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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 अप्रैल, 2015

समयरेखा : कहानी : अंजू शर्मा

समयरेखा

छह बजने में आधा घंटा बाक़ी है और अभी तक तुम तैयार नहीं हुईपिक्चर निकल जाएगी, जानेमन!!!"

मानव ने एकाएक पीछे से आकर मुझे बाँहों में भरते हुए ज़ोर से हिला दिया!  बचपन से उसकी आदत थी, मैं जब-जब क्षितिज को देखते हुए अपने ही ख्यालों में डूबी कहीं खो जाती, वह ऐसे ही मुझे अपनी दुनिया में लौटा लाताउसका मुझे 'जानेमन' कहना या बाँहों में भरकर मेरा गाल चूम लेना किसी के मन में भी भ्रम उत्पन्न कर सकता था कि वो मेरा प्रेमी हैमेरी अपनी एक काल्पनिक दुनिया थी जिसमें खो जाने के लिए मैं हरपल बेताब रहतीढलते सूरज की सुनहरी किरणों में जब पेड़ों की परछाइयाँ लंबी होने लगती, शाम दबे पाँव उस प्रेमिका की तरह मेरी बालकनी के मनी-प्लांट्स को सहलाने लगती जो अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करते हुए हर सजीव-निर्जीव शय को अपनी प्रतीक्षा में शामिल करना चाहती हैऐसी शामों के धुंधलकों में मुझे खो जाने देने से बचाने की कवायद में, तमाम बचकानी हरकतें करता, वह मेरे आँचल का एक सिरा थामे हुए ठीक मेरे पीछे रहताऐसा नहीं था कि यह उसकी अनधिकार चेष्टा मात्र थी, कभी मैं भी उसकी हंसी में शामिल हो मुस्कुराती तो कभी कृत्रिम क्रोध दिखाते हुए उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए ऐतराज़ जताती!

पर आज तन्द्रा भंग होना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा!  "जाओ , मनुआज मेरा मन नहीं है!" मैंने नीममदहोशी में फिर से अपनी दुनिया में लौट जाने के ख्याल से दहलीज़ से ही उसे लौटा  देना चाहामेरी आवाज़ में छाई मदहोशी से उसका पुराना परिचय था!

"तुम्हारे मन के भरोसे रहूँगा तो कुंवारा रह जाऊंगा, जानेमन!"  उसने फिर से मुझे दहलीज़ के उस ओर खींच लेने का प्रयास किया!

"शटअप मनुजाओ अभी!"  मैंने लगभग झुंझलाते अपनी दुनिया का दरवाज़ा ठीक उसके मुंह पर बंद करने की एक और कोशिश की और इस बार झुंझलाने में कृत्रिमता का तनिक भी अंश नहीं थासचमुच पिक्चर जाने का मेरा बिल्कुल मन नहीं थायूँ भी मानव की पसंद की ये चलताऊ फ़िल्में मुझे रास कहाँ आती थींवो मुझे निरा अल्हड किशोर नज़र आता, जिसकी बचकानी हरकतें कभी होंठों पर मुस्कान बिखेर देती तो कभी खीज पैदा करतींये और बात है कि हम हमउम्र थेउसकी शरारतें मेरे जीवन का अटूट हिस्सा थीं, किताबों, सपनों और माँ की तरह!

"उठो अवनि, तुम्हारी बिल्कुल नहीं सुनूंगा!"  उसने कोशिशें बंद करना सीखा ही कहाँ था

  जाने मुझे क्या हुआ मैंने झटके से उसकी बांह पकड़ी और खुद को उसे दरवाज़े की ओर धकेलते हुए जोर से कहते सुना, "जाओ मानव, सुना नहीं तुमने, नहीं जाना है मुझे कहींमुझे अकेला छोड़ दो, जाओ, प्लीईईइज़!"

उसे ऐसी आशा नहीं थी, मैंने पहले कभी ऐसा किया भी तो नहीं थामेरी लरजती आवाज़ की दिशा में ताकता वह चुपचाप कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़ गया!   अजीब बात थी कि उसका जाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा थाअब मेरा दिल चाह रहा था वह बाँहों में भरकर छीन ले मुझे इस मदहोशी से, पर.…. पर वह चला गया और मैं रफ्ता-रफ्ता एक गहरी ख़ामोशी में डूबती चली गई

कभी कभी लगता है हम दोनों एक समय-रेखा पर खड़े हैंमैं पच्चीस पर खड़ी हूँ और अनिरुद्ध पैंतालीस परमैं हर कदम पर एक साल गिनते हुये अनिरुद्ध की ओर बढ़ रही हूँ और वे एक-एक कदम गिनते हुये मेरी दिशा की ओर लौट रहे हैंठीक दस कदमों  के बाद हम दोनों साथ खड़े हैं, कहीं कोई फर्क नहीं अब, समय का और ही आयु काइस खेल का मैं मन ही मन भरपूर आनंद लेती हूँ!   काश कि असल जीवन में भी ये फर्क ऐसे ही दस कदमों में खत्म हो जातापर मैं तो जाने कब से चले जा रही हूँ और ये फर्क है कि मिटता ही नहीं, कभी कभी बीस साल का यह फासला इतना लंबा प्रतीत होता है कि लगता है मेरा पूरा जन्म इस फासले को तय करने में ही बीत जाएगा!

मार्था शरारत से मुस्कुराते हुए बताती है, मार्क ट्वेन ने कहा था "उम्र कोई विषय होने की बजाय दिमाग की उपज है!  अगर आप इस पर ज्यादा सोचते हैं तो यह मायने भी नहीं रखती!"  मैं खिलखिलाकर हँस देती हूँ, हंसी के उजले फूल पूरे कमरे में बिखर जाते हैं!  मार्था भी , गोर्की की एक कहानी के पात्र निकोलाई पेत्रोविच की तरह  जाने कहाँ-कहाँ से ऐसे कोट ढूंढ लाती हैशायद यही वे क्षण होते हैं जब मैं खुलकर हँसती हूँघर में तो हमेशा एक अजीब-सी चुप्पी छाई रहती है! उस चुप्पी के आवरण में मेरी उम्र जैसे कुछ और बढ़ जाती हैतब मैं और मेरी मुस्कान दोनों जैसे मुरझा से जाते हैं!

पच्चीस की उम्र में अपने ही सपनों की दुनिया में खोयी रहने वाली मैं अपनी हमउम्र लड़कियों से कुछ ज्यादा बड़ी हूँ और पैंतालीस की उम्र में अनिरुद्ध कुछ ज्यादा ही एनर्जेटिक हैंअपनी किताबों पर बात करते हुए वे अक्सर उम्र के उस पायदान पर आकर खड़े हो जाते हैं जब वे मुझे बेहद करीब लगते हैंउनकी आँखों की चमक और उत्साह की रोशनी में ये फासला मालूम नहीं कहाँ खो जाता हैमुझे लगता है जब वो मेरे साथ होते हैं तब हम, हम होते हैं, उम्र के उन सालों का अंतर तो मुझे लोगों के चेहरों, विद्रुप मुस्कानों और माँ की चिंताओं में ही नज़र आता हैउफ़्फ़, मैं चाहती हूँ ये चेहरे ओझल हो जाएँ, मैं नज़र घुमाकर इनकी जद से दूर निकल जाती हूँ पर माँ........!!! 

बचपन में माँ ने किताबों से दोस्ती करा दी थीमाँ की पीएचडी और मेरा प्राइमरी स्कूल, किताबों का साथ हम दोनों को घेरे लेतामाँ अपने स्कूल से लौटते ही मुझे खाना खिलाकर अपना काम निपटा शाम को किताबों में खो जाती और मुझे भी कोई कहानियों की किताब थमा देतीकिताबों ने ही अनिरुद्ध से मिलाया थालाइब्रेरी के कोने में अक्सर वे किताबें लिए बैठे मिलते, एक सन्दर्भ पर दुनिया-जहान की किताबें निकाल-निकाल थमा देतेमेरे शोध में मुझे जो मदद चाहिए थी वह उनसे मिलीफिर पता ही नहीं चला कब वे मेरी दुनिया में प्रवेश पा गएजहाँ मैं थी, सपने थे, किताबें थीं, अब अनिरुद्ध थे उनसे जुडी तमाम फैंटेसियां भी थीवो लाइब्रेरी में मुझे किसी पन्ने को थामे कुछ समझा रहे होते और मैं उनके काँधे पर सर रखे एक पहाड़ी सड़क पर धीमे-धीमे चल रही होतीअब  मैं सोते-जागते हर पल अनिरुद्ध साथ रहने को मज़बूर थीमेरे कल्पनालोक का विस्तार मेरी नींदों के क्षेत्र में भी अतिक्रमण कर चुका था!  

मार्था के पास इससे सम्बंधित कोट भी हैं, वह गंभीर मुद्रा में दीवार ताकते हुए कहती है "फ्रायड के अनुसार स्वप्न हमारी उन इच्छाओं को सामान्य रूप से अथवा प्रतीक रूप से व्यक्त करता है जिसकी तृप्ति जाग्रत अवस्था में नहीं होती।वह कहती है, " स्वप्न हमारी इच्छा का ही सृजन होते हैं और गहन इच्छाओं का परिणाममन एक और संसार गढ़ता हैहम स्वप्न संसार के पात्र होते हैंस्वप्न संसार मजेदार है अवनिकभी खूबसूरत वन, उपवन, तो कभी सूखे पेड़कभी मीलों तक फैलीं खामोशियां तो कभी कोलाहल से भरे कहकहे!"



मैं एक सोच का सिरा थाम रही हूँ, वे कौन सी इच्छाएं रही होंगी, जिन्होंने मेरे और अनिरुद्ध के बीच पसरे तमाम सालों के सफर पर जाना तय किया होगामेरी विदुषी सहेली के पास इसका उत्तर भी हैवह कहती है, मैं अनिरुद्ध में अपने पिता को ढूंढती हूँ जिन्हे मैंने अपने जन्म से पहले ही खो दिया थामाँ ने अकेले माँ से पिता बनते हुए पिता की गंभीरता, उनकी कठोरता को ओढ़ लेना चाहा जिसकी कोशिश में उनके हाथों से कब वात्सल्य की कोमलता फिसलती गई ये वे भी जान सकींवे पूरी माँ बन पाई और ही पिताउनके भीतर सदा एक द्वन्द चलता रहता, उनके भीतर की माँ कभी पिता पर हावी हो जाती और कभी पिता माँ परइन दोनों में संतुलन बिठाने की कोशिश में निढाल हुई माँ को किताबों में निजात मिलती

"रबिश, तुम कुछ भी बोलती हो मार्था!"

"नहीं अवनियह सच है, अनिरुद्ध सर का साथ और स्नेह तुम्हारे अधूरेपन को पूरा करता हैतुम्हारे अवचेतन में कहीं कहीं पिता की कमी रही जो तुम्हे उनके साथ में निहित दिखती हैइस 'मे-डेसेंबर' रोमांस में यही सबसे बड़ी रीज़निंग है अवनि! "

"और मानव?"

"-----"

"कहो मार्था, तब मानव का मेरे जीवन में क्या  स्थान है?"

"वह तुम्हारे भीतर की स्त्री को संतुष्ट करता है, जिसे स्नेह नहीं प्रेम चाहिएदेह की अपनी भाषाएँ हैं अवनि और अपनी इच्छाएंराग, रंग, स्पर्श, छुअन, चुम्बन, मनुहार और भी बहुत कुछ"

"उफ्फ, बस करो, तुम्हारा फ्रायड मुझे ज़रा भी नहीं भाता!" 

मार्था जा रही है और मैं लौट रही हूँ, इस बार  राग, रंग, स्पर्श, छुअन, चुम्बन, मनुहार की दुनिया मेंबालकनी में ठंडी हवा के झोंके में सिमटते हुए याद आया दो दिन से तो मानव नहीं आया था   ही उसका फ़ोन!

उस शाम मुझे एक  फालतू की बचकानी पिक्चर देखनी पड़ी, बड़े से मैदान में पचास बैकग्राउंड डांसर्स के साथ पीटी करते मानव के नायक-नायिका जाने किस दुनिया के वाशिंदे थेउसके पास बारिश में भीगती नायिका थी, बीस गुंडों से ढिशुम ढिशुम करता नायक था, फूहड़ कॉमेडी  वाले सीन थे और मेरे पास था उसका स्पर्शकल लाइब्रेरी जाकर मैं भी मार्था के फ्रायड को एक बार पढ़ने का सोच रही थी, पर बिना मार्था को बताये

कॉफ़ी टेबल  दूसरी ओर बैठे अनिरुद्ध आज बहुत दूर नज़र रहे थेउन्हें पंद्रह दिन के लिए विदेश जाना थाअपनी इस यात्रा को लेकर वे बहुत उत्साहित थेविदेश में उनकी किताब के विदेशी अनुवाद  संबंधित था यह कार्यक्रमकिताबों के अतिरिक्त बहुत कम बोलने वाले अनिरुद्ध आज धाराप्रवाह बात कर रहे थेउनकी किताब, उनका उत्साह, उनकी योजनाएं, विदेशी प्रसंशकउनके आयोजक और मैं?   मैं कहाँ हूँ अनिरुद्ध?

अजीब सा मन था मेरा उस दिनअनिरुद्ध के दूर जाने की कल्पना बेचैन किए हुए थीमार्था के शब्द जैसे मेरे चारों और एक कोलाज बना रहे थेराग... रंग.....स्पर्श..... छुअन.....चुम्बन.....मनुहार और भी बहुत कुछदेह की भाषा सुनने  की कोशिश में मैंने  अनायास ही उनका हाथ थामना चाहा, उन्होंने चारों ओर देखते हुए एकाएक उसे झटक दिया!

"बिहेव अवनिक्या हुआ तुम्हे? बच्ची मत बनो!"

"-------"

इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआयह पहला अवसर था जब मैं भूल गई थी कि हम शहर के एक व्यस्ततम रेस्टोरेंट में बैठे हैंमैं सदा देह की भाषा भूलती आई थीमार्था कहती है देह की अपनी भाषा है और अपनी इच्छायेँअनिरुद्ध ने तो दुनिया-जहान की किताबें पढ़ी हैं, क्या उन्हे देह की भाषा पढ़नी नहीं आतीउन्होने कितने शब्दों को आकार दिया, पर कुछ शब्द  अभी भी उनसे छूट गए और मैं उन्ही शब्दों को पैरहन बनाकर ओढ़ लेना चाहती हूँ! मुझे याद है अभी तक वह शामकितने करीब थे हमइतना करीब कि उनके कंधे पर सर रखे मैं उनकी देह के स्पंदन को अपनी देह में स्थानांतरित होता महसूस कर पा रही थीवे मेरी ओर मुड़े, उनकी आँखों में हल्की-सी नमी थीपता नहीं क्यों उन जर्द आँखों में मुझे राग, रंग, स्पर्श, छुअन, चुम्बन, मनुहार और भी बहुत कुछ दिखने लगा था!   उनका चेहरा मेरे चेहरे के सामने था! मैंने होले से अपनी आँखें बंद कर ली, मेरी साँसे मानो थम सी गई थीउनकी साँसों की थिरकन से मैंने जाना, मेरे करीब आते हुए वे झुके, काँपते हाथों से उन्होने मेरे चेहरे को थामना चाहा फिर रुक गएमेरे माथे पर एक हल्का स्पर्श हुआ और मेरी आँखें खुलने से पहले ही वे कमरे से बाहर चले गए!

कल अनिरुद्ध की फ्लाइट थीउनके जाने के बाद मैं कब से बालकनी में बैठी उनके ही बारे में सोच रही हूँजहां एक और अनिरुद्ध की मेच्योरिटी, उनकी गंभीरता, उनका संतुलित व्यवहार मुझे खींचता करता हैं जिसे मैं अपने आसपास के लोगों में देखने को मैं तरस जाती हूँ, वहीं अनिरुद्ध को कभी कभी मुझमें बचपना नज़र आता हैनज़र घुमाती हूँ तो वहीं कुछ दूर मानव हैउसकी हरकतें, उसका अतिरिक्त उत्साह, चीजों और बातों को गंभीरता से लेने की उसकी आदतें बचकानी लगती है, उसके लिए जीवन सेलेब्रशन है, मस्ती है, नशा है  जिसे वह मेरा हाथ थामकर जीभर जी लेना चाहता हैवह मुझे जरूरत से ज्यादा गंभीर पाता है, बिल्कुल अलग और काफी हद तक बोरिंगतब वह क्या है जो मुझे अनिरुद्ध से और मानव को मुझसे बाँधें रखता है!

अपनी स्थिति को मैं समझ नहीं पा रही हूँबचपन से ही जिस गंभीरता के  आवरण से लिपटी हुई हूँ जाने क्यों कभी कभी किन्ही खास क्षणों में छीजने लगता हैमैं उसे उतार फेंकना चाहती हूँ, ज़ोर से खिलखिलाकर हँसना चाहती हूँ, अपनी बाहें फैला कर किसी को पुकारना चाहती हूँकौन होगा जिसने प्रेम नहीं किया होगालोग जाने कितने कारणों से प्रेम में पड़ते हैं पर ये सच है, सभी को बदले में प्रेम ही चाहिए होता है, उतना ही प्रेम, वैसा ही प्रेमबाकी कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं, कुछ भी तो नहीं!

आज मैं  फिर समय-रेखा पर हूँपता नहीं क्यों पर इस बार समय-रेखा पर हम तीनों थेपच्चीस पर मानव, उससे दस कदम दूर, पैंतीस पर मैं और मुझे दस कदम दूर पैंतालीस पर अनिरुद्ध खड़े थेमुझे दस कदम बढ़ाने थे, पर किस दिशा मेंमुझे मानव की ओर लौटना था या अनिरुद्ध की ओर बढ़ना थादेह की भाषा सुननी थी या मन की आवाज़!  वहीँ कुछ दूर माँ खड़ी हैं, ठीक मेरे क़दमों पर नज़र गड़ाएंमेरे कदम डगमगा रहे हैं, मैं गिरना नहीं चाहती, ओह, मुझे थाम लो माँ!!!!!!

मानव के जन्मदिन पर इस बार मैंने कुछ किताबें दीं हैंवह रैपर खोलता हुआ हैरानी से मेरी ओर देख रहा हैउसे उस पैकेट में मनपसंद ब्रांड की शर्ट, ब्रूट उसका फेवरेट परफ्यूमउसकी तस्वीर से सजा कॉफ़ी मग, पसंद का म्यूजिक अल्बम या ऐसा ही कुछ पाने की उम्मीद रही होगीमैंने उदासी से किताबें उसके हाथ से लेकर टेबल पर रख दींक्या हुआ है मुझेकभी मन चाहता है, मानव मेरे साथ लाइब्रेरी वक़्त बिताये या हम दोनों बालकनी में बैठकर खामोश सिम्फनी सुनें! और.…… और कभी चाहती हूँ अनिरुद्ध पीछे से आकर अचानक मुझे बाँहों में भींचते हुए 'जानेमन' कहें और मेरा गाल चूम लें!

कल अनिरुद्ध की मेल आई थी, वे अब जर्मनी से लंदन चले गए हैंबालकनी में तेज बर्फीली हवा चल रही हैमनीप्लांट अब काँप रहे हैंमैं गोवा गई मार्था से पूछना चाहती हूँ, पूछो अपने फ्रायड से स्वप्न नहीं सपनों की दुनिया के मुहाने पर खड़े इंसान के लिए कौन सा रास्ता बचा हैतुम्हारे फ्रायड का 'लिविडो' अधूरा है मार्थाउन सपनों का क्या जो पूरे होने के लिए बने हैंयही मन आज आकांक्षा, इच्छा की सीमा के पार जाकर भविष्य के भी दृश्य देखना चाहता हैउनमें अपनी इच्छाओं की स्थापना देखना चाहता हैस्वप्नों की परिणति चाहता हैतुमने ही तो कहा थामन तो काल के भीतर है वह काल के तीनों आयामों में आवाजाही करता है- भूत में जाता है तो स्मृति और भविष्य में जाता है तो आकांक्षामैं स्मृतियों को जीते हुए ऊबने लगी हूँ, मार्था, अब स्मृतियों को नहीं, सपनों को नहीं अपनी आकांक्षाओं को जीना चाहती हूँ, भरपूर जीना चाहती हूँमेरे पास स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ हैं और आकांक्षाओं के सिरे छूटने लगे हैंअपने आज के इस आधे-अधूरे सच को लेकर मैं किसके पास जाऊँमार्था के भेजे कुछ रोते हुए, उदास स्माइली मेरे मोबाइल की स्क्रीन पर चमक कर मुझे मुंह चिढ़ा रहे हैंमेरी दुविधा का उत्तर शायद उनके पास भी नहीं!

रात पता नहीं कल कब आँखें बंद हो गई, सुबह माथे पर गीले से, ठंडे से स्पर्श से आँख खुली तो पायामेरा सिर बुखार से तप रहा है, मानव मेरे सिर पर गीली पट्टी रख रहा है और माँ नाश्ते की ट्रे और दवा लिए खड़ी हैंमैं समझ गई थी माँ ने ही मानव को कॉल किया होगा और वह कुछ मिनटों में ही  ऑफिस की बजाय यहाँ होगाअब माँ आश्वस्त हैं, मानव के इशारे पर मुझे उसकी देखरेख में छोड़कर वे स्कूल जा रही हैं, उनके साथ ही मैं मानव के भीतर के उस बच्चे को भी जाता देख रही हूँउसके हाथ से नाश्ता खाते हुए मैं एक बार भी उसके चेहरे से नज़रे नहीं हटा रही हूँथर्मामीटर ट्रे में रखकर मानव ने मुझे दवा दी, नैप्किन से मुंह साफ किया और हाथ के सहारे से बिस्तर पर लिटा दिया है और हौले से मेरे बालों में उँगलियाँ फिरा रहा हैअब ये जो मेरे हाथ में है, यह मानव का हाथ नहीं है, स्मृतियाँ नहीं, सपने भी नहीं मेरी आकांक्षाओं के सिरे हैंमैंने उन्हे कसकर थाम लिया है! आज समयरेखा पर मेरे पाँव डगमगा नहीं रहे हैंमैं आँखें बंद कर दस कदम गिन रही हूँऔर जानती हूँ वे किस दिशा में होंगे!

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टिप्पणी

संजीव माथुर, दिल्ली        कमजोर कहानी है। कहने का अन्दाज़ भी पुराना है।

Maneesha Jain कवियत्री    मुझे तो कहानी बहुत पसंद आई। स्त्री की मानसिक स्थिति का सटीक चित्रण उसके मन की उधेड़बुन कहानी में जीवन्तता ला रहे हैं। कहानी की नायिका के जीवन की लकीर के इस तरफ उसकी इच्छायें, प्रेम दूसरी तरफ उसके कर्तव्य बोध की उहापोह व्यक्त हुई है और वास्तव में क्या स्त्री इसी मानसिक स्थिति में नही रहती उम्र भर। एक यथार्थ कहानी। कहानीकार को मेरी बधाई।

राजेश झरपुरे. . .              फ्रायड के मनोविज्ञान से प्रभावित  दो तरफ़ा प्रेम जहाँ एक ओर देहिक मांग है तो दूसरी तरफ़ मानसिक ज़रूरतको जस्टिफाई करने का प्रयास करती यह कहानी अपने कथ्य और शिल्प की दृष्टि से और अधिक कसाव की मांग  करती है

गीतिका द्विवेदी कहानीकार  'समयरेखा 'कहानी अपने शीर्षक के अनुरूप भूतकाल और वर्तमानकाल में सुचारु रूप से चलती है।स्त्री के मनोभाव का सुंदर विश्लेषण है।लेखक ने मनोवैज्ञानिक तथ्यों को कहानी में सही जगह पर सही तरीके से जोड़ा है। मात्र तीन पात्र होते हुए भी कहीं कहीं मैं मानव और अनिरुद्ध के चरित्र में भटकाव महसूस कर रही थी।कुल मिलाकर कर यह एक अच्छी कहानी है।

स्वारंगी साने, कवि        अचानक मोहन राकेश का नाटकआधे अधूरेयाद हो आया़ यही था नाटक में हर कोई अपने पूर्णत्व की तलाश में रहता है। या पाउलो कोएलो के उपन्यासों का किरदार जो उस सितारे को हर शख्स में ढूंढता है इस उम्मीद से कि उसके कंधे पर लगा अदृश्य आधे तारे का शेष आधा तारा उस कंधे पर होगा जो उसे पूर्णता देगा। यह कहानी उस स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है जो खोज में निकली है। एक्सप्लोरर स्त्री की यात्र है यह कथा। यह भी महसूस हुआ कि कथा को वॉट्स एप्प पर पढ़ना थोड़ा दुष्कर है। लेकिन कहानी की कसावट कहीं भी हिचकोले का अंदेशा नहीं देती। कहानी चीजों को उसी तरह रखती है जैसी वो है। जज्मेंटल नहीं होती। यह आज की स्त्री की कहानी है जिसके लिए पाप-पुण्य, पुरुष-पर पुरुष जैसे मिथ, आडंबर नहीं है। अपने समय से आगे सोचने वाली महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती कहानी जरूरी नहीं कि सबको पसंद आएगी क्योंकि हमारी यानी समाज की मानसिकता अभी भी 18 वीं सदी में भटक रही है और आज की स्त्री 22 वीं सदी को भी लांघ चुकी है।

उन्नति शर्मा इन्दौर       कहानी में स्त्री मन के अनिर्णय की स्थिति और इसीके कारण उत्त्पन्न दुविधा का चित्रण अच्छा है ... पर कहानीकार कही भी अपनी बात को स्थापित नहीं कर पाये ... फ्रायड के मनोविज्ञान का ज़िक्र क्यों किया है इस कहानी में justify नहीं हो पाया ... क्या सिर्फ इसलिए कोई स्त्री किसी को अपना लेगी क्यों की वो दफ्तर से छुट्टी ले कर सर पर पट्टी रख रहा है ... तर्क़संगत नहीं लगा क्यों की नायिका को बौद्धिक स्तर पर परिपक्व दिखाया है .... कुल मिला कर कहानीकार ने अच्छी कहानी शुरू कर के अंत करने में थोड़ी जल्दीबाज़ी करदी 

राजेश झरपुरे. . .             उन्नतिजी से सहमति के साथ मैंने पहले ही कहा फ्रायड का मनोविज्ञान यहां लेखक को कुछ अधिक ही प्रभावित कर गया , लगता है

प्रदीप मिश्र             राजेश और उन्नति से सहमत।कहानी में बाकी पत्रों का ट्रीटमेंट ठीक से नहीं हुआ है।अंत भी हड़बड़ी में हो रहा है।

राजेश्वर वशिष्ठ कवि       कहानी अपनी बुनावट और ट्रीटमेंट के स्तर पर कमज़ोर है।

वनिता बाजपेई            कहानीअच्छी है,पर अन्त अनिश्चितता पर ही होनाचाहिए था।

Alak Nanda Sane              कथ्य, शिल्प इनसे भी पहले कहानी में सम्पादन की जरुरत है . शुरू में कथाकार का कहना है कि ''किसी के मन में भी भ्रम उत्पन्न कर सकता था कि वो मेरा प्रेमी है!" , लेकिन आखिर में कथाकार ने  स्वयं ही ''स्मृतियाँ नहीं, सपने भी नहीं मेरी आकांक्षाओं के सिरे हैंमैंने उन्हे कसकर थाम लिया है! आज समयरेखा पर मेरे पाँव डगमगा नहीं रहे हैंमैं आँखें बंद कर दस कदम गिन रही हूँऔर जानती हूँ वे किस दिशा में होंगे!" नायिका के माध्यम से इसे व्यक्त किया है .
इसी तरह मानव के लिए यह कहना ''ये और बात है कि हम हमउम्र थे!" फिर "मैं पच्चीस पर खड़ी हूँ और अनिरुद्ध पैंतालीस पर! " और आखिर में ''पच्चीस पर मानव, उससे दस कदम दूर, पैंतीस पर मैं और मुझे दस कदम दूर पैंतालीस पर अनिरुद्ध खड़े थे!'' कमजोर सम्पादन दर्शाता है .एक ओर नायिका यह कहती है "फिर पता ही नहीं चला कब वे मेरी दुनिया में प्रवेश पा गए" दूसरी ओर''अब  मैं सोते-जागते हर पल अनिरुद्ध साथ रहने को मज़बूर थी!'' यह भी कहती है . कहानी शुरू से लेकर आखिर तक नायिका का असमंजस दिखाती है , लेकिन स्वयं कथाकार भी असमंजस में दिखाई देता है .विषय में भी कोई नयापन नहीं है .मानव से मित्रता होने में कोई बुराई नहीं , लेकिन पति के विदेश जाते ही वह उसकी ओर मुड़ जाती है, यह हजम नहीं हुआ . हो सकता है पिछली पीढ़ी की हूँ शायद इसलिए कुछ दकियानूसी भी हूँ .
कुल मिलाकर कहानी कोई अच्छा प्रभाव  नहीं छोड़ती .

वागिश झा              मैं कहानी को आलोचकीय दृष्टि से देखने का सामर्थ्य नहीं रखता पर मुझे ये कहानी पढ़ते हुए अच्छा लगा। इसमें कई स्तर हैं और कहानी पर बौद्धिकता हावी नहीं होती। इसे एक आम पाठक की राय मानी जाये।

डॉ राजेन्द्र श्रीवास्तव, पुणे   थोड़ी देर जरूर हो गई है, लेकिन आज की तारीख में यदि कहानी पर अपनी बात नहीं रखूंगा, तो एक कसक सी रह जाएगी, अधूरापन रह जाएगा
            कहानी कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से उत्कृष्ट  है
नारी के मन के अंतर्द्वंद और इतने कठिन विषय को इतनी सरलता और सहजता से अभिव्यक्ति मिली है कि मैं विस्मित हूं।  कहानी पढ़ कर मैं अभिभूत हू

मणि मोहन कवि         पूरा दिन निकल गया मैं भी कहानी नहीं पढ़ पाया था । अभी अभी पढ़ी ।कथा का  पाठक होने के नाते कह रहा हूँ कि बहुत उम्दा कहानी है ।भाषा में एक लय है कहानी बांधे रखती है ।अंत भी अच्छा लगा ।बधाई अंजू जी को


कहानी पर कंडवाल मदन मोहन जी की टिप्पणी
हत प्रभ हूँ विलक्षण कहानी है मनोवैज्ञानिक स्वप्न में घटित कार्यकलापों को मानव अंतस की दमित अपूरित आकाँक्षाओं वर्जनाओं कल्पनाओं के संसार को परत दर परत खोलती।
सिगमंड फ्रायड के ड्रीम इंटरप्रिटेशन और लिबिडो सिद्धान्त का उल्लेख भी यहाँ।
यह कहानी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है यौन कुंठाओं का रिश्तों के बहुआयामी केलिडियोस्कोप का। देह की भाषाएँ भाव भंगिमाएं अकथ अनगढ़ अद्वितीय और सहज भी। कुछ भी पूर्ण श्वेत या श्याम नहीं सब सब श्वेत श्याम का मिश्रण है।
यह कहानी  ओशो के से और फ्रायड की जीवन भर की खोज का जीवंत नमूना है मनीषा जी।
आभार आपका पढ़वाने को।

आज की कहानी अंजू शर्मा की है। उनकी कविताओं से हम सब परिचित हैं।  कवियों के गद्य पर कभी अलग से बात करेंगे। 
अंजू भी संभवतः अपनी बात रखना चाहेंगी।

अंजू शर्मा. कहानीकार दिल्ली नमस्कार साथियों, सर्वप्रथम मैं अमिताभ मिश्र जी और बिजूका समूह की आभारी हूँ कि उनके माध्यम से नये सत्र में मेरी कहानी को आप सभी तक पहुंचने का अवसर प्राप्त हुआ। हम जानते हैं कि इस माध्यम पर फोन की स्क्रीन पर कहानी पढ़ना थोड़ा मुश्किल है इसलिए उन सभी मित्रों की हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपना कीमती समय इस कहानी को दिया। मैंने सभी प्रतिक्रियाओं को ध्यान से पढ़ा है और मैं इन्हें सुझावों के रूप में लेते हुए रचना प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग मानती हूँ। ये कहानी सबसे पहले एक ब्लॉग पर आई थी और उसके बाद नवंबर में 'आभासी संसार से' स्तंभ के तहत कथादेश में प्रकाशित हुई थी। कहानी की नायिका एक 25 वर्षीय युवती है जो गम्भीर और बौद्धिक स्तर अपनी उम्र से लगभग 10 वर्ष बड़ा महसूस करती है।  उसका हमउम्र दोस्त है जो आज के युवा का सच्चा प्रतिनिधि है। जो प्रेम में उदात्त है और उसके सार्वजनिक प्रदर्शन से भी उसे कोई संकोच नहीं। वहीं अवनि का 45 वर्षीय लेखक प्रेमी है जो धीर गम्भीर और बौद्धिक है।  अवनि को उससे स्नेह तो मिलता है पर उसकी दैहिक भाषा को वह पढ़ना ही नहीं चाहता। उसकी अपनी एक अलग दुनिया है जहां अवनि उतनी महत्वपूर्ण नहीं। जबकि मानव की दुनिया का केंद्र अवनि ही है। कहानी के मध्य से ही अवनि दोनों के बीच के चयन को लेकर मानसिक द्वन्द्व से घिरी है और अंत में उसे चुनती हैं जिसे करीब पाती है।

                       बहुत बहुत शुक्रिया अरुण आदित्य जी, राजेन्द्र जी, मणि जी, मदनमोहन जी आभार संजीव जी, मनीषा जी, राजेश जी, राजेश्वर जी, गीतिका जी, स्वरांगी, उन्नति जी, प्रदीप जी, अलकनन्दा ताई, वागीश जी









1 टिप्पणी:

  1. कहानी ठीक है। मनोभावों का सूक्ष्म विवेचन है।
    एक प्रेमी है, और एक पुजारी !
    प्रेमी, पूजा नहीं कर सकता और पुजारी, प्रेम नहीं कर सकता।
    नायिका को प्रेम चाहिए, यह स्पष्ट है।

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