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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 सितंबर, 2015

कविता : विस्लावा शिम्बोर्स्का

॥ आकस्मिक मुलाकात ॥
    विस्लावा शिम्बोर्स्का

⭕हम मिले
बड़े सलीके और शिष्टाचार के साथ ।
हमने कहा- कितनी खुशी हुई
आपको इतने सालों बाद देखकर !

पर हमारे भीतर थककर सो गया था बहुत-कुछ ।
घास खा रहा था शेर,
बाज ने अपनी उड़ान छोड़ दी थी ।
मछलियाँ डूब गई थीं और भेड़िए पिंजरों में बन्द थे ।

हमारे साँप अपनी केंचुल बदल चुके थे ।
मोरों के पंख झड़ गए थे ।
उल्लू तक नहीं उड़ते थे हमारी रातों में ।
हमारे वाक्य टूट कर ख़ामोश हो गए ।

असहाय-सी मुस्कान में खो गई
हमारी इंसानियत
जो नहीं जानती कि आगे क्या कहे !

     ॥   नफ़रत ॥

विस्लावा शिम्बोर्स्का

⭕ देखो, तो अब भी कितनी चुस्त-दुरुस्त और पुरअसर है
हमारी सदी की नफ़रत,
किस आसानी से चूर-चूर कर देती है
बड़ी-से-बड़ी रुकावटों को!
किस फुर्ती से झपटकर
हमें दबोच लेती है!

यह दूसरे जज़्बों से कितनी अलग है --
एक साथ ही बूढ़ी भी और जवान भी।
यह खुद उन कारणों को जन्म देती है
जिनसे पैदा हुई थी।
अगर यह सोती भी है तो हमेशा के लिए नहीं,
निद्राहीन रातें भी इसे थकाती नहीं,
बल्कि और तर-ओ-ताज़ा कर जाती हैं।

यह मज़हब हो या वह जो भी इसे जगा दे।
यह देश हो या वह जो भी इसे उठा दे।
इंसाफ भी तभी तक अपनी राह चलता है
जब तक नफ़रत इसकी दिशा नहीं बदल देती।
आपने देखा है इसका चेहरा
-- कामोन्माद की विकृत मुद्राओं वाला चेहरा।

ओह! दूसरे जज़्बात इसके सामने
कितनी कमज़ोर और मिमियाते हुए नज़र आते हैं।
क्या भाई-चारे के नाम पर भी किसी ने
भीड़ जुटाई है?
क्या करुणा से भी कोई काम पूरा हुआ है?
क्या संदेह कभी किसी फ़साद की जड़ बन सका है?
यह ताक़त सिर्फ़ नफ़रत में है।
ओह! इसकी प्रतिभा!
इसकी लगन! इसकी मेहनत!

कौन भुला सकता है वे गीत
जो इसने रचे?
वे पृष्ठ जो सिर्फ़ इसकी वजह से
इतिहास में जुड़े!
वे लाशें जिनसे पटे पड़े हैं
हमारे शहर, चौराहे और मैदान!

मानना ही होगा,
यह सौंदर्य के नए-नए आविष्कार कर सकती है,
इसकी अपनी सौंदर्य दृष्टि है।
आकाश के बीच फूटते हुए बमों की लाली
किस सूर्योदय से कम है।
और फिर खंडहरों की भव्य करुणा
जिनके बीच किसी फूहड़ मज़ाक की तरह
खड़ा हुआ विजय-स्तंभ!

नफ़रत में समाहित हैं
जाने कितने विरोधाभास --
विस्फोट के धमाके के बाद मौत की ख़ामोशी,
बर्फ़ीले मैदानों पर छितराया लाल खून।

इसके बावजूद यह कभी दूर नहीं जाती
अपने मूल स्वर से
ख़ून से सने शिकार पर झुके जल्लाद से।
यह हमेशा नई चुनौतियों के लिए तैयार रहती है
भले ही कभी कुछ देर हो जाए
पर आती ज़रूर है।
लोग कहते है।

अनुवाद
विजय अहलूवालिया

परिचय

  जन्म   1923, कोर्निक, पोज़्नॉन (पोलैंड)

मुख्य कृतियाँ

देट्स वाई वी लाइभ (1952), कॉलिंग टू येती (1957), सॉल्ट (1962), नो एंड ऑफ फन (1972), कूड हेव (1972), ग्रेट नंबर (1976), पीपुल ओन दी ब्रीज (1986), द इंड एंड द बिगनिंग (1993)

सम्मान
नोबेल पुरस्कार, The City of Cracow Literary Award, The Goethe Literary Award, The Herder Award, The Award of the Polish PEN Club
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टिप्पणियाँ:-

अल्का सिगतिया:-
मनीषा  जी,आम तौर पर कई बार  मझे बहुत  सी अनुवादित  कविताएँ अच्छी नहीं लगती ।लेकिन आज की कविताएं। वाह क्या। कहूं।कहते हैं।If You love someone. Show it.पर नफरत सब आसानी  से प्रदर्शित  करते हैं।प्यार। अपनापन दिखाने  में। हिचकते हैं।और  देखिये ना बचपन से ही। इतिहास। भी। हम नफरत का पढ़ते हैं।मोहब्बत  भाईचारे  का नहीं।कितना कुछ  कह गई कविता।अनुवाद  भी। उतना ही सुंदर।मूल कविता। की आत्मा  जैसा ही जीवन्त।फिलहाल। इतना।

अर्जन राठौर:-
गजब की कविताये सुबह उठकर नीरस खबरे पढने की बजाए इन कविताओ को पढकर ऐसा लगा की दुनिया में कितना अच्छा लिखा जा रहा हे । मनीषा जी को बधाई

निधि जैन :-
कविता 'नफरत' में बहुत कुछ अपने देश में फैले भावों के भाव प्रदर्शित कर रहा है शायद यही कारण है जो यह छू गई, बढ़िया कविता।

आभा :-
बहुत अर्थपूर्ण और सामयिक कवितायें। नफरत तो भारतीय परिपेक्ष्य में एकदम फिट है। और पहली कविता भी आज के सामाजिक प्राणियों का हाल बयान करती है

कविता वर्मा:-
आज की दोनों कविताऐं मन को गहरे तक छूती हैं । नफरत कविता बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है खुद के लिये भी और भावी पीढ़ी के लिये भी । नफरत की ताकत भाईचारे और अन्य भावों से ज्यादा क्यों है और क्यों बढ़ती ही जा रही है ये विचारणीय है । इन कविताओं को पढ़ कर लगता है इतनी भौतिक तरक्की कर लेने के बाद भी हम सद्भावनाओं के  विकास में कहीं बहुत पीछे छूट गये हैं । अच्छा अनुवाद विजय जी का । आभार ।

प्रज्ञा :-
शिम्बोर्स्का लाजवाब हैं। इंसानियत के महीन रेशे और उसके बीच नफरत ताकत की अभेद्य दीवार दोनों को दिखाती उनकी कविताएँ सार्वकालिक और सार्वदेशिक हैं।
उन्हें सलाम
अनुवादक का आभार और मनीषा जी के प्रयासों का शुक्रिया

ब्रजेश कानूनगो:-
कितनी प्रासंगिक कवितायेँ हैं।आज जब जनसभाओं में हमारे नेताओं को सुनते हैं तो यही तो दिखाई देता है।नफरत का व्यापार।जो जितनी अधिक नफरत बेच जाता है वही इस दौर का सबसे बड़ा खिलाड़ी और विजेता बना दिया जाता है।

फ़रहत अली खान:-
पोलिश कवयित्री की दोनों ही कविताएँ बहुत उम्दा हैं और वैश्विक अपील रखती हैं, ख़ासकर दूसरी; और शायद यही वजह है कि आज अनुवादित कविताएँ पढ़ते वक़्त कुछ भी ऐसा नहीं मिला जो मेरी अक़्ल के दायरे से बाहर गया हो। दोनों ही कविताओं का भावार्थ कमाल का है, और फिर से ख़ासकर दूसरी का।
इसके लिए कवयित्री, अनुवादक और मनीषा जी तीनों ही बधाई के पात्र हैं।

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