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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 अप्रैल, 2015

रघुनंदन त्रिवेदी की कहानी बातचीत

कहानी-अंतिम बातचीत

'ख, मैंने तुम्हारी एक तसवीर बनाई है। इसे देखकर तुम चकित हो जाओगे। इस तसवीर में तुम इतने प्यारे लगते हो कि बस्स! तुम्हारे चेहरे में जो खामियाँ हैं, उन सबको हटा दिया है मैंने इस तसवीर में।'
'क, मैंने भी तुम्हारी एक तसवीर बनाई है और मैं दावे से कहता हूँ, इस तसवीर में तुम जितने खूबसूरत दिखाई देते हो, उतने खूबसूरत, वास्तव में तुम कभी नजर नहीं आए।'
'क्या सचमुच? वाकई तुमने भी मेरी तसवीर बनाई है! लेकिन तुम तो तसवीर बनाना जानते ही नहीं। यह काम तो मेरा है।' - क' ने कहा।
'नहीं, मैंने जो तसवीर बनाई है तुम्हारी, वह कागज पर नहीं, मेरे मन में है।'
'खैर, दिखाओ।'
'नहीं, पहले तुम।'
'ठीक है। यह देखो। लगते हो न हम सबकी तरह।'
'लेकिन मेरी दाढ़ी?'
'दोस्त, यही तो वह चीज है, जिसके कारण तुम अजीब और किसी हद तक क्रूर दिखाई देते हो, इसलिए मैंने इसे हटा दिया।'
'पर मैंने तो तुम्हारे जिस चेहरे की कल्पना की है, उसमें तुम भी दाढ़ी वाले ही हो।' - 'ख' ने खिन्न होकर कहा।
इस बातचीत के बाद 'क' और 'ख' कभी दोस्तों की तरह नहीं मिल सके।
(रघुनंदन त्रिवेदी)
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टिप्पणियां:-

परमेश्वर फुंकवाल:-

हम जिस चश्मे से दुनिया को देखते हैं हमें वह वैसी दिखाई देती है। परन्तु जब इन दृश्यों की अदला-बदली होती है तो हम हतप्रभ रह जाते हैं। यह कहानी इस बात को बहुत संजीदगी से रखती है।

अंजू शर्मा :-
अच्छी कहानी सत्या जी।  हम अपनों को उसी रूप में क्यों नही पसंद करते जैसे वे हैं। क्यों उन्हें बदलना चाहते हैं जबकि हम खुद अपेक्षित बदलाव का स्वागत खुले मन से नहीं कर पाते। अच्छा सन्देश।

अरुण आदित्य :-
21 वाक्यों की इस कहानी को 21 तोपों की सलामी देने का मन कर रहा है।

पूर्णिमा पारिजात मिश्र:-
हम अपनी कल्पना में किसी व्यक्ति का कैसा चित्र खींचते हैं ,यह हमारे संस्कारों पर निर्भर करता है।वो एक क्रूर व्यक्ति का सौम्य चित्र भी हो सकता है या सौम्य व्यक्ति का क्रूर भी...बदलती मनःस्थिति में अलग अलग अर्थ देती गहरी कथा।

बी एल पाल:-
रघुनन्दन की यह छोटी सी कहानी सीधे सीधे दिल में उतर जाती है ।इंसान के रूप रंग  परिधान में इनके भीतर की क्रूर समझ को समाप्त करती हुई कुछ ही शब्दों में एक झटके में आदमी की सही पहचान में सही अपेक्षा के रूप  में दर्ज हो गई है।

व्यास अजमिल:-
यही तो मुश्किल है।इंसान अपने को कभी वैसा ही नहीं स्वीकारना चाहता जैसा क़ि वो है। इसी लिए वह किसी मुखौटे के लिए परेशान रहता है। इस लघु कथा में बात बहुत अच्छी है परन्तु कहन और बेहतर हो सकता था।

बी एल पाल:-
अमिताभ आपकी कहानी बहुत अच्छी कहानी थी कुछ बिम्बों में बिलकुल नईै भी थी।बहुत सी परतों को सहजता से  खोलती हुई थी।पर उन परतों पर सही तोर से बात नहीं हो पाई थी।पर आपकी उस कहानी ने मेरे दिल में तो घर बना ली।पुनः बधाई।आलोचना ज्ञान से ही नहीं उसके साथ विवेक और धरातल की सन्निलता की  पूर्ण जरुरत बनती है जो कि पूर्ण चर्चा में उसका अभाव था।थी भी या आई भी तो वह बहुत ही क्षीण रूप में थी।

सुरेन्द्र रघुवंशी:-
रघुनन्दन त्रिवेदी  की कहानी प्रतीकों और निहितार्थों में अपनी बात कहती हुई एक विचार प्रधान अच्छी कहानी है । कि किस प्रकार हम एक ही स्थिति को अपने -अपने नज़रिये से देखते हैं । सत्य एक होता है ;अपनी मानवीयता में बहुत विनम्र । पर हमारे दृष्टिकोण हमारे अहंकार की धरती पर अहं की खरपतवार में अदृश्य हो जाते हैं।

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