आइये आज पढ़ते हैं तीन शायरों की नायाब ग़ज़लें।
एक ज़मीन तीन शायर
⭕मिर्ज़ा ग़ालिब
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतिबार होता
तिरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता
रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है पे कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यक्ता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
विसाल-ए-यार=महबूब से मिलन, नाज़ुकी=कोमलता,
अहद=वादा..प्रण, बोदा=कमज़ोर, उस्तवार=मज़बूत..पक्का
तीर-ए-नीम-कश=अधखिंचा तीर, ख़लिश=चुभन
नासेह=उपदेशक, चारा-साज़=इलाज करने वाला
ग़मगुसार=हमदर्द..दुःख बांटने वाला, रग-ए-संग= पत्थर की नस
शरार=चिंगारी, अग़रचे=हालांकि, जाँ-गुसिल=अत्यंत कष्ट-दायक..जाँ को घुला देने वाला, पे=पर
शब-ए-ग़म=दुःख की रात, रुस्वा=बदनाम, ग़र्क़-ए-दरिया= नदी में डूब जाना
यगाना=बेमिसाल, यकता=अद्वितीय, दुई=द्वन्द्व मसाइल-ए-तसव्वुफ़=सूफी-वाद के नियम,
वाली=अल्लाह का दोस्त, बादा-ख़्वार=शराबी
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मिर्ज़ा "दाग़" देहलवी
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता
कोई फ़ित्ना ता-क़यामत न फिर आश्कार होता
तिरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता
जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूटे वादे करता
तुम्हीं मुंसिफ़ी से कह दो तुम्हें एतिबार होता
ग़म-ए-इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते
ये वो ज़हर है कि आख़िर मय-ए-ख़ुश-गवार होता
ये मज़ा था दिल-लगी का कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता न मुझे क़रार होता
ये मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता
तिरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी ज़िंदगी का हमें एतिबार होता
ये वो दर्द-ए-दिल नहीं है कि हो चारासाज़ कोई
अगर एक बार मिटता तो हज़ार बार होता
गए होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म-ए-मस्त देखी
मुझे क्या उलट न देते जो न बादा-ख़्वार होता
मुझे मानते सब ऐसा कि अदू भी सज्दे करते
दर-ए-यार काबा बनता जो मिरा मज़ार होता
तुम्हें नाज़ हो न क्यूँ-कर कि लिया है 'दाग़' का दिल
ये रक़म न हाथ लगती न ये इफ़्तिख़ार होता
सदक़े=दान..त्याग, निसार=कुर्बान, फ़ित्ना=उपद्रव,
ता-क़यामत=क़यामत के दिन तक, आश्कार=प्रकट
इख़्तियार=अधिकार, मुंसिफ़ी=न्याय, मय-ए-खुश-ग्वार=सुखद-शराब
ज़ाहिद=धार्मिक, चश्म-ए-मस्त=नशे में धुत्त आंखें, अदू=प्रतिस्पर्द्धी..दुश्मन
रक़म=धन, इफ़्तिख़ार=सम्मान
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"अमीर" मिनाई
मिरे बस में या तो या रब वो सितम-शिआर होता
ये ना था तो काश दिल पर मुझे इख़्तियार होता
पस-ए-मर्ग काश यूं ही मुझे वस्ल-ए-यार होता
वो सर-ए-मज़ार होता, मैं तह-ए-मज़ार होता
तेरा मैकदा सलामत, तिरे ख़ुम की ख़ैर साक़ी
मिरा नश्शा क्यों उतरता, मुझे क्यों ख़ुमार होता
मिरे इत्तिक़ा का बाइस, तो है मेरी नातवानी
जो मैं तौबा तोड़ सकता, तो शराब-ख़्वार होता
मैं हूँ नामुराद ऐसा, के बिलख के यास रोती
कहीं पा के आसरा कुछ, जो उम्मीदवार होता
नहीं पूछता है मुझ को, कोई फूल इस चमन में
दिल-ए-दाग़दार होता, तो गले का हार होता
वो मज़ा दिया तड़प ने के ये आरज़ू है या रब
मिरे दोनों पहलुओं में, दिल-ए-बेक़रार होता
दम-ए-नज़'अ भी जो वो बुत, मुझे आ के मुंह दिखाता
तो ख़ुदा के मुंह से इतना, न मैं शर्म-सार होता
न मलक सवाल करते, न लहद फ़िशार देती
सर-ए-राह-ए-कू-क़ातिल, जो मिरा मज़ार होता
जो निगाह की थी ज़ालिम, तो फिर आँख क्यों चुराई
वो ही तीर क्यों न मारा, जो जिगर के पार होता
मैं ज़बाँ से तुम को सच्चा, कहो लाख बार कह दूँ
उसे क्या करूँ के दिल को, नहीं एतबार होता
मिरी ख़ाक भी लहद में , न रही "अमीर" बाक़ी
उन्हें मरने ही का अब तक, नहीं एतबार होता
सितम-शिआर=अत्याचारी, पस-ए-मर्ग=मौत के बाद, सर-ए-मज़ार=कब्र के ऊपर तह-ए-मज़ार=कब्र के नीचे
खुम=शराब की मटकी, इत्तिक़ा=बुराई से परहेज, नातवानी=अशक्तता नामुराद=अभागा यास=निराशा दम-ए-नज़'अ=मृत्यु-पूर्व छण
मलक=फ़रिश्ता लहद=कब्र फ़िशार=दबाना, सर-ए-राह-ए-कू-क़ातिल=क़ातिल की गली इंदौर की राह में
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प्रस्तुति- बलविन्दर सिंह
समूह बिजूका एक के साथी
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टिप्पणियाँ:-
प्रज्ञा :-
वाह लगता है जैसे ग़ालिब के शेर और नज़्म को ही आगे बढ़ाया जा रहा हो। जिगर के पार वाला तो ग़ालिब और अमीर मिनाई दोनों में। एक जिज्ञासा है अमीर मिनाई का रचना समय क्या है।
बलविंदर जी , मनीषा जी का शुक्रिया।
आर्ची:-
बहुत खूब! गालिब की गजल में शब्द जरा कठिन वाले हैं दाग समझने में आसान हैं जरा
वैसे शब्दकोष देने से सरलता हो जाती है.. धन्यवाद एक ही जमीन पर लिखे गए अलग अलग शायरों की रचनाओं से अवगत कराने के लिए.
फ़रहत अली खान:-
बलविंदर जी ने जिन तीन शायरों के कलाम से रू-ब-रू कराया है, उन्हें क्लासिकल उर्दू शायरी के सबसे बड़े नामों में गिना जाता है और तीनों ही ग़ज़लें मक़बूल हुईं; ख़ासतौर पर दाग़ और ग़ालिब वाली ग़ज़लें कई फ़नकारों ने गायीं।
1/2, 2/3, 3/2 क्रमशः तीनों ग़ज़लों में हासिल-ए-ग़ज़ल अशआर हुए हैं।
इसके अलावा
1/1, 1/4, 1/5, 1/8, 1/9, 1/11
और
2/1, 2/5, 2/6, 2/7, 2/8, 2/11
और
3/6, 3/7, 3/10, 3/11
बढ़िया और क़ाबिल-ए-ग़ौर अशआर हैं।
मिर्ज़ा ग़ालिब(1797-1869) के दौर में अमीर मिनाई(1828/29-1900) और दाग़ देहलवी(1831-1905) दोनों ही नौजवान शायर रहे होंगे, सो सम्भावना ज़्यादा इसी बात की है कि ग़ालिब की लिखी ग़ज़ल इन तीनों में सबसे ज़्यादा पुरानी होगी; साथ ही ये भी हो सकता है कि ग़ालिब ने किसी दूसरी ग़ज़ल की ज़मीन पर अपनी ग़ज़ल कही हो क्यूँकि ग़ज़ल के क्षेत्र में ये चलन आम है।
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