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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

17 अप्रैल, 2015

आशा पाण्डेय जी की कहानी ग्रहण


हरे पीले ,पके -अधपके आमों से लदे पेड़ों का बगीचा | बीच से निकली है सड़क |बगीचे को पार  करती हुई मेरी कार एक घने आम के पेड़ के नीचे रुक जाती है | हम सभी कार  से उतरते हैं |

                नीचे पेड़ की जड़ के पास पके हुए सात आठ आम पड़े है | मै कुछ बोल पाऊँ उसके पहले ही बच्चे आम उठा कर खाना शुरू कर देते हैं | पेड़ की एक डाल आमों से लदी हुई काफी नीचे झुकी है | पति ने डाल को पकड़कर  हिला दिया | तीन -चार आम टपक पड़े | मैं मना करती हूँ | मुझे डर है कि अभी पेड़ का मालिक आकर लड़ने ना लगे इन लोगो का क्या भरोसा | लड़ने लगेंगे तो ऐसा चिल्ला -चिल्ला कर लड़ेगे कि अपनी तो बोलती ही बंद हो जाएगी | इनका तो कुछ बिगड़ेगा नहीं , अपनी इज्जत का जरुर फलूदा बन जायेगा | किन्तु मेरी बातों का बच्चो पर असर नहीं पड़ता | बच्चे आम उठाकर गाड़ी में रख लेते हैं | शहरी सभ्यताओं को ढो- ढो कर थके मेरे बच्चे यहाँ आकर स्वतंत्र हो गये हैं | मै चुप हो जाती हूँ | मन में सोचती हूँ ,बच्चों को खुश हो लेने दो | ये बाग  -बगीचे , ये गाँव  इन्हें कहाँ देखने को मिलते है | अगर पेड़ का मालिक आएगा ही तो मै इन आमों की कीमत चुका दूंगी | ये सोचते हुए मेरे मन में दर्प भाव उमड़ उठता है |

                बगीचे से कुछ फर्लांग की दूरी पर छह -सात घरों का एक छोटा -सा गाँव है | वहां भी इक्के -दुक्के आम, महुआ , नीम के पेड़ दिख रहे है | दो -तीन घरों का दरवाजा बाग की तरफ खुलता है | इनमे से एक घर के सामने नीम की छाँव में खटिया बिछाए तीन -चार व्यक्ति ताश खेल रहें है | समीप ही दूसरी खटिया पर एक अधेड़ किस्म का व्यक्ति लेटा  है जब हमारी कार बगीचे में रुकी तब उन सभी की निगाह हमारी तरफ मुड  गई   | थोडी देर तक हमारी तरफ देखने के बाद उस अधेड़ व्यक्ति ने किसी को आवाज लगाई.घर के अन्दर से दो लड़कियां निकलककर पेड़ की तरफ आने लगी .एक दस-बारह साल की है, दूसरी उससे कुछ छोटी , लगभग आठ-नौ साल की . दोनों फ्रांक पहनी हैं किन्तु बटन दोनो के ही फ्रांक के गायब हैं. पीठ को उघाड़ता हुआ उनका फ्रांक कंधे से नीचे लटका जा रहा है. लड़कियां उसे कंधे के ऊपर चढ़ा लेती हैं.फ्रांक बार-बार लटक रहा है लड़कियां बार-बार उसे कंधे पर  चढ़ा रही हैं . फ्रांक को पकडे -पकडे़ ही छोटी लड़की पेड़ के इर्द -गिर्द नजरें गड़ाये कुछ खोजने लगी .उन्हें आश्चर्य हो रहा है. वे आपस में कुछ फुसफुसा भी रही हैं .दरअसल लड़कियों  ने पेड़ के नीचे जिन आमों को इकट्ठा किया था उन्हें तलाश रहीं हैं . मेरी बेटी आगे बढ़ कर उनसे पूछती है; "यहॉ जो आम गिरे थे , उन्हें खोज रही हो क्या?"


                 गिरे नहीं थे , हमने उन्हें वहाँ रखा था |' जवाब में अकड़ है |
                ' हाँ जो भी हो ....वो बड़े मीठे थे | उनमे से कुछ हमने खा लिये , कुछ गाड़ी में रख लिये हैं |' मेरी बेटी की आवाज में लापरवाही समाई है | 
                बड़ी लड़की के चेहरे पर कई भाव आये और गये | ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि हमारी जबरदस्ती उसे ख़राब न लगी हो किन्तु न जाने क्यों ओ चुप रह जाती है | मै उसके चुप रह जाने का कारण खोजती हूँ ---हमारी अकड़ ? हमारा शहरीपन ? हमारी चमक -दमक या उसकी उदारता ? पता नहीं |
               मैं लड़कियों के पास आती हूँ |
            ' ये बगीचा तुम्हारा है ?'
           'नहीं ,पूरा बगीचा मेरा नहीं है | इसमें सिर्फ तीन पेड़ मेरे हैं | उधर जो दो पेड़ दिखाई दे  रहें हैं  वो और ये जिसके नीचे आप लोग खड़े हैं |'बड़ी ने गर्व से जवाब दिया |
           'आम तो बहुत निकलते होंगे , यहाँ गाँव में बिक जातें  है ?'
          'गाँव में तो सभी के पास पेड़ है ,यहाँ कौन खरीदेगा | हाँ , पकने पर बाबा बाजार में ले जाते हैं |कच्चे आम की खटाई और पके आम का अमावट भी बिक जाता है |'  
          'हम लोग खाते भी हैं | दोपहर में हमारे घर रोटी नहीं बनती, आम ही खाकर रह लेते हैं |' अब तक चुप खड़ी छोटी लड़की ने मुंह खोला |
          'शाम को रोटी बनती है ?' मेरी जिज्ञासा बढ़ गई \ 
          'हाँ ,शाम को पना (आम रस ) के साथ हम लोग रोटी खाते हैं | आज शाम को हमारे घर में डाल भी बनेगी और अगर सुनीता के घर से चावल मिल जायेगा तो भात भी बनेगा |' छोटी ने चहकते हुए बताया | बड़ी बहन ने छोटी को घूरकर देखा | छोटी सहम कर चुप खड़ी  हो गई |
           'तुम्हारे पास खेत भी है ? '
           'हाँ , है न | एक छोटा सा खेत भी है |' बड़ी लड़की ने जवाब दिया | 
           'बस एक ही ? '
           'हाँ ,वही  जो उस कुँए  के पास दिखाई दे रहा है |'लड़की ने हाथ से इशारा किया | मेरी नजरें उसके हाथ का पीछा करती हुई कुँए के पास जाकर ठहर गई | लगभग दो हजार स्क्वायर फीट जमीन का एक छोटा टुकड़ा |
        '  इसमें क्या बोते है तुम्हारे बाबा ?'
        'सब कुछ | कभी गेहूं , कभी मुंग , कभी उड़द | ....सब्जियां भी लगते हैं |'

        'बाबा कह रहे थे इस बार सब्जियां बेचने से जो पैसे मिलेंगे उससे हम लोगों के लिये कपड़े और चप्पल भी लायेंगे |' छोटी लड़की फिर बोल पड़ी | बड़ी ने छोटी के हाथ में चिकोटी काटी | मै मुस्कुरा उठी | मेरे दोनों बच्चे उन लड़कियों के साथ खेलने में जुट गये हैं | आम के पेड़ की बड़ी जड़ जमीन के ऊपर निकलकर गोल आकार  बनाती  हुई फिर से जमीन के नीचे धसी हुई है | पति उस जड़ पर बैठ गये हैं , मै वही समीप खड़ी  हूँ  |
         'कितना सुंदर बाग है | यहाँ का हर पेड़ कुछ न कुछ  आकार  बना रहा है | डालियाँ कितने नीचे तक झुकी  हैं | लग रहा है पकड़ कर झूलने लगूं | मेरे गाँव में एक ऐसा ही पेड़ था | हम सब बच्चे पूरी दोपहर उसी के इर्द गिर्द जमा रहते थे | यहाँ आकर मुझे मेरा गाँव याद आ गया |'  पति की आवाज कुछ मुग्ध ,गहरी और भीगी - भीगी लग रही है | 

         'बाग तो सचमुच अच्छा है | मै तो कुछ और ही सोच रही हूँ |'
         'क्या सोच रही हो ? '
        'यही कि अगर यहाँ जमीन मिल जाये , यहाँ बाग से लग कर , तो एक छोटा -सा बंगला बनवा लिया जाये और छुट्टियों में कभी - कभी यहाँ आया करें | शहर से अधिक दूर भी तो नहीं है ये जगह |'
         'जमीन मिल जाये का क्या मतलब ? अरे, अगर हम चाहेंगे  तो क्यों नहीं मिल जाएगी ?' पति की आवाज में दंभ भरा आत्मविश्वाश है |' पैसा हो तो क्या नहीं मिल सकता ?
          ' वो तो ठीक है पर कोई बेचे तब  न ? ' 
          ' क्यों नहीं बेचेगें ? दुगना पैसा दे दूंगा | दौड़कर बेचेंगे , कोई खरीदने वाला तो मिले , गाँव में कौन खरीदता है जमीन ? फिर इन्हें तो पैसा मिलेगा न |'
          'ऐसा हो सके तो वो जो कुंए के बगल वाली जमीन है उसे ही खरीद लिया जायेगा | लड़कियां कह रहीं थीं  कि ये जमीन इनकी है | बहुत गरीब है बेचारे ,रोज भोजन भी नहीं बनता इनके घर ,ये जरुर बेंच देंगे | पैसे की इन्हें बहुत जरुरत होगी , बेचारे ' इनका भी भला हो जायेगा | 
           'वैसे ये बात मजाक की नहीं है | तुम्हारी योजना मुझे भा गई है | घर चल कर इसपर गंभीरता से विचार करूँगा | यहाँ यदि घर बनेगा तो गाँव वालों को भी घर बनते तक रोजगार मिल जायेगा | ये एक तरह से इनकी सेवा होगी | 'पति के जवाब से मै गद्गद हूँ |

           मेरे बच्चे अब भी उन लड़कियों के साथ खेल रहे हैं | इन खेतों तथा इस बाग के बीच एक सुंदर -सा बंगला अब मेरी आँखों में तैरने लगा है | शहर चलकर इस योजना पर विचार करना है | पति गाड़ी में बैठ चुके हैं | दोनों बच्चे भी अपनी -अपनी जगह ले चुके हैं | गाड़ी में बैठने से पूर्व मैंने उस बड़ी लड़की को पचास रुपये का नोट देते हुए कहा ---'मेरे बच्चों ने तुम्हारे आम ले लिये थे ना , इसलिए ये पैसे रख लो |' नोट हाथ में पकड़ते हुए लड़की ने जवाब दिया , 'पहले मै बाबा से पूछ कर आती हूँ , आप यहीं रुकियेगा |'
            मैंने कहा , 'रख लो पूछने की क्या बात है |' किन्तु मेरी बात को अनसुना कर वो दोनों लड़कियां अपने घर की तरफ भागीं | 

             आम पन्द्रह -बीस रुपये से अधिक  के नहीं रहें होंगे | मै पचास रुपये दे रहीं हूँ , गरीब हैं बेचारे , खुश हो जायेंगे | ऐसी अनेक बातें सोचते हुए मै अपनी उदारता पर मन ही मन इठला रही हूँ  तभी वो दोनों लड़कियां दौड़ते हुए मेरे पास पहुंची और पचास की नोट मेरी तरफ बढ़ाते हुए उन्होंने कहा ,' बाबा कह रहें हैं ,हम मुआवजा नहीं लेंगे । यह खेत हमारे है । यह पेड़ हमारे है । आप लोग यहां से चले जाये । नहीं तो हमारे पेड़ को ग्रहण लग जायेगा ।
             मेरे मन में दानवीर बनने का ख्याल धड्धड़ाकर उस लड़की के पैर पर गिरकर कुचला गया ।  मुझे अचानक अपने देश के हजारों-लाखों किसानों के चेहरे विलापते हुए नज़र आये जो भूमि अधिग्रहणा के बलात का शिकार हुए ।
           हम लौट रहे थे । गाड़ी में रखे  पके हुए आम का  रंग  अग्नि की लपटों की तरह पीला था ।
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 प्रस्तुति:- स्वरांगी साने


टिप्पणियां:-
स्वरांगी साने:- 
आशा पाण्डेय की कहानी  आत्मलुब्ध शहरी समाज की कृत्रिम सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह तो लगाती ही है, ग्रामीण समाज जिसे असभ्य, अनपढ़ गंवार कहकर उपेक्षित किया जाता है के सामने बोना भी सिद्ध कर देती है।कहानी में शहरी और ग्रामीण समाज की दो पीढियां हैं।
एक तरफ अच्छे स्कूलों में शिक्षा पा रहे शहरी बच्चे हैं जो माँ की वर्जना को नकारते पेड़ के नीचे  रखे फलों को खाते ही नहीं उठा कर गाड़ी में भी रख लेते हैं।दूसरी तरफ दो वक्त की रोटियाँ को मोहताज ग्रामीण बच्चियां हैं जो बिना पूछे ले लिये गए अपने फलों की कीमत भी अपने बाबा से बिना पूछे स्वीकार नहीं करतीं।
एक तरफ शहरी बच्चों के अभिभावक हैं जो बिना खेतों के मालिक किसानों की मर्जी जाने अपनी खरीदने की क्षमता के दम्भ में उनके खेत खरीद लेने की योजना बनाते हैं, तो दूसरी तरफ ग्रामीण बच्चियों के बाबा बिना पूछे ले लिए गए अपने फलों की कीमत अस्वीकार कर शहरी दम्पति के मुंह पर करारा तमाचा जड़ सबक तो सिखाते ही हैं, उनके मंसूबों पर भी पानी फेर देते हैं।
हमारे पूर्वाग्रह कई बार कितने संकीर्ण होते हैं वह हमें उपहास का पात्र बना देते हैं। उद्देश्यपूर्ण सार्थक कहानी के लिए आशा जी को बधाई।


राजेश झरपुरे:-
आशाजी की कहानी पर समीक्षात्मक टिप्पणी हमें ललिता यादवजी ने भेजी है । समूह की और से उनका शुक्रिया । बहुत सूक्ष्म और सटीक टिप्पणी । ललिताजी बधाई । उच्च मध्यमवर्ग , मध्यम वर्ग में सर्वाधिक ऊँची पहुँच वाले लोग है, अभिजात्य वर्ग की नकल करने से उपजी मानसिकता और मध्यमवर्गीय न होने का अहंकार समाया होता है । एक बच्ची व्दारा इनके अहम् को रौंदती अच्छी कहानी । कहानी में एक प्रवाह है जिसमें पाठक बहता चला जाता है । कहानी का अन्त बेहद खूबसूरत तरीके से हुआ । बधाई आशाजी एक बेहतरीन कहानी के लिए ।


अरुण आदित्य:-
कहानी की शुरुआत अच्छी है। बॉडी-टेक्स्ट भी प्रभावी है, लेकिन कहानी का अंत सपाट और लाउड लग रहा है। मजा तो तब था जब भूमि अधिग्रहण शब्द का जिक्र किए बिना भूमि अधिग्रहण का मुद्दा उठाया जाता।
बहरहाल एक मौजू विषय को दमदारी से उठाने के लिए बधाई।    
           

व्यास अजमिल:-
बहुत दिनों के बाद मैंने कोई ऐसी कहानी पढ़ी जिसने दिल पर असर डाला हो। इसे कहते है कहानी। याद रहेगी ये मुझे हमेशा। सीधी बात बिना किसी नाटक नौटंकी के। इसकी सादगी असाधारण है। किसी वाद के होने का कोई दावा नहीं। बधाई आशा पांडेय जी। आपकी इस कहानी में लघु फिल्म की अपार संभावना है। आपकी और कहानियां पढने का मन हो रहा है...       


अमिताभ मिश्र:-
मैं अरुण से सहमत हूँ।  कहानी में बहुत संभावना है।  सामयिक मुद्दे को लेकर चिंता बहुत साफ है इस कहानी में बस अंत को लेकर मुझे भी संतोष नहीं हो रहा।  आशा पांडे को इस दुसाध्य विषय को साधने के लिए धन्यवाद।


व्यास अजमिल:-
कोई बहुत मास्टर कहानीकार ही भूमि अधिग्रहण शब्द का प्रयोग किये बिना मुख्य मुद्दे को शार्प रेखांकित कर सकता था अरुण भाई।


अंजू शर्मा:-
अभी पढ़ी आशा जी की कहानी। मुझे कहानी अच्छी लगी, कथानक भी और परिवेश भी। जड़ों से जुड़ाव खींचता है, किन्तु हम कहाँ वही रह पाते हैं जो कभी थे। आपको अच्छी कहानी के लिए हार्दिक बधाई।


आशा पाण्डेय:-
ललिता यादव जी ,राजेश जी,अरुण जी,अजामिल जी , अमिताभ जी आप सभी ने कहानी को पूरे मनोयोग से पढा़,अपने महत्वपूर्ण सुझाव दिये जिस पर मैं जरूर विचार करूंगी.आप सभी का आभार.धन्यवाद.
     

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