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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 सितंबर, 2018

परख उन्नीस



कोई बात छू जाती है जब!

मनोज चौहान


कवियों की भीड़ में मनोज चौहान निरन्तर क्रियाशील हैं और सजग भी। बाजारवाद के इस युग में कविता का भी बाजारीकरण हुआ है। कुछ चुस्त और चालाक कवि कविता का विज्ञापन करके इस बाजार में टिके रहना चाहते हैं। उन्हें यहां के नियम पता हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि समय अपना काम करता है। यह बड़ा बलवान है। कवि ने ठीक कहा है-

हर रोज खुलता है बाज़ार
और शाम को बंद होते होते छोड़ जाता है कई सवाल।

मनोज चौहान की कविताएं अपनी स्मृतियों के भीतर से उपजती हैं। कवि बीते समय से गुजरते हुए अनुभवों को शब्द देता है जो सतही नहीं हैं। मनोज की रचनाएं आदमी के पत्थर होने और संवेदनहीनता की पड़ताल करती कविताएं हैं। कविता में स्थानीयता और भोलापन अभी हिंदी कविता में बचा हुआ है। सही भी है कि अगर कविता को बचाना है तो उसके प्राणतत्व स्थानीयता को बचाना होगा-

चाय और सत्तू देने आई पत्नी
जब लौटती है
तो वो पुनः खो जाता है
पहाड़ी जीवन के गणित को सुलझाने में।

मनोज चौहान की अधिकांश कविताओं की पृष्ठभूमि में पार्श्वसंगीत की तरह मनुष्यता की पीड़ा और उसके अवसाद की अनुगूंज अनवरत सुनाई देती रहती है। जीवन की पीड़ाओं से लड़ना कविता ही सिखाती है। कवि कहते हैं-

देखना कभी नजदीक जाकर
उस पहाड़ी औरत के हौंसले को
जब वह खींचती है झूले को
और पार कर जाती है उफनती नदी को।

कवि का मन बेचैन रहता है। उसके अंदर तोड़ फोड़ चलती रहती है। मनोज  सृजन के दौरान अत्यंत सजग और सतर्क नज़र आते हैं। इसलिए उन्होंने अपनी कई कविताओं में कविता के उद्देश्य को उदघाटित किया है। अपनी एक कविता में वो लिखते हैं-

कोई बात छू जाती है जब
हृदय तल की गहराइयों को
या कभी
पीड़ा और तकलीफ़ देते दृश्य
कर देते हैं बाध्य
भीतर के समुद्र में
गोता लगाने के लिए

जन्म लेती है
इस तरह एक कविता।

हम जब अपने असपास के वातावरण को देखते हैं तो पाते हैं कि आज सर्वाधिक पतन मानव मूल्यों का हुआ है। हम अधिक संवेदनहीन हुए हैं। जबकि इंसान के अलावा अन्य सभी प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर चलते हैं। लेकिन इंसान अपनी मनमर्जी करना चाहता है। इस कारण शोषण भी बढ़ता जा रहा है। हां उसका तरीका अवश्य बदल गया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि कवि का हृदय खोई हुई सम्वेदना और गिरते मानव मूल्यों की पड़ताल करता है-

मैं पिरो देना चाहता हूं
कविता की इन चन्द पंक्तियों में
शोषण के शिकार
उस मजदूर की व्यथा को।

सदियों से गरीब का शोषण अमीर करता आया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आदमी के बीच से संवेदनाएँ गायब होती जा रही हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि इंसान को बचपन से ही इस खतरनाक संवेदनहीनता से कैसे बचाया जाए-

और जब उफान
हो जाता है बेकाबू
तो सोच के समुंदर से
उड़ेल देता हूँ चंद बूंदे
शीतल जल की मानिंद।

इस संवेदनशीलता के पानी को बचाए रखना बेहद जरूरी है।
कवि की दुनिया सामान्य लोगों की दुनिया से अलग होती है। जहाँ सामान्य आदमी की सीमित दुनिया होती है, वहीं कवि की दुनिया अत्यंत विस्तार लिये होती है। कवि की गहन अनुभूति से ही कुछ सम्वेदना के स्वर फूटते हैं । कवि की संवेदना आम आदमी की संवेदना बन जाती है। शोषण का विरोध न करना भी एक किस्म का अपराध है। मनोज ने ठीक कहा-

जीवन और शतरंज में
आता नहीं है ठहराव कहीं भी
हर कदम पर
सतर्क रहते लड़ना होगा।

कवि चुप्पी की संस्कृति को खतरनाक मानते हैं। क्योंकि सब कुछ सहन कर जाना व्यक्ति को अपराधी की श्रेणी में ला देता है। समाज को सही दिशा देने का काम मौन होकर नहीं, मुखर होकर किया जा सकता है। इसलिए कविता की अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना भी कवि का कर्म है। स्वस्थ समाज का निर्माण तभी संभव है जब हम सब मिलकर ठोस योगदान दें। सच का साथ दें-

सच कभी मरता नहीं
गुम हो जाता है बेशक।

सच मरा नहीं
सुकरात को ज़हर देकर भी।

जीवन के कठोर संघर्ष के दिनों में भी मनोबल ऊंचा बनाए रखना सकारात्मक सोच की ही उपज है। कविता दरअसल अंधेरे में रोशनी की तरह उम्मीद की किरणें हैं। कविता के भीतर अनकही बातों का संकेत भी स्पष्टता से आना चाहिए। सरलीकरण कविता का आवश्यक गुण है लेकिन कई बार विषयानुसार कविता को सरलीकरण से बचाने का प्रयास भी होना चाहिए। मनोज की भाषा एकदम सरल है। कविताओं में बिम्बों, रूपकों और प्रतीकों की कमी खलती है। शैली और शिल्प साधारण होते हुए भी काव्य भाव आकर्षित करता है-

याद आती हैं
खाना खाते समय
पिता की दी गई नसीहतें
दादी की चिंताएं।

दादा का
हुक्का गुड़गुड़ाते हुए
लेना रिपोर्ट सभी से।

कवि ने अपनी कविताओं में अत्यंत मोहक और विषयानुकूल शब्दों का चयन किया है। सभी कविताओं में एक बेहतरीन प्रवाह है, जो काव्य-पाठ सा आनंद देता है। कई कविताएँ समाज और संस्कृति पर थोड़ा रुककर सोचने की मांग करती हैं और बेहतर मनुष्य बनने की सिफारिश। बहुत सी मुश्किलें तो वैसे ही हल हो जाएंगी यदि मनुष्य अच्छा बन जाए। कुछ कविताएं मार्मिक हैं और हृदय को बड़ी ही गहराई तक स्पर्श करती हुई आगे बढ़ती हैं-

वक्त का दीमक
कर जाता है जर्जर
हर उस चीज को
जिन्हें छोड़ दिया जाता है
तन्हा और उपेक्षित।

एक बार की बात है, दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वो आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं। उन्होंने अपने साथ लाया हुआ एक बड़ा जार टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे। वो तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची। उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या जार पूरा भर गया? सबने हाँ कहा। फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये , धीरे-धीरे जार को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर पूछा , क्या अब जार भर गया है ? छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ कहा । अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस जार में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे। फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह जार पूरा भर गया ना ? हाँ.. अब तो पूरा भर गया है,  सभी ने एक स्वर में कहा। प्रोफेसर साहब ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच पड़ी थोडी़ सी जगह ने सोख ली।  प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया - इस जार को तुम लोग अपना जीवन समझो। टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं। छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं और रेत का मतलब छोटी-छोटी बेकार की बातें , मनमुटाव , झगडे़ आदि है। अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी...ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है। यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा। मन के सुख के लिये क्या जरूरी है? यह तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बाग में पेड़ों को पानी दो, सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फैंको, अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दो। टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण हैं। बाकी सब तो रेत है। छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे कि अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि " चाय के दो कप" क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये और बोले, मैं सोच ही रहा था कि अभी तक यह सवाल किसी ने क्यों नहीं किया। इसका उत्तर यह है कि  जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।
आज जीवन में हम यही अंतिम बात सबसे अधिक भूल जाते हैं। मित्रता स्वार्थ के दिनों में तो खूब फलती फूलती देखी जा सकती है परन्तु निःस्वार्थ प्रेम और मित्रता दुर्लभ है। जीवन में यदि कुछ भरपूर है तो वो है रेत। कवि ने ठीक ही कहा कि जीवन में उपेक्षित चीज़ों को समय का दीमक जर्जर कर देता है। मनोज की कविताएं स्थानीयता से सराबोर हैं। इनमें पहाड़ की ठंडी बयार है और खेतों की खुशबू भी-

महज़ खेत नहीं हैं
ये तो मूल्यों और संस्कारों की पाठशाला के
खुले अध्ययन कक्ष हैं।

कवि सूखते जलस्रोतों, घटते जंगलों, मिटते खेतों और टूटते सम्बन्धों को देखकर चिंतित है।उसके मन में विचारों की उथलपुथल अनवरत चलती रहती है। कवि थोड़ा विराम देना चाहता है, थोड़ा आराम करना चाहता है ताकि वैचारिकता को नई ऊर्जा मिल सके। कभी कभी ठहराव अच्छा होता है, भीतर का ठहराव-

मैं पाता हूँ कभी कभार
एक ठहराव अपने भीतर।
००

गणेश गनी

परख अठारह नीचे लिंक पर पढ़िए

प्रजा आमोट कर रही है ! 
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/avalanche-2-10-79-75-60.html?m=1


-गणेश गनी
भुट्टी कॉलोनी
शमशी, कुल्लू
175126

9736500069

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर और प्रभावशाली समीक्षा के लिये समीक्षक गणेश गनी जी को और बहुत ही सुन्दर और सार्थक सृजन के लिये प्रिय मनोज चौहान जी को दिल की गहराईयों से बधाई।

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