखी जा रही थी, काफी प्रयास के बाद गुमशुदगी का मामला दर्ज किया गया। विनय की मां सीमा लगातार दूसरे पाईप को खोलने के लिए कहती रही लेकिन यह कह कर उनको टाल दिया गया कि इसके लिए अफसर का परमीशन लेना पड़ेगा और यह आज नहीं खुल सकता। लगातार प्रयास करने के बाद भी उस पाईप को उस दिन नहीं खोला गया। सीमा चूंकि वहां की स्थायी कर्मचारी थी और दूसरे लोगों के साथ उनकी जान-पहचान थी इसलिए एक कर्मचारी को जिम्मेदारी सौंप कर कि वह रात में ध्यान रखे कि कम्पनी किसी तरह रात में गड़बड़ी नहीं कर पाये, घर चली आई। दूसरे दिन पाईप को कटर से काटा गया तो उसमें विनय की लाश थी। इस घटना को जब विनय को दोस्त योगेश ने मीडिया के सामने बताया तो उसको कम्पनी ने काम से निकाल दिया। योगेश ने क्या अपराध किया था कि उसे काम से निकाल दिया गया? क्या योगेश को यह अधिकार नहीं था कि वह अपने गम को लोगों को बताये- इसके लिए भी कम्पनी के आदेश का पालन करना पड़ेगा? ऐसा नहीं है कि इस प्लांट में या सीवरेज की यह पहली घटना थी और कम्पनी को इस विषय में जानकारी नहीं थी। इसी प्लांट में कुछ माह पहले रिंकू और प्रदीप को गैस लगी थी जिससे दोनों अपंग हो गये। कम्पनी किसी तरह की क्षतिपूर्ति किये बिना प्रदीप को मेंटली अनफिट घोषित कर काम से निकाल दिया। वहीं रिंकू को गेटकीपर का काम दे रखा है। इसके बाद भी गैस लगने की घटना हुई है।

ट। ज्म्ब्भ् ॅ।ठ।ळ स्जक एक मल्टीनेशनल कम्पनी है जिसका हेड ऑफिस चेन्नई में है और कम्पनी के वेबसाईट के अनुसार इसका करोबार 35 देशों में है। दिल्ली के केशोपुर और कोंडली वेस्टवाटर प्लांट का काम यही कम्पनी देखती है। यह मल्टीनेशनल कम्पनी अपने सम्राज्य को और बड़ा करने के लिए मजदूरों के जीवन से खिलवाड़ करती है और सभी मानकों को ताक पर रख कर कर्मचारियों से काम करवाती है। सीवर में उतरते समय मास्क, चश्मा, हेलमेट, बॉडी शूट, गमबूट, सेफ्टी बेल्ट, आक्सीजन सिलेंडर, गैस मापने का यंत्र, एकझास्ट फैन, बलोअर और पास में फर्स्ट एड होना चाहिए। विनय का लाश जब पाईप से निकाली गई तो वह नंगे बदन था। केवल अंडरगारमेंट पहना हुआ। कोई भी सेफ्टी उसके पास नहीं थी। विनय की मां ने बताया कि जब घटना स्थल पर गई तो वहां केवल विनय का कपड़ा था और कुछ नहीं। जब मामला तूल पकड़ा तो वहां पर एक भीगा हुआ सेफ्टी बेल्ट रख दिया गया। सवाल है कि अगर सेफ्टी बेल्ट था भी तो उसको बाहर खींचने के लिए और लोग होने चाहिए- तो वे कहां थे? क्या विनय की मौत कम्पनी के मुनाफे की हवस की भेंट नहीं चढ़ा? कम्पनी के किसी अधिकारी पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई? मुआवजे के नाम पर उसके परिवार को दो लाख रू. दे दिया गया जबकि कोर्ट का निर्देश है कि सीवर की सफाई मशीन से किया जाये और किसी की मृत्यु होती है तो सरकार उसको 10 लाख रू. मुआवजा राशि दे। तो विनय के परिवार को यह राशि क्यों नहीं मिली? सरकार और कम्पनियों के गठजोड़ से मजूदरों को मुंह में ढकेलने वाले अधिकारी और मंत्री पर केस क्यों नहीं दर्ज किया जा रहा है?

 

 

II

इन मौतों का मुख्य कारण दिल्ली जल बोर्ड में कर्मचारियों की संख्या में कमी है। 1998 में जब जल बोर्ड का गठन हुआ उस समय 4000 किलोमीटर की सीवरेज थी और 13-14 हजार कर्मचारी थे। आज के समय सीवरेज 12000 किलोमीटर और कर्मचारियों की संख्या 4500 के लगभग है। 1998 के बाद से दिल्ली जल बोर्ड में भर्ती नहीं हुई है। इन मजदूरों की कमी की पूर्ति ठेका मजदूरों से की जाती है जिनके पास कोई अनुभव नहीं होता। मौजूदा समय में 7000 से अधिक मजदूर ठेके पर हैं। इन मजदूरों को ठेकेदार या जल बोर्ड द्वारा ट्रेनिंग नहीं दी जाती है। ठेकेदार इनको सुरक्षा उपकरण नहीं देता है और न ही गैस के बारे में बताता है। इन मजदूरों को पता नहीं होता कि सीवर में किस तरह के गैस होते हैं। मरने वाले में ज्यादातर ठेकेदार मजदूर होते हैं। सीवर में मिथेन, कार्बनडाइ मोनो आक्साईड, हाइड्रोजन सल्फाईड जैसे दम घोंटू गैस होते हैं और मजदूर इन गैस के चपेट में आकर असमय ही काल के ग्रास में समा जाते हैं।

जल बोर्ड के कर्मचारी बताते हैं कि उनके पास भी ज्यादा सेफ्टी नहीं होता था, लेकिन वह अपने अनुभव के आधार पर इस काम को कर लेते थे। जल बोर्ड यूनियन के अध्यक्ष वेदप्रकाश बताते हैं कि वे भी सीवरेज का काम किये हैं लेकिन उस समय कर्मचारियों की पर्याप्त संख्या होने के कारण वे 6-7 लोगों के साथ जाते थे। जिस गटर (सीवरेज के मेन होल) में उतरना होता था उसको और उसके दोनों साईड के गटर को खोल देते थे। उनको गैस पहचानने का अपना तरिका होता है, गटर का ढ़क्कन हटाते समय अगर उसमें से ककरोच या कीड़े निकलते हैं तो वो समझते हैं कि गैस नहीं है और अगर ककरोच- कीड़े नहीं निकले तो गैस की पुष्टि होती है। खुले दोनों गटर के पास दो कर्मचारी खड़े होते थे जिससे किसी को कोई नुकसान नहीं हो। लोग उस गटर को खोल कर उसमें पानी डालकर उसके शिल्ड को हिलाते हैं। शिल्ड के फटने के बाद ही गैस बाहर आती है। एक, डेढ़ घंटे गटर को खुले रखने के बाद एक कर्मचारी सरसों के तेल शरीर में लगाकर गटर के अन्दर रस्सी के सहारे अन्दर जाता है। बाहर खड़े कर्मचारी कुछ समय के अन्तराल पर उससे बात करते रहते हैं। अगर उसको किसी तरह की परेशानी होती है तो रस्सी हिला देता है या आवाज लगाता है तो बाहर खड़े कर्मचारी उसको खींच लेते हैं। इस तरह से गैस तो लगती है लेकिन मौत की मुंह में जाने से बच जाता है।

इन कर्मचारियों को गंदगी में काम करने से चर्म रोग, सांस एवं आंखों की बीमारी सहित कई तरह कि बीमारियां होती हैं। एक अध्ययन के अनुसार हर महीने 200 सफाईकर्मियों की मौतें हो जाती हैं। 90 प्रतिशत सफाई कर्मचारी 60 साल से पहले मौत के मुंह में चले जाते हैं। 49 प्रतिशत लोग खांसी, संास की बीमारी व सीने के दर्द के रोगी हैं। 11 प्रतिशत एग्जिमा और चर्मरोग और 32 प्रतिशत कान बहने, कान में संक्रमण, आंखों में जलन व कम देखने की शिकायत करते हैं। भूख न लगना उनकी आम बीमारी है।

बदबू, गंदगी में काम करने के कारण वे शराब और अन्य नशों के लत में फंसते चले जाते हैं। सफाई कर्मी की 37 प्रतिशत स्थांतरित कॉलोनी, 27 प्रतिशत किराए के घरों, 11 प्रतिशत स्लम, 12 प्रतिशत अनाधिकृत कॉलोनी और 13 प्रतिशत आवंटित सरकारी मकानों में रहते हैं। जल बोर्ड में सीवर सफाई कर्मचारियांे को आवंटित सरकारी मकान देने में भेद-भाव किया जाता है। उन्हें फ्लैट नहीं मिलता है। अगर उनकी साउथ में ड्यूटी होगी तो कोशिश की जाती है कि उनको बाहरी दिल्ली के किसे हिस्से में मकान आवंटित किया जाये। दिल्ली जल बोर्ड में 70 प्रतिशत सफाई कर्मचारी वाल्मिकी समुदाय के हैं और 30 प्रतिशत अन्य जाति या समुदाय के लोग हैं। 30 प्रतिशत जो अन्य जाति और समुदाय के लोग हैं उनकी नियुक्ति तो सफाई कर्मचारी के रूप में हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही सफाई का काम करते हैं, ज्यादातर ऑफिस या दूसरे कामों में लगा दिये जाते हैं।

III

दिल्ली में दीपावली के दिन यह कोई पहली मौत नहीं है। इसके पहले भी दीपावली के दिन मौतें हुई है। 18 अक्टूबर 1990 को दीपावली के दिन था 40 वर्षीय बेलदार तारीफ सिंह अपने घर से काम करने के लिये निकले थे। घर पर कुछ देर बाद फोन आया कि वे अस्पताल में हैं। जब तक घर वाले अस्पताल पहुंचे वे मर चुके थे। जून 2015 के पूर्वी दिल्ली में मूलचन्द (45 वर्ष) और दिलीप (42 वर्ष) की मौत हो गई। उनको बचाने के लिए सीवर में उतरे 5 लोग बेहोश हो गये। नन्दनगरी में एक महिला ने पहले अपने पति तथा बाद में अपने बुढ़ापे का सहारा दो जवान बेटों को खो दिया। एक ही घर में तीन-तीन विधवा महिलाएं, जिनके सुहाग को सीवर के विषैले गैसों ने उजाड़ दिया। ऐसे सैकड़ों परिवार मिल जायेगें जिनके घर के दो-दो, तीन-तीन सदस्य सीवर के विषैले गैस की भेंट चढ़ चुके हैं। ऐसा ही एक चिपयाना (गाजियाबाद) निवासी अभागे पिता फुट सिंह वाल्मिकी हैं जिनके पांच बेटों, जिनकी उम्र 20 से 35 वर्ष के बीच थी, को सीवर ने निगल लिया है। 8 जुलाई, 2015 को लखनऊ के जनकीपुरम सेक्टर जी में जेई ने धीरज को बिना सुरक्षा के सीवर में उतार दिया जिसके कारण उस की मृत्यु हो गई। जयपुर के सिविल लाईन्स में 15 सितम्बर, 2015 को ठेकेदार राकेश ने राजेश को बिना सुरक्षा उपकरण के सीवर में उतार दिया। राकेश के उतरने के बाद दूसरा मजदूर विनोद ने आवाज लगाई राजेश की प्रतिक्रिया नहीं आने पर विनोद भी सीवर में उतर गया। जब दोनों की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो ठेकेदार राकेश बचाने के बजाय वहां से भाग जाना ही उचित समझा। मृतक के परिजनों द्वारा हंगामा करने के बाद नगर निगम ने डेढ़-डेढ़ लाख मृतक के परिवारजनों को मुआवजा देकर अपने दायित्व की इतिश्री कर लिया।

IV

ठेकेदार मजदूरों के अलावा दिहाड़ी मजदूर भी सीवर सफाई, नाले-नालियों की सफाई का काम करते हैं। ऐसी ही एक घटना में सेक्टर तीन के झुग्गी में रहने वाले दो लोगों की जान 21 मई, 2012 को चली गई। रोहणी सेक्टर तीन की झुग्गी में शंकर (40) और मनोज (19) एस्वेस्टस से बने एक ही छत के नीचे रहते थे। मनोज अपनी मां और भाई के साथ रहता था, वहीं शंकर परिवार से दूर इनके साथ रहते थे। शंकर दिहाड़ी मजदूरी करते थे, वहीं मनोज किसी प्राइवेट स्कूल में सफाई का काम किया करते थे। रोहणी सेक्टर तीन में चमचमाती माल के पास सीवर जाम हो गया जिसके लिए ठेकेदार ने शंकर को एक हजार रू. में सफाई कर देने के लिए सम्पर्क किया। अभाव ग्रस्त जिन्दगी जी रहे शंकर को लगा कि 250 रू. की दिहाड़ी से अच्छा है कि आज सीवर की सफाई कर दी जाये। शंकर, मनोज को लेकर सीवर सफाई के लिए चला गया। शंकर सीवर में उतरा और मनोज ऊपर रहा कचड़ा खींचने के लिए। शंकर नीचे उतर कर नाले की सफाई करने लगा। अचानक गन्दगी आई और शंकर बेहोश होकर गिरने लगा। मनोज ने उसको ऊपर खिंचने की कोशिश की लेकिन वह भी सीवर में गिर गया और दोनों की मृत्यु हो गई। ठेकेदार वहां से भाग गया। मृतकों के आश्रितों को दो-दो लाख रू. दे कर प्रशासन ने इस केस में भी अपनी जिम्मेदारी से हाथ झटक लिया।

सरकार इन मौतों पर मौन क्यों है जबकि 1996 में मुम्बई कोर्ट और सन् 2000 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा कि सीवर में काम करने वालों को प्रशिक्षण के साथ-साथ पूरा सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाये। देश का सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि सीवरों की सफाई के लिए मशीन का प्रयोग किया जाये। सुरक्षा उपरकण देने की बजाय दिल्ली जल बोर्ड और अन्य जगहों पर इस खतरनाक काम को ठेके पर दे दिया जा रहा है जो कि मजदूरों को मौत के मुंह में ढकेलता है। हालात यह है कि 77 प्रतिशत मजदूर/कर्मचारी सेफ्टीे बेल्ट, 44 प्रतिशत गैस सिलेंडर, 40 प्रतिशत मास्क, 60 प्रतिशत हेलमेट, 26 प्रतिशत बॉडीशूट, 56 प्रतिशत गमबूट्स, 36 प्रतिशत आक्सिजन मास्क और 64 प्रतिशत टॉर्च के बारे में जानते ही नहीं हैं। ऐसे में क्या सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को संज्ञान में मामले को नहीं लेना चाहिए? क्या स्वच्छ भारत हाशिये पर पड़ी जनता और समुदाय की कुर्बानियों पर ही होना है? या हाशिये पर पड़ी जनता व समुदाय को भी भारत में कुछ हिस्सेदारी मिलेगी? अंधेरे नाले ने हाशिये पर पड़ी समुदाय को और अंधेरा में डाल दिया है। सीवरेज की मौत के जिम्मेदार किसको माना जाये?

जिन्दगी की कुर्बानियां देकर हमें स्वच्छ रखे वाले समाज में अछूत कहें जाते हैं। हमें उन्हें अपने घरों के अन्दर या अपने बर्तन उनके साथ साझा नहीं करते। क्या यही सभ्य समाज है जो कि दूसरे कि गंदगी को साफ करे वही गंदगी में रहे, उसी को हम अछूत मानते रहें? आखिर कब तक यह होता रहेगा? अभी हाल में तामिलनाडु के बाढ़ में सबसे ज्यादा नुकसान दलितों को हुआ और उन्हीं को सरकारी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है और उन्हीं से कुड़ा-कचरा साफ करवाया जा रहा है।

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