image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

15 मई, 2015

आज कविताओं का दिन है।  आज समूह के ही एक साथी कवि की कविताएँ चर्चा हेतु प्रस्तुत हैं।  आपकी सभी की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

1
अच्छी लगती है उदासियाँ

पतझड़ सी तासीर है उदासी की
सूखे पत्तो की सरसराहट में भीगा मन
याद करता है वह खिलखिलाता समय
तब आ ही जाती है उदास होठो पर मुस्कराहट
जिस तरह छलक पड़ती है ख़ुशी में आँखे
उदासी में फिर से जी उठते हैं

उफनती नहीं है उदासी
वह बहती है मैदानी नदी की तरह
सींचती है जमीन को नई पौध के लिए
ठहरे हुए इस समय में तेज दौड़ता है मन
वो लम्हे समेटने को जो खुश कर सके उदासी को

इच्छाओं और अपेक्षाओं  से जनमती है उदासियाँ
ये समझाती है कि दरअसल अपेक्षाएं दूरियों का पर्याय है
झुर्रियों वाले हाथो में है इसका प्रमाण
पर रिश्तें नहीं टूटते हथेलियों के छूट  जाने पर भी
सुनसान पगडंडियों पर आहट की आस होती है उदासियाँ

अच्छी लगती है उदासी
सब अपना हो जाता है
आसमान धरती चाँद पेड़ पौधे
दरवाजे खिड़कियाँ पलंग तकियें
सब चुपचाप बतियाते है एक दूसरे से
उदासी भर जाती है ख़ामोशी के कोलाहल से
000

2

कोथमीर

अभी अभी तोड़ा है मैने
अपने आँगन के बगीचे से कोथमीर

जो उग आया था यूँ ही सूखे धनिये के कुछ दाने
गीली मिट्टी मे फैक देने पर
मिट्टी ने उस पीले सूखे दाने के बदले
दिया था यह खुशबूदार हरापन
जैसे माँ देती है स्नेह और दुलार

मेरे आँगन का कोथमीर
पहले विचार की तरह ताजा
उठते यौवन की तरह हरा
उनमुक्त हँसी की तरह खिला खिला

उसकी पतली डालियो पर
नरम मु लायम छोटी बडी पत्तियाँ
हाथो को इस तरह छूती है
जैसे नन्हे शिशु की कोमल उगलियाँ
थाम लेती है हमारी उँगलियाँ

घुल मिल जाते है दाल सब्जियो मे
एकाकार हो जाता है हरी मिच॔
नीबू नमक अदरक के साथ
कविता मे बिखरे शब्दो और भावो की तरह
रंगत खुशबू और  स्वाद बदल देता है
आता है जैसे नयापन कविता में।
000

3

लौट आओ

इससे पहले कि
ख़त्म हो जाये सांसे
किसी काली छाया से धुंधला होने लगे आँखों का उजाला
तुम लौट आओ

देखो  कितनी धूल जम गयी है पत्तियों पर
कितने मुसाफिर लौट गये इस राह से
पंछी आ गये है घोसलों में वापस
किसानो और गाय बैलों को भी सताने लगी है घर की याद
इससे पहले कि
राह का आखिरी कंकड़ मेरी आँखों में चुभे
तुम लौट आओ

तुम समय नहीं
समय से बंधे हो
और यह समय तुम्हारे लौटने का है
हो सकता है समय से लड़ कर अभी इतिहास बना दो
पर कहते है
इतिहास भी दोहराता है खुद को
इससे पहले कि
समय तुम्हे अपनी गिरफ्त में ले ले
तुम लौट आओ

गीली हो गई है जमीन
कतरे गलने लगे है
जड़े छोड़ने लगी है मिटटी
ध्वस्त हो जायेंगे कई घरोंदे
जो पत्ती पत्ती डाली डाली बसे है
इससे पहले कि
कोई शिला बिखर कर बहने लगे
तुम लौट आओ
000

4
नासूर

छंट ही जाती है धुंध ,पर गीली रह जाती है हवा
थमता हुआ तूफान , छोड़ जाता है बर्बादी के निशान
वक़्त भर ही देता है घावों को
नासूर फिर भी रह जाते है जो सालते है
जिंदगी भर...
000

5
एक मुलाकात

कही रह गया था गीलापन
और बीज भी
कि फूटने लगा है अंकुर
हरी होने लगी है पत्तियाँ
लौटने लगी है जाती हुई खुशबु

रंग भरने लगे है फूलों में
मन तितली हो गया
बरसो से जागी आँखे देखने लगी है
सपने फिर से

बदलने लगी है गंध डायरियों के पन्नों की
धुंधली लिखावट से
बाहर आने लगे है शब्द

फिर खिल उठा है
किताबों में रखा गुलाब
एक मुलाकात के बाद
000

6

इच्छाएं

मन के किसी कोने में
अचानक उठी इच्छाएं
फ़ैल जाती है जीवन के आकाश में
तारों की तरह

इच्छाएँ  मरती नहीं कभी
इनका घर सदा अमर
जल जंगल और जमीर पर भी

दरअसल इच्छाओं की छोटी छोटी
नदिया बहती रहती है हमारे भीतर
फिर भी एक प्यास तारी रहती है

जब इच्छाएं समुद्र हो जाती है
बनते है नए प्रतिमान
एक नई लय
एक ऐसा संगीत
जिसके आलाप का कोई अंत नहीं

वह बजता रहता है
मन के किसी निर्जन कोने में
उसका नाद डूबने नही देता
ले जाता है हमें अतृप्त संसार में

कितना अच्छा होता है यूँ
इच्छाओ का आवारा हो जाना
000
प्रस्तुति अंजू शर्मा:-
-----------------------
टिप्पणियाँ:-

अलकनंदा साने:-
कोथमीर शब्द कवि के किसी क्षेत्र विशेष के होने को दर्शाता है जिसे कोई और हरा धनिया लिखता । इस शब्द के अलावा उस कविता में कुछ भी आकर्षित नहीं करता । बाकी कविताएं अच्छी हैं, पढने लायक हैं, पर याद में शायद ही रहे ।

वसंत सकरगे:
जी ताई!कोथमीर शब्द चूँकि भोपाल में इस्तेमाल होता है इसलिए कहा जा सकता है कि ये कविताएं भोपाल के किसी कवि/कवियित्री की हैं।इस काव्याभिव्यक्ति में ऐसा कहीं कुछ नहीं है जो हमारी स्मृति में देर तक ठहर सके।पर फिर भी एक रचनाकार का संघर्ष और श्रम यहाँ अपनी खुश्बू को लेकर संवाद कर रहा है।यह भी गौरतलब है (बकौल नरेश सक्सेना जी,कि हर कवि हर बार अच्छा ही लिखे,जरुरी नहीं है)इसलिए रचनाकार को बधाई।अंजु जी को धन्यवाद।

अरुण आदित्य :-
कोथमीर, लौट आओ, एक मुलाकात और इच्छाएं अच्छी लगीं।
जल, जंगल और जमीर का  मुहावरा नया है।
स्मृति, संवेदना और सहज शिल्प से रची ये कविताएं उमस भरी गरमी में हाथ-पंखे की हवा जितना सुकून देती हैं, बस।

प्रदीप मिश्र:
कविताएँ अच्छी हैं। इनमें कविताई,संवेदनाएं और लय है।वस्तुतः कविता यात्रा में इस तरह की कवितायेँ ही निरंतरता को बचा कर रखतीं है। जिनके बीच से कभी कभी कोई कविता सूरज की तरह उग जाती है।कवि में यह सामर्थ्य है की उसके कविता छितिज पर सूरज की तरह कवितायेँ उगें।बधाई।

मणि मोहन:-
यहाँ साझा होने वाली कविताएँ कई बार लेखन की शुरुआत करने वाले मित्रो की भी होती हैं ।कई सामान्य कविताओं से गुजरकर  अच्छी कविता तक यह यात्रा जारी रहती है ।मुझे इन कविताओ की सादगी और एक लय जो इनमे मौज़ूद है , प्रभावित किया ।इस ओर प्रदीप भाई ने भी इशारा किया है ।

संजीव:-
तकनीक हाइपर रियलिटी वर्चुअल यथार्थ के इस दौर में जहां भाषा संवेदनाओं को खोती जा रही है। वहां कोथमीर शब्द की खुशबू ही काफी है। कविता की बात न करें तो भी चलेगा।

स्वरंगी साने:-
अंजू दी क्षमा करें पर लगता है ये किसी ऐसे कवि की कविताये है जिसने खूब पढ़ा है। और पढ़ते पढ़ते उसे लगने लगा अरे मैं भी लिख सकता हूँ। स्मृति के दालानों से शब्द चुने और रच दिया। मैं गाना सुनती हूँ तो लगता है मैं भी गा सकती हूँ। गा भी देती हूँ। दुसरे कहते है pl मत गा। तब भी मेरे हिसाब से तो वो अच्छा ही गाया गया होता है। ये कुछ कुछ ऐसा ही लगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें