तीन कविताएं
मदन कश्यप
वृत्त
अब ठीक ठीक याद नहीं
पहली बार किसी बच्चे की कापी वा
स्कूल के ब्लैक बोर्ड पर देखा था
या सीधे रेखागणित की किताब में
लेकिन हजारों बार देखने के बाद भी
मुझे शून्य का यह बड़ा रूप
जितना आकर्षक लगता है उतना ही डरावना
जैसे यह कोई महाशून्य हो
महज एक रेखा से बना यह वृत्त अद्भुत है
इसकी परिधि को तीन कोणों से खींचो
तो यह त्रिभुज बन जाएगा
और चार कोणों से चतुर्भुज।
इस तरह वह अपनी गोलाई में
अनंत कोणों और
अनंत रूपों की संभावनाओं को छिपाए हुए
किसी कोने में कुटलिता से मुस्कराता रहता है
इसका क्षेत्रफल और परिधि ज्ञात करने
के लिए मास्टर जी ने थमाई थी
एक कुंजी - पाई यानी बाइस बटा सात
एक ऐसा भिन्न जो कभी हल होता
और मेरे यह पूछने पर
कि बाइस बटा सात ही क्यों - लगाई थी छड़ी
भारतीय शिक्षा पद्धति के उपहार के बतौर
अब भी मेरी हथेली के अंतस्तल में
बचा है उसका निशान
( यह तो मैं बहुत बाद में जान पाया कि
एशिया में बच्चे सवाल नहीं पूछा करते
केवल विश्वास किया करते हैं)
वृत्त को मालूम है
कभी नहीं निकलेगा बाइस बटा सात का हल
अपनी धूर्तता पर उसे इतना नाज है
कि इसी के बूते
वह लगभग निश्चिंत है
वह जानता है कि उसके भीतर
किसी जगह से किसी भी दिशा में
शुरू करें यात्रा और कितना भी चलें
आप कहीं नहीं पहुंचेंगे।
लड़की का घर
घर में पैदा होती है लड़की
और बार बार जकड़ी जाती है
घर में ही रहने की हिदायतों से
फिर भी घर नहीं होता लड़की का कोई
बस एक सपना होता है
कि एक घर उसका भी होगा, पति का घर
सपना देखती है लड़की
अपने गांव के सबसे बड़े घर से भी बड़े घर का
पास बुलाते दरवाजे
मुस्कराती हुई खिड़कियां
मां के आंचल-सी स्नेहिल दीवारें
लड़की के कोमल सपनों में होता है
सपने-सा कोमल घर
दऊरे में महावरी पांव रख्रती
जहां पहुंचती है लड़की
वहां घर नहीं होता
वहां होते हैं
मजबूत सांकलों वाले दरवाजे
कभी न खुलने वाली खिड़कियां
लोहे की तरह ठंडी दीवारें
जलता,धुंआता, बुझता चूल्हा
कच्ची मोरी के पास एक घिसा हुआ पत्थर
और कुछ अंधेरे कोने
जहां बैठकर करुण उसांसों के बीच
अपने लड़कपन के सपने उधेड़ती है लड़की
जितना बड़ा होता है घर
उतना ही छोटा होता है स्त्री का कोना।
बचे हुए शब्द
जितने शब्द आ पाते हैं कविता में
उससे कहीं ज्यादा छूट जाते हैं
बचे हुए शब्द छप-छप करते रहते हैं
मेरी आत्मा के निकट बह रहे पनसोते में
बचे हुए शब्द
थल को
जल को
हवा को
अग्नि को
आकाश को
लगातार करते रहते हैं उद्वेलित
मैं इन्हें फांसने की कोशिश करता हूं
तो मुस्कराकर कहते हैं
तिकड़म से नहीं लिखी जाती कविता
और मुझ पर छींटे उछालकर
चले जाते हैं दूर गहरे जल में
मैं जानता हूं इन बचे हुए शब्दों में ही
बची रहेगी कविता।
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29 मई 1954 को बिहार के वैशाली जिले में जन्मे मदन कश्यप हिंदी के महत्वपूर्ण कवि और
आलोचक हैं। छात्र जीवन में एसएफआई से जुड़े और बिहार के छात्र आंदोलन में भी सक्रिय रहे। इन
दिनों राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों में बढ़चढ़ कर सक्रिय हैं।
ये तीनों कविताएं आधार प्रकाशन से प्रकाशित उनके चर्चित कविता संग्रह नीम रोशनी से साभार।
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टिप्पणी:-
परमेश्वर फुंकवाल:-
शब्दों से अपनी भावनाओं को पूरी तरह व्यक्त कर पाना संभव नहीं है इसलिए छूटे हुए शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। इस तरह यह सभी कवियों की कविता है।
लड़कपन के सपने उधेड़ती लड़की -बहुत मार्मिक चित्र खींचती है यह कविता।
भरत:-
लड़की का घर ... आँसुओं का गोमुख छू गयी... मदनजी से मिलने पर ग्रुप के लिए उनसे रिकार्ड करवाउँगा।
व्यास अजमिल:-
मदन कश्यप की बहुत अच्छी। कविताएं। याद रहेंगी बहुत दिनों तक। कवि को बधाई
चयन लिए अरुण जी को बधाई।
पहले भी पढ़ी है मदन भाई की कविताएं पर ये अदभुत हैं।
पूर्णिमा पारिजात:-
"लडकी का घर "मर्मस्पर्शी कविता....जितना बडा होता है घर,उतना ही छोटा होता है स्त्री का कोना....जाने कितना कुछ समाया है इन चन्द शब्दो में।
सुरेन्द्र रघुवंशी:-
मदन कश्यप जी की वृत्त कविता में जीवन के गणित का प्रवेश है और प्रश्न भी कि आखिर बना दिए गए सूत्रों पर ही क्यों हल किये जाते हैं तमाम सवाल।यहाँ अब नये फार्मूलों की ज़रुरत है।और निराशा के शून्य में भी आशा की संभावनाओं का एक सम्पूर्ण वृत्त है ।
लड़की का घर मदन कश्यप की देश में स्त्रियों की दुर्दशा को बयान करती एक सच्ची कविता है ।दरअसल लड़कियों पर पाबन्दी और पहरे किशोरावस्था से ही लगने प्रारम्भ हो जाता है जो आजीवन चलता है। विडम्बना यह है कि यह पहरा उस पर थाने या जेल में नहीं , उस घर में लगता है जिसे उसका घर कहा जाता है।और कभी यह भी कह दिया जाता है कि तुम इस घर की नहीं हो । तुम्हें पराये घर जाना है। मतलब जहाँ जाना है वह घर भी उसका नहीं है । वह भी पराया है । अर्थात लड़की या स्त्री का आजीवन कोई घर ही नहीं होता
वह हमारे समाज की मुख्यधारा और केन्द्र दोनों से निर्वासित है।
अंतिम कविता 'बचे हुए शब्द ' में जो शब्द कविता लिखने के बाद भी बचे रहते हैं
आग़ामी कवित सृजन के लिए।जीवन के पृष्ठों पर उम्मीदों के शब्द हमेशा बचे रहेंगे ।
अच्छी कविताओं के लिए मदन कश्यप जी को हादिक बधाई।
राजेश झरपुरे:-
मदन कश्यप हमारे समय के महत्त्वपूर्ण और जिम्मेदार कवि है । उन्हें पढ़ना अपने वक्त और परिवेश से रूबरू होना जैसा है । शून्य का विकराल रूप क्या महाशून्य हो सकता है जैसा प्रश्न मुझे परेशान करता है ।
सब घर लड़की से बने पर लड़की का कोई घर नहीं...यह है हमारे समाज की सच्चाई ।
बचे हुए शब्द बेहतरीन कविता ।कितने- कितने शब्द ऐसे है जिन तक हम पहुँच ही नहीं पाये । तिकड़म भिड़ाकर न कविता लिखी जा सकती न कवि हुआ जा सकता...अच्छा संदेश । अरूणजी व्दारा शानदार चयन । उन्हें भी बधाई ।
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