निर्बंध:उन्नीस
छाता तुम छतरी क्यों बन गए ??
यादवेन्द्र
कल रात में पता चला कि देहरादून में रहने वाले हिंदी के अनूठे कवि श्री लीलाधर जगूड़ी को 2018 के अखिल भारतीय व्यास सम्मान से विभूषित किए जाने की घोषणा की गई है तो मन उनके अभिनंदन को व्याकुल हो गया।हजार बारह सौ किलोमीटर की दूरी पर दो शहरों में रहने के कारण यह तत्काल संभव नहीं सो इन शब्दों के माध्यम से मैं लीलाधर जगूड़ी को प्रणाम करता हूँ।उन्हें मैं व्यक्तिगत रूप में लगभग पन्द्रह वर्षों से जानता हूँ और देहरादून जाने पर कुछ समय उनके साथ बैठना और दुनिया के किसी भी विषय पर उनको बोलते हुए सुनना विलक्षण अनुभव है - चाहे वह साहित्य हो,राजनीति हो,व्यावहारिक विज्ञान हो या फ़िल्म ही क्यों न हो। विभिन्न विषयों पर उनकीअद्यतन और व्यावहारिक जानकारियाँ मुझे हमेशा चकित करती रही हैं - कितना पढ़ते हैं वे।मुझे लगता है वे देहरादून से बाहर विभिन्न प्रदेशों में व्याख्यानों के लिए जाने का कोई आमंत्रण आसानी से ठुकराते नहीं इसलिए उनका जो उनका विज़न है वह बहुत व्यापक है,संकीर्णताओं से परे और वास्तव में वैश्विक दृष्टि उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकती है और यह चीज मुझे बहुत आकर्षित करती है।वे जब बोलते हैं तो सिर्फ़ मुँह से नहीं बोलते,चेहरे से आँखों से और हाथ से - या कहें कि किसी मंजे हुए अभिनेता की तरह पूरे शरीर से बोलते हैं।बातचीत में संस्कृत साहित्य और भारतीय दर्शन की उनकी सहज पैठ परिलक्षित होती है पर यह उनकी सीमा कतई नहीं है - खास बात यह है कि वे अपनी बात को आज के वैश्विक सन्दर्भों तक ले आते हैं - उनके जैसी रेंज बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है।
लीलाधर जगूड़ी |
वैसे जगूड़ी जी को प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान और नागरिक सम्मान बार-बार मिले हैं - पद्मश्री से लेकर साहित्य अकादमी पुरस्कार तक। इनके अलावा बहुत सारे दूसरे राष्ट्रीय स्तर के सम्मान उन्हें मिले हैं लेकिन "अखिल भारतीय व्यास सम्मान" उनके कंधों पर रखा गया अब तक का सबसे बड़ा सम्मान है - यह सम्मान उन्हें 2013 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित कविता संकलन "जितने लोग उतने प्रेम" के लिए दिया गया है। मेरा सौभाग्य है कि 21 सितंबर 2016 को हमने केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान में एक कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के तौर पर जब उन्हें रुड़की बुलाया था तब उन्होंने यह संकलन मुझे अपने हाथों से भेंट किया था। मैं दशकों से उनकी कविताओं का प्रशंसक रहा हूँ लेकिन उस समय मैं दो-तीन दिनों में ही पूरा संकलन पढ़ गया था ।इस संकलन में विभिन्न विषयों पर एक से एक बढ़िया कविताएँ हैं लेकिन एक कविता ऐसी है जिसे मैं बहुत-बहुत प्यार करता हूँ। इस संकलन को पढ़ने के पहले भी मैंने उनकी उस कविता को पढ़ा था और रुड़की में उस कार्यक्रम के दौरान भी मैंने जगूड़ी जी से इस कविता को सुनाने का आग्रह किया जो उन्होंने मान लिया। और उसके अलावा जब भी उनको मंच पर सुनने का मौका मिलता है मैं उनसे यह कविता जरूर सुनता हूँ। यह कविता साहित्य और शिल्प के स्तर पर तो श्रेष्ठ कविता है ही लेकिन मुझे यह।उनसे अलग धरातल पर जाकर भी - सघन पहाड़ी परिवेश और
और अपनी दृश्यात्मकता के लिए, अपने प्योर विजुअल पावर के लिए - बड़ी विशिष्ट और अनूठी कविता लगती है।
मुझे खूब अच्छी तरह याद है बरसात की वह शाम जब मैंने पहली बार इनमें से एक कविता 'छाता' पढ़ी थी किसी पत्रिका में कोई 10 - 12 साल पहले तो मैंने उसी समय कविताओं के अंत में दिए उनके फोन नंबर पर फोन लगाया और हमने बहुत लंबी बात की - एक घंटे से ज्यादा, उन तमाम कविताओं पर और खासतौर पर छाता कविता पर... सिर के ऊपर तने वितान का और उससे जुड़ी आश्वस्ति और मानवीय सम्बंधों की ऊष्मा और छीजन का जो चाक्षुष प्रभाव इस कविता में है उसको लेकर ।छाता और छतरी के अंतर को कवि ने जिस तरह से बिल्कुल समाजशास्त्रीय परिदृश्य में परिभाषित किया है वह अपने आप में अत्यंत विरल और विलक्षण है। इस कविता की ताकत इसके शब्दों से ज्यादा इसकी दृश्य संरचना में है और मैं को इसी तरीके से पढ़ता देखता हूँ और यही कारण है कि यह मेरी पसंद की ऊँचे पायदान पर रखी हुई कविता है और हिंदी में लिखी गई कुछ श्रेष्ठ कविताओं में से एक मानता हूँ ।
छाता
भारत में बरसातें अब भी बड़ी हैं आड़ी तिरछी, लंबी चौड़ी बरसातें जो कि दिन रात बरसतीं
आखिर पुराने छाते की याद दिला ही देती हैं
यह जो छोटी सी एक आदमी लायक छतरी लाया हूँ
उसमें अकेला भी भीग रहा हूँ
जब हाई स्कूल पास किया था तो घर में 'एक' छाता होता था
बड़ा सा
हम तीन भाइयों के लिए जो कि काफी पड़ता था
छाते की तरह भाइयों में मैं ही बड़ा था ...
पर छाता लेकर जब कभी मैं कॉलेज जाता
और कोई सहपाठिन कभी उसके नीचे आ जाती तो
बिना सटे भी हम भीगते नहीं थे अलबत्ता पायँचे भीगे हुए होते थे
पुराने छाते पारिवारिक और सामाजिक लगते थे
जबकि ये छतरियाँ व्यक्तिवादी और अकेली लगती हैं
ये शायद धूप के लिए हैं बारिश के लिए नहीं
जबकि घर वाले मुझसे ही तीन चार काम ले लेते थे
खेत में किसान का इधर-उधर हरकारे का
स्कूल खुलते ही वे मुझसे स्कूल जाने का काम लेते थे
पुराना छाता देखकर धूप प्रचंड हो जाती
बादल उमड़ आते थे
तेज बारिश हो या तेज धूप
बस जल्दी जल्दी घर पहुँचना याद आता है
जैसे किसी और भी पुराने और भी बड़े
किसी दूसरे छाते के नीचे आ गए हों
जब भी मैंने कहीं उसे भूला
रात को दोस्तों के घर ढूंढने जाना पड़ता था
बरसाती अंधेरी रातों में सिर्फ कानों को सुनाई देता है छाता
बारिश हो रही हो और छाता न हो आसमान एक उड़े हुए छाते जैसा लगता है
धूप हो तो साथ चलते पेड़ जैसा लगता है छाता
अगर बारिश न हो रही हो रात में तो छाता सिर पर हो या हाथ में किसी को नहीं दिखता
चमकती बिजली चमकते हत्थे की याद दिला देती
चमकता हत्था टॉर्च की याद दिला देता
(जो हमारे घर में नहीं था)
अब तो पुराने छाते जैसी घनी घनी रात भी कम ही दिखती है
उतनी अंधेरी उतनी बड़ी
कितनी तरह के उजालों से भर गई है वही रात
इस कविता में छाता बिल्कुल अनूठे रूपक की तरह आया है...वह भी नया नहीं पुराना छाता(नए जमाने में छाता तो रहा ही कहाँ)...वैसा छाता सामाजिक तथा आपसी रिश्तों की जो गरमाई थी, एक सुरक्षा थी,आश्वस्त का जो भाव था उसका जीवंत प्रतीक है।अब के समय में पुराना छाता धीरे-धीरे हमसे छूट गया - जैसे परिवार हमारे बिखर गए और छतरियों में तब्दील हो गए ।छतरियाँ भी कैसी - व्यक्तिवादी और अकेली जबकि पुराने छाते पारिवारिक और सामाजिक। कवि की कविता उन रिश्तों उन भावों की अनुपस्थिति की ओर छाते के माध्यम से इशारा करता है और उनके बने रहने की जरूरत को गहरे तरीके से रेखांकित करता है - तीन भाइयों के लिए एक छाता और वह तीनों के लिए काफी पड़ता था।
लगता है कि कवि की नज़र बरसात के मौसम में बदलाव पर है - क्लाइमेट चेंज पर भी है - जिसके प्रभाव पहाड़ों से नीचे की तरफ लोगों का विस्थापन शुरू हुआ। जब आधा साल पानी बरसता रहे और ऐसी बरसाती रातों में या तेज धूप में छाते की जरूरत अनिवार्य हो जाती है..
उसके बाद छाते का और विस्तार यह है कि जल्दी जल्दी घर पहुँचना है - घर उससे भी बड़े एक छाते के प्रतीक के तौर पर यहाँ आता है ।कभी छाता भूल जाना बचपन में और छाते की अनुपस्थिति में पहाड़ी जीवन सोचा ही नहीं जा सकता .... जरूर किसी दोस्त के यहाँ छोड़ा होगा। अब रात हो तो हो छाता तो चाहिए ही कि उसके बिना जीवन नहीं चलेगा... रात में भी दोस्त के घर जाना है और ढूँढ कर ले आना है।यहाँ छाता केवल दिखाई नहीं देता,बोलता भी है - बरसाती अंधेरी रातों में सिर्फ कानों को सुनाई देता है छाता ।छाते को इस रूप में देखना सुनना ,मुझे नहीं लगता कि किसी और कवि ने कहीं इस रूप में छाते को चित्रित किया हो। बारिश हो रही हो और छाता न हो, धूप तेज हो और छाता न हो तो ऐसा लगता है जैसे सारे संकट छप्पर फाड़ कर कूद पड़े हों - ऐसी है पहाड़ी जीवन में मामूली से छाते की भूमिका!
इस कविता की जो सबसे अच्छी पंक्तियाँ मुझे लगती हैं - सबसे सघन भावनाओं को लेकर
कवि ने लिखी है - देखिए : अगर बारिश न हो रही हो रात में
तो छाता सिर पर हो या हाथ में किसी को नहीं दिखता
भौतिक अर्थों में काला छाता रात में कहाँ दिखाई देगा ...लेकिन यह सिर्फ आँख का देखना नहीं है,मन का देखना भी है भाव का देखना भी।छाते का महत्व उस समय कितना बढ़ जाता है, उसकी जरूरत कितनी बढ़ जाती है जब बारिश हो रात में ...तब छाता सिर पर होना ही चाहिए तब उसे दिखना ही चाहिए।पहाड़ों पर चमकती बिजली चमकते हत्थे की याद दिला देती...चमकता हत्था टॉर्च की याद दिला देता - यह दृश्यबंध इतना सजीव है कि पढ़ते हुए या आँख बंद कर सोचते हुए भी रोमांच हो जाता है।घर में जब टॉर्च न हो तो छाता अपने धातुई हत्थे की मार्फ़त रोशनी बन कर राह भी दिखाता था।मुझे याद है कि यह पढ़ कर मैं इतना रोमांचित हो गया था और पहली बार जगूड़ी जी को फोन किया था तब देर तक इस बिंब पर ही बात करता रहा था।यदि मेरे पास थोड़ा सा भी फ़िल्म बनाने का शऊर होता तो इसपर एक दो मिनट की पोइट्री फ़िल्म जरूर बनाता।
छाता तुम छतरी क्यों बन गए??
Y Pandey
Former Director (Actg )& Chief Scientist , CSIR-CBRI
Roorkee
Former Director (Actg )& Chief Scientist , CSIR-CBRI
Roorkee
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From: Yadvendra Pandey <yapandey@gmail.com>
Date: Fri, 15 Mar 2019, 08:02
Subject: लीलाधर जगूड़ी
To: arun dev <devarun72@gmail.com>
From: Yadvendra Pandey <yapandey@gmail.com>
Date: Fri, 15 Mar 2019, 08:02
Subject: लीलाधर जगूड़ी
To: arun dev <devarun72@gmail.com>
प्रिय अरुण जी,
लीलाधर जगूड़ी के बारे में एक तुरंता प्रतिक्रिया भेज रहा हूँ - ध्यान रखें मैं पारम्परिक अर्थों में कोई हिंदी में दीक्षित समालोचक नहीं हूँ, सुधी पाठक भर हूँ।
यदि 'समालोचन' के लिए उपयोगी लगे तो इस टिप्पणी को लगा दें - उपयोगी न लगे तो जल्दी बता देंगे तो अच्छा लगेगा।
धन्यवाद।
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कल रात में पता चला कि देहरादून में रहने वाले हिंदी के अनूठे कवि श्री लीलाधर जगूड़ी को 2018 के अखिल भारतीय व्यास सम्मान से विभूषित किए जाने की घोषणा की गई है तो मन उनके अभिनंदन को व्याकुल हो गया।हजार बारह सौ किलोमीटर की दूरी पर दो शहरों में रहने के कारण यह तत्काल संभव नहीं सो इन शब्दों के माध्यम से मैं लीलाधर जगूड़ी को प्रणाम करता हूँ।उन्हें मैं व्यक्तिगत रूप में लगभग पन्द्रह वर्षों से जानता हूँ और देहरादून जाने पर कुछ समय उनके साथ बैठना और दुनिया के किसी भी विषय पर उनको बोलते हुए सुनना विलक्षण अनुभव है - चाहे वह साहित्य हो,राजनीति हो,व्यावहारिक विज्ञान हो या फ़िल्म ही क्यों न हो। विभिन्न विषयों पर उनकीअद्यतन और व्यावहारिक जानकारियाँ मुझे हमेशा चकित करती रही हैं - कितना पढ़ते हैं वे।मुझे लगता है वे देहरादून से बाहर विभिन्न प्रदेशों में व्याख्यानों के लिए जाने का कोई आमंत्रण आसानी से ठुकराते नहीं इसलिए उनका जो उनका विज़न है वह बहुत व्यापक है,संकीर्णताओं से परे और वास्तव में वैश्विक दृष्टि उनकी रचनाओं में स्पष्ट झलकती है और यह चीज मुझे बहुत आकर्षित करती है।वे जब बोलते हैं तो सिर्फ़ मुँह से नहीं बोलते,चेहरे से आँखों से और हाथ से - या कहें कि किसी मंजे हुए अभिनेता की तरह पूरे शरीर से बोलते हैं।बातचीत में संस्कृत साहित्य और भारतीय दर्शन की उनकी सहज पैठ परिलक्षित होती है पर यह उनकी सीमा कतई नहीं है - खास बात यह है कि वे अपनी बात को आज के वैश्विक सन्दर्भों तक ले आते हैं - उनके जैसी रेंज बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है।
वैसे जगूड़ी जी को प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान और नागरिक सम्मान बार-बार मिले हैं - पद्मश्री से लेकर साहित्य अकादमी पुरस्कार तक। इनके अलावा बहुत सारे दूसरे राष्ट्रीय स्तर के सम्मान उन्हें मिले हैं लेकिन "अखिल भारतीय व्यास सम्मान" उनके कंधों पर रखा गया अब तक का सबसे बड़ा सम्मान है - यह सम्मान उन्हें 2013 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित कविता संकलन "जितने लोग उतने प्रेम" के लिए दिया गया है। मेरा सौभाग्य है कि 21 सितंबर 2016 को हमने केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान में एक कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के तौर पर जब उन्हें रुड़की बुलाया था तब उन्होंने यह संकलन मुझे अपने हाथों से भेंट किया था। मैं दशकों से उनकी कविताओं का प्रशंसक रहा हूँ लेकिन उस समय मैं दो-तीन दिनों में ही पूरा संकलन पढ़ गया था ।इस संकलन में विभिन्न विषयों पर एक से एक बढ़िया कविताएँ हैं लेकिन एक कविता ऐसी है जिसे मैं बहुत-बहुत प्यार करता हूँ। इस संकलन को पढ़ने के पहले भी मैंने उनकी उस कविता को पढ़ा था और रुड़की में उस कार्यक्रम के दौरान भी मैंने जगूड़ी जी से इस कविता को सुनाने का आग्रह किया जो उन्होंने मान लिया। और उसके अलावा जब भी उनको मंच पर सुनने का मौका मिलता है मैं उनसे यह कविता जरूर सुनता हूँ। यह कविता साहित्य और शिल्प के स्तर पर तो श्रेष्ठ कविता है ही लेकिन मुझे यह।उनसे अलग धरातल पर जाकर भी - सघन पहाड़ी परिवेश और
और अपनी दृश्यात्मकता के लिए, अपने प्योर विजुअल पावर के लिए - बड़ी विशिष्ट और अनूठी कविता लगती है।
मुझे खूब अच्छी तरह याद है बरसात की वह शाम जब मैंने पहली बार इनमें से एक कविता 'छाता' पढ़ी थी किसी पत्रिका में कोई 10 - 12 साल पहले तो मैंने उसी समय कविताओं के अंत में दिए उनके फोन नंबर पर फोन लगाया और हमने बहुत लंबी बात की - एक घंटे से ज्यादा, उन तमाम कविताओं पर और खासतौर पर छाता कविता पर... सिर के ऊपर तने वितान का और उससे जुड़ी आश्वस्ति और मानवीय सम्बंधों की ऊष्मा और छीजन का जो चाक्षुष प्रभाव इस कविता में है उसको लेकर ।छाता और छतरी के अंतर को कवि ने जिस तरह से बिल्कुल समाजशास्त्रीय परिदृश्य में परिभाषित किया है वह अपने आप में अत्यंत विरल और विलक्षण है। इस कविता की ताकत इसके शब्दों से ज्यादा इसकी दृश्य संरचना में है और मैं को इसी तरीके से पढ़ता देखता हूँ और यही कारण है कि यह मेरी पसंद की ऊँचे पायदान पर रखी हुई कविता है और हिंदी में लिखी गई कुछ श्रेष्ठ कविताओं में से एक मानता हूँ ।
छाता
भारत में बरसातें अब भी बड़ी हैं आड़ी तिरछी, लंबी चौड़ी बरसातें जो कि दिन रात बरसतीं
आखिर पुराने छाते की याद दिला ही देती हैं
यह जो छोटी सी एक आदमी लायक छतरी लाया हूँ
उसमें अकेला भी भीग रहा हूँ
जब हाई स्कूल पास किया था तो घर में 'एक' छाता होता था
बड़ा सा
हम तीन भाइयों के लिए जो कि काफी पड़ता था
छाते की तरह भाइयों में मैं ही बड़ा था ...
पर छाता लेकर जब कभी मैं कॉलेज जाता
और कोई सहपाठिन कभी उसके नीचे आ जाती तो
बिना सटे भी हम भीगते नहीं थे अलबत्ता पायँचे भीगे हुए होते थे
पुराने छाते पारिवारिक और सामाजिक लगते थे
जबकि ये छतरियाँ व्यक्तिवादी और अकेली लगती हैं
ये शायद धूप के लिए हैं बारिश के लिए नहीं
जबकि घर वाले मुझसे ही तीन चार काम ले लेते थे
खेत में किसान का इधर-उधर हरकारे का
स्कूल खुलते ही वे मुझसे स्कूल जाने का काम लेते थे
पुराना छाता देखकर धूप प्रचंड हो जाती
बादल उमड़ आते थे
तेज बारिश हो या तेज धूप
बस जल्दी जल्दी घर पहुँचना याद आता है
जैसे किसी और भी पुराने और भी बड़े
किसी दूसरे छाते के नीचे आ गए हों
जब भी मैंने कहीं उसे भूला
रात को दोस्तों के घर ढूंढने जाना पड़ता था
बरसाती अंधेरी रातों में सिर्फ कानों को सुनाई देता है छाता
बारिश हो रही हो और छाता न हो आसमान एक उड़े हुए छाते जैसा लगता है
धूप हो तो साथ चलते पेड़ जैसा लगता है छाता
अगर बारिश न हो रही हो रात में तो छाता सिर पर हो या हाथ में किसी को नहीं दिखता
चमकती बिजली चमकते हत्थे की याद दिला देती
चमकता हत्था टॉर्च की याद दिला देता
(जो हमारे घर में नहीं था)
अब तो पुराने छाते जैसी घनी घनी रात भी कम ही दिखती है
उतनी अंधेरी उतनी बड़ी
कितनी तरह के उजालों से भर गई है वही रात
इस कविता में छाता बिल्कुल अनूठे रूपक की तरह आया है...वह भी नया नहीं पुराना छाता(नए जमाने में छाता तो रहा ही कहाँ)...वैसा छाता सामाजिक तथा आपसी रिश्तों की जो गरमाई थी, एक सुरक्षा थी,आश्वस्त का जो भाव था उसका जीवंत प्रतीक है।अब के समय में पुराना छाता धीरे-धीरे हमसे छूट गया - जैसे परिवार हमारे बिखर गए और छतरियों में तब्दील हो गए ।छतरियाँ भी कैसी - व्यक्तिवादी और अकेली जबकि पुराने छाते पारिवारिक और सामाजिक। कवि की कविता उन रिश्तों उन भावों की अनुपस्थिति की ओर छाते के माध्यम से इशारा करता है और उनके बने रहने की जरूरत को गहरे तरीके से रेखांकित करता है - तीन भाइयों के लिए एक छाता और वह तीनों के लिए काफी पड़ता था।
लगता है कि कवि की नज़र बरसात के मौसम में बदलाव पर है - क्लाइमेट चेंज पर भी है - जिसके प्रभाव पहाड़ों से नीचे की तरफ लोगों का विस्थापन शुरू हुआ। जब आधा साल पानी बरसता रहे और ऐसी बरसाती रातों में या तेज धूप में छाते की जरूरत अनिवार्य हो जाती है..
उसके बाद छाते का और विस्तार यह है कि जल्दी जल्दी घर पहुँचना है - घर उससे भी बड़े एक छाते के प्रतीक के तौर पर यहाँ आता है ।कभी छाता भूल जाना बचपन में और छाते की अनुपस्थिति में पहाड़ी जीवन सोचा ही नहीं जा सकता .... जरूर किसी दोस्त के यहाँ छोड़ा होगा। अब रात हो तो हो छाता तो चाहिए ही कि उसके बिना जीवन नहीं चलेगा... रात में भी दोस्त के घर जाना है और ढूँढ कर ले आना है।यहाँ छाता केवल दिखाई नहीं देता,बोलता भी है - बरसाती अंधेरी रातों में सिर्फ कानों को सुनाई देता है छाता ।छाते को इस रूप में देखना सुनना ,मुझे नहीं लगता कि किसी और कवि ने कहीं इस रूप में छाते को चित्रित किया हो। बारिश हो रही हो और छाता न हो, धूप तेज हो और छाता न हो तो ऐसा लगता है जैसे सारे संकट छप्पर फाड़ कर कूद पड़े हों - ऐसी है पहाड़ी जीवन में मामूली से छाते की भूमिका!
इस कविता की जो सबसे अच्छी पंक्तियाँ मुझे लगती हैं - सबसे सघन भावनाओं को लेकर कवि ने लिखी है - देखिए : अगर बारिश न हो रही हो रात में तो छाता सिर पर हो या हाथ में किसी को नहीं दिखता
भौतिक अर्थों में काला छाता रात में कहाँ दिखाई देगा ...लेकिन यह सिर्फ आँख का देखना नहीं है,मन का देखना भी है भाव का देखना भी।छाते का महत्व उस समय कितना बढ़ जाता है, उसकी जरूरत कितनी बढ़ जाती है जब बारिश हो रात में ...तब छाता सिर पर होना ही चाहिए तब उसे दिखना ही चाहिए।पहाड़ों पर चमकती बिजली चमकते हत्थे की याद दिला देती...चमकता हत्था टॉर्च की याद दिला देता - यह दृश्यबंध इतना सजीव है कि पढ़ते हुए या आँख बंद कर सोचते हुए भी रोमांच हो जाता है।घर में जब टॉर्च न हो तो छाता अपने धातुई हत्थे की मार्फ़त रोशनी बन कर राह भी दिखाता था।मुझे याद है कि यह पढ़ कर मैं इतना रोमांचित हो गया था और पहली बार जगूड़ी जी को फोन किया था तब देर तक इस बिंब पर ही बात करता रहा था।यदि मेरे पास थोड़ा सा भी फ़िल्म बनाने का शऊर होता तो इसपर एक दो मिनट की पोइट्री फ़िल्म जरूर बनाता।
छाता तुम छतरी क्यों बन गए??
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लीलाधर जगूड़ी और यादवेन्द्र |
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