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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 अप्रैल, 2015

मजदूर दिवस पर

1 मई को मजदूर दिवस है।  हम सब इस दिवस की सच्चाई जानते हैं।  "दुनिया भर के मजदूरों एक हो जाओ" इस आव्हान को करीब-करीब एक शताब्दी हो गई। इस नारे का मतितार्थ नकली मजदूर संगठनों  में कहीं खो गया।  श्रमिकों के प्रति सर्व व्याप्त दृष्टिकोण को दर्शाते  एक मराठी आलेख का अंश यहाँ प्रस्तुत है।
सैंकड़ो रेल्वे यात्री स्टेशन के बाहर  समूहों में फैले हुए दिखाई दे रहे थे . पुलिस की गश्त जारी थी.अंदर उससे भी ज्यादा  अफरा-तफरी मची हुई थी . संपन्न मध्यमवर्गीय यात्री अपनी बोगी के निर्धारित स्थान पर इंतजार में खड़े थे.दूसरी ओर, चेहरे से ही गरीब दिख रहे, बिखरे बाल और मैले-कुचैले कपड़े पहने कुछ  युवक प्लेटफॉर्म पर बैठे हुए थे,कुछ आपस में बतिया रहे थे,कुछ बैठे-बैठे झपकी ले रहे थे,कोई पेपर फैलाकर सो गया था, किसी ने अपनी गठरी पर ही सिर टिका दिया था. कुछ अकेले बैठे दूर अनंत की ओर ताक रहे थे. सब चेहरे अलग-अलग, लेकिन सारे चेहरों पर एक ही तरह की भाव शून्यता और असहायता  फैली हुई थी.लाऊड स्पीकर पर हो रही घोषणाओं की ओर  सबका ध्यान बराबरी से था.
अचानक कहीं से चार सिपाही  प्रगट हुए और उन  लोगों को अपने डंडे से कोंच-कोंचकर ''झेलम-झेलम'' चिल्लाने लगे.वे  युवक हड़बड़ाकर उठे और  देखते ही देखते एक कतार में बदल गए.कतार के दोनों सिरों पर एक-एक और बीच में दो सिपाही  खड़े हो गए. पहले तो मेरी यह समझ में ही नहीं आया कि मारपीट किसलिए चल रही है.जब कारण पता चला  तो ये समझ  नहीं आया कि  कतार लगवाने के लिए डंडे की क्या जरुरत है ?ये यात्री क्या जुबानी भाषा नहीं समझते? या डंडे की मार से ही इन्हें हांकना जरुरी है ? या ये मनुष्य की श्रेणी में नहीं आते हैं ?
वे  मासूम बच्चों की तरह कतार में खड़े  थे . अभी-अभी उनकी  पीठ पर,सिर पर,हाथों पर,घुटनों पर डंडे बरसे थे और उनके चेहरों पर घबराहट साफ़ तौर पर देखी जा सकती थी.  पिटाई के दौरान वे जहाँ बैठे थे वहां  एक युवक की पीठ पर जोर से डंडा पड़ा था. उसकी थैली समीप की चाय की दुकान पर छूट गई थी ,पर अब वह सब भूलकर कतार तोड़कर बाहर निकला और चाय की दुकान की ओर चल पड़ा.एक सिपाही ने उसे देख लिया . वह उसके पीछे दौड़ता हुआ गया और फिर पीटने लगा.युवक  जमीन पर गिर पड़ा. वह नीचे और ऊपर से डंडे की मार.
''मत मारो साब !'' वह चिल्ला रहा था. चिल्लाते-चिल्लाते उसने थैली की ओर इशारा किया, तभी 'साब' को दया आ गई और उसे लगा कि वह छूट गया.पर छूटना इतना आसान कहाँ होता है ? वह थैली लेकर आया और कतार में जहाँ  पहले  खड़ा था , वही जाकर खड़ा हो गया.सिपाही की नजर फिर उस पर  पड़ गई . उसको गर्दन से पकड़कर बाहर घसीटा और पीटते-पीटते कतार के आखिर में खड़ा कर दिया . वह जब बीच में अपनी पहलेवाली जगह पर  घुसा था , तो उसके पीछे खड़े सह यात्रियों को कोई उज्र नहीं था, पर कानून के रखवाले अनुशासन के पक्के थे.
हाथ में अंग्रेजी अख़बार लिए बड़ी देर से  यह तमाशा देख रहे एक व्यक्ति से मैंने पूछा -''पुलिस इन्हें क्यों मार रही है ?''
''लकड़ी के बिना मकड़ी हिलती नहीं है भाई'' उसने अपना ज्ञान बघारा
'मतलब?''
''पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं ? इनसे छुटकारा नहीं.जहाँ देखो ''ये'' दिखाई देते हैं. रास्कल'' उसने बुरा-सा मुंह बनाया और पच् से वहीँ थूक दिया. मानो गंदगी उसके मुंह में भर गई थी.
मैं कुछ बोलने ही वाला था कि दूर से गाडी आती दिखाई दी. कतार में खड़ा एक यात्री बेचैनी से थोड़ा हिला तो उसे मुस्तैदी से डंडे का प्रसाद तुरंत दिया गया .उसके साथ दो-तीन और चपेट में आ गए.गाडी आकर रुकी. बोगी के दरवाजे बंद थे.कतार की बेचैनी चरम पर थी.बेचैनी का कारण भी साफ़ था. बोगी मात्र  एक और चढ़नेवाले तीन सौ/साढ़े तीन सौ यात्री . आखिर में बोगी के दरवाजे खुले. कतार को अंदर जाने की अनुमति मिली.  जिस तरह मासूम चेहरेवाले स्कूली बच्चे  प्रार्थना के बाद कक्षा में जाते हैं, वैसे वे एक-एक कर चढ़ने लगे. अंदर बैठने के लिए जगह भले न मिले,पर डंडा राज से मुक्ति  का भाव उनके चेहरों पर था . चार सिपाहियों ने  तीन सौ/साढ़े तीन सौ लोगों पर डंडे के बल पर किए शासन के कुछ अंतिम पल बाकी थे .गाड़ी की सीटी सुनाई दी और दम  घोंटू बोगी में एक दूसरे पर लदे-फदे वे मजदूर अपनी सूनी आँखों में, घर पर इंतज़ार कर रहे बीबी-बच्चों,माता-पिता और तमाम रिश्तेदारों के चेहरे समेटे , चल पड़े दो-ढाई दिन की यात्रा पर,
(मराठी मासिक पत्रिका''महा अनुभव'' में प्रकाशित संपत मोरे के आलेख ''मजूर एक्सप्रेस'' का एक अंश -- साभार) 

अनुवाद ---- अलकनंदा साने
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टिप्पणियाँ:-
बी एस कानूनगो:-
हमारे समाज के दुर्भाग्यपूर्ण वर्ग विभाजन पर एक  निरिक्षण और अच्छी टिप्पणी और सुन्दर अनुवाद।

नंदकिशोर बर्वे :-
ताई अपनी कल ही अनुवाद की निपुणता और उसकी पूर्णता पर बात हो रही थी, आप जो इतना अद्भुतऔर सजीव अनुवाद कर पाती हैं उसका एक मात्र कारण यह है कि आपने मराठी को आई और हिन्दी को मावशी जैसे श्रद्धा भाव से ग्रहण किया हुआ है। ' आखों देखा हाल ' जैसे सजीव अनुवाद। बधाइयाँ।

अलकनंदा साने:-
धन्यवाद , कानूनगो जी और बर्वे जी,आप जैसे लोगों की टिप्पणी उत्साहित करती है.... 
मेरे जैसे हिंदी प्रदेश में पले-बढे के लिए ये करीब करीब उल्टा है ....हिंदी माँ और मराठी मौसी है

सुरेन्द्र कुमार :-
ये तो सही है कि देश मेँ क़ानून नहीँ डंडे का राज है आम लोग क़ानून नही पुलिस से डरते है और खास लोग समझते है अदालत में देख लेंगे आइए मिलकर क़ानून का राज स्थापित करने की अपनी अपनी और से भरसक कोशिश करे

प्रज्ञा :-
कोंचकोंचकर ठेले जा रहे और डंडों के दम पर बनाई जा रही कतार का दृश्य एकदम आँखों के आगे आ गया। श्रमिकों के पक्ष से मजूर एक्सप्रेस एक बेहतर टिप्पणी है और एक बेहद अच्छा अनुवाद। मूल की तरह तरल गतिशील।

चंद्र शेखर बिरथरे :-
आजादी के सढसठ साल बाद आज भी आम आदमी  , मजदूर वहीं खडा है जहाँ वह खडा था । सर्वहारा वर्ग के संगठित होने के बावजूद इसी वर्ग के तथा कथित ठेकेदारों ने ही लुटा । सरकारों ने , पूंजी पतीयों ने , राजनैतिक पार्टीयों ने विकास के नाम पर छला । शिक्षा के नाम पर भी धोखा मिला । राजा , महाराजा गये तो नेता राजा , महाराजा बन बैठै । वोट बैंक की राजनीति ने रही सही कसर पूरी कर दी । प्रशासन आज भी जनता जनार्दन को गुलाम समझता है ।  आज भी भारतीय पुलिस किसी तानाशाह से कम नहीं है ।

फरहात अली खान :-
संपत जी का ये आलेख वाक़ई आँखों देखा हाल मालूम होता है। अलकनंदा मैम ने बहुत ख़ूबी के साथ इसका अनुवाद किया है। वाक्य "लकड़ी के बिना मकड़ी हिलती नहीं है भाई।" क्या मूल मराठी आलेख में भी इसी तरह शायराना अंदाज़ में लिखा गया होगा?
ये बुद्धिजीवी वर्ग के लिए चिंता और कड़वी बात कहूँ तो डूब मरने का विषय है कि आज भी हमारे समाज में 'ग़रीबी' और 'मज़दूरी' एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द बने हुए हैं। आदमी की पहचान उसके पहनावे और शक्ल-ओ-सूरत से की जाती है; हमारा भौंहें सिकोड़ना और फैलाना सामने वाले शख़्स के हुलिये पर निर्भर करता है।
क्या ग़रीब केवल दया का पात्र ही है? क्या उसे हमारे बराबर हक़ नहीं मिलने चाहिए? क्या भीड़भाड़ वाली ट्रेन में चढ़ते वक़्त हमारी सोच भी उसी आदमी की तरह नहीं हो जाती है जो आलेख में उन्हें 'रास्कल्स' बता रहा है?
आज का आलेख पढ़कर ये सवाल मेरे मन में उठे।
मुझे लगता है कि सबसे पहले मुझे ख़ुद सभी के लिए एक सा नज़रिया रखने की ज़रुरत है।

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