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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 अप्रैल, 2020

हूबनाथ : लघुकथाएँ एवं कथन : भाग - 1


विधवा पेंशन
शहर से कट कर अलग थलग पड़े गांव के शराब के ठेकेदार सरपंच ने अपने खरचे से गांव से तहसील तक बस चलवाई जिससे गांव की औरतों को विधवा पेंशन लेने में कोई तकलीफ़ न हो।

         
डॉ हूबनाथ पाण्डेय
 


हिंदी दिवस
सबने उसके मातृप्रेम की स्तुति की कि भले हफ़्ते भर के लिए ही सही वह सात समंदर पार से उस मां की हर बरसी पर  जो उसकी बाट जोहते अहक कर मर गई न सिर्फ़ आता है बल्कि मां की स्मृति में लाखों रुपये लगाकर महोत्सव भी आयोजित करता है।   
       

बादल
अबकि लौटती बरसात शर्म और अपराधबोध से भरे बादल ज़रा भी नहीं गरजे क्योंकि वे यह विश्वास दिलाने में नाकामयाब रहे कि गुज़री भयानक बाढ़ और उसमें हुई मासूम मौतों के ज़िम्मेदार वे नहीं हैं।

     
नमाज़
जुम्मे की नमाज़ के लिए टोपी सिर पर चढ़ाते न चढ़ाते अशरफ़ अंकल जुमा मस्जिद की ओर ज्यूं ही मुड़े कि छह साल की भिखारन दौड़ी आई और कुर्ते का कोना खींच लिया तब पता चला कि पैसे तो जेब में हैं नहीं , वैसे भी अल्लाह के घर पैसे का क्या काम सो कुछ पल सोचते रहे फिर बच्ची का हाथ थामे घर की ओर चल पड़े कि नमाज़ तो मग़रिब की भी पढ़ी जा सकती है पर भूख इंतज़ार नहीं कर सकती वह भी छह साल की कच्ची उम्र में।

          
पैरोल
उस अजब गांव में तालाब ने सूखे कुएं में कूद कर ख़ुदकुशी कर ली और कुएं को आजीवन कारावास मिला जबकि नहर को तहसील के काग़ज़ों ने सोख लिया और नदी सड़क की चपेट में आ गई बचा पानी तो मचान पर अटकी विशाल टंकी की क़ैद में है और हर शाम छूटता है पैरोल पर गांव की प्यास का हाल जानने।


सच
उम्र के आख़िरी पड़ाव पर आकर मसीहा को इलहाम हुआ कि सच खोजना मुश्किल काम न था और न सच की इबादत ही काबिले- तकलीफ़ थी बल्कि जानलेवा मुसीबत तो सच बोलना , सच बर्दाश्त कर पाना और उस पर टिके रहना था क्योंकि लोगों के गढ़े गए सच और ज़िंदगी दांव पर लगाकर पाए गए सच में बड़ा फ़र्क था और तभी से अपना सच सीने में दबाए मसीहा समाधि में चला गया और लोगों ने उस जगह आसमान चूमता  एक यादगार महल बनवाया मसीहा की याद में।

             
सत्य
उस पुरानी कहानी का नौजवान पिता का आदेश और मां की दी बाजरे की सात रोटियाँ और गुड़ लेकर दिसावर कमाने निकला तो घने जंगल के बीच बरगद के नीचेवाले अंधे कुएँ के ब्रह्मराक्षस ने एक रोटी और गुड़ के बदले उसे दिया सत्य
जिसे गांठ बांध उसने परदेस में झूठ का व्यापार जमाया और सात साल बाद सात बैलगाड़ियों में लदी दौलत लिए पहुंचा पिता के पास तब याद आई गांठ में बंधे सत्य की और खोलकर देखा तो वह झूठ पड़ चुका था तब उसकी समझ में आया कि सत्य सही जगह इस्तेमाल न हो तो झूठ हो जाता है और उसने सारी दौलत देकर अपनी मां को पिता की क़ैद से आज़ाद कराया और उसे लेकर जंगल चला गया।


मानवी उवाच
कन्या बचपन में अपने छोटे भाई को पालती है, थोड़ी बड़ी होते ही मां बाप को पालती है, पराए घर में पति को पालती है और बाद में उसके बेटे को और उसके मां बाप को पालती है तथा बुढ़ापे में इंतज़ार करती है कि उसके पाले हुओं में से कोई तो उसके पास हो।

फलितार्थ यह कि पुरुष को चाहिए कि वह कभी भी स्त्री का साथ न छोड़े अन्यथा उसके आवारा होने के ख़तरे बढ़ जाते हैं।


आवारा
राधा की उम्र बीस के करीब रही होगी जब एक रात उसका पुलिसिया पति दूसरी औरत लिए घर में दाखिल हुआ और राधा ने अपने डेढ़ साल के बेटे को कमर में खोंसा और उस विधवा मां के घर आ गई जिसे तब से पाल रही थी जब से बाप सिधारा था और यादव की इमीटेशन ज्वेलरी के कारखाने में काम करते हुए अपनी शादी के लिए न सिर्फ़ पैसा जुटाया बल्कि मां के लिए एक गाय भी खरीद गई जिसे लिए दिनभर मां मंदिर के बाहर बैठी रहती है और चार पैसे कमा लेती है, सो उस मां की खोली में बसाई गिरस्ती और फिर से यादव के कारखाने में जहाँ कई मर्द औरतें काम में जुटे रहते वहाँ राधा मर्दों से हंस हंस बतियाती है, चुहल करती है और ठहाके लगा कर हंसती है जिसमें उसका दर्द छिप जाता है पर कसम ले लो कि किसी मर्द को हिम्मत हो जाए कि वह राधा का नाजायज़ फ़ायदा जो उठा सके फिर भी राधा आवारा है क्योंकि उसने किसी और मरद को उसे दोबारा छोड़ने का सुख देने से इन्कार कर दिया और उसका पुलिसिया मरद शरीफ़ है जबकि अब भी जवान औरत देखते ही उसकी आंखों में कुत्ते भूंकने लगते हैं।


पूजा
महरिन को हिदायत देती हुई अम्मा गुसलखाने की तरफ़ मुड़ीं कि कमरे की सफ़ाई करते वक़्त ध्यान रखे कि कहीं पूजाघर छू न जाए क्योंकि गंगाजल की शीशी आज ही खतम हुई और देवता भ्रष्ट हो जाएं तो असगुन होता है।


आदमी
ख़ुदा ने इन्सान को बेइन्तहां ताक़त और अक़्ल अता की जिससे सबसे पहले इन्सान ने ख़ुदा का घर बनाया और उसमें उसे क़ैद कर दिया उसके बाद जंगल काटकर घर बनाए अपने और बनाईं सड़कें और पुल और बग़ीचे और और और इस तरह उसने बेघर कर दिया करोड़ों परिंदों कीड़े मकोड़ों और वैसे ही इन्सानों को और इसकी ख़बर तक न लगने दी उस ख़ुदा को जो ख़ूबसूरत महलों की ऐय्याश सुविधाओं में क़ैद है और उसकी जगह बेइन्तहां ताक़तवर इन्सान ख़ुदाई को रौंद रहा है सूअर की तरह।


युद्ध
उसने अत्यंत कठोर और भीषण तपस्या के बाद ईश्वर से वरदान में एक ऐसा ब्रह्मास्त्र मांगा जिससे उसके सारे दुश्मन एकबारगी पल भर में जल कर खाक हो जाएं और उसका ईश्वर तो उसकी तपस्या पर फ़िदा हो ही चुका था क्योंकि इस महान तपस्वी ने संस्कृति की क़ब्र खोदकर अपने ईश्वर का गगनचुंबी महल बनाया था सो ईश्वर ने उसे सर्वनाशी ब्रहमास्त्र प्रदान किया जिसके प्रयोग के बाद ख़ुद ईश्वर भी नहीं बचा, बची तो सिर्फ़ एक लघुकथा जिसे अब कोई पढ़नेवाला नहीं।

         
सिद्धांत

स्थापना
दुनियाभर में पुरुषों की डांट/मार खाई महिलाओं की अपेक्षा महिलाओं की डांट/मार खाए पुरुषों की तादाद अधिक है।

कारण
हर पुरुष बचपन में अपनी मां(यदि उसे मां का सौभाग्य मिला तो) की डांट/मार अनिवार्यत: खाता ही है।

परिणाम
इसलिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जीवन में कभी भी पुरुष बदला चुकाने की ताक में रहता है और दुर्भाग्य से अधिकांश पुरुषों को सफलता प्राप्त होती है।

निष्कर्ष
मांएं किसी भी परिस्थिति में भावी पुरुष को प्रताड़ित न करें।

अपवाद
कतिपय महिलाएँ बचपन में भी सताई जाती हैं और उसके बाद भी।


ताक़त
नमाज़ के लिए सफ़ दुरुस्त करते हुए अशरफ़ अंकल जैसे ही पहली सफ़ में खड़े हुए कि नगर सेठ शैख़ साहब ने बड़ी शाइस्तगी से कड़े लहजे में इशारा किया कि मियाँ पीछेवाली सफ़ में चले जाओ क्योंकि उनके हिसाब से जगह कम पड़ रही है सो अंकल  नाराज़गी से अपनी टोपी उतारते यह कहकर निकलने लगे कि आज की नमाज़ शैख़ की ख़ातिर नहीं पढ़नी और उनका सफ़ से बाहर होना था कि अल्लाह से डरे शैख़ साहब गिड़गिड़ाते हुए पीछे आए कि आप आगे की सफ़ में ही रहें मैं पीछे हो लेता हूँ और अशरफ़ अंकल पहली सफ़ में अल्लाह की ताक़त पर मुस्कुराते खड़े हो गए।


जिउतिया
कल जिउतिया है और बुढ़िया माई बक्से में सोने की जिउतिया ढूंढ़ रही है जो उसने पचास पचपन साल पहले बनवाई थी अपने बेटे के पहले जनमदिन पर और तब से निरंतर पूजती आई है खर जिउतिया निराजल पूरी आस्था से बेटे के बेहतर भविष्य और दीर्घायु की कामना में लेकिन शहर से दूर इस बियाबान में बसे वृदधाश्रम में वह कितनी तैयारी कर पाएगी जिउतिया पूजन की इसी सोच में डूबी इकलौते बक्से के कोने अंतरे में ढूंढ़ रही है सात ग्राम सोने की नन्हीं सी जिउतिया।

      
भविष्य
पंडित धरणीधर शास्त्री ने कक्षा बारहवीं में तीसरी बार अनुत्तीर्ण होने के पश्चात शिक्षा में अपना भविष्य न देखते हुए भविष्य को अपना भविष्य बनाया और ज्योतिषाचार्य धरणीधर शास्त्री हो गए तथा मुरली मिठाईवाले की कुंडली बांच सलाह दी कि मधुशाला का ठेका लो ख़ूब फलेगा और अब सेठ मुरली प्रसाद के पारिवारिक ज्योतिष शास्त्री जी उनकी भव्य कोठी के एक अलंग में वातानुकूलित कक्ष में पूरे नगर का भविष्य बांच रहे हैं और अब तो इस विद्या पर उनका भी भरोसा धीरे धीरे मज़बूत होने लगा है वरना छओ दर्शन के प्रकांड पंडित उनके पिता बनियों की चौखट पर हवन करते स्वाहा हुए और इंटरफ़ेल धरणीधर करोड़पति होने की राह हैं तो क्या ऐसे ही?


राजाज्ञा
लोकतांत्रिक राजा ने पुष्पक विमान की सेवा प्रजा के लिए भी आरंभ की और नए विमानों के विनिर्माण हेतु नंदनवन के सिर्फ़ छत्तीस सौ  वृक्ष जो सदियों पुराने  थे कटवाए ज़रूर पर न्यायप्रिय पर्यावरण प्रेमी सम्राट ने सुदूर प्रांत में मुआवज़े के तौर पर छत्तीस हज़ार पौधे सरकारी खर्च से रोपवाए जिनमें से अगले वर्ष तक सिर्फ़ छत्तीस जीवित रहे और पांच वर्ष पूरे होते न होते वे छत्तीस भी इसलिए काटे गए कि विमानों को रखने की जगह कम पड़ रही थी और प्रजा समझ नहीं पा रही थी कि इन कींमती विमानों पर सवार होकर वह जाए कहाँ?

        
सज़ा
दरबारे आम के बीचोंबीच खड़े उस विद्रोही नौजवान पर पहला गुनाह यह साबित हुआ कि उसने पवित्र धर्मग्रंथ को पूजाघर से बिना किसी धार्मिक विधि विधान के न सिर्फ़ बाहर निकाला बल्कि राजाज्ञा के विरुद्ध उसे पढ़ा भी और ग़ुस्ताख़ी की हद देखिए कि उसे समझा भी और दूसरा गुनाह कि पवित्र किताब के संदेश पर न सिर्फ़ अपने जीवन में अमल करने लगा बल्कि दूसरों को भी उन उसूलों पर चलने की सलाह देने लगा इस तरह उसने मुल्क़ के तमाम आलिमो फ़ाज़िल विद्वानों और बुद्धिजीवियों को जानबूझकर नीचा दिखाने की घिनौनी साजिश की है अतः राजा ने दरबार की सर्वसम्मति से जब उसके लिए सज़ाएमौत का ऐलान किया  तो ज़ोरदार तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मुस्कुराता नौजवान सिर ताने खड़ा रहा।


मां
हर दिन मुंह अंधेरे एक बुढ़िया चौक की उस सड़क पर आ बैठती है जो सीधे राजमहल को जाती है और धीमे धीमे खिसकते हुए सड़क के कंकड़,पत्थर,कांटे चुन चुन अपने आंचल में धरती जाती है और भर जाने पर परली तरफ की खाई में धकेल देती है और लहुलुहान हाथ आंचल में पोंछ फिर जुट जाती है उस सड़क पर जहाँ हर रविवार नंगे घसीट कर लाए जाते हैं राजद्रोही नौजवान और संगसार किए जाते हैं और यहीं से गुज़रा था एक रोज़ बुढ़िया का बेटा जिसने राजमहल के पुनर्निर्माण के लिए ज़िदा जंगल को काटे जाने का द्रोह किया था तब से वह बुढ़िया सड़क की सफ़ाई में जुटी है कि उसके बेटों का आखिरी सफ़र थोड़ा कम मुश्किल हो सके क्योंकि वह तो सिर्फ़ मां थी।
         

आदमख़ोर
उसने शब्दों का इस क़दर ख़ूबसूरत इंद्रजाल रचा कि सारे बच्चे उसमें खो गए जिसमें मनमोहक परियाँ थीं,लहलहाते मखमली पौधे थे,महकते फूलों की बगिया थी,कलकल करते झरने,मधुर गीत गाते सुनहले पक्षी,रुपहले बादल, धनधान्य, धन दौलत और जहान की सारी ख़ुशियों से भरेपूरे सपनों की बेइन्तहां ख़ूबसूरत दुनिया और उस दुनिया की सैर करते करते जब थकने लगते बच्चे और हल्की सी झपकी आती तो नज़र बचा कर महात्मा के भेस में वह राक्षस एक बच्चे को चुपके से खा जाता और आस्तीन में मुंह पोछते हुए और ज़्यादा आकर्षक दुनिया के सपने दिखाने लगता, यदि किसी बच्चे को ग़लती से उसकी असलियत पता भी चलती तो उसे इशारे से समझा देता कि उसे नहीं खाएगा और वह बच्चा भी हसीन सपनों में खो जाता और एक दिन सारे बच्चों को खाकर वह निकल पड़ा दूसरे मुल्क़ की तलाश में जहाँ उसे इस तरह के मासूम और सपनों के लालची बच्चे इफ़रात में मिलें।

कहानी खतम करते ही नानी ने देखा कि बच्चे डर के मारे कब के दुबक कर सो गए हैं पर सो जाने से कहीं डर चला जाता है क्या?


इन्साफ़
इन्साफ़परस्त सुल्तान ख़लीफ़ा हारून अल रशीद ने सैयद फ़ीरोज़ अशरफ़ के मज़बूत कंधों पर शहरेक़ाज़ी की ज़िम्मेदारी सौंपते हुए फ़रमान जारी किया कि शहर के ऐन बीचोंबीच दीगर मज़हब के इबादतगाह को ढहाकर ख़ुदा का घर तामीर करने की जो जद्दोजहद चल रही है उसका फ़ैसला पाक महीने रमज़ान के पहले किसी भी सूरत में हो जाना चाहिए। इबादतगाह किसी क़ौम की हो सुल्तान ख़ुदा को नाराज़ नहीं करना चाहते।
अपने इल्म और पूरे अक़ीदे से अल्लाह की इबादत के लिए मशहूर सैयद फ़ीरोज़ अशरफ़ ने दोनों ही क़ौमों के सैकड़ों मुवक्किलों के जज़बात, तर्क, ज़िद और अक़्लमंदी के सुझाव, दबाव, धमकियाँ और अर्ज़ सुनने के बाद बंद लिफ़ाफ़े में अपना फ़ैसला सुल्तान के हुज़ूर में पेश किया और उसके बाद से क़ाज़ी सैयद फ़ीरोज़ अशरफ़ की कोई ख़बर नहीं।
कुछ अक़्लमंदों का अंदाज़ा है कि उन दो क़ौमों में से किसी एक के ग़ुस्से का शिकार हो गए तो कोई कहता है कि उनका फ़ैसला सुल्तान के ख़याल के माक़ूल नहीं था और इसी तरह और लोग भी क़यास लगा रहे हैं लेकिन सैयद के घरवालों को पूरा यक़ीन है कि वे एक रोज़ लौटकर ज़रूर आएंगे।
कहानी ख़त्म करते ही वेताल ने विक्रमादित्य से पूछा कि ऐ राजन्! अब तुम मुझे बताओ कि सैयद साहब ने उस बंद लिफ़ाफ़े में सुल्तान की ख़िदमत में क्या लिख भेजा था? अगर तुमने सही जवाब नहीं दिया तो तुम्हारे सिर के टुकड़े टुकड़े हो जाएंगे।
तब बुद्धिमान न्यायप्रिय महाराज विक्रमादित्य ने कहा कि ऐ वेताल! सुन सकता है तो सत्य सुन।
सैयद फ़ीरोज़ अशरफ़ ने लिखा था कि ऐ शाहेवक़्त जहाँपनाह सुल्तान इन मौलवियों, इमामों,पंडितों,पादरियों और अक़्लमंदों के बयानात पर ग़ौर करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि इन तमाम वादियों प्रतिवादियों का अल्लाह, ख़ुदा या राम से कोई दूर का वास्ता भी नहीं है। इनकी लड़ाई दरअसल  ज़मीन की लड़ाई के ज़रिए दो  क़ौमों में रंजिश और नफ़रत बदस्तूर बनाए रखने का है जिससे हुक़ूमत की नाकामी और नकारेपन की ओर मज़हबपरस्त जाहिल अवाम की नज़र न जा सके चुनांचे अगर आप सचमुच में इस मुसीबत का सही हल चाहते हैं तो मेरी राय में इस पाक जगह पर एक पाक इल्म की इमारत बना दी जाए जिससे अवाम की जहालत दूर हो सके और मुल्क़ ख़ुशहाल हो सके। बाक़ी मेरी दरख़्वास्त को कितनी इज़्ज़त बख़्शनी है वह तो हुज़ूर के इख़्तियार में है।

राजा का जवाब सुनते ही वेताल खिलखिलाकर हंसा और फिर उसी डाल पर जा बैठा।


बुर्क़ा
बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के पहले वाले साल की एक सुबह सात बजे धर्मनिरपेक्षता के जोश में बुर्क़े में कक्षा में आई रिज़वाना को पूरी कक्षा के सामने पूरी बुद्धिमानी से बुर्क़े के ख़िलाफ़ लेक्चर पिलाया जबकि पढ़ाना था भाषाविज्ञान और लेक्चर के बाद मेरी केबिन में आकर उसने मेरी विद्वता पर झाड़ू फिराते बताया कि वह सुबह पांच बजे अपनी जर्जर मां की मदद के लिए कुछ घरों में काम करने जाती है और वहाँ से सीधे कॉलेज आ जाती है क्योंकि वह मेरा लेक्चर छोड़ना नहीं चाहती और उसके पास अपनी सहेलियों की तरह अच्छे कपड़े भी नहीं है और मुझे उस रोज़ बुर्क़े का एक नया अर्थ पता चला।


प्यार
प्रोफ़ेसर श्रीवास्तव ने पैंतीस वर्षों के वैवाहिक जीवन में पत्नी को इतना अधिक प्यार और सम्मान दिया कि कभी सातवीं मंज़िल से नीचे तक उतरने नहीं दिया , न कभी बाज़ार ही जाने दिया ख़रीद फ़रोख़्त की खा़तिर, यहाँ तक कि पत्नी के अंतर्वस्त्र तक ख़ुद ही लाते रहे और नौकर नौकरानियों को हमेशा उनकी ख़िदमत में रखा , वे बीमार न पड़ें इसलिए न तो कभी बरसात में भींगने दिया न कुछ बाहरी चीज़ ही खाने दी, पान की तरह फेरते रहे पत्नी को और रिटायरमेंट के सालभर बाद ही कार्डियाक अरेस्ट में जाते रहे और उनपर शतप्रतिशत निर्भर पत्नी भी सालभर के भीतर सिधार गई तो लोगों ने कहा कि इसे कहते हैं प्यार कि पति की जुदाई इस पकी उम्र में भी बर्दाश्त नहीं कर पाई और पतिव्रता होने का फ़र्ज़ निभाया पर मुझे न जाने क्यों लगा कि एक अपंग व्यक्ति अचानक बेसहारा हो जाए तो भला कैसे जिए! ख़ैर मेरा क्या, दुनिया तो अभिभूत है ही।


संतान
एक अदद पत्नी एक नालायक पुत्र और बीस बीघे सड़क के किनारेवाले खेत छोड़कर जब बेचन पंडित स्वर्ग सिधारे थे तब पत्नी को लगा था कि खेत बेचकर भी खाएं तो तीन पीढ़ी तक कमाने की ज़रूरत न पड़े सो आज्ञाकारी बेटे ने मां की ख़्वाहिश पूरी की और गाय सी एक लड़की ब्याह लाया पर दो साल बाद भी बहू के पैर भारी न हुए तो सास का दिल बैठने लगा और अंततः ग़ुलामों सरीखी खटती गाय एक बैल के साथ भाग गई पर वंश तो चाहिए सो इस बार एक बछिया लाई गई जो दुर्भाग्य से पढ़ी लिखी निकली और उसने शहर ले जाकर शौहर और अपनी जांच कराई तो पता चला कि यह सांड तो बधिया है ऐसे में डॉक्टर ने आइवीएफ की सलाह दी और खेत बिकने लगे लेकिन विज्ञान की यह खोज पंडिताइन को सही नहीं और परिणाम यह हुआ कि बुढ़ापे में ग़ुलामी करनी पड़ रही है और सपूत शहर के किसी धनी की कोठी पर पहरेदारी में लगा है और अपने अतीत की समृद्धि के क़िस्से गाहे ब गाहे सुनाता रहता है।


बोझ
बूढ़ी औरत तो बूढ़ी गाय से भी बदतर कम से कम गाय का गोबर और मूत तो काम आता है अब इस पलंग तोड़ती बीमार बुढ़िया की हगनी मुतनी कौन करे, अबतक तो चार बाइयां काम छोड़कर भाग चुकी हैं, क्या तुम्हारे इतने बड़े महानगर में ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ इनका ठिकान लग सके, कहते कहते सावित्री ने घूरकर पति को देखा और अचानक पति उछल पड़ा ख़ुशी के मारे गूगल देखकर कि माउंट मेरी इलाके में एक जगह तो है जहाँ बीमारों की शूश्रूषा बड़ी श्रद्धा से की जाती है पर दो अड़चनें हैं,एक तो संस्था इसाइयों की है दूसरे वहाँ सिर्फ़ कैंसर पेशेंट ही लिए जाते हैं, यह देखकर महाप्रबंधक श्री श्रवण कुमार जी लैपटॉप पर दूसरी साइट में सर्च करने लगे।


ओपन हाउस
क्रिटिकल ब्रेन सर्जरी से पहले न्यूरो सर्जन जैसे पेशेंट के रिलेटिव्स को ब्रीफ़ करते हैं कुछ उसी तरह कक्षा तीसरी की स्कूल टीचर ने जनरल मैनेजर मिस्टर भटनागर को समझाया।
इंपॉर्टेंट मीटिंग्स छोड़कर बेटे के ओपन हाउस में पहली और अब आख़िरी बार आए भटनागर साहब सिर से पैर तक दहकते हुए कक्षा से दनदनाते बाहर निकले।आठ साल का सत्यकाम ओपन हाउस के दो दिन पहले इस क़दर बीमार हुआ कि मिसेज़ प्रतिभा भटनागर उसे लेकर फ़ाइव स्टार अस्पताल में एडमिट हो गईं। कक्षा एक से आइ आइ टी और आइ आइ एम तक टॉपर रहे भटनागर साहब और मोस्ट प्रेस्टिजियस स्कूल की मोस्ट टैलेंटेड टीचर प्लस काउंसिलर मिलकर भी डाइग्नोस नहीं कर पाए कि हर ओपन हाउस से पहले सत्यकाम को अस्पताल में एडमिट क्यों होना पड़ जाता है!



कविता

आरे में जंगल नहीं था

सदियों पहले
दरख़्तों के कुछ कुनबे
भटककर आ गए थे
इस बियाबान में
जिसे आज आरे कहते हैं
कहनेवाले ने भी अजब कहा
शायद उसे अहसास था कि
आरे का अंत एक दिन आरे से ही होगा
ख़ैर वक़्त के साथ बढ़ता रहा
रोहिंग्या दरख़्तों का कुनबा
और देखते देखते उफ़क तक छा गए नाजायज़ दरख़्त
निहायत ग़ैरकानूनी ढंग से
दुनियाभर के परिंदों ने
सरासर अवैध कब्ज़ा कर लिया
हरियाली की उस बाढ़ पर
जो उतरने का नाम न ले रही थी
बेहद कमीने कमज़र्फ और निहायत नाकारा किस्म के
कीड़े मकोड़ों भुनगों
तितलियों झींगुरों आदि ने
बिना पूछे बड़े हक़ से बसा लिए घर अपने
ये तमाम बेजा कारगुज़ारियां पनपती बढ़ती रहीं
और हुक़ूमत को ख़बर न हुई
लेकिन साहब
हुक़ूमत तो हुक़ूमत ठहरी
एक रोज़ हाकिमे शहर को
ज़रूरत आन पड़ी
थोड़ी सी ख़ाली जगह की
वह अपनी अवाम को तोहफ़ा देना चाहता था
पर यह क्या
उसकी सोने जैसी ज़मीन पर
आवारा और बदतमीज़
बदतहज़ीब दरख़्तों का
सरासर नाजायज़ कब्ज़ा?
आख़िर वह ठहरा हाकिम
न आगे सोचा
न पीछे देखा
बस आरे पर आरे चलवा दिए
उधर सूरज ढला और इधर दरख़्तों की किस्मत
छोटे हों या बड़े
बूढ़े या नौजवान
किसी को बख़्शा नहीं गया
सिर धड़ हाथ पैर
टुकड़े टुकड़े करके
लाशों के ढेर लगा दिए गए
परिंदों के घोसले
उनके अंडे बच्चे
सब बेदर्दी से रौंद कर पीस दिए गए
कीड़े मकोड़ों भुनगों की क्या बिसात
इन नामुराद पेड़ों को
यहाँ बसने से पहले
कम से कम पूछताछ तो कर लेनी चाहिए थी कि आख़िर ये ज़मीन है किसकी
पता नहीं किस सिरफिरे ने कह दिया था
कि ज़मीन तो ख़ुदा की है
उस गधे को पता नहीं
कि ख़ुदा भी पूरी ताक़त लगाए हुए है
अपनी ज़मीन बचाने की ख़ातिर
ज़मीन सिर्फ़ उसकी होती है
जिसके हाथ में तलवार होती है
और जिसे बड़े अदब से सरकार कहा जाता है


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