राजकिशोर राजन |
अपने दफ्तरों के लिए
निकलीं वे तीन कामकाजी महिलाएँ थीं
जिनकी बातें शुरू
हुई थीं आज दाल से
क्योंकि उनमें से एक
को इन दिनों सबसे अधिक तकलीफ उसी से थी
उसके श्वसुर को पता
नहीं क्या सूझी है इन दिनों
कि कभी सिर्फ दाल ही
पी लेते कई-कई बार माँग कर
और थाली में छोड़
देते चावल पूरे का पूरा
अक्सर पूरा घर रह
जाता बिना दाल
दूसरी जो तीनों में
अधिक सुघड़ थी
हालांकि उसके कपड़े थे
सबसे सलीकेदार
वह निराश थी कि उसकी
नींद इन दिनों कभी पूरी नहीं होती
पता नहीं उसकी
जिंदगी में बैठना क्या बदा नहीं है
तीसरी जो दोनों से
बोल रही थी एक साँस में तेज-तेज
जैसे कि यह दुनिया
भरी हुई है
गूँगे-बहरे लोगों से
वह बेहद उदास थी
कि असमय वह क्यों
बूढ़ी होती जा रही है
क्योंकि सहेलियों को
तो छोड़ों इधर बेटी भी कहने लगी है
समय से पहले तुम
बूढ़ी होती हो जा रही हो माँ
पहली बार तीनों एकमत
थीं
जब पहली ने कहा,
तीसरी से, दूसरी के बारे में
कि इसे ही देखो पहले
इसकी आँखें कितनी तो हुआ करती थीं सुंदर
अब किसी पेड़ के कोटर-सी
लगती है
दूसरी ने पहली के
लिए कहा-एकदम सही
देखो पहले कैसे ताजे
फूल की तरह खिले लगते थे तुम्हारे होंठ
अब लगता है
स्याहीसोखता-से किसी ने सोख लिया हो उसका स्वत्व
तीसरी जो उम्र से
अधिक थी
उसने श्रेयस्कर समझा
चुप रहना ही
जैसे कि जीवन को
जीना हो तो
बड़ी-से-बड़ी बात पर
एक जम्हाई ले लो गहरी
और फिर उसे कर दो
आई-गई बात
उन तीनों की राय थी
कि सुबह-सुबह वे ही बनाती हैं चाय
पर जब तक पीयें
इत्मीनान से बैठकर चाय
उनकी जिंदगी की तरह
ठंडी हो जाती है चाय
और फिर वे पहली बार
खिलखिला उठती है जवान औरतों की तरह ।
एक झूठी जिन्दगी की दिनचर्या
आज मन भारी-भारी सा
है
दो-तीनअखबार
सुबह-सुबह का जवान लड़कियों की आँसुओं से गीला था
पन्ने कटे-फटे थे
क्योंकि शहर में लूट-डकैती की चीखें थीं
बीच का पन्ना धूप
में सूखने को व्याकुल
उसमें कई अधनंगी
देशी-विदेशी मॉडल/सिने तारिकाओं की तस्वीर थी
दो-चार मरियल कुत्ते
जो अक्सर लेटे रहते सड़क किनारे
उन्हें देखता हूँ तो
हूक उठती है सीने में
इसी तरह का हाल
कमोबेश लोगों का भी
अब ओखली में सिर इस
देश का
और कूट रहे सेठ-साहुकार,
पूँजीवाद के
कलाल/दलाल
एक तरफ विलास, दूसरे
छोर पर विलाप
और बीच में इतना बड़ा
बाजार, इतना शोर
कि प्रार्थनाएँ,
बददुआएँ, क्रोध, हँसी, रूदन सभी मेंढक की टर्र-टर्र
सभी पेट भर रहे
कोई घर भर रहा
कोई बैंक भर रहा
कोई झोला भर रहा
कहीं कुछ रिक्त नहीं
पोखर में पानी नहीं
तो पोखर गायब
और वहाँ बन रहा मकान
मकान में एक कमरा
खाली
और वहाँ बन रहा
दुकान
कोई क्या कर सकता है
ऐसे में
कि तुम भी खाओ-कमाओ,
बीच-बीच में शांति का गीत गाओ
यह दुनिया सदा से
ऐसी थी
रहेगी सदा ऐसी ही
ऐसे में एक छोटी-सी
जिन्दगी भी
तुम क्यों व्यर्थ
गँवाओ
अब चलो रात हो रही
पत्नी को जुकाम है
यूँ भी बाहर से अधिक
घर में काम है ।
अन्न से कंकड़ बीनती औरत
जब-जब उन आँखों में देखा
दुनिया को सॅंवरते देखा
खिलते देखा, हँसते देखा
दीए की लौ को जलते देखा
मरे हुए सपनों को फिर-फिर
दूर्वा अस पनपते देखा
काट-कूट से भरे कागज को
एकदम साफ दमकते देखा
जब-जब उन आँखों को देखा
स्त्री को पृथ्वी बनते देखा
जब-जब उन आँखों को देखा
ईश्वर को सिरजते देखा ।
भात और भात की तरकारी
मैंने कहा सुन रहा
हूँ-
उसने कहा क्या-क्या
नहीं किया कि जितने दिन रहूँ
दुनिया में खुशियों
के साथ जिऊँ
समय के
साथ नदी जल-सा बहूँ
पर दुख धरता
है ॲकवारी में पीछे से
किसी
पुराने मित्र-सा औचक
जब-जब
उसकी नजरों से होने लगता हूँ तनिक ओझल
चाची
नहीं रही जो थरिया के छूँछ भात को
मेरे लिए
बनाती थी स्वादिष्ट
तरकारी
की जगह देती थी
भात में नून-तेल मिला,
मिर्चाई काट कर
और हँस कर कहती थी इस तरकारी के साथ भात खाना
सात जन्मों के पुण्य का परिणाम है
मुझे मालूम था हमारे दुख के दिन हैं
बिक गई है गाय
साल भर से नहीं आया मनीआर्डर बाबूजी का
अकाल खेतों में उतरता है तो बरसों
सोता है खटिया पर साथ-साथ
तरकारी के खेत में जली हुई देह की आती है दुर्गंध
मकई-धान के खेत में सिर धुनता है दिन
बसवारी में काईं-कुईं, कूँ-काँ करता है
गाँव का कुकुर मरने से पहले
शीशम के पेड़ पर दोपहर की तेज धूप
किसी जुल्मी तानाशाह की तरह निष्ठुर हो बैठ
देखती है हाहाकार
शाम किसी मरणासन्न बुढ़िया-सी
आती है घंटा भर में डेग-डेग धरते
भात के साथ दाल और तरकारी
अब भी जब बैठता हूँ भर गिलास पानी ले
भात मुझ पर हँसता है
इन दिनों बहुत बदल गये हो तुम
भात खाते हो पर भूल गये हो मेरा स्वाद
मैंने कहा सुन लिया
अब गुन रहा हूँ मैं ।
विलोम
जब भी हुआ तेज दाँत दर्द
हुआ रात को ही
जब भी उछाह से निकला घर से
उसी दिन ठेस लगी पैरों में
जब भी दो रोटी नहीं लाया साथ
उसी दिन सहकर्मियों ने कहा
चलो आज खाते हैं टिफिन साथ
जब भी भूल गया जेब में रखना कलम
उसी दिन किसी जरूरतमंद ने मांगी कलम
जब भी पहुँचा दिल्ली
दोस्त मेरा उसी दिल्ली से बाहर निकला था
जब भी उसकी गली में पहुँचा नये कपड़े पहन
दिखी नहीं एक बार भी बरामदे या छत पर वो
जब भी पत्नी ने कहा
वर्षों हुए नहीं जा पाये कहीं घूमने-फिरने
उन्हीं दिनों कर्ज में डूबा था मैं
जब भी लिखना चाहा एकदम नए ढ़ँग की कविता
पुरानी कविताएँ एक-एक कर आने लगीं बेतरह याद ।
इस सच के साथ लौटना
मैं लौटना नहीं
चाहता इस सच के साथ कि
बड़ी मछली हमेशा से
खाती रही है छोटी मछली को
और दूसरे की छाती पर
पैर रख
दुनिया बढ़ती है आगे
वे शब्द जिन पर
भरोसा था मुझे ब्रह्म की तरह
एक नहीं, रखने लगे
हैं, कई-कई शक्लें
क्योंकि बुरे लोग
खेलते आए हैं छक कर उनसे
और सज्जन शब्दों से
खेलने में तुतलाने लगते हैं
मैं लौटना नहीं
चाहता इस सच के साथ कि
हमारे समय में
विद्वता, पांडित्य, बुद्धिमत्ता सब के सब
गोता लगाते मिलते
मौकापरस्ती के महासमुद्र में
मैं लौटना नहीं
चाहता इस सच के साथ कि
अपनी खुशियों के लिए
हमें मंजूर है कत्ल
कि आत्महत्या के
पहले जो चिट्ठी
वह जवान लड़की छोड़ कर
गई
कि मैंने नहीं की
आत्महत्या
मौत मुझे जिंदगी से
बेहतर लगी, सो जा रही हूँ
मैं लौटना नहीं
चाहता इस सच के साथ कि
चाहे जो हो, अंत में
सब ठीक ही होगा
मैं लौटना नहीं
चाहता इस सच के साथ कि
हमारे समय में
विवेक, नैतिकता, सच्चाई के सोने का वक्त है
क्योंकि उनके होने
का कोई मतलब नहीं है
चूँकि सफलता ने
सार्थकता का कत्ल कर
टाँग दिया है बीच
चौराहे पर
मैं लौटना नहीं
चाहता इस सच के साथ कि
कविता में “प्रेम” शब्द भी पतंग-सा
उड़ता मिले बिना हाड़-माँस का
जबकि उसे पन्नों पर
एक पहाड़ी किशोरी की तरह खिलखिलाना चाहिए था
वैसे ही “प्रतिरोध” को शब्दों की
भूलभूलैया में
निरीह, मूक, नि:शब्द
हो ढूँढ़ना पड़े अपना रास्ता
मैं लौटना नहीं
चाहता अपनी जिद छोड़ कर
क्योंकि एक जिद ही
तो है जिसने छोड़ा नहीं कभी मेरा साथ
इस सच के साथ लौट
गया तो
मेरी कविताएँ हमेशा
शिकायत करेंगी
कायर था, लौट गया
पीठ दिखा कर ।
जिस भाषा में शब्द
नहीं होते नाम मात्र के भी
वहाँ ईंख के खेत थे
जो दोपहर की धूप में उनींदे पड़े थे
और सड़क किनारे शीशम
के कुछ पेड़ आदतन चुपचाप
यहाँ से कुछ दूर
मिलता है एक गाँव
मेरी साईकिल को देख
उसने दूर से ही
इशारों में पूछा- जा
रहे हो वहीं न !
मैंने उत्तर में एक
हाथ को ऊपर कर मुस्कुराया
जैसे कि मेरे हाथ
में झंडा हो इंकलाब का
और हमारी बात पूरी
हो गई इतनी कि
मैं चाहूँ तो बताता
रहूँ उम्र भर
हे भाषा के जानकार
मित्रो !
दुनिया की कई भाषाओं के महारथी भाषाविदों
भाषा के बारे में बोलने वालों, साधने वालों
क्या आपकी दृष्टि उस भाषा की ओर गई कभी
जिसमें नहीं होते शब्द नाम मात्र के भी ।
करीमनी जब आई थी
गाँव
कोई उसकी माँग में
सिन्दूर देखता और कहता
सेर भर सिन्दूर डाल
करीमनी अब चिन्हाती नहीं है
ऐसे कर रही थी छाव
कि
उसकी देह में समा गई
हो सती-सावित्री की आत्मा
कोई उसकी सैंडल देख
करता चुहल
कि छुटपन से खाली
पैर छिछियाते ई-खेत-उ-खेत
आज कैसे उठा-उठा के
भुईयाँ पैर धर रही है करीमनी
कोई उसकी साड़ी देख
जल-भुन जाता
कहता- दुख-दलिद्दर
भले दूर हो गया करीमनी का
पर अब भी उसकी साड़ी
देख लगता
मकई के खेत में खड़े
बिजूके में कोई टाँग दिया हो
सिधवलिया बाजार से
खरीद लाल-चटकार साड़ी
जितना मुँह उतनी तरह
की बातें
कोई कहता रह रही
होगी किसी कुजात की रखैल बन कर
कोई कहता गाँव का
नाम नाली में बुड़ा दी करीमनी
कोई कहता जनम के साथ
मर जाती तो अच्छा था
कोई कहता वो कौन-सा
मूर्ख है दुनिया का
जिसकी पत्नी बन तर
गई करीमनी
एक बार जो आई थी
गाँव
फिर कभी मुँह दिखाने
भर को आई नहीं करीमनी
शहर के किसी बदनाम
गली में पति को तज
खुल के चर रही होगी
करीमनी
कुछ लोग कहते हैं
जिंदगी भर का बदला
लेने आई थी करीमनी
अगर कोई मिले करीमनी
से तो क्या बताएगी वो
यही न कि जिस गाँव
में नहीं बित्ता भर खेत
न बाप, न माँ
न सुने कभी उसने दो
मीठे बोल
बज़्जर परे वहाँ
रहना क्या उस परदेस
में जाकर ।
उनका दुख, उनके बारे
में किस्से
उनको दुख था इन
दिनों पत्नी उदास अनमनी-सी रहती है
वक्त-बेवक्त पड़ी
रहती पूजा-पाठ में
इसके बाद जुड़ गया यह
किस्सा उनके साथ
कि नहीं रहे चंदेसर
बाबू पहले जैसा मर्द
हो गई है उनमें
जनाना मिलावट
इसलिए अब सिर्फ आँख
में धूल झोंकते हैं
पत्नी संग पर्यटक बन
कभी बनारस, कभी
देहरादून घूमते हैं
उनको दुख था कि बेटा
फिसड्डी है पढ़ाई में
न सीखा है
दुनियादारी का ककहरा
बोलता भी है तो जैसे
मुँह में जुबान नहीं है
ऐसे में कैसे जियेगा
संसार में
इसके बाद जुड़ गया यह
किस्सा उनके साथ
कि बेटा भी गया बाप
पर
जैसे कि माँ गुने
बछड़ू, पिता गुने घोड़
न गुने तो थोड़ो-थोड़
उनको दुख था कि जिस
नौकरी में पिसते रहे
जवानी से शुरू कर
बुढ़ापे तक
वहाँ भी जहाँ से चले
थे वहीं हो गई उनकी यात्रा खत्म
उनके मित्र ही उनसे
करते रहे उनसे डेग-डेग पर छल
कदम-कदम पर घात
और इससे उन पर होता
रहा दारूण आघात
इस उम्र में जा कर
उन्हें हुआ बोध
कि इस मौकापरस्त,
अय्यार दुनिया में
रह गए अबोध
इसके बाद उनके बारे
में यह किस्सा भी जुड़ गया
कि चंदेसर बाबू रहे
आजीवन स्वार्थी-मक्कार
और यह दुनिया है गोल
तभी तो जैसा किए,
घूमते-घूमते आया उनके पास
ऐसे कई-कई दुख हैं
चंदेसर बाबू को
ऐसे कई-कई किस्से
हैं चंदेसर बाबू के बारे में ।
अल्पविराम से अधिक
नहीं
खेत की मेड़ पर
पांक-कीच, धूप-धूल में सने
जो चुक्का-मुक्का
बैठ सुस्ता रहे हैं
उनसे कहना चाहता
तुम हो तो
अन्नपूर्णा है धरती
नहीं तो हमने
क्या-क्या नहीं किए
इसे बनाने के लिए बंजर
और वीरान
जिसकी देह का पसीना
मृत्यु के पहले शायद
ही कभी सूखता हो
उन मजदूरों से कहना
चाहता
जो जितना बहाए
खून-पसीना
रहेगा हरदम खाली पेट
दलालों-मक्कारों की
बनाई इस व्यवस्था में
तुम हो तो महक है
फूलों में
मिट्टी में गमक,
पत्तियों में रस
स्वाद जीवन में
जो घर से निकलते ही
चलने लगतीं नाक की सीध में
निर्जीव शव की तरह
कि कहीं देख लें
इधर-उधर, हँस-मुस्कुरा दे
तो लोग पीछे पड़ जाएँ
समझ धंधेवाली
उन स्त्रियों से
कहना चाहता
तुम हो तो रहने लायक
है संसार
नहीं तो बारूद के
ढ़ेर पर बैठी इस दुनिया को
लड़ते-मरते हम बना
देते कब्रगाह
जहाँ रात होती सिर
धुनने के लिए
दिन रक्तपात करने के
लिए
इनसे कहना चाहता
बारंबार
तुमसे अधिक सुंदर
नहीं लिखीं
किसी कवि ने अब तक
कोई कविता
मेरी तो सारी-की-सारी
कविताएँ
नहीं हैं एक
अल्पविराम से अधिक
क्या फर्क पड़ता है !
तुम्हें अपने जीवन
में
कोई कविता लिखने का
नहीं मिला वक्त ।
परिचय
राजकिशोर राजन
25 अगस्त 1967 को ग्राम - चाँदपरना, जिला –
गोपालगंज में जन्म
प्रारंभिक शिक्षा गाँव में एम.ए.(हिन्दी)
पत्रकारिता में डिप्लोमा
हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं
में कविताएँ, समीक्षा आदि प्रकाशित
कई नाटकों का लेखन, निर्देशन
अब तक चार कविता संग्रह- “बस क्षण भर के लिये”, “नूरानी
बाग”, “ढील
हेरती लड़की” एवं “कुशीनारा से गुजरते” प्रकाशित
सूत्र सम्मान, जनकवि रामदेव भावुक सम्मान, आरसी
प्रसाद सिंह सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद सहित कई
अन्यसंस्थानों द्वारा सम्मान व पुरस्कार
“स्वर एकादश” एवं “पुश्तैनी गंध” आदि कई अन्य काव्य
संकलनों में कविताएँ संकलित
कई कविताओं का भारतीय भाषाओं में अनुवाद,
आकाशवाणी/दूरदर्शन से कविताएँ प्रसारित
ट्यूशन से लेकर अखबार की नौकरी
सम्प्रति- राजभाषा विभाग, पूर्व मध्य रेल, हाजीपुर में
वरिष्ठ अनुवादक
संपर्कः- बी-403, बी. एस. प्लाजा,
दक्षिणी चित्रगुप्त नगर, कंकड़बाग,
पटना-800020
मोः-+91-7250042924
Email:-
rajan.rajkishor56@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें