परख तिरयालीस
कुछ मुश्किल से बिताई गई रातें!
गणेश गनी
कविता कभी सम्मानित नहीं हुई, कविता कभी मंच पर नहीं बैठी, कविता कभी किताबों में नहीं छपी, फिर भी कविता कभी विचलित नहीं हुई। कविता तो सम्मान और अपमान से ऊपर है, कविता हवा में तैरती है बादलों में छिपकर, कविता बच्चों के बस्तों में उनकी लिखी कापियों के बीच है, कविता पानी की सतह के नीचे बहती धाराओं में है। कविता खुले हए किवाड़ों के पीछे छुपन छुपाई खेल रही है, जिधर तुम कभी नहीं देखते। उधर केवल माँ देखती है बुहारते वक्त और फिर कविता आँचल में छुपा लेती है अपने को। कविता बचपन के दिनों की यादों में बसी है-
जैसे एक लाल पीली तितली
बैठ गयी हो
कोरे कागज पर निर्भीक
याद दिला गयी हो
बचपन के दिन
कवि विमलेश त्रिपाठी आगे कहते हैं कि अकेला आदमी जब लगता है कि कुछ नहीं कर रहा, तब वो रोने और हंसने को साध रहा होता है। दरअसल कविता तो मुश्किल से बिताई गई रातों में होती है, कविता तो अकेलेपन में महसूस किए गए समय की परतों में होती है-
उसके अकेलेपन में कई अकेली दुनिया साँस लेती हैं
उन अकेली दुनियाओं के सहारे
वह उस तरह अकेला नहीं होता है
अकेले आदमी के साथ चलती हुई
कई अकेली स्मृतियाँ होती हैं
कहीं छूट गये किसी राग की
एक हल्की-सी कँपकँपी की तरह
एक टूट गया खिलौना होता है
कुछ मरियल सुबह कुछ पीले उदास दिन
कुछ धूल भरी शामें
कुछ मुश्किल से बिताई गयी रातें
लेकिन शायद ही यह बात हमारी सोच में शामिल हो
कि अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला होता है
तब वह हमारी नजरों में अकेला होता है
हालाँकि उस समय वह किसी अदृश्य आत्मीय से
किसी महत्वपूर्ण विषय पर
ले रहा होता है कोई कीमती मशविरा
उस समय आप उसके हुँकारी और नुकारी को
चाहें तो साफ-साफ सुन सकते हैं
अकेले आदमी की उँगलियों के पोरों में
आशा और निराशा के कई अजूबे दृश्य अँटके रहते हैं
एक ही समय किसी जादूगर की तरह
रोने और हँसने को साध सकता है अकेला आदमी
अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला दिखता है
तब वास्तव में वह अकेलेपन के विशेषण को
सामूहिक क्रिया में बदल रहा होता है
और यह काम वह इतने अकेले में करता है
कि हमारी सोच के एकान्त में शामिल नहीं हो पाता।
कवि का कविता से सम्बन्ध बस इतना सा हो जितना कि एक पौधे का अपने फूल के साथ खिलने तक का होता है। विमलेश त्रिपाठी की कविताओं में आग का ताप है, मुहब्बत का तराना है, दुःख है, सुख है, आंसू हैं-
सदियों पहले आग के बारे में
जब कुछ भी नहीं जानते थे लोग
तब चाय के बारे में भी
उनकी जानकारी नहीं थी
स्त्रियाँ नहीं जानती थीं
चाय की पत्तियाँ चुनना
और आँसुओं के खामोश घूँट
बूँद-बूँद पीना भी
ठीक से नहीं मालूम था उन्हें
फिर कुछ दिन गुजरे
और आग की खोज की किसी मनुष्य ने
और ऐसे ही सभ्यता के किसी चौराहे पर
बहुत कुछ को पीने के साथ
उसे चाय पीने की तलब लगी
तब तक आग से
स्त्रियों का घनिष्ठ रिश्ता बन गया था
और सीख लिया था स्त्रियों ने
अपने नरम हाथों से पत्तियाँ चुनना
तब तक सीख लिया था
स्त्रियों ने
किवाड़ों की ओट में
चाय की सुरकी के साथ
बूँद-बूँद नमकीन
ओर गरम आँसू चुपचाप पीते जाना।
इस बसन्त में में भी पहले की तरह ही विमलेश त्रिपाठी को उम्मीद है कि कुछ तो अच्छा घटने वाला है। तमाम परिस्थितियां विपरीत होने के बावजूद भी अभी बहुत कुछ ऐसा है जो धरातल पर नज़र नहीं आ रहा, मगर ज़मीन के नीचे आश्वस्ति का बीज है अभी, जड़ें अभी सूखी नहीं हैं पूरी तरह-
जंगल के सारे वृक्ष काट दिए गये हैं
सभी जानवरों का शिकार कर लिया गया है
फिर भी इस बसन्त में
मिट्टी में धँसी जड़ों से पचखियाँ झाँक रही हैं
और पास की झुरमुट में एक मादा खरगोश ने
दो जोड़े उजले खरगोश को जन्म दिया है
कवि एक अदभुत शब्द गढ़कर अपने को मुक्त करना चाहता है। मुक्त हो जाने जा अर्थ ईश्वर हो जाना ही तो है। प्रेम भी तो मुक्ति ही है। विमलेश त्रिपाठी की एक छोटी कविता पूरी अर्थवत्ता लिए हुए है-
शब्दों में ही खोजूँगा
और पाऊँगा तुम्हें
वर्ण-वर्ण जोड़कर गढ़ूँगा
बिल्कुल तुम्हारे जितना सुन्दर
एक शब्द
और आत्मा की सम्पूर्ण शक्ति भर
फूँक दूँगा निश्छल प्राण
जीवन्त कर तुम्हें कवि हो जाऊँगा
कि ईश्वर हो जाऊँगा
बसन्त के दिनों में पीली और नरम धूप कुछ अधिक ही खिली खिली लगती है। पहाड़ की तलहटी से थोड़ा ऊपर देखें तो बर्फ़ अभी भी गोल गोल चकतों में पिघल रही है।यह बर्फ़ का ठंडा पानी बहते हुए और रिसते हए धीमे धीमे नीचे घाटी में खिले फूलों की जड़ों तक पहुंच रहा है। फूल इठला रहे हैं। मदहोश हैं, झूम रहे हैं। कुदरती खिले पीले फूलों के बीच कहीं कहीं आसमानी रंग के फूल उछल कूद मचाए हुए हैं। पास जाकर देखा तो ये आसमानी रंगों वाली चिड़ियों में बदलकर उड़ गए और आसमान के रंग में मिलकर एक हो गए। इस बीच एक कविता जन्म ले रही है-
अभी-अभी खिला है
ऋतु बसन्त का एक आखिरी पलाश
मेरे बेरोजगार जीवन के
झुर्रीदार चेहरे पर
उसकी छुअन में मन्त्रों की थरथराहट
भाषा में साँसों के गुनगुने छन्द
स्मित होठों का संगीत
धरती के इस छोर से
उस छोर तक
लगातार हवा में तैर रहा है
मैं आश्वस्त हूँ
कि रह सकता हूँ
इस निर्मम समय में अभी
कुछ दिन और
उग आए हैं कुछ गरम शब्द
मेरी स्कूली डायरी के पीले पन्ने पर
और एक कविता जन्म ले रही है
कवि की कविताओं में पाठक खो जाता है। विमलेश त्रिपाठी एक और कविता में कठिन समय में प्रेम की बात करते हैं-
एक कठिन समय में मैंने कहे थे
उसके कानों में
कुछ भीगे हुए-से शर्मीले शब्द
उसकी आँखों में मुरझाए अमलतास की गन्ध थी
वह सुबक रही थी मेरे कान्धे पर
आवाज लरजती हुई-सी
कहा था बहुत धीमे स्वर में -
यह धरती मेरी सहेली है
और धरती को रात भर आते रहते हैं डरावने सपने
कई फूल मेरे आँगन के, दम घुटने से मर गये हैं
खामोशी मेरे चारों ओर धुएँ की तरह पसरी रहती है
वह चुप थी
भाषा शब्दों से खाली
एक ऐसा क्षण था वह हमारे बीच
कि उसकी नींद में खुलता था
और फैल जाता था चारों ओर एक धुन्ध की तरह
हम बीतते जाते थे रोज
हमारे चेहरे की लकीरें बढ़ती जाती थीं
फिर एक दिन
लौटाया था उसने
मेरे भीगे हुए वे शब्द
हू-ब-हू वैसे ही
चलते-चलते उसकी आँखों के व्याकरण में
कौंधी थीं कुछ लकीरें
शायद उसे कहना था
सुनो, मैं धरती हूँ असंख्य बोझों से दबी हुई
शायद उसे यही कहना था
वह हमारी आखिरी मुलाकात थी।
विमलेश वहां तक सोच पाते हैं जहां धूप नहीं पहुंचती, जहां पहुंचकर सपनें नहीं देखे जा सकते और न ही नींद में ख़्वाब आ सकते हैं। यह सोच का सफ़र इतना आसान तो नहीं रहा होगा-
तुम्हारे सपनों को
किसी महान आदमी के पुतले के साथ
जला दिया गया है
और खड़ा कर दिया गया है तुम्हें
शरणार्थी का नाम देकर
एक अजनबी दुनिया में
विज्ञापन की तरह
तो समझना (जैसे कि मैंने समझा है)
कि तुम्हारे हिस्से की हवा में
एक निर्मल नदी बहने वाली है
तुम्हारे हृदय के मरुथल में
इतिहास बोया जाना है
और धमनियों में शेष
तुम्हारे लहू से
सदी की सबसे बड़ी कविता लिखी जानी है।
कवि को एक सपना फिर भी आता है। इससे बचा नहीं जा सकता-
गाँव से चिट्ठी आयी है
और सपने में गिरवी पड़े खेतों की
फिरौती लौटा रहा हूँ
पथराये कन्धे पर हल लादे पिता
खेतों की तरफ जा रहे हैं
और मेरे सपने में बैलों के गले की घंटियाँ
घुँघरू की तान की तरह लयबद्ध बज रही हैं
समूची धरती सर से पाँव तक
हरियाली पहने मेरे तकिये के पास खड़ी है
गाँव से चिट्ठी आयी है
और मैं हरनाथपुर जाने वाली
पहली गाड़ी के इन्तजार में
स्टेशन पर अकेला खड़ा हूँ।
उन दिनों बारह मन की धोबन यानी बायस्कोप, जिसमें ऑडियो कैसेट बजाकर फोटों की रील को घुमाते हुए ऐतिहासिक इमारतें और काल्पनिक चरित्र दिखाए जाते थे। बारह मन की धोबन यानी लकड़ी के बॉक्स में चारों ओर लेंस लगाकर उसके अन्दर एक रील पर फिल्मों के फोटो चिपकाकर बॉक्स के ऊपर ऑडियो कैसेट प्लेयर पर नए पुराने फिल्मों के गाने चला कर और एक आदमी हाथ से रील को घुमाता रहता जिससे ऐसा लगता कि गानों के साथ-साथ फोटो पिक्चर चल रही हो, लेकिन इन फोटो में मूवमेंट नहीं होती थी।
पर यह भी दुर्गम इलाकों तक पहुंच नहीं पाया था। तो इधर बहुत बाद के दिनों में प्लास्टिक के छोटे छोटे बायस्कोप दुकानों में मिलने लगे। एक बार एक पीले रंग का ऐसा ही बायस्कोप मिला तो हर दिन एक आँख से इसमें झांककर और बटन घुमाकर फिल्मी सितारों को देखकर तसल्ली कर लेते और कल्पना में रेडियो पर सुने गीत याद करने की कोशिश करते। तब यह भी सपना लगता था, आज सब कुछ हथेली पर है, फिर भी यकीन नहीं होता। विमलेश त्रिपाठी को एक बात का यकीन है क्योंकि कवि के पास यकीन करने के दो कारण हैं-
एक उठे हुए हाथ का सपना
मरा नहीं है
जिन्दा है आदमी
अब भी थोड़ा सा चिड़ियों के मन में
बस ये दो कारण
काफी हैं
परिवर्तन की कविता के लिए।
०००
परख बयालीस नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2019/03/blog-post_18.html?m=1
कुछ मुश्किल से बिताई गई रातें!
गणेश गनी
कविता कभी सम्मानित नहीं हुई, कविता कभी मंच पर नहीं बैठी, कविता कभी किताबों में नहीं छपी, फिर भी कविता कभी विचलित नहीं हुई। कविता तो सम्मान और अपमान से ऊपर है, कविता हवा में तैरती है बादलों में छिपकर, कविता बच्चों के बस्तों में उनकी लिखी कापियों के बीच है, कविता पानी की सतह के नीचे बहती धाराओं में है। कविता खुले हए किवाड़ों के पीछे छुपन छुपाई खेल रही है, जिधर तुम कभी नहीं देखते। उधर केवल माँ देखती है बुहारते वक्त और फिर कविता आँचल में छुपा लेती है अपने को। कविता बचपन के दिनों की यादों में बसी है-
विमलेश त्रिपाठी |
जैसे एक लाल पीली तितली
बैठ गयी हो
कोरे कागज पर निर्भीक
याद दिला गयी हो
बचपन के दिन
कवि विमलेश त्रिपाठी आगे कहते हैं कि अकेला आदमी जब लगता है कि कुछ नहीं कर रहा, तब वो रोने और हंसने को साध रहा होता है। दरअसल कविता तो मुश्किल से बिताई गई रातों में होती है, कविता तो अकेलेपन में महसूस किए गए समय की परतों में होती है-
उसके अकेलेपन में कई अकेली दुनिया साँस लेती हैं
उन अकेली दुनियाओं के सहारे
वह उस तरह अकेला नहीं होता है
अकेले आदमी के साथ चलती हुई
कई अकेली स्मृतियाँ होती हैं
कहीं छूट गये किसी राग की
एक हल्की-सी कँपकँपी की तरह
एक टूट गया खिलौना होता है
कुछ मरियल सुबह कुछ पीले उदास दिन
कुछ धूल भरी शामें
कुछ मुश्किल से बिताई गयी रातें
लेकिन शायद ही यह बात हमारी सोच में शामिल हो
कि अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला होता है
तब वह हमारी नजरों में अकेला होता है
हालाँकि उस समय वह किसी अदृश्य आत्मीय से
किसी महत्वपूर्ण विषय पर
ले रहा होता है कोई कीमती मशविरा
उस समय आप उसके हुँकारी और नुकारी को
चाहें तो साफ-साफ सुन सकते हैं
अकेले आदमी की उँगलियों के पोरों में
आशा और निराशा के कई अजूबे दृश्य अँटके रहते हैं
एक ही समय किसी जादूगर की तरह
रोने और हँसने को साध सकता है अकेला आदमी
अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला दिखता है
तब वास्तव में वह अकेलेपन के विशेषण को
सामूहिक क्रिया में बदल रहा होता है
और यह काम वह इतने अकेले में करता है
कि हमारी सोच के एकान्त में शामिल नहीं हो पाता।
कवि का कविता से सम्बन्ध बस इतना सा हो जितना कि एक पौधे का अपने फूल के साथ खिलने तक का होता है। विमलेश त्रिपाठी की कविताओं में आग का ताप है, मुहब्बत का तराना है, दुःख है, सुख है, आंसू हैं-
सदियों पहले आग के बारे में
जब कुछ भी नहीं जानते थे लोग
तब चाय के बारे में भी
उनकी जानकारी नहीं थी
स्त्रियाँ नहीं जानती थीं
चाय की पत्तियाँ चुनना
और आँसुओं के खामोश घूँट
बूँद-बूँद पीना भी
ठीक से नहीं मालूम था उन्हें
फिर कुछ दिन गुजरे
और आग की खोज की किसी मनुष्य ने
और ऐसे ही सभ्यता के किसी चौराहे पर
बहुत कुछ को पीने के साथ
उसे चाय पीने की तलब लगी
तब तक आग से
स्त्रियों का घनिष्ठ रिश्ता बन गया था
और सीख लिया था स्त्रियों ने
अपने नरम हाथों से पत्तियाँ चुनना
तब तक सीख लिया था
स्त्रियों ने
किवाड़ों की ओट में
चाय की सुरकी के साथ
बूँद-बूँद नमकीन
ओर गरम आँसू चुपचाप पीते जाना।
इस बसन्त में में भी पहले की तरह ही विमलेश त्रिपाठी को उम्मीद है कि कुछ तो अच्छा घटने वाला है। तमाम परिस्थितियां विपरीत होने के बावजूद भी अभी बहुत कुछ ऐसा है जो धरातल पर नज़र नहीं आ रहा, मगर ज़मीन के नीचे आश्वस्ति का बीज है अभी, जड़ें अभी सूखी नहीं हैं पूरी तरह-
जंगल के सारे वृक्ष काट दिए गये हैं
सभी जानवरों का शिकार कर लिया गया है
फिर भी इस बसन्त में
मिट्टी में धँसी जड़ों से पचखियाँ झाँक रही हैं
और पास की झुरमुट में एक मादा खरगोश ने
दो जोड़े उजले खरगोश को जन्म दिया है
कवि एक अदभुत शब्द गढ़कर अपने को मुक्त करना चाहता है। मुक्त हो जाने जा अर्थ ईश्वर हो जाना ही तो है। प्रेम भी तो मुक्ति ही है। विमलेश त्रिपाठी की एक छोटी कविता पूरी अर्थवत्ता लिए हुए है-
शब्दों में ही खोजूँगा
और पाऊँगा तुम्हें
वर्ण-वर्ण जोड़कर गढ़ूँगा
बिल्कुल तुम्हारे जितना सुन्दर
एक शब्द
और आत्मा की सम्पूर्ण शक्ति भर
फूँक दूँगा निश्छल प्राण
जीवन्त कर तुम्हें कवि हो जाऊँगा
कि ईश्वर हो जाऊँगा
बसन्त के दिनों में पीली और नरम धूप कुछ अधिक ही खिली खिली लगती है। पहाड़ की तलहटी से थोड़ा ऊपर देखें तो बर्फ़ अभी भी गोल गोल चकतों में पिघल रही है।यह बर्फ़ का ठंडा पानी बहते हुए और रिसते हए धीमे धीमे नीचे घाटी में खिले फूलों की जड़ों तक पहुंच रहा है। फूल इठला रहे हैं। मदहोश हैं, झूम रहे हैं। कुदरती खिले पीले फूलों के बीच कहीं कहीं आसमानी रंग के फूल उछल कूद मचाए हुए हैं। पास जाकर देखा तो ये आसमानी रंगों वाली चिड़ियों में बदलकर उड़ गए और आसमान के रंग में मिलकर एक हो गए। इस बीच एक कविता जन्म ले रही है-
अभी-अभी खिला है
ऋतु बसन्त का एक आखिरी पलाश
मेरे बेरोजगार जीवन के
झुर्रीदार चेहरे पर
उसकी छुअन में मन्त्रों की थरथराहट
भाषा में साँसों के गुनगुने छन्द
स्मित होठों का संगीत
धरती के इस छोर से
उस छोर तक
लगातार हवा में तैर रहा है
मैं आश्वस्त हूँ
कि रह सकता हूँ
इस निर्मम समय में अभी
कुछ दिन और
उग आए हैं कुछ गरम शब्द
मेरी स्कूली डायरी के पीले पन्ने पर
और एक कविता जन्म ले रही है
कवि की कविताओं में पाठक खो जाता है। विमलेश त्रिपाठी एक और कविता में कठिन समय में प्रेम की बात करते हैं-
एक कठिन समय में मैंने कहे थे
उसके कानों में
कुछ भीगे हुए-से शर्मीले शब्द
उसकी आँखों में मुरझाए अमलतास की गन्ध थी
वह सुबक रही थी मेरे कान्धे पर
आवाज लरजती हुई-सी
कहा था बहुत धीमे स्वर में -
यह धरती मेरी सहेली है
और धरती को रात भर आते रहते हैं डरावने सपने
कई फूल मेरे आँगन के, दम घुटने से मर गये हैं
खामोशी मेरे चारों ओर धुएँ की तरह पसरी रहती है
वह चुप थी
भाषा शब्दों से खाली
एक ऐसा क्षण था वह हमारे बीच
कि उसकी नींद में खुलता था
और फैल जाता था चारों ओर एक धुन्ध की तरह
हम बीतते जाते थे रोज
हमारे चेहरे की लकीरें बढ़ती जाती थीं
फिर एक दिन
लौटाया था उसने
मेरे भीगे हुए वे शब्द
हू-ब-हू वैसे ही
चलते-चलते उसकी आँखों के व्याकरण में
कौंधी थीं कुछ लकीरें
शायद उसे कहना था
सुनो, मैं धरती हूँ असंख्य बोझों से दबी हुई
शायद उसे यही कहना था
वह हमारी आखिरी मुलाकात थी।
विमलेश वहां तक सोच पाते हैं जहां धूप नहीं पहुंचती, जहां पहुंचकर सपनें नहीं देखे जा सकते और न ही नींद में ख़्वाब आ सकते हैं। यह सोच का सफ़र इतना आसान तो नहीं रहा होगा-
तुम्हारे सपनों को
किसी महान आदमी के पुतले के साथ
जला दिया गया है
और खड़ा कर दिया गया है तुम्हें
शरणार्थी का नाम देकर
एक अजनबी दुनिया में
विज्ञापन की तरह
तो समझना (जैसे कि मैंने समझा है)
कि तुम्हारे हिस्से की हवा में
एक निर्मल नदी बहने वाली है
तुम्हारे हृदय के मरुथल में
इतिहास बोया जाना है
और धमनियों में शेष
तुम्हारे लहू से
सदी की सबसे बड़ी कविता लिखी जानी है।
कवि को एक सपना फिर भी आता है। इससे बचा नहीं जा सकता-
गाँव से चिट्ठी आयी है
और सपने में गिरवी पड़े खेतों की
फिरौती लौटा रहा हूँ
पथराये कन्धे पर हल लादे पिता
खेतों की तरफ जा रहे हैं
और मेरे सपने में बैलों के गले की घंटियाँ
घुँघरू की तान की तरह लयबद्ध बज रही हैं
समूची धरती सर से पाँव तक
हरियाली पहने मेरे तकिये के पास खड़ी है
गाँव से चिट्ठी आयी है
और मैं हरनाथपुर जाने वाली
पहली गाड़ी के इन्तजार में
स्टेशन पर अकेला खड़ा हूँ।
उन दिनों बारह मन की धोबन यानी बायस्कोप, जिसमें ऑडियो कैसेट बजाकर फोटों की रील को घुमाते हुए ऐतिहासिक इमारतें और काल्पनिक चरित्र दिखाए जाते थे। बारह मन की धोबन यानी लकड़ी के बॉक्स में चारों ओर लेंस लगाकर उसके अन्दर एक रील पर फिल्मों के फोटो चिपकाकर बॉक्स के ऊपर ऑडियो कैसेट प्लेयर पर नए पुराने फिल्मों के गाने चला कर और एक आदमी हाथ से रील को घुमाता रहता जिससे ऐसा लगता कि गानों के साथ-साथ फोटो पिक्चर चल रही हो, लेकिन इन फोटो में मूवमेंट नहीं होती थी।
पर यह भी दुर्गम इलाकों तक पहुंच नहीं पाया था। तो इधर बहुत बाद के दिनों में प्लास्टिक के छोटे छोटे बायस्कोप दुकानों में मिलने लगे। एक बार एक पीले रंग का ऐसा ही बायस्कोप मिला तो हर दिन एक आँख से इसमें झांककर और बटन घुमाकर फिल्मी सितारों को देखकर तसल्ली कर लेते और कल्पना में रेडियो पर सुने गीत याद करने की कोशिश करते। तब यह भी सपना लगता था, आज सब कुछ हथेली पर है, फिर भी यकीन नहीं होता। विमलेश त्रिपाठी को एक बात का यकीन है क्योंकि कवि के पास यकीन करने के दो कारण हैं-
एक उठे हुए हाथ का सपना
मरा नहीं है
जिन्दा है आदमी
अब भी थोड़ा सा चिड़ियों के मन में
बस ये दो कारण
काफी हैं
परिवर्तन की कविता के लिए।
०००
गणेश गनी |
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