निर्बंध: उन्नीस
खाने में सिर्फ़ स्वाद नहीं जीने का रस भी होता है
यादवेन्द्र
किसी खाने की वस्तु को लेकर हाल में पढ़ी कुछ साहित्यिक रचनाएँ मेरी स्मृति में हैं और मुझे हमेशा से विस्मित करती रही हैं - मेरे मन और जीवन में स्वाद को लेकर घनघोर आग्रह है और कभी इसके चलते मन में ग्लानि का भाव भी आता है....पर जब किसी के जीवन में स्वाद एक निर्णायक और फैसलाकुन भूमिका निभाने की बात पढ़ता सुनता हूँ तो मन स्वस्थ और आश्वस्त होता है - कि यह मेरा अवगुण या विकार नहीं।
कई सालों बाद मनोज कुमार पांडेय की कहानी 'शहतूत' अभी फिर से पढ़ी - एक एक घटना आँखों के सामने आती गयी। जंगल में इतने सारे खाये जा सकने वाले फलों के नाम एक साथ पढ़ना बहुत अच्छा लगा - शहतूत और बड़हल के नाम से मुँह में पानी आना स्वाभाविक था। पर उस समय भी लगा था और आज भी लगा कि अंत में जाकर यह कहानी अपना सहज प्रवाह छोड़ कर "थोड़ी सजग" हो जाती है - शहतूत इनमें खास है जो एक जुगुप्सा की तरह अनचाहे ढंग से पाठक के शरीर में चिपक जाता है।ठंडे और साफ पानी के तालाब की जगह गरम पानी के नल के खड़ा हो जाने और उस खौलते पानी के चेहरे पर पड़ने की घबराहट में नायक का चेहरा शहतूत की तरह काला पड़ जाना मुझ जैसे पाठक के लिए चौंकाने वाले रूपक हैं।
मेरी इस उलझन का लेखक कहानी में ही जवाब देता है:"तुम दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि ये घटनाएँ किसी की भी स्मृति का हिस्सा नहीं हैं याकि किसी के भी जीवन में सचमुच नहीं घटीं। क्या तुम दुनिया भर के लोगों को जानते हो?...
तुम्हें पता नहीं कि कुएँ की दुर्गंध शहतूतों में समा चुकी है इसीलिए तुम्हें अभी भी लगता है कि शहतूत दुनिया के सबसे स्वादिष्ट फल हैं।"
बचपन की कड़वी स्मृतियों से उबरने की भरपूर कोशिशें भी कथा नायक को कभी उनसे उबरने नहीं देतीं,उसका पीछा करती रहती हैं।यह सिर्फ कथाकार के साथ नहीं होता,हर इंसान के साथ यही होता है।
पर इस बेहद ग्राफ़िक कहानी का सबसे महत्वपूर्ण और मार्मिक निष्कर्ष तब सामने आता है जब वह यह कहता है:
"हो सकता है कि तुम किसी ऐसे जंगल में जा कर बस जाओ जहाँ शहतूत क्या मछली, मेहँदी, इमली, बढ़हल या कमल जैसी चीजें सपनों में भी तुम तक न पहुँच सकें।"इसे मैं बदलते पर्यावरण की विभीषिका के साथ भी जोड़ कर देखता हूँ - दुर्भाग्य से बहुत कम लेखकों ने इस डरावने यथार्थ की ओर ध्यान दिया है।)
यह विचलित कर देने वाली स्थापना है जहाँ शहतूत जीवन की मिठास का प्रतीक बन कर उभरता है...इस धरती के किसी इंसान के साथ भी यह हादसा न पेश आये - स्मृतियों से मुक्ति सहज मानवीय वृत्ति नहीं है,अवांछित विडंबना है।यह बचपना हर किसी के भीतर बचा हुआ रहे या पेड़ ही इतना बेसब्र हो उठे कि वह आसपास के सब की अँजुरी शहतूतों से भर दे।
मनोज जी की यह कहानी शहतूत की मार्फ़त गहरे सरोकारों और न्यायपूर्ण मूल्यों पर आधारित समाज की बात करती है और स्मृतियों के डरावने अमानवीय बन जाने के खतरों की बात से डरती डराती है।
एक युवा भारतीय लेखक की अंग्रेजी में लिखी एक कहानी (लेखक के नाम का प्रभात याद आ रहा है इस समय,बस) मुझे याद आ रही है जो 2006 में 'द हिंदू' के रविवारी संस्करण में छपी थी। इसका मैंने हिंदी में अनुवाद किया था जो 'कथादेश' ने सितंबर के अंक में छपा था। इस कहानी का शीर्षक 'चॉकलेट' था... चॉकलेट के सिवा इस में दो किरदार हैं बूढ़े पति पत्नी जिसमें पत्नी की याददाश्त धीरे-धीरे उसका साथ छोड़ रही है - उसे लौटा लाने के लिए पत्नी को बहुत प्यार करने वाला उसकी खूब चिंता करने वाला पति कैसे तमाम कोशिशों के बाद भी उसको साथ साथ बिताए पुराने दिन याद नहीं दिला पा रहा है । फिर चॉकलेट एक प्रेम प्रतीक के रूप में उभरता है .... जब उनकी शादी तय हुई थी तब चॉकलेट ने ही उनके रिश्ते को मजबूत करने में मदद की थी। हुआ यह था कि पत्नी का जन्मदिन आने पर पति ने उपहार के रूप में उसे चॉकलेट भेजा था। पत्नी को जब यह उपहार मिला तो उसने आधा चॉकलेट खाया और बचा हुआ चॉकलेट लिफाफे में बंद करके पति को वापस भेज दिया... पत्नी को याद करते हुए उसने शेष चॉकलेट खा लिया।बाद के सालों में भी जन्मदिन पर एक दूसरे के साथ चॉकलेट बाँट कर प्रेम जतलाने का यह सिलसिला चलता रहा।
हताशा के चरम क्षणों में पति चॉकलेट की याद दिला कर पति पत्नी को पुराने दिन में लौटा ले आने की कोशिश करता है, फ्रिज से चॉकलेट निकाल कर दिखाता है लेकिन पत्नी फिर भी पुराने दिनों को याद नहीं कर पाती है - बस हौले से मुस्कुरा भर देती है।बहुत बार इंसान के सामने धीरे-धीरे किसी का अपने पास से फिसलते फिसलते दूर चलते जाना और पूरी कोशिश पूरी लगन और निष्ठा के बाद भी उसको अपने से दूर जाने से रोक पाने की संभावना न होने की कारुणिक नियति इस कहानी का विषय है लेकिन इसमें चॉकलेट का जो जीता जागता प्रतीक है वह दिमाग पर छा जाता है.... एक छोटे से चॉकलेट की उपस्थिति किस तरह से दो लोगों को जोड़ती है,उनके अतीत की छाया उसकी शक्ल में दिखाई देती है यह इस छोटी सी कहानी में बड़े सघन रूप में उभर कर आती है।
प्यार में पागल बना देने की कुव्वत रखने वाले अब धीरे धीरे हमारे शहरी जीवन से विस्मृत होते जाते शरीफे को केंद्र में रख कर कुछ महीने पहले पढ़ी रुचि भल्ला की 'पहल' पत्रिका में छपी एक कविता याद आ रही है :
"शरीफे को आप आदमी न समझिए
पर आदमी से कम भी नहीं है शरीफा।"
यहाँ सुमन बाई (शरीफे सी मीठी हो आती है )
की चेतना पर प्यार से कब्जा जमाए शरीफा है :
"जब देखती है उसे एकटक
उसके होठों पर आ जाता है निचुड़ कर शरीफे का रस....
उसने गिन रखा है एक-एक शरीफा
जैसे कोई गिनता है तनख्वाह लेने के लिए महीने के दिन
अब यह बात अलग है कि शरीफे के ख्याल में
"जब देखती है उसे एकटक
उसके होठों पर आ जाता है निचुड़ कर शरीफे का रस....
उसने गिन रखा है एक-एक शरीफा
जैसे कोई गिनता है तनख्वाह लेने के लिए महीने के दिन
अब यह बात अलग है कि शरीफे के ख्याल में
उससे टूट जाता है काँच का प्याला"
सुमन बाई की शरीफे के प्रति आसक्ति की यहाँ तक पहुँचती है कि:
"उसे खुद के गिरने का डर नहीं होता
पगली शरीफा खो देने से डरती है...."
"उसे खुद के गिरने का डर नहीं होता
पगली शरीफा खो देने से डरती है...."
इस कविता में शरीफा एक फल से ज्यादा आसक्ति और दीवानेपन का प्रतीक बन कर उभरता है...अपने मौसम में सुमन बाई के व्यक्तित्व पर जिन्न बन कर छा जाता है छोटा सा मामूली फल जिसका नाम है शरीफा - मजदूरी कर के जीवन यापन करने वाली किसी स्त्री के लिए शरीफा उसकी पगार जैसी अमूल्य बन जाये यह अपने आप में अनूठा रूपक है।
मनोज पाण्डेय |
मनीष वैद्य की कहानी 'खिरनी' कुछ दिनों पहले पढ़ी थी...दरअसल यह खिरनी जैसे दुर्लभ होते जाते प्रेम की मार्मिक कथा है - साढ़े तीन दशकों के फासले के दोनों छोरों पर दो निहायत अजनबी खड़े हैं जिन्हें इतने सालों बाद सिर्फ पकी खिरनी का रूपक है जो आपस में बांधता है....उन असमान प्रेमियों के बीच।इसके सिवा और कुछ नमी शेष नहीं बची है।वैसे निडर होकर जंगल का सीना चीर जाने वाली लड़की बचपन में पहाड़े याद रखने में फिसड्डी थी पर इसके लिए उसके पास पुख्ता जवाब था -
किताब में खिरनी का पेड़ और यह जंगल नहीं है न। ये होता तो तुम सब फेल हो जाते, मैं अव्वल आती... (खिरनी जैसे जंगली फल को इतने ऊँचे पेडेस्टल पर ले जाना हमारे विमर्श में विरल है)
पर पुराने दिनों में लौटते हुए लड़के को लगता है कि कुछ लड़कियाँ खिरनी के पेड़ की तरह होती हैं। पेड़ के नीचे की जमीन वे खिरनियों से पीला रंग देती हैं....दुनिया के कड़वेपन को वे मिठास में बदल देती हैं। तब वह लड़की खिरनी जैसी ही रसीली और मीठी थी।
इस कहानी को पढ़ते पढ़ते मुझे अनायास हजारी प्रसाद द्विवेदी की रचना 'आम फिर बौरा गए हैं' याद आने लगती है।आचार्य द्विवेदी रवींद्र नाथ ठाकुर की यह उक्ति उद्धृत करते हैं कि एक मौसम में विदेश में होने के चलते आमों से दूर रहना पड़ा सो मेरे धरती पर जीवन को एक वर्ष कम दर्ज किया जाए।फलों का मनुष्य के जीवन में किन किन स्तरों पर और कितना गहरा हस्तक्षेप होता है,इसका यह ज्वलंत प्रमाण है।
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Y Pandey
Former Director (Actg )& Chief Scientist , CSIR-CBRI
Roorkee
Former Director (Actg )& Chief Scientist , CSIR-CBRI
Roorkee
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