कुमार मंगलम की कविताएं
मैं मरूँगा सुखी, मैंने जीवन की धज्जियां उड़ाई हैं
अज्ञेय
कविताएं
मैं मृत्यु को चाहता हूँ
आधो-आध
मेरे जीवन की कहानी
प्रभावों की कहानी है
मैंने अबतक जो भी किया
अधूरा ही किया
मैं अधूरा होकर
अधूरा ही चाहाता रहा
मुझे अब तक जो मिला
अधूरा ही मिला
मैंने हरेक चीज को अधूरा ही बरता
और इस तरह से अधूरा ही रहा
मैंने अधूरा जिया
अधूरा ही मरना चाहता हूँ
अधूरेपन का हरेक विन्यास ही
मेरे मृत्यु और जीवन को
मेरे घृणा और चाह को
पूर्णता देगा
मैं मरूँगा
पूरा
मैंने जीवन को अधूरा जिया है।
दो
जीवाशा
अंधेरी रातों के निचाट
सूनेपन में
तानपुरे की सी
झींगुर की आवाज
जीवाशा है।
जेठ की भरी दुपहरी में
जब गर्म हवाओं का शोर है
चारो-ओर
तभी बर्फ-गोले वाले की
घंटी की आवाज
जीवाशा है।
ठिठुरती सर्द रातों में
मड़ई में रजाई में पड़े पड़े
जब अपनी दाँत ही
कटकटा रही हो
रोते कुत्ते की करुण रुलाई
जीवाशा है।
जीवन के कठिनतम समय में
भी
बची रहती है
एक जीवाशा।
तीन
तुम किसमें हो कुमार
तुम कहाँ हो कुमार बाबू
एक तो वह है
जिसे अभी अभी उसकी नौकरी से
बाहर निकाल दिया गया
एक दूसरा भी है
जिसके सारे बाल झड़ गए
नौकरी के उम्मीद में
शादी भी नहीं हुई
और उसके लिए दिल्ली बहुत दूर है
तीसरा नौकरी के उम्मीद में
घर से बाहर रहकर तैयारी कर रहा है
और देश के किसी
संस्थान में उसके लिए
अभी तक कोई जगह नहीं बनी है
चौथे का तो बुरा हाल है
एम.ए. कर पीएचडी के इंतज़ार में
चार साल बिता दिए उसने
पांचवां अब दिहाड़ी मजदूरी करने लगा है
छठवां गायब हो गया है दोस्तों के बीच से
लापता, किसी को नहीं पता
कहाँ बिला गया है वह
सातवें का बाप मर गया
भाई भी
माँ भी दवाई पर चलती है
तुम किसमें हो कुमार
किसकी जय जयकार कर रहे हो तुम अनवरत।
चार
छल
जब भी कविताएं लिखीं मैंने
छल किया शब्दों से
झूठ बोला बिम्बों से
छलावे थे सभी
कोरा यथार्थ कुछ न था
गल्प था गप्प
कल्पित किया
गेहूँ को
और रोटी बना उदरस्थ कर लिया
सोचता हूँ क्या उस दिन
जब मेरे छल का
होगा पर्दाफाश
क्या होगा उस दिन
जिस दिन
गेहूं कविता लिखेगा
उस दिन वह मुझे
कहाँ खड़ा करेगा।
पांच
क्षमा
क्षमा करो कि अब तक जो कहा
क्षमा करो उसके लिए कि भी
मेरे मरने के बाद भी जो कुछ कहा जायेगा
क्षमा भी एक किस्म की मौत है
जिसे माँगने वाला कई बार मरता है
इस महादेश में जब मृतकों पर राजनीति होती है
धर्म और राष्ट्र जब व्यक्ति केंद्रित हो जाये
एक लेखक अपने मौत की घोषणा करता है
कहता है क्षमा करो हे महादेश
क्षमा मृत्यु है
और क्षमा मांगने के बाद क्षमाप्रार्थी की देह जिंदा रहती है
चेतना मर जाती है
छः
चलो
कि चलने का वक्त है
चलो की चलते जाना है
चले चलो कि
मंजिल अभी नहीं आयी है
राह है कि पता नहीं
पर चलो
चलो पर देखो कि
जिस राह पर चल रहे हो
वह किस ओर जाती है
हत्या हो तो चलो
मर जाओ तो चलो
चलो जब झूठ अपनी सारी हदें पार कर जाये
चलो किसी मृतकभोज में
चलो किसी उत्सव में और दो कौर उठाओ
चलते चलो कि मंजिल करीब नहीं
तुम्हारे उद्धार के लिए कोई भागीरथी नहीं
चलो चलो कि
चलते चले जाना है
मर जाना है
जीते जीते
या मरते मरते भी चले जाना है
चलो कि हमारी कोई मंजिल नहीं
बस चलो
सात
वसंत यहां जल्दी आता है
शीघ्रता में भी एक लय है
जल्दी-जल्दी हो जाने का लय
वसंत के आते ही
सभी पीले होने लगते हैं
पीले पात, पीले गात
पीलेपन की यह सामूहिकता
शीघ्रता की लय में घटित होती है
कुछ पत्ते पीले होकर डाल से झूलते रहते हैं
और कुछ पीलेपन की निस्तेज छटा के साथ
धरती से आ मिलते हैं।
शाम में डूबता सूर्य शीघ्रता के क्रम में
पीला होता है और फिर
काली और लम्बी रात में तब्दील हो जाता है
अचानक पीलेपन का सौंदर्य मोहने लगता है
लेकिन यह भी शीघ्रता में घटित होकर
लंबी उदासी या ऊब पैदा करता है।
आठ
हवा से चलते-फिरते माँग लिया एक श्वांस
आग से थोड़ी गर्मी मांग ली
अन्न से माँग लिया भोजन
फल से थोड़ा सा हिस्सा ले लिया उधार
और फूल से गंध
जीवन में जीते हुए
दुराशा से मांग ली थोड़ी लापरवाही
प्रत्याशाओं ने घेरा
और मुझे अकर्मण्य बना दिया
पहाड़, नदियाँ, प्रकृति आदि ने
मुझे दिया खुलेपन का उपहार दिया
मैं यूँ ही जीता गया
परजीवी होकर, उधार का खाया
उधार का जिया
उधार का हिसाब बन गया समंदर
एक दिन समंदर के लहर ने
दरवाजा खटखटाया
और कहा मेरे उधार को चुकता करो
कैसे चुकता करता
दुब की नोक भर हरियाली
दिए का टिमटिमाता प्रकाश
अंधेरे के गान का शोर
उजास की शांति
यह मेरे अकेलेपन, असमंजस की कथा
अकुलाहट में सहम कर चुप हुआ
बंद हुए सब दरवाजे
हर आहत का खटका
सूदखोर के आने का संकेत
यूँ भाग-भाग और डर-डर कर
उधार हुआ अपना जीवन
मैं रहा कृतघ्न
मैं मरा अकेले
प्यार विहीन
उस उधार के बदले
दे देता प्रति-प्यार का
राई भर
नौ
हवा चली है पुरवाई
और महक उठा है कमरा
रजनीगंधा के सुगंध से
पूरब की तुम थी
और जब भी बहती है पुरवा
तुम्हारी देह गंध को महसूस करता हूँ
दो
मेरे कमरे में
मेरी पत्नी ने गुलदान में रख दी है रजनीगंधा
रजनीगंधा के फूल जैसे आंखें हो तुम्हारी
उसे देखता हूँ तो लगता है
उनमें कुछ अनुत्तरित सवाल हैं
जिनके जबाब मेरे पास है
तीन
रजनीगंधा की फूल
मेरे मन को सहलाती हैं
और
याद आता है वो पल
जब तुम्हारी उंगलियां मेरे बालों को सहलाती थी
चार
प्रेम के सबसे अकेले क्षण में
जब हम केलिरत थे
लाज छोड़ सिमट गई थी तुम मुझ में
तुम्हारे उन्नत उरोजों पर
फूलों की पंखुड़िया चिपकी रह गयी थी
पांच
हम दोनों को
एक समान रूप से पसंद है
रजनीगंधा
जाने तुम ने नफरत से
या मुझे छोड़ देने के लिए
नहीं स्वीकारा था उस अंतिम मुलाक़ात में
गुच्छों में बंधे रजनीगंधा को
सड़क किनारे फेंक दिया था उसे
गुस्से में आकर
वहीं उस सूखते, कुचलते, सड़ते, उपेक्षित
गुच्छे में मेरा प्यार और
हमारा संबंध दम तोड़ दिया
तुम तो हर रोज उस रास्ते से गुजरती हो
क्या वहां मेरा उपेक्षित प्यार
कभी तुम्हें रोकता नहीं है
क्या तुमने कभी ठिठक कर देखा नहीं
दस
जब मैं तुम तक आया
अंधा होकर आया
मेरे चारो ओर
तुम्हारे दिग्विजय का शोर था
चारो तरफ सिर्फ तुम ही तुम थे
जब मैं तुम तक आया
आक्रांत होकर आया
मेरे चारो ओर
तुम्हारे धर्म रक्षक होने का शोर था
चारो तरफ सिर्फ तुम ही तुम थे
जब मैं तुम तक आया
भक्त बन कर आया
मेरे चारो ओर
तुम्हारे भगवान होने का शोर था
तुम भगवान होकर हत्यारे हो गए
अब जब मैं तुमसे विलग हो रहा हूँ
तुम सा हो गया हूँ
तुम तक आते आते
मैं बिल्कुल अकेला हो गया हूँ।
ग्यारह
जैसे मैं तुझसे प्यार करता हूँ
और तुम तक आता हूँ हर बार
तुम मुझसे प्यार करो
और मुझे भूल जाओ
तुम मुझे वैसे ही किनारे से
लौटा दो
जैसे समुद्र से उठती लहरें
किनारों को छूकर
लौट आती है।
बारह
दिन ढ़लते
शाम
तट पर पानी में पैर डाले
नदी किनारे
रेत पर
औंधा पड़ा है
दो
नदी किनारे
रेत के खूंटे में
बजड़ा बंधा है
नदी के
प्रवाह में प्रतिबिम्बित
एक बजड़ा और है
यूँ नदी ने
बजड़े का चादर ओढ़ रखा है
तीन
नदी के बीच धारा में
लौटते सूर्य की छाया
नदी के भाल को
सिंदूर तिलकित कर दिया है
यूँ नदी
सुहागन हो गयी है।
चार
नदी के तीर
एक शव जल रहा है
अग्नि शिखा
जल में
शीतलता पा रही है।
पांच
सूर्योदय के वक्त
पश्चिम से
पूर्व की ओर देखता हूँ
नदी के गर्भ से
सूर्य बाहर आ रहा है।
छः
नदी किनारे
एक लड़की
जल में पैर डाले
बाल खोले
उदास हो
जल से अठखेलियाँ खेलती है
यूँ नदी से
हालचाल पूछती है।
सात
बीच धारा में
नहीं ठहरती हैं
नावें
आठ
नदी
को देखा आज नंगा
पानी उसका
कोई पी गया है
नदी अपने रेत में
अपने को खोजती
एक बुल्डोजर
उस रेत को ट्रक में भर कर
नदी को शहर में
पहुंचा रहा है।
नौ
नदी की अनगिनत
यादें हैं मन में
नदी अपने प्रवाह से
उदासी हर लेती है
उसकी उदासी को
हम नहीं हरते
दस
शाम ढले
उल्लसित मन से
गया नदी से मिलने नदी तट
नदी मिली नहीं
शहर चुप था
उसे अपने पड़ोसी की
खबर नहीं थी
नदी में जल था
प्रवाह नहीं था
नदी किनारे लोग थे
शोर था
चमकीला प्रकाश था
नदी नहीं थी
लौटता कि
आखिरी साँस लेती
नदी सिसकती मिल गयी
उसने कहा
यह आखिरी मुलाक़ात हमारी
दर्ज कर लो
तुम्हारे प्यास से नहीं
तुम्हारे भूख से मर रही हूं
यूँ एक नदी मर गयी
और मेरी नदी कथा
समाप्त हुई
भारी मन से
प्यासा ही
घर लौट आया।
००
कुमार मंगलम की कुछ कविताएं और नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/01/blog-post.html?m=1
मैं मरूँगा सुखी, मैंने जीवन की धज्जियां उड़ाई हैं
अज्ञेय
कुमार मंगलम |
कविताएं
मैं मृत्यु को चाहता हूँ
आधो-आध
मेरे जीवन की कहानी
प्रभावों की कहानी है
मैंने अबतक जो भी किया
अधूरा ही किया
मैं अधूरा होकर
अधूरा ही चाहाता रहा
मुझे अब तक जो मिला
अधूरा ही मिला
मैंने हरेक चीज को अधूरा ही बरता
और इस तरह से अधूरा ही रहा
मैंने अधूरा जिया
अधूरा ही मरना चाहता हूँ
अधूरेपन का हरेक विन्यास ही
मेरे मृत्यु और जीवन को
मेरे घृणा और चाह को
पूर्णता देगा
मैं मरूँगा
पूरा
मैंने जीवन को अधूरा जिया है।
दो
जीवाशा
अंधेरी रातों के निचाट
सूनेपन में
तानपुरे की सी
झींगुर की आवाज
जीवाशा है।
जेठ की भरी दुपहरी में
जब गर्म हवाओं का शोर है
चारो-ओर
तभी बर्फ-गोले वाले की
घंटी की आवाज
जीवाशा है।
ठिठुरती सर्द रातों में
मड़ई में रजाई में पड़े पड़े
जब अपनी दाँत ही
कटकटा रही हो
रोते कुत्ते की करुण रुलाई
जीवाशा है।
जीवन के कठिनतम समय में
भी
बची रहती है
एक जीवाशा।
तीन
तुम किसमें हो कुमार
तुम कहाँ हो कुमार बाबू
एक तो वह है
जिसे अभी अभी उसकी नौकरी से
बाहर निकाल दिया गया
एक दूसरा भी है
जिसके सारे बाल झड़ गए
नौकरी के उम्मीद में
शादी भी नहीं हुई
और उसके लिए दिल्ली बहुत दूर है
तीसरा नौकरी के उम्मीद में
घर से बाहर रहकर तैयारी कर रहा है
और देश के किसी
संस्थान में उसके लिए
अभी तक कोई जगह नहीं बनी है
चौथे का तो बुरा हाल है
एम.ए. कर पीएचडी के इंतज़ार में
चार साल बिता दिए उसने
पांचवां अब दिहाड़ी मजदूरी करने लगा है
छठवां गायब हो गया है दोस्तों के बीच से
लापता, किसी को नहीं पता
कहाँ बिला गया है वह
सातवें का बाप मर गया
भाई भी
माँ भी दवाई पर चलती है
तुम किसमें हो कुमार
किसकी जय जयकार कर रहे हो तुम अनवरत।
यादवेन्द्र |
चार
छल
जब भी कविताएं लिखीं मैंने
छल किया शब्दों से
झूठ बोला बिम्बों से
छलावे थे सभी
कोरा यथार्थ कुछ न था
गल्प था गप्प
कल्पित किया
गेहूँ को
और रोटी बना उदरस्थ कर लिया
सोचता हूँ क्या उस दिन
जब मेरे छल का
होगा पर्दाफाश
क्या होगा उस दिन
जिस दिन
गेहूं कविता लिखेगा
उस दिन वह मुझे
कहाँ खड़ा करेगा।
पांच
क्षमा
क्षमा करो कि अब तक जो कहा
क्षमा करो उसके लिए कि भी
मेरे मरने के बाद भी जो कुछ कहा जायेगा
क्षमा भी एक किस्म की मौत है
जिसे माँगने वाला कई बार मरता है
इस महादेश में जब मृतकों पर राजनीति होती है
धर्म और राष्ट्र जब व्यक्ति केंद्रित हो जाये
एक लेखक अपने मौत की घोषणा करता है
कहता है क्षमा करो हे महादेश
क्षमा मृत्यु है
और क्षमा मांगने के बाद क्षमाप्रार्थी की देह जिंदा रहती है
चेतना मर जाती है
छः
चलो
कि चलने का वक्त है
चलो की चलते जाना है
चले चलो कि
मंजिल अभी नहीं आयी है
राह है कि पता नहीं
पर चलो
चलो पर देखो कि
जिस राह पर चल रहे हो
वह किस ओर जाती है
हत्या हो तो चलो
मर जाओ तो चलो
चलो जब झूठ अपनी सारी हदें पार कर जाये
चलो किसी मृतकभोज में
चलो किसी उत्सव में और दो कौर उठाओ
चलते चलो कि मंजिल करीब नहीं
तुम्हारे उद्धार के लिए कोई भागीरथी नहीं
चलो चलो कि
चलते चले जाना है
मर जाना है
जीते जीते
या मरते मरते भी चले जाना है
चलो कि हमारी कोई मंजिल नहीं
बस चलो
सात
वसंत यहां जल्दी आता है
शीघ्रता में भी एक लय है
जल्दी-जल्दी हो जाने का लय
वसंत के आते ही
सभी पीले होने लगते हैं
पीले पात, पीले गात
पीलेपन की यह सामूहिकता
शीघ्रता की लय में घटित होती है
कुछ पत्ते पीले होकर डाल से झूलते रहते हैं
और कुछ पीलेपन की निस्तेज छटा के साथ
धरती से आ मिलते हैं।
शाम में डूबता सूर्य शीघ्रता के क्रम में
पीला होता है और फिर
काली और लम्बी रात में तब्दील हो जाता है
अचानक पीलेपन का सौंदर्य मोहने लगता है
लेकिन यह भी शीघ्रता में घटित होकर
लंबी उदासी या ऊब पैदा करता है।
आठ
हवा से चलते-फिरते माँग लिया एक श्वांस
आग से थोड़ी गर्मी मांग ली
अन्न से माँग लिया भोजन
फल से थोड़ा सा हिस्सा ले लिया उधार
और फूल से गंध
जीवन में जीते हुए
दुराशा से मांग ली थोड़ी लापरवाही
प्रत्याशाओं ने घेरा
और मुझे अकर्मण्य बना दिया
पहाड़, नदियाँ, प्रकृति आदि ने
मुझे दिया खुलेपन का उपहार दिया
मैं यूँ ही जीता गया
परजीवी होकर, उधार का खाया
उधार का जिया
उधार का हिसाब बन गया समंदर
एक दिन समंदर के लहर ने
दरवाजा खटखटाया
और कहा मेरे उधार को चुकता करो
कैसे चुकता करता
दुब की नोक भर हरियाली
दिए का टिमटिमाता प्रकाश
अंधेरे के गान का शोर
उजास की शांति
यह मेरे अकेलेपन, असमंजस की कथा
अकुलाहट में सहम कर चुप हुआ
बंद हुए सब दरवाजे
हर आहत का खटका
सूदखोर के आने का संकेत
यूँ भाग-भाग और डर-डर कर
उधार हुआ अपना जीवन
मैं रहा कृतघ्न
मैं मरा अकेले
प्यार विहीन
उस उधार के बदले
दे देता प्रति-प्यार का
राई भर
यादवेन्द्र |
नौ
हवा चली है पुरवाई
और महक उठा है कमरा
रजनीगंधा के सुगंध से
पूरब की तुम थी
और जब भी बहती है पुरवा
तुम्हारी देह गंध को महसूस करता हूँ
दो
मेरे कमरे में
मेरी पत्नी ने गुलदान में रख दी है रजनीगंधा
रजनीगंधा के फूल जैसे आंखें हो तुम्हारी
उसे देखता हूँ तो लगता है
उनमें कुछ अनुत्तरित सवाल हैं
जिनके जबाब मेरे पास है
तीन
रजनीगंधा की फूल
मेरे मन को सहलाती हैं
और
याद आता है वो पल
जब तुम्हारी उंगलियां मेरे बालों को सहलाती थी
चार
प्रेम के सबसे अकेले क्षण में
जब हम केलिरत थे
लाज छोड़ सिमट गई थी तुम मुझ में
तुम्हारे उन्नत उरोजों पर
फूलों की पंखुड़िया चिपकी रह गयी थी
पांच
हम दोनों को
एक समान रूप से पसंद है
रजनीगंधा
जाने तुम ने नफरत से
या मुझे छोड़ देने के लिए
नहीं स्वीकारा था उस अंतिम मुलाक़ात में
गुच्छों में बंधे रजनीगंधा को
सड़क किनारे फेंक दिया था उसे
गुस्से में आकर
वहीं उस सूखते, कुचलते, सड़ते, उपेक्षित
गुच्छे में मेरा प्यार और
हमारा संबंध दम तोड़ दिया
तुम तो हर रोज उस रास्ते से गुजरती हो
क्या वहां मेरा उपेक्षित प्यार
कभी तुम्हें रोकता नहीं है
क्या तुमने कभी ठिठक कर देखा नहीं
दस
जब मैं तुम तक आया
अंधा होकर आया
मेरे चारो ओर
तुम्हारे दिग्विजय का शोर था
चारो तरफ सिर्फ तुम ही तुम थे
जब मैं तुम तक आया
आक्रांत होकर आया
मेरे चारो ओर
तुम्हारे धर्म रक्षक होने का शोर था
चारो तरफ सिर्फ तुम ही तुम थे
जब मैं तुम तक आया
भक्त बन कर आया
मेरे चारो ओर
तुम्हारे भगवान होने का शोर था
तुम भगवान होकर हत्यारे हो गए
अब जब मैं तुमसे विलग हो रहा हूँ
तुम सा हो गया हूँ
तुम तक आते आते
मैं बिल्कुल अकेला हो गया हूँ।
ग्यारह
जैसे मैं तुझसे प्यार करता हूँ
और तुम तक आता हूँ हर बार
तुम मुझसे प्यार करो
और मुझे भूल जाओ
तुम मुझे वैसे ही किनारे से
लौटा दो
जैसे समुद्र से उठती लहरें
किनारों को छूकर
लौट आती है।
यादवेन्द्र |
बारह
दिन ढ़लते
शाम
तट पर पानी में पैर डाले
नदी किनारे
रेत पर
औंधा पड़ा है
दो
नदी किनारे
रेत के खूंटे में
बजड़ा बंधा है
नदी के
प्रवाह में प्रतिबिम्बित
एक बजड़ा और है
यूँ नदी ने
बजड़े का चादर ओढ़ रखा है
तीन
नदी के बीच धारा में
लौटते सूर्य की छाया
नदी के भाल को
सिंदूर तिलकित कर दिया है
यूँ नदी
सुहागन हो गयी है।
चार
नदी के तीर
एक शव जल रहा है
अग्नि शिखा
जल में
शीतलता पा रही है।
पांच
सूर्योदय के वक्त
पश्चिम से
पूर्व की ओर देखता हूँ
नदी के गर्भ से
सूर्य बाहर आ रहा है।
छः
नदी किनारे
एक लड़की
जल में पैर डाले
बाल खोले
उदास हो
जल से अठखेलियाँ खेलती है
यूँ नदी से
हालचाल पूछती है।
सात
बीच धारा में
नहीं ठहरती हैं
नावें
आठ
नदी
को देखा आज नंगा
पानी उसका
कोई पी गया है
नदी अपने रेत में
अपने को खोजती
एक बुल्डोजर
उस रेत को ट्रक में भर कर
नदी को शहर में
पहुंचा रहा है।
यादवेन्द्र |
नौ
नदी की अनगिनत
यादें हैं मन में
नदी अपने प्रवाह से
उदासी हर लेती है
उसकी उदासी को
हम नहीं हरते
दस
शाम ढले
उल्लसित मन से
गया नदी से मिलने नदी तट
नदी मिली नहीं
शहर चुप था
उसे अपने पड़ोसी की
खबर नहीं थी
नदी में जल था
प्रवाह नहीं था
नदी किनारे लोग थे
शोर था
चमकीला प्रकाश था
नदी नहीं थी
लौटता कि
आखिरी साँस लेती
नदी सिसकती मिल गयी
उसने कहा
यह आखिरी मुलाक़ात हमारी
दर्ज कर लो
तुम्हारे प्यास से नहीं
तुम्हारे भूख से मर रही हूं
यूँ एक नदी मर गयी
और मेरी नदी कथा
समाप्त हुई
भारी मन से
प्यासा ही
घर लौट आया।
००
कुमार मंगलम की कुछ कविताएं और नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/01/blog-post.html?m=1
सुन्दर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएं"तुम किसमें हो कुमार"
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और एकदम अलग कविता है।बधाई
यादवेन्द्र