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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 मई, 2015

दिलीप चित्रे की कविताओं का अनुवाद

साथियों आज अनुवाद का दिन है . प्रस्तुत है मराठी के प्रसिद्द कवि दिलीप चित्रे (1938 -2009 ) की कविताओं का तुषार धवल द्वारा किया गया अनुवाद . स्व. दिलीप चित्रे न सिर्फ कवि थे , बल्कि वे एक चित्रकार भी थे . उन्होंने कई वृत्त चित्रों तथा लघु चित्रों  का निर्माण भी किया .अपनी फिल्मों की पटकथा वे स्वयं लिखते थे .वे अनुवाद भी करते थे और संत तुकाराम के अभंगों का उनके द्वारा किया गया अनुवाद ''Tuka Says'' काफी चर्चित हुआ था.दिलिप  चित्रे अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित थे .उनकी  अंग्रेज़ी और मराठी की अनुवादित   कविताएँ   तुषार जी के ‘मैजिक मुहल्ला’ खण्ड 1, से ली गई हैं.

22 दिसंबर, उत्तरी गोलार्ध का सबसे छोटा दिन
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(‘December 22, The Shortest Day
In The Northern Hemisphere’/ As Is Where Is, पृष्ठ 135)
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मैं तरसता हूँ आदिम गुफा के लिए।
मेरे पशु को नींद चाहिए।
मेरे पोषण को बहुत कम बचा है सिवा उसके जो मेरे भीतर संचित है।
मैं बहुत धीमी साँस लेना चाहता हूँ, तल को छूते हुए।
काश यह दिन और भी छोटा हो पाता, रोशनी के क्षणांश जितना।
काश यह चक्र और भी धीमा हो पाता, बस एक क्षणिक चमक,
चौबीस घंटों में, बाकी सब एक गहरी रात।
मैं आँखें बंद कर लेना चाहता हूँ हिमपात पर,
मैं अनजान रहना चाहता हूँ बदलाव की निरंतरता की पीड़ा से,
घड़ी की ज़िद से, धरती के घूमने से, नक्षत्रों की चाल से।
सितारों और उपग्रहों से, उस बल से जो हमें देश काल में
मोड़ देता है, चेतना के आंतरिक घुमाव से,
मैं होना चाहता हूँ : न ऊर्जा, न पदार्थ, न जीवित कुण्डलिनी।
सिवाय उस बोध की सबसे छोटी झपक के, जो दबी है त्वचा
और मांस के भीतर, मस्तिष्क की खोह में छुपा, जाड़ों का रहस्य।

सुस्त दिनों का खानाबदोश कारवां
(‘संथ दिवसांचा लमाण-तांडा, एकूण कविता 3, पृ.  581)
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सुस्त दिनों का खानाबदोश कारवां
सरकता है अनंत के मरुस्थल में
जैसे हमारे दुखों  का बोझ उठाये स्वप्न के ऊँट चले जाते हैं
अनिर्मित पिरामिडों  की  डरावनी छायाओं के पार
मृत्यु की मारीचिका की ओर ....

--- आकाशगंगा के धूसर प्रवाह की सतह पर
तैरते
मेरे घनघोर पागलपन के  असम्बद्ध प्रतिबिम्बों को
जिन आँखों ने चुराया था  देश काल के परे
वे आँखें अब बर्फ सी जम  गयी हैं

वे आँखें अब बर्फ सी जम गयी हैं और तुम भी, मेरी प्रेरणा  ---
जो विश्व के अनंत लेंस से उनके उस पार तक देखती थीं ---
तुम भी जा रही हो
मुझे छोड़ कर
बिखरते शब्दों के घने होते अंधेरों में .

थक कर आराम करने लौटे शब्द की तरह 
(Like A Tired Word Finally Coming To Rest; As Is Where Is, पृ. 111)
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शान्ति के खुले हाथों में या कविता के घोंसले में
थक कर आराम करने लौटे शब्द की तरह 
जब दिन फैला हुआ है मेरी हर ओर
मैं नदियों के उद्गम पर सोचना छोड़ देता हूँ
पानी में स्थिर कर दिए गए रंग का कोई नाम नहीं है
हम जागते हैं सिर्फ खुद को अँधा पाने के लिए
वह समुद्र जो तुम्हारे बे-आँख चेहरे पर थपेड़े मारता है हमारी माँ हो सकता है
यादगारी का वह नमक जिसे हम चखते हैं हमारी मृत्यु हो सकता है
जब तुम उड़ना बंद कर देते हो तब कहा नहीं जा सकता कि
कि एक आकाश का ख़याल क्या सचमुच तुम्हारा अपना ही था
और क्या उस हवा में तुम्हारी ही भावना के घुमाव थे
अगर तुम चिड़िया को वापस अंडे में रखने की कोशिश करो
और पेड़ को फिर से बीज में ठेल दो
तो शायद तुम पूरे जंगल को अपने भार मुक्त मन के पार
उड़ना सिखाने में सफल भी हो जाओ    

एक गम्भीर आवाज़ का आदमी
( “A Gravelly-voiced Man”, As Is Where Is, पृ. 133)
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एक गम्भीर आवाज़ का आदमी टहलता है किसी अपार्टमेंट में
लहसुन सा महकता. वह नग्न है और उसका शिश्न तना हुआ. 
वह बेचैन है. बहुत दिनों से वह रह रहा है
सम्भोग से परे. एक नये रूप का विकराल जीवन 
उसके भीतर आकार ले रहा है. उसे नहीं पता है अभी तक कि
कैसे उसका सामना किया जाये. वह रहस्यमय ढँग से बड़ा हो रहा है
स्फटिक की तरह. वह आदमी दर्द करता है.
क्या कोई और हावी हो रहा है ?
क्या मुझे मानसिक संतुलन की रक्षा के लिये लड़ना चाहिये ?
विवेक में हुई छेद से उसने देख लिया है कुछ
जो उस पार झिलमिला रहा है. अंधेरे में फॉस्फोरस सी चमकती एक उपस्थिती .
उसे भूख लगती है. वह एक अण्डा फोड़ कर
पैन में डालता है. ब्रम्हाण्ड फूट निकलता है. बुल्स आई ---
एक दम सटीक . कल-पुर्जे मंद पड़ जाते है.
जीवन एकायामी है.
इन ज्यामितियों से बाहर आँख के लिये कोई जगह नहीं है.
धड़कनों के पिंजरे में
तुम्हारा अपना ही रहस्य एक बाघ है.

रासायनिक रात
(“रासायनिक रात्र” : एकूण कविता 1, पृष्ठ 17) 
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रासायनिक रात : मैं पुल की पीठ पर;
चमकती है रोशनी की लड़ियाँ अंधेरे से
अलकतरे सो चुके हैं खामोश; फुटपाथ कठोर
अब इक्का दुक्का कदमों के लिये. उमस में डूबा अंतर्बाह्य.
गाँठ लगाई हुई नारियल की रस्सियाँ
भावनाओं पर पड़ती राशिचक्रों की मरोड़ 
और आकाश में जगह जगह टूटे मेघ
देखता चलता हूँ तुच्छ कणों पर कष्ट में मैं

और एक ईरानी रेस्त्राँ. पानी पर
उजले प्रकाश का हिलता बिल्लौर...
इच्छाओं के ताश पीस कर मैं उठाता हूँ एक पत्ता 
उस बिल्लौरी चौक पर, वह भी चिड़ी  

अंधेरे के स्फटिक गिरते हैं; रासायनिक
रात्रि के प्रकाश से. उनका नमक और नौसादर
मैं हीरे की तरह संभालता हूँ और भीतर उतरता हूँ
पहले छहों आईनों के आरपार मेरी आँखों के कौन.

मैं हँसता हूँ. मैं रोता हूँ.
( “ I Laugh. I Cry ”, As Is Where Is, पृ. 89)
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मैं हँसता हूँ. मैं रोता हूँ. मैं मोम्बत्ती जलाता हूँ. मैं शराब पीता हूँ.
मेरी आँखें अभी भी मैली हैं प्यार से. मेरा मुँह
गँदलाया हुआ गीत से. कवितायें जूँ की तरह हैं मेरे बाल में.
उस रोमॅन्टिक ने कहा. बम्बई के एक दारु के अड्डे पर बैठ कर.
वर्षों के पसीने से काली हुई लकड़ी की बेन्चें.
एक नंगा बल्ब अपनी मलिन धुंध पसारता कमरे में
मडोना और होली चाइल्ड दीवार पर फीके पड़ते हुए.
त्रासदी में थोड़ा और सोडा मिला कर हमने उसे गटक लिया .
एक ने कहा एशिया जल रहा है. भारत का उदय होगा.
बाहर बम्बई कै की तरह है. रात में चमकती हुई.
हे प्रभु ! हमारे अज्ञान और हमारे ठसाठस भरे ट्रैफिक को और 
भड़कीले पर्दों के पीछे सम्भोग की बासी महक को माफ कर दो. 
माफ़ कर दो हमारी सामूहिक आवाज़ों और हमारी आवाज़-हीनता को.
इन दृश्यों से हम अलग पड़ जाते हैं कीचड़ भरी गलियों में
हम चलते हैं ब-मुश्किल बचते हुए ज़िंदगी से एक बजे
अलस्सबह ठीक तब जब हमारा दिन खतम होता है.
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टिप्पणीयां:-

अज्ञात‬:
तुषार भाई ने बहुत ही संजीदगी से अनुवाद किये हैं। बहुत अच्छे अनुवाद हैं। दिलीप जी का कैनवास बहुत व्यापक है, जैसा कि एक बड़े कवि का होता है। कविताएँ लगातार मन के भीतर गूँज रही हैं। कवि और अनुवादक का आभार। और हाँ यहाँ इन्हें उपलब्ध कराने वाली हस्ती का भी आभार ...  उत्पल

प्रदीप मिश्र: दिलीप चित्रे जी की कविता है इसलिए बहुत अच्छी है। वर्ना मुझे तो इसमें शाब्दिक कलाबाजी और बिम्ब की अंतहीन सुरंग के अलावा कुछ नहीं दिखा।हासिल कुछ भी नहीं।

मनीषा जैन:-
अच्छकी लगी कविताएं। कविताओं में बिम्ब नये हैं।नयापन तो है ही। एब्सर्ड कवितायें महसूस हुई।वैसे मै अभी कविताओ को समझ रही हूँ। एक पाठक की दृष्टि से। सादर

अंजू शर्मा :-
शानदार कविताएँ। अद्भुत बिम्ब और कवि के अंतर्मन के गहन मंथन से निकली कविताएँ। अनूदित नहीं लगती यही अनुवाद की सफलता है। तुषार जी और ताई दोनों को धन्यवाद।  मुझे अंतिम कविता ने कई बार पढ़वाया। अद्भुत

भावना मिश्रा:-
तुषार जी और ताई के माध्यम से आज पहली बार दिलीप चित्रे जी को पढ़ा। शुक्रिया।
अनुवाद सजग और ठहरा हुआ है और कहीं भी असहज नहीं लगता।

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