॥ चिम्मु ॥
मेरी चार साल की
नन्ही बेटी
रोज पूछती है फोन से
चिम्मुओं का हाल
मैं देता रहता हूं उसे हर सूचना
हर तरह से हिसाब
अभी-अभी लगे हैं चिम्मु
अभी हरे हैं वे
नहीं चढ़ा उन पर मौसम का रंग
अभी नहीं हुए वे
काले, सफेद और बैंगनी
अभी-अभी जन्मे हैं वे
खोली हैं आंखें टहनी के गर्भ से
लेने लगे हैं अभी-अभी सांस
ताकने लगे हैं बाहर का हर नजारा
दुनिया की रेलमपेल, भागमभाग’
दूर किन्नौर में बैठी मेरी नन्ही बेटी
होती रहती है चिम्मुओं की हर सूचना पर
खुश और दुखी
साथ-साथ
कर लेना चाहती है वह
पिता की हर बात की तसल्ली
व्हाट्सएप से मांगती है रोज
चिम्मुओं का फोटो
उसे बहुत पसंद हैं चिम्मु
खासकर अपने दोनों पेड़ों के
काले और सफेद चिम्मु
उग आए थे जो बर्षों पहले
बेटी के जन्म से भी
लाया था किसी पक्षी का बीट उन्हे
या फिर ये बीज
आए होगें हवा में लहराते, गाते, झूमते हुए
सिर्फ मेरी बेटी के लिए ही
छुट्टी पर इस बार मां के साथ घर आई बेटी
जान गई थी फिर लगने वालेे हैं चिम्मु
वह बार-बार सुनाती रही मुझे एक ही बात
पापा वहां लदे हैं पेड़
सेब, खुमानी, न्योजा, अखरोट और बादाम से
बस नहीं हैं तो
चिम्मु!
आज तोड़ रहा हूं दोनों पेड़ों के पके चिम्मु
और संभाल कर रख रहा हूं उन्हें
छोटी-सी गत्ते की पेटी में
सुबह पांच बजे वाली मंडी-रिकांगपिओ बस से
भिजवाऊंगा बेटी को रंग-बिरंगे चिम्मु
और ढेर सारा प्यार
नोटः ‘चिम्मु’ अर्थात शहतूत के पेड़ पर लगने वाला फल। स्थानीय भाषा में उसे यहां ‘चिम्मु’ कहा जाता है।
किन्नौर हिमाचल का जनजातीय क्षेत्र है जहां सेब, खुमानी, न्योजा, चुली, अखरोट और बादाम जैसे ड्राई फ्रूटस बहुतायत मात्रा में पाए जाते हैं।
॥ कटारड़ु ॥
सर्दी की गुनगुनी धूप में
छत पर लेटा मैं
देखता रहा बड़ी देर तक
आकाश
एकटक
बूढ़ी अम्मा को लपेटते
अपनी पींजी-अनपींजी रुई के
ढेरों फाहे
कटारडुओं के छोटे-छोटे झूंड
इधर से उधर
तेजी से उड़ते, मस्ती में खेलते
और बांधते रुई को गांठों में
अम्मा को देते सहारा
वे जानते हैं
काम खत्म होते ही
टिमटिमाते तारों
और खिलखिलाते चांद के बीच
अम्मा सुनाएगी उन्हे
कोई बढिया-सी कहानी
एक मीठी-सी लोरी
इसलिए तेजी से वे
समेट रहे थे रुई
बहेलिए को चकमा देते हुए
कटारडु -एक छोटी चिडिया जो मिट्टी से घर की छत या दीवारों पर अपना घोंसला तैयार करती है।
उसे यहां की बोली में कटारड़ु के नाम से पुकारा जाता है।
॥ खांसते पिता ॥
1
⭕कई परेशानियों से जूझते
और खांसते पिता
नहीं जाना चाहते अस्पताल
अस्पताल के नाम पर
देते हैं हर बार सबको एक ही जबाव
‘अपने हिस्से की सांसें
नहीं जाऊंगा छोड़कर यूं ही ’
हम..............................सब चुप
नहीं दे पाता कोई हल्का-सा भी जबाव
और एक पल के लिए छा जाती है उदासी
कौमा के बाद जितनी
हर बार
शायद पिता डरने लगे हैं अब
डाक्टरों के घड़ी-घड़ी किए जाने वाले
परीक्षणों से
वे नहीं पालना चाहते अब कोई
नई परेशानी
बूढ़े हो गए हैं वे
कई बिमारियों से लड़ते-लड़ते ताउम्र
बीड़ी के लंबे-लंबे
कस लगाते हुए
खींचते रहते हैं धुआं भीतर ही भीतर
और खांसी की हर खांस को
बाहर निकालते हुए कहते हैं
'लो निकल गई सारी बीमारी बाहर’
मुंह से निकलता धुंआ
हवा में फैलता हुआ
होता जाता है और भी गाढ़ा
काला, स्याह
और पिता फिक्रमंद
लेकिन बेफिक्र से होकर
भरते जाते हैं उसमें और गहरा रंग
परंतु नहीं जाना चाहते अस्पताल
..........बस
2
⭕ खांसते पिता
संबल है हमारे लिए
और हमारी चेतना का सैलाब
उनका खांसना देता रहता है हमें
सुरक्षा का आभास
दिन-रात
डराता रहता है
हमारे घर पर बूरी नजर रखने वालों को भी
वे ओजोन परत है हमारे लिए
और जिम्मेवारियों का अहसास दिलाती
एक आदर्श मूरत
हमारे लिए आने वाली
एक खुली सांस
000 पवन चौहान
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टिप्पणियाँ:-
मनीषा जैन :-
आज की कविताएं समूह एक के साथी पवन चौहान जी की हैं। इनका पहला काव्य संग्रह "किनारे की चट्टान" बोधि प्रकाशन से आया है।
फ़रहत अली खान:-
बहुत अच्छे कवि मालूम होते हैं पवन जी। सभी कविताएँ बढ़िया हैं, ख़ासकर पिता-1 और 2.
भावनाओं को बेहद सहजता और सरलता से व्यक्त किया है कवि ने।
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