image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 जनवरी, 2016

कविता : देवयानी भारद्वाज

आज अपने समूह के साथी की कविताएँ पोस्ट की जा रही है. समूह के साथी की रचनाएँ बेनामी पोस्ट करते हैं..ताकि सभी साथी कविताओं पर खुलकर अपनी राय ज़ाहिर कर सके...उम्मीद है कि यह कविताएँ भी आपके भीतर कुछ हलचल पैदा करेंगी...और इनके बहाने से आप अपनी बात रख सकेंगे..प्रस्तुत है
समूह के साथी की कविताएँ
-----------

बस एक चुप सी लगी है  
और हां 
बेहद उदास हूँ मैं
अपने समय को दर्ज करने का मर्सिया नहीं आता 
कैसी लाचारी 
भाषा कम पड जाती है  
कंटीले तारों के इस पार 
और उस पार 
वे  प्‍यार से डरे हुए हैं 
बच्‍चों के सपनों से डरे
डरते हैं सडक पर चलती अकेली औरत से 
किताबों और बस्‍तों से अतंकित वे   उनके हाथों में बंदूक  त्रिशूल  ईश्‍वर की सत्‍ता
उनके साथ  पूंजी का सरमाया उनके पास 
उनकी सेनाएं 
अदालतें  सरकारें उनकी 
और वे  डरे हुए हैं  
जबकि निहत्‍थी औरतें
निकल रही हैं घर से बेधडक  बच्‍चों के बस्‍तों में अब भी  रखे हैं रंगीन पंख 
सुनहरे पत्‍थर 
अनंत ख्‍वाब 
मेरे पास  भाषा कम
मैं बेहद उदास  और बस्‍स ...  एक चुप सी लगी है
……………

सवेरा होने तक
 
चाहती तो यह भी हूं
कि दुनिया में बराबरी हो
न्‍याय हो
कोई भूखा न रहे
सबको मिले अच्‍छी शिक्षा
रोटी पर सबका हक हो
पानी पर सबका हक हो
सबके हिस्‍से में अपनी जमीन
सबका अपना आसमान हो
 
सीमाओं पर कंटीले तार न हों
फुलवारियां हों
 
हम इस तरह जाएं पाकिस्‍तान
जैसे बच्‍चे जाते हैं नानी घर
या कराची के सिनेमाघर में
देख कर रात का शो
लौट आएं हम दिल्‍ली
और चल पडें काबुल की ओर
मनाने ईद
 
जिन सीमाओं पर विवाद हैं
वहां बना दिए जाएं
कामकाजी मांओं के बच्‍चों के लिए
पालनाघर
 
नदियों पर बांध न बनाए जाएं
बसाई जाएं बस्तियां
उन तटों पर
जहां बहती हैं नदियां

जंगलों में जिएं
जगल के वाशिंदे
वनवासियों की विस्‍थापित बस्तियां न बनें शहर
जंगलों को मुनाफे के लिए लूटा न जाए
 
शिक्षा और विकास जैसे पुराने शब्‍दों की
नई परिभाषांए गढी जाएं
 
बच्‍चा जो सडक पर बेच रहा गुब्‍बारा
उसके हाथ में हों तो सही
गुब्‍बारों के गुच्‍छे
लेकिन वह खेल सके उनसे भरपूर
गुब्‍बारा से रंगों से खिले हों
उसके सपने
 
ऐसी अनंत चाहतों की फेहरिश्‍त है मेरे पास
और इन सबके बीच है
एक छोटी सी चाहत
बस इतनी
 
मेरी आंखों में उगते इन सपनों को
तुम अपनी हथेलियों में चुन लो
और हम साथ चलें
सवेरा होने तक के लिए 
-------------------

संज्ञान 

जब आंखे खोलो तो 
पी जाओ सारे दृश्‍य को 
जब बंद करो 
तो सुदूर अंतस में बसी छवियों 
तक जा पहुंचो 

कोई ध्‍वनि न छूटे 
और तुम चुन लो 
अपनी स्‍मृतियों में 
संजोना है जिन्‍हें  

जब छुओ 
ऐसे 
जैसे छुआ न हो 
इससे पहले कुछ भी 
छुओ इस तरह 
चट्टान भी नर्म हो जाए 
महफूज हो तुम्‍होरी हथेली में 

जब छुए जाओ 
बस मूंद लेना आंखें 

हर स्‍वाद के लिए 
तत्‍पर 
हर गंध के लिए आतुर तुम

----------------

सूखे गुलमोहर के तले

चौके पर चढ कर चाय पकाती लडकी ने देखा 
उसकी गुडिया का रिबन चाय की भाप में पिघल रहा है
बरतनों को मांजते हुए देखा उसने 
उसकी किताब में लिखी इबारतें घिसती जा रही हैं 
चौक बुहारते हुए अक्‍सर उसके पांवों में 
चुभ जाया करती हैं सपनों की किरचें 

किरचों के चुभने से बहते लहू पर 
गुडिया का रिबन बांध लेती है वह अक्‍सर 
इबारतों को आंगन पर उकेरती और 
पोंछ देती है खुद ही रोज उन्‍हें 
सपनों को कभी जूडे में लपेटना 
और कभी साडी के पल्‍लू में बांध लेना 
साध लिया है उसने 

साइकिल के पैडल मारते हुए 
रोज नाप लेती है इरादों का कोई एक फासला 
बिस्‍तर लगाते हुए लेती है
थाह अक्‍सर 
चादर की लंबाई की 
देखती है अपने पैरों का पसार और 
वह समेट कर रखती जाती है चादर को 

सपनों का राजकुमार नहीं है वह जो 
उसके घर के बाहर साइकिल पर चक्‍कर लगाता है 
उसके स्‍वप्‍न में घर के चारों तरफ दरवाजे हैं 
जिनमें धूप की आवाजाही है 
अमलतास के बिछौने पर गुलमोहर झरते हैं वहां 
जागती है वह जून के निर्जन में 
सूखे गुलमोहर के तले 

-----------
कम या ज्‍यादा
सिर्फ दो आंखें 
और देखने के लिये 
समूचा संसार 
बस एक दिल 
और दुनिया में इतना सारा प्यार   एक ज़रा सा इरादा 
और करने को इतने सारे काम   कमबख्त इंसान 
कितना कम हैसियत 
और  कितना बडा अभिमान

000 देवयानी भारद्वाज
चयन-- सत्यनारायण पटेल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें