सुरक्षा
मुंबई हाईकोर्ट की मुख्य सड़क की ओर की
चारदीवारी से सटी दो तरफ दो पत्थर की चौकियाँ जिनमें सिमेंट की बोरियों के पीछे एक
सिपाही कुछ लिख रहा है और अत्याधुनिक राइफ़ल की संगीन वाली काली ठंडी नली सड़क की ओर
खुली है जिसके पार के मैदान में ढेर सारे बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं और हाईकोर्ट
पर लगा तिरंगा हवा में लहरा रहा है।
धर्मसंकट
धनधान्य से लबालब राज्य के महान राजा
ने संकट में पाया धर्म को और धर्मसंसद का आह्वान किया जिसमें देशभर के
धर्मध्वजाधूरीण आकाशगामी विमानों में आरूढ़ हो राजधानी को प्रस्थान करते भये और
भव्यविशाल सभाकक्ष में रेशमी स्वर्णासनों पर आसीन हो सर्वप्रथम अपने अपने मठों, मंदिरों, आश्रमों के वार्षिक उत्पन्न पर फूले समाते हुए एकदूजे की समृद्धि पर
मन ही मन कुढ़ते हुए अपनी भावी योजनाओं को राजाधिराज के समक्ष प्रस्तुत करने की
कुटिल चालों पर विचार करते हुए किंतु ऊपर से बेहद प्रसन्न, शांत,धीरगंभीर दीखते हुए महाराज की अगवानी को अनुशासित खड़े हो गए और
नानाविध सुस्वादु व्यंजनों के मध्य भूखी नंगी निर्धन अशिक्षित प्रजा में धर्म के
प्रति अंधसमर्पण की भावना उद्दीप्त करने हेतु तथा नगर के श्रेष्ठिवर्ग एवं
शक्तिशाली अराजक सामंतों को वशीभूत रखने हेतु अत्यंत गहन विचारविमर्श के पश्चात
राजेंद्र राव सम्राट की चरणधूलि ले संत सम्राटों ने सहर्ष विदा ली और दूसरी सुबह
के अख़बार में धर्मपरायण संतपालक महाराज की महात्माओं के चरण प्रक्षालन की ग्लॉसी
पेपर पर सतरंगी छवि देख बेरंगी नंगी भूखी प्रजा अपने सम्राट की जैजैकार करती
राजकोष और धर्मकोष को लबालब करने पिल पड़ी ऐसा कहते हुए पंडित जी ने कथा का पहला
अध्याय समाप्त किया।
मनहूस घड़ी
राम रावण युद्ध में सभी को कुछ न कुछ
मिला।
रावण और राक्षसों को मोक्ष,राम
को सीता,विभीषण को राज्य, सुग्रीव को वैभव,हनुमान को राम,अयोध्या
को राजा,सीता को दूसरा वनवास और लवकुश,लक्ष्मण को
उर्मिला, भक्तों को रामलीला, तुलसी को मानस,राजनीति को
मुद्दा, अदालत को काम और ऐसे ही सभी को कुछ न कुछ मिला ज़रूर और निरंतर मिलता
ही जा रहा है।
पर उन बंदरों और भालुओं को क्या मिला
जिन्होंने जान की बाज़ी लगाई थी युद्ध में ?
उन्हें मिले चतुर मदारी जिनके इशारे पर
वे आज तक नाच रहे हैं और उस मनहूस घड़ी को कोस रहे हैं जब जंगल में दो सभ्य
महामानवों से मुलाक़ात हुई।
तलाश
उसकी हर शाम गुजरती है छत पर खुले
आसमान के ठीक नीचे जहां से रोज़ बादल का
एक आवारा टुकड़ा गुजरता है और वह उसे छूने की नाकाम कोशिश करती है हर रोज़।
कभी आसमान तपता है,छत
दहकती है तो कभी बेजान देह सी सर्द छत पर आसमान कफ़न की तरह पड़ा रहता है तो कभी
उसकी आंखों से सारा जल खींचकर आसमान धारासार बरसता छत के सारे पाप धो देना चाहता
है और इन सबके बीच अनाथ कराह सरीखी एक देह अपनी आत्मा की तलाश में हर रोज़ उतरती
है बेहद मसरूफ़ शहर की वीरान छत पर।
परिणाम
धूर्जटीप्रसाद पाठक प्रतिदिन सुबह छह
से आठ बजे तक देवी की उपासना में आकंठ डूबकर पूरे भावावेश से तन्मय होकर लीन हो
जाते। जानकारों का मानना है कि बाज़ औक़ात देवी उनपर आविष्ट भी होती थीं।
सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक वे शहर
के मशहूर होटल सितारा के अहाते में स्थित अपनी पान की दुकान पर झक सफ़ेद कुर्ते
पाजामे में ग्राहकों के प्रति पूरी निष्ठा और ईमानदारी से समर्पित रहते।
सुशील पत्नी से चार पुत्रों का सौभाग्य
पाकर वे धन्य थे।
दोपहर एक बजे के करीब बड़ा बेटा भोजन
के लिए उन्हें घंटे भर को मुक्त करता और इसी बीच मां की हिदायत के मुताबिक गल्ले
में से कुछ रुपए उड़ाए लेता।
पाठक जी की आमदनी इतनी थी कि दो चार सौ
की कमी पता भी न चलती।
नाजायज़ और गैर ज़रूरी ख़र्च पाठक जी
को बर्दाश्त नहीं थे।
किंतु पत्नी को मायके में अपने वैभव के
प्रर्दशन के लिए रुपयों की दरकार तो थी फलस्वरूप बड़कू को हाथ की सफ़ाई सीखनी
पड़ी। बड़कू जब कालेज पहुंचे तो उनके अपने खर्च हाथ-पैर पसारने लगे तो माताजी ने
मंझले की शरण ली।
पाठक जी की सुबह की उपासना का संध्या
संस्करण भी समय के और मुनाफे के साथ विकसित हुआ।
पान के व्यवसाय में मुनाफा कई गुना और
वह भी सबसे मशहूर होटल के अहाते में।
इस तरफ़ मुनाफा बढ़ता गया दूसरी ओर
पाठक जी की देवी भक्ति परवान चढ़ने लगी और उसी अनुपात में चारों सपूत परम नालायक
की उपाधि से विभूषित होने लगे।
बड़कू शराब की अधिकता में लीवर फेल से
अपने पीछे एक अदद जवान पत्नी और तीन बेटियां छोड़ सिधारे।
मंझले छोटी मोटी गुंडागर्दी करते हुए
आपसी रंजिश में मारे गए।तीसरे नंबर को जेल से बचाने में दुकान बिक गई और छोटकू ने
घर की गिरती हालत और पिता की गिरती सेहत संभालने की खातिर टैक्सी ड्राइवरी का पेशा
अपनाया।इसी बीच माताजी का भी दुखद देहावसान हुआ।
भाभी और तीन बेटियां और बीमार पिता जिस
छोटकू के माथे पड़े वह बेहद ज़हीन और ईमानदार तो था पर उसे अपनी प्रतिभा दिखाने का
अवसर ही नहीं मिला।
ऐ हठी राजन! मुझे यह समझ में नहीं आया
कि पाठक जी को अपनी एकनिष्ठ उपासना और कर्त्तव्यनिष्ठ श्रम के बदले इतना निराशाजनक
भविष्य क्यों प्राप्त हुआ और उस ईमानदार छोटकू के माथे इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ा?
मुझे तो कारण नहीं सूझता अतः अब आप ही
मेरी शंका का निवारण कीजिए अन्यथा आपका सिर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा।
क्षण भर के चिंतन के पश्चात न्यायप्रिय
विक्रम ने समझाते हुए कहा कि पाठक जी जिन
तीन घंटों में उपासना में लीन रहते थे उस वक्त वे अपनी देह से परे एक दिव्य आनंद
की स्थिति में होते थे वही उनकी उपासना का तात्कालिक फल था।
व्यक्तिगत उपासना और कुटुंबगत संस्कार
दो भिन्न प्रकृति की व्यवस्थाएं हैं। इनका परस्पर कोई संबंध नहीं। यदि यही तीन
घंटे वे अपने बच्चों और पत्नी के साथ स्वस्थ सानंद बातचीत में बिताते तो परिणाम
कुछ और होता।
रही बात छोटकू की तो जब आपका विकास
ग़लत व्यवस्था में होगा तो वहां आपकी ईमानदारी आपको संघर्ष की ओर ही ले जाएगी
किंतु भविष्य उतना बुरा नहीं होगा जितना पाठक जी का हुआ।
इतना सुनते ही बेताल चुपचाप डाल पर लटक
गया।
जिमी
विंध्यवासिनी मिश्र के जाने के बाद घर
में बचीं पेंशन ,फंड सर्विस की अच्छी खासी राशि और तीन
जनानियां।
उनकी बूढ़ी मां,अधेड़ पत्नी और जवान बेटी।
डॉक्टर निदान करते कि उससे पहले ही
मिश्र जी सिधार गए। पंचतारांकित अस्पताल को कलंक देते हुए मिश्र जी का जाना तीनों
महिलाओं को इतना खला कि वे एक दूजे को ज़िम्मेदार मानने लगीं और तीन जनियों के
निहायत छोटे कुटुंब में आपसी बोलचाल बिलकुल बंद।
वक्त के साथ मिश्र जी के जाने का ग़म
ज्यों ज्यों कम होता गया ,आपसी
चुप्पी गहरी होती गई। बूढ़ी मां पूजाघर में क़ैद,तो पत्नी चौके चूल्हे में और वक्त बचे तो टीवी मोबाइल में मसरूफ़।
बची बेटी तो कालेज से आते ही घर काटने दौड़ता।
आखिरकार जूही को कुछ सूझा और वह घर में
जिमी को ले आई। एक बढ़िया लेब्रोडर कुत्ता। पहले तो दोनों महिलाओं ने सख़्त ऐतराज़
जताया फिर धीरे धीरे जिमी उन्हें भी परच गया।
अब घर की तीनों महिलाएं जिमी की
मार्फ़त आपस में बातें करने लगीं और धीरे-धीरे मिश्र जी की यादें धुंधली होने
लगीं।
निर्णय
आरा जैसे छोटे शहर में समाने लायक उसकी
प्रतिभा नहीं थी। बिना गुरु के और बिना अभ्यास के जो सहज गला उसने पाया था उसका
कोई सानी नहीं।सिनेमा का गीत हो या लोकगीत या फिर शुद्ध शास्त्रीय,वह इतनी सहजता से गाती है जैसे
मल्लाहों के लड़के गंगा में तैर रहे हों।
पर ऊपरवाले के खेल तो निराले ही होते
हैं। बीएससी होते ही पिता ने ऊंचा कुल खानदान देख तहसीलदार के इकलौते बेटे जटाशंकर
तिवारी से ब्याह तो दिया पर वाह रे तहसीलदार रमानाथ तिवारी की चतुर बुद्धि!
किसी को भनक तक न लगने दी कि बीएचयू
में तथाकथित एम ए करनेवाला उनका सुपुत्र दिमाग से कुछ ज़्यादा ही हल्का है।
दो चार रोज़ में ही वेदिका के समक्ष
पति का पागलपन ज़ाहिर हो गया और आनन फानन में उसने निर्णय ले लिया कि इस पगलेठ के
साथ तो ज़िंदगी नहीं बितानी।
तलाक की खानापूर्ति में सालभर तो लगे
पर उसके तुरंत बाद वेदिका सपनों की नगरी में अपनी प्रतिभा आज़माने आ पहुंची। मुंबई
यूनिवर्सिटी में एम ए में एडमिशन लिया कि हास्टल मिल सके फिर लगाने लगी स्टूडियो
के चक्कर।
इसी बीच एक मशहूर सीरियल कंपनी के
दूसरे या तीसरे असिस्टेंट डायरेक्टर से मुलाकात हुई। विद्या से इंजीनियर और पेशे
से स्ट्रगलर हिमांशु शुक्ल को वेदिका की आपबीती सुनकर टेंपरेरी वाली हमदर्दी हुई
और उसने परमानेंट वाले रिश्ते का प्रपोजल रख दिया और वेदिका ने निर्णय किया कि
पीएचडी करके प्रोफेसर बनेगी और शुक्लाजी का घर बसाएगी।भाड़ में गया संगीत और
सिनेमा।
बांद्रा कोर्ट में वेदिका का
शुभपुनर्विवाह चंद मित्रों के बीच संपन्न हुआ और दीपावली की छुट्टियों में पहले वह
आरा गई फिर अपनी ससुराल इलाहाबाद।
सास को जब पता चला कि नालायक पूत ने
छोड़ी छिड़की लड़की से शादी कर ली है तो उसके जले हुए अरमान भयंकर हिंसक रूप से
प्रकट हुए।
वेदिका किसी तरह जान बचाकर इलाहाबाद से
भागी और राजधानी दिल्ली में अपने एक रिश्तेदार के घर शरण ली।
एम ए फ़ाइनल की परीक्षा भर देने मुंबई
गई।
दिल्ली लौटकर खुद को पढ़ाई में झोंक
दिया और फर्स्ट एटेंप्ट में जेआरएफ निकाल लिया। उसकी प्रतिभा से कायल होकर
प्रोफेसर शर्मा ने न सिर्फ पीएचडी में प्रवेश दिलवा दिया बल्कि अपने ही
महाविद्यालय में एडहाक असिस्टेंट प्रोफेसर भी रखवा दिया। अपनी व्यवहार कुशलता और
स्नेहपूर्ण व्यवहार से वेदिका पूरे स्टाफ की चहेती बन गई।
ऐसे में इकोनामिक्स के नवनियुक्त
असिस्टेंट प्रोफेसर डैनियल जार्ज ने वेदिका को स्टाफ रूम में ही प्रपोज़ कर दिया।
पर इस बार वेदिका तुरंत निर्णय नहीं कर पा रही थी क्योंकि मामला अंतर्धार्मिक था।
माता पिता हर्गिज़ राज़ी न होंगे। सारे संबंध टूट जाएंगे।
पर इन संबंधों से अब तक हासिल ही क्या
हुआ?
और एक दिन वेदिका द्विवेदी वेदिका
जार्ज बन गईं।
दो चार महीने की वसंत ऋतु के बाद
वेदिका का सामना जब पतझड़ से हुआ तब वह कांप गई।
अपने सारे संबंध उसने जार्ज को पूरी
ईमानदारी से बता दिए थे। अप्राप्य सौंदर्य की अभिलाषा में जार्ज ने अत्याधुनिक
उदारता भी दिखाई किंतु आखिर जार्ज भी तो भारतीय पुरुष ही था। वह कोई दूध का धुला
नहीं था पर अपेक्षाएं उसकी रामराज्य के धोबी से कम न थी।
अचानक वेदिका कभी बाथरूम में फिसलने
लगी,कभी सड़क पर
मुंह के बल गिरने लगी।स्टाफ रूम में कानाफूसी धीरे-धीरे मुखर होने लगी। आरकेपुरम
में दो कमरों वाला फ्लैट वेदिका ने होम-लोन लेकर खरीदा था। वह इएमआइ चुकाती और
जार्ज की तनख्वाह से घर चलता। जिस महीने घर की आखिरी किश्त चुकाई गई और घर के पेपर
जार्ज के साथ में आए उसके अगले महीने से वेदिका वर्किंग वुमन हास्टल में शिफ्ट कर
गई।
जार्ज ने केरल से अपने दस साल के बेटे
और बूढ़ी मां को अपने नए फ्लैट में बुला लिया है और कहते हैं कि शहर के दूसरे
कालेज की किसी महिला प्रोफेसर से कुछ चक्कर चल रहा है।
वेदिका अब निर्णय नहीं कर पा रही है कि
आगे क्या करे।
लोगों की दयनीय दृष्टि का सामना करती
नौकरी करती रहे या उस पगलेठ के पास आरा चली जाए जो अभी भी उसका इंतज़ार कर रहा है
या फिर....
पंचतंत्र
जंगल के राजा ने तै कर ही लिया कि बस
बहुत हो चुका राजतंत्र!
अब तो जंगल में प्रजातंत्र आना ही
चाहिए।
कितने सारे जंगलों में प्रजातंत्र पहले
ही आ चुका है जिसमें राजा को शिकार करने की ज़हमत ही नहीं उठानी पड़ती। शिकार अपने
आप चला आता है अपनी बारी आने पर और वेरायटी भी बनी रहती है सो अपनेवाले राजा ने
ठान ही लिया कि अपने इधर भी चाहिए प्रजातंत्र।
सबसे पहले बाघों,भेड़ियों ,चीतों की सभा बुलाई गई। प्रजातंत्र के
नियम कानून बनवाए गए।
और प्रजातंत्र के नियमों के तहत सारे
शाकाहारी जानवरों को यह अधिकार दिया गया कि वे अपनी मर्जी से एक मांसाहारी जानवर
का चुनाव कर सकते हैं जिसे उसके शिकार का पूरा और एकमेव अधिकार होगा। उसके अलावा
अन्य कोई जानवर उसकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखेगा।
सारे शाकाहारी जानवरों में ख़ुशी की
लहर दौड़ गई।
उन्हें एक हफ़्ते का समय दिया गया कि
वे पूरे जंगल में घूमकर अपनेवाले मांसाहारी का चुनाव करके उसे दरबार में पंजीकृत
करवा लें। जो नहीं कर पाएगा उसकी ज़िम्मेदारी शासन की नहीं होगी।
और साथ ही सभी मांसाहारी जानवरों को
सख़्त हिदायत दी गई कि वे शाकाहारी जानवरों के प्रजातांत्रिक अधिकारों का पालन
करेंगे अन्यथा उन्हें सप्ताह में एक दिन भूखे रहने का कठोर दंड दिया जाएगा।
उसके बाद पूरे महोत्सव से अपनेवाले
जंगल में भी प्रजातंत्र की स्थापना हुई और सभी जानवर आपस में हिलमिल कर पूरे
सद्भाव से एक दूसरे के प्रजातांत्रिक अधिकारों का सम्मान करने लगे।
इतना कहकर करकट ने दमनक से पूछा कि भाई
मेरे इस वाले प्रजातंत्र में और उस वाले जंगल तंत्र में क्या फ़र्क है तो
बुद्धिमान दमनक ने कहा कि फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि अब खरगोश ख़ुद तै करेगा कि उसे
कौन खाएं न कि भेड़िया तै करेगा।
और फ़िलहाल यह भी कोई कम उपलब्धि नहीं
है। सुनकर करकट शहर की ओर भागा क्योंकि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की ओर
भागता है।
(सूचना: इस कथा का हमारे देश में होनेवाले चुनावों से कोई संबंध नहीं
है यदि कोई साम्य हो तो कृपया उसे निरा संयोग मानें।)
वर्चस्व
एक बड़े सम्राट ने अपने साम्राज्य
विस्तार के लिए आसपास के छोटे राजाओं को उनकी सुरक्षा और संपन्नता की दृष्टि से
अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया। अब छोटे राज्य के नागरिक बड़े साम्राज्य का अंग
हो चुके थे फलस्वरूप उन्होंने धीरे-धीरे साम्राज्य की मुख्य धारा में शामिल होने
के लिए अपनी सदियों पुरानी रिवायतों को त्याग कर साम्राज्य के रीति-रिवाजों को
अपनाना आरंभ कर दिया और शीघ्र ही उन्होंने साम्राज्य के श्रेष्ठ आचरण में मूल
साम्राज्यवासियों को भी पछाड़ दिया।इस तरह सम्राट का साम्राज्यवादी स्वप्न पूरा
हुआ और छोटे राज्यों का नामोनिशान मिट गया। सिर्फ़ इतिहास में दर्ज है कि इस महान
साम्राज्य की सीमा के भीतर कभी छोटे छोटे सैकड़ों राज्य हुआ करते थे जिनकी अपनी
संस्कृति थी,अपने
रीति-रिवाज़ और पर्व उत्सव हुआ करते थे।
राज्यों का मरना दरअसल
सभ्यताओं का मरना होता हैं जो बहुत बाद
पता चलता है तब तक किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
जैसा राज्यों के साथ हुआ ठीक वैसा ही
भाषाओं के साथ भी होता है,हो
रहा है, होता रहेगा
क्योंकि किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
दोहा
घना अंधेरा आत्म विच
बाहर दियरा बार।
हंसता नानक जीव पर
भली करे करतार।।
अंतिम इच्छा
पूरी बखरी सन्न रह गई। बड़के बाबू ने
एक भद्दी सी गाली देते हुए कहा कि सनक गई है....!
घर की जनानियों को काटो तो खून
नहीं।अभी परसों ही बैदजी महराज के कहने पर बड़की अम्मा को मसहरी से उतार कर कुश की
चटाई पर लिटा दिया गया था। वैद्याचार्य अंबिकाचरण चतुर्वेदी जी कर्मकांडी आचार्य
भी थे।जब उन्होंने कहा दिया कि बड़की दुलहिन अब घड़ी दो घड़ी की मेहमान हैं तो
बुआजी ने दिन ढलने से पहले ही सबको भोजन करा दिया और बड़की अम्मा के सिरहाने घी का
दिया और अगरबत्ती जलाकर मास्टर चाचा भगवद्गीता का पाठ करने लगे। बैदजी ने ही कहा
था कि बड़की बहू की अंतिम इच्छा पूछ ली जाए।
जौनपुर वाली चाची ने कान के पास मुंह
ले जाकर पूछा कि जिज्जी कोई अंतिम इच्छा हो तो बताइ देव।
बड़े साफ़ स्वरों में बड़की अम्मा बोली
थीं -"सरसों के ठंडे मसाले में बनी रोहू मछली और एक फुल्का घी लगा हुआ खाने
का मन है।"
जिस पांडेय खानदान से बड़की अम्मा आई
थीं उस परिवार के सारे पुरुष शिकार मछरी के शौकीन थे पर महिलाएं शुद्ध शाकाहारी ही
नहीं बल्कि मांसाहार से सख्त नफ़रत करनेवालीं। ऐसे में अपने बाबू की लाड़ली बड़की
अम्मा को भी रोहू मछली से प्यार हो गया था किंतु धतुरा तिवारियों के परिवार में जब
ब्याही गई तो प्याज लहसुन तक त्याग दिया। धर्म-कर्म में इस क़दर डूबीं कि हफ़्ते
में दो तीन दिन तो निर्जला व्रत हो ही जाता।
जीवन का आधा समय पूजाघर में ही बीता था
उनका। उनकी पवित्रता और धार्मिकता की लोग कसम खाने लगे थे। वह बड़की अम्मा अंतिम
समय में जीवन की समस्त साधना पर जलती राख डालते हुए मछरी खाना चाहती हैं ?
कौन पतियाएगा !
एकस्वर में निर्णय लिया गया कि यह
इच्छा तो कदापि पूरी नहीं हो सकती। ओवरसियर बेटे को तो यह सुनकर ही अपनी पवित्र
मां से घिन आने लगी।
पाही पर एकांतवास करते बुढ़ऊ तिवारी जी
तक जंगल की यह आग पहुंची। बैद जी ने घोषणा कर दी कि बड़की दुलहिन सुबह का सूरज
नहीं देख पाएंगी। करीब दस वर्ष बाद बखरी में अपनी कुटिया के एकांतवासी वेदों
उपनिषदों के प्रकांड पंडित नब्बे पार के बुढ़ऊ तिवारी लाठी टेकते दुआरे तख्त पर
बिराजे तब सुरुज देवता बड़के पोखर में डुबकी लगा चुके थे।
बखरी के सारे पुरुष फनफनाए बैठे थे।
पुरनियां जनानी दरवज्जे पर झुंड में जुटी थीं और नवेलियां घर के काम निपटाने में
जुटी हुई थीं।
बैद जी ने तिवारी जी को सवालिया
निगाहों से देखा।
बुढ़ऊ पंडित ने सधी हुई वाणी में बड़कऊ
को आदेश किया कि बाबू ढुंढीसिंह के घर तुरंत जाओ और ठकुराइन से ठंडे मसाले की ताजी
रोहू मछली और एक गरमागरम फुल्का देशी घी लगा तुरंत लेकर आओ। समय बहुत कम है।
बूढ़े पंडित की आज्ञा का उल्लंघन करने
का साहस बखरी तो क्या आसपास के दस बीस कोस में किसी में नहीं था।
रात का पहला पहर ढलते न ढलते बड़की
अम्मा ने ठंडे मसाले के रसेदार रोहू के साथ एक पूरा फुल्का देशी घी लगा ओठ चाट चाट
कर खाया। आधी कटोरी गंगाजल पिया और जो सोईं कि दुबारा नहीं उठीं। बिल्कुल भोर
मणिकर्णिका घाट से लौटते किसी की समझ में नहीं आया कि आखिर बुढ़ऊ पंडित ने बड़की
अम्मा की इस क़दर नाजायज़ और धर्मविरुद्ध इच्छा का पालन क्यों करवाया।
उत्तर किसी के पास नहीं था और जिसके
पास था वह अपनी कुटिया में मौन साधे अपनी साधना में लीन था।
क्षमा
आज मैं जो कुछ भी हूं,अपर्णा
मैम की वजह से हूं।
बीए प्रीवियस की पहली ही कक्षा में
नारी मुक्ति पर उनका धाराप्रवाह व्याख्यान सुनकर एक ओर तो मैं दंग हुई और दूजी ओर
तै कर लिया कि अब तो इनकी ही तरह बनना है।
सामाजिक मनोविज्ञान की प्रोफे़सर
अपर्णा चैटर्जी कोलकाता के खांटी मार्क्सवादी परिवार से थीं। पीएचडी करते हुए
प्रोफेसर जोशी से प्रेम क्या हुआ कि अपने से दस साल बड़े
प्रोफेसर से विवाह कर लिया। महत्त्वाकांक्षी प्रोफेसर भी इनकी प्रतिभा और सौंदर्य
से अभिभूत थे।
अपर्णा मैडम का जीवन में आना डाक्टर
जोशी को बहुत फला। पीएचडी होते ही मैडम को प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज में
लेक्चररशिप मिल गई और डाक्टर जोशी का चयन एक बहुप्रतिष्ठित कंपनी में काफी ऊंचे
ओहदे पर हो गया। कंपनी की ओर से भव्य बंगला शोफर ड्रिवेन कार तथा ढेर सारे नौकर
चाकर मिले।इन दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं।
दो वर्ष के भीतर अनिंद्य कोख में आ
गया। पहले बेटे का आना और भी शुभ हुआ। डाक्टर जोशी का प्रमोशन हुआ और तबादला मुंबई
हेड आफिस में हो गया। जोशी साहब का प्रस्ताव था कि अपर्णा मैम भी लेक्चररशिप
छोड़कर उनके साथ मुंबई चलें पर बूढ़ी सास और मनचाही नौकरी छोड़ने की इच्छा नहीं
हुई।
जोशी साहब अकेले चले गए। मुंबई में
उन्हें घर बसाने की कोई दिक्कत नहीं हुई। मैडम ने हफ्ते भर का लीव लिया और जोशी
साहब की दूसरी गिरस्ती करीने से बसा दी।वीकेंड पर जोशी साहब फ्लाइट से कोलकाता आ
जाते और सोमवार की सुबह चले जाते। बिल्कुल लगा ही नहीं कि वे साथ नहीं रहते। इस
बीच तीन साल के अनिंद्य की पीठ पर सुपर्णा का जन्म हुआ और सास ने बिस्तर पकड़
लिया।
जोशी साहब एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट पर
छह महीने के लिए यूएस चले गए।जब लौटे तब मां हाथ से निकल चुकी थी।
फिर एक बार जोशी साहब ने मैम से मुंबई
चलने को कहा पर इन्हें भी अपनी सार्थकता अपने जाब में ही नज़र आई।
और फिर ज़िंदगी जैसे चल रही थी चलती
रही कि पूरे एक महीने जोशी साहब वीकेंड में घर नहीं आए।जब फोन करो तब बिज़ी।
अचानक एक रोज़ अपर्णा मैम दोनों बच्चों
को लिए बड़े दिन की छुट्टियों में बिना बताए मुंबई चली आईं।
कार्टर रोड के आलीशान फ्लैट में उन्हें
रसोइएं,मेड और चपरासी के अलावा एक सांवली सी बेहद आकर्षक,सुशील
और संभ्रांत युवती से सामना हुआ। पता चला साहब की पर्सनल सेक्रेटरी है और साथ ही
रहती है। उनके अप्वाइंटमेंट्स तथा मेल आदि की ज़िम्मेदारी निभाती है।
हल्का सा कुछ मैम को दरका तो ज़रूर पर
अपने प्रेम पर अडिग विश्वास के चलते उन्होंने नज़र अंदाज़ कर दिया। शाम को साहब आए
तो दोनों बच्चों और मैम को देखकर आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर गए। उन्होंने ही परिचय
कराया सलोनी दासगुप्ता से।अपने मिदिनापुर की है।शहर में अजनबी थी सो सर्वेंट्स
फ्लैट दे दिया है। बंगाली डिशेज़ बना देती है और घर पर रहकर आफिस के काम भी संभाल
लेती है।
हफ्ते भर में मैम और बच्चे सलोनी से
इतने हिलमिल गए जैसे बरसों की पहचान हो। न्यू ईयर मनाकर कोलकाता लौटते हुए मैम
बिल्कुल निश्चिंत थीं। आखिर सलोनी तो है ही साहब की देखभाल के लिए।
अगले ही साल मुंबई के अत्याधुनिक कालेज
में रीडर की पोस्ट निकली और अपर्णा मैम ने साहब को बताए बिना अप्लाइ कर दिया।
इंटरव्यू देने गई तब भी साहब को भनक न लगने दीं। सरप्राइज देना चाहती थीं। मुंबई
में मानसून आया ही था और मैम का अप्वाइंटमेंट लेटर आ गया। एक प्रतिष्ठित कालेज में
मन पसंद विषय पढ़ाने की उत्कंठा से अधिक साहब का वनवास समाप्त होने की खुशी लिए
बच्चों सहित जब मुंबई पहुंची तब पूरी मुंबई भीग रही थी। तब का कार्टर रोड इतना सजा
धजा नहीं था। एअरपोर्ट से टैक्सी लेकर घर पहुंची तो पता चला कि साहब और सलोनी किसी
मीटिंग के सिलसिले में लोणावला गए हैं।
सरप्राइज का जोश ठंडा पड़ गया। बच्चों
को आया को सौंप फ्रेश होकर सामान बेडरूम में
रखने गईं तो सरप्राइज की बारी मैम की थी। साहब की अलमारी में सलोनी के
कपड़े और अंडर गारमेंट्स देखकर उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। बच्चे तो खा पीकर सो
गए पर मैम ने बालकनी में गरजते सागर और बरसते बादलों को देखते पूरी रात गुज़ार दी।
दूसरे दिन उन्हें सर्विस ज्वाइन करनी थी पर मन कह रहा था कि कोलकाता लौट चलो।
दोपहर तक उधेड़बुन में पड़े रहने के बाद उन्होंने तै कर लिया कि मैदान छोड़कर तो
नहीं ही भागना है।
कालेज ज्वाइन कर लेने के बाद
प्रेसिडेंसी कॉलेज से सर्विस बुक तथा दूसरी फार्मेलिटीज़ के लिए कोलकाता जाना ही
था सो बच्चों को मुंबई छोड़कर कोलकाता लौट आईं । दो चार रोज़ में ही बैंक,कालेज
तथा दूसरी ज़िम्मेदारियों से निपट कड़े मन से मुंबई लौटी तो सुबह के आठ बज रहे थे
और साहब बच्चों के साथ खेल रहे थे।
सलोनी नाश्ता तैयार कर रही थी। बाकी
सभी अपने-अपने कामों में मसरूफ़ थे।
मैम को देखकर साहब ने खुद को संयत
रखते हुए उलाहना भरे स्वरों में पूछा कि आखिर बिना बताए और बच्चों को छोड़कर
जाने की इतनी भी जल्दी क्या थी। मैम के मुंबई आ जाने पर भी वे खुशी का ही इज़हार
कर रहे थे। पर उनकी आवाज़ में कुछ धंसा हुआ सा जान पड़ रहा था। मैम ने औपचारिकता
भर बातचीत की और साहब आफिस निकल गए। मैम ने सलोनी से कुछ नहीं कहा। पूरी तरह
नार्मल रहीं। आखिर उसका कसूर ही क्या है। छोटे शहर की असुरक्षित लड़की इस महानगरीय
महासमुद्र में तिनके का सहारा ढूंढ ही रही तो बुरा क्या है।
रात को साहब ने पूरी ईमानदारी से पूरी
दास्तान बयान कर दी कि किस तरह एक दिन सलोनी ने उनकी किस कदर रातभर जागकर
तीमारदारी की और उनके मन के किसी कोने में जगह बनाने लगी और एक रोज़ जब वे दोनों
मीटिंग के लिए गोवा गए हुए थे तब उन्हें उस प्यार का अहसास हुआ जो सिर्फ़ सलोनी के
लिए विकसित हो चुका था और तब से वे पति पत्नी की तरह रह रहे हैं। और भी बहुत कुछ
कहा था जोशी साहब ने पर मैम के दिलो-दिमाग में सिर्फ धुंध ही जमीं हुई थी।
दूसरी सुबह साहब सिंगापुर चले गए सलोनी
के साथ और महीने भर बाद लौटे। तब तक अपर्णा मैम ने कालेज के पास ही दो कमरे का
मकान किराए पर ले लिया और बच्चों को लेकर
शिफ्ट हो गई थीं।
साहब ने बहुत समझाया, माफी
मांगी पर सलोनी को छोड़ने को राज़ी नहीं हुए और मैम ने भी अपनी ज़िद नहीं छोड़ी।
अनिंद्य और सुपर्णा को ट्यूशन पढ़ाने के लिए मैम ने मुझे रखा था। रांची में मां
बाबूजी से अलग मुंबई के इस कालेज में पढ़ने का निर्णय मेरा था जिसकी कद्र बाबूजी
ने की। प्राइमरी शिक्षक बाबूजी की आर्थिक हैसियत इतनी नहीं थी कि छोटी सी आमदनी में चार प्राणियों का निर्वाह भी
हो सके और मेरी पढ़ाई भी। मैम ने ही मुझे कुछ ट्यूशन दिलवाए और मेरी लोकल गार्जियन
बनीं। एडेड कालेज होने से फीस भी कम थी और हास्टेल की सुविधा भी। किसी तरह मेरी
निभ रही थी। मैम जब मेरी ज़िंदगी में आईं तब जोशी सर उनकी ज़िंदगी से दूर जा चुके
थे। सलोनी से विवाह तो नहीं किया पर रहते वे पति पत्नी की ही तरह।
अनिंद्य एप्पल कंपनी में अमरीका चला
गया । सुपर्णा विवाह करने को राज़ी नहीं थी। उसकी एनजीओ औरतों की समस्याओं के लिए
काम कर रही थी। मैम रिटायरमेन्ट के बाद बेटी के एनजीओ में हाथ बंटाने लगी थीं। मैम
की ही मदद से मैं उसी कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गई और पूरी तरह मैम की ट्रू
कापी हो चुकी थीं। वे मेरा आदर्श थीं,मेरी गुरु मेरी सब कुछ। वे भी गर्व से
कहती थीं कि शिवानी मेरी उपलब्धि है। मेरे विवाह में भी उन्हीं की महत्त्वपूर्ण
भूमिका रही। मां बाबूजी मेरे अंतर्जातीय विवाह के सख्त खिलाफ़ थे पर मैम ने ही
उन्हें राज़ी करवाया। पिछले कितने ही बरसों से मेरा हर रविवार मैम के ही घर या
एनजीओ में बीतता है। विवाह के बाद भी। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में
प्रोफेसर व्यंकटेश नायर मेरे पति भी मैम की
मदद किया करते । साल में एक बार मैम और सुपर्णा दीदी अनिंद्य के पास अमरीका ज़रूर
जाते।
यह परिवार अपने आप में खुश और संतुष्ट
था कि अचानक एक दिन रविवार को मैं और व्यंकटेश जब मैम के घर पहुंचे तो देखा कि एक
बेहद बूढ़े से पर शालीन से व्यक्ति सिर झुकाए बैठे हैं और मैम तथा सुपर्णा में
तूफानी बहस में क्षणिक विराम सा आया था।
यह सज्जन जोशी सर थे।मैंने पहली बार
उन्हें देखा। सलोनी किसी और के साथ हमेशा के लिए आस्ट्रेलिया चली गई।अकेलेपन से
डरकर या पता नहीं क्यों जोशी सर मैम की चौखट पर लौट आए थे। मां बेटी में इस बात पर
बहस हो रही थी कि अब इस आदमी को अपनाना है या नहीं। सुपर्णा दीदी सख्त खिलाफ़ थीं।
जिस बाप ने कभी कोई खोज खबर नहीं ली उसे बाप मानने को वे तैयार न थीं।
लेकिन मैम की आंखों में नमी उनकी
कमज़ोरी की गवाही दे रही थी।
वे ज़िंदगी के आखिरी छोर पर खड़े एक
असहाय अकेले आदमी को एक आखिरी मौका देना चाहती थीं। वैसे अब उनके जीवन में इस आदमी
के लिए कोई जगह नहीं बची थी फिर भी वे थोड़ी सी जगह बनाने के लिए बेटी से लड़ रही
थीं। नारी मुक्ति और आत्मसम्मान की घोर समर्थक मैम आज मुझे कुछ अलग सी लगने लगी
थीं। ऐसा नहीं कि उनके मन में अपने पति के लिए पुनः स्नेह उमड़ रहा था फिर भी कुछ
तो ऐसा था जो उनकी कठोरता को पिघला रहा था। वह मानवता थी, स्त्रीसुलभ
कोमलता थी , दया थी या पता नहीं क्या थी पर अंततः मैम ने
बेटी के खिलाफ जाकर जोशी सर को घर में जगह दी पर दिल में नहीं दी।
परिणाम यह हुआ कि सुपर्णा दी मैम को
छोड़कर हमेशा के लिए अपनी एनजीओ को विसर्जित कर अनिंद्य के पास चली गईं और अनिंद्य
ने मैम को वाट्सैप पर मैसेज भेज दिया कि अब कभी
अमरीका आने की ज़रूरत नहीं।
मेरे भीतर भी मैम को लेकर कुछ टूट सा
गया और मेरे उनके संबंध औपचारिक हो गए। मैम अब जोशी सर का पूरा खयाल रखती हैं।
उन्हें किसी भी तरह की कमी का अहसास नहीं होने देतीं। किंतु अपने दिल के दरवाज़े
उन्होंने फिर कभी जोशी सर के लिए नहीं खोले।
यह मैम की हार थी ,जीत
थी,सफलता थी या असफलता ? मैं कभी जान न पाई।
आज सोचती हूं कि यदि इसका उल्टा हुआ
होता और अपर्णा मैम दोनों बच्चों को छोड़कर किसी और के साथ चली गई होतीं और फिर
ढलती उम्र जोशी सर की चौखट पर सिर झुकाए खड़ी रहतीं तो क्या जोशी सर मैम को घर में
जगह देते?
क्या तब तक मैम की जगह जोशी सर की
ज़िंदगी में खाली रहती या भर चुकी होती?
क्या जोशी सर भी ऐसी ही मानवता या
करुणा का परिचय देते???
सवाल
निहां सहार एअरपोर्ट पर नन्हें असग़र
को लिए बड़ी बेसब्री से इम्तियाज़ का इंतज़ार कर रही थी।
दुबई से आनेवाली फ्लाइट तीन घंटे देर
से आ रही है। रात बारह की फ्लाइट के लिए वह ग्यारह बजे ही आ गई थी। पूरे चार बरस
बाद इम्तियाज़ आ रहे थे। असग़र छह महीने का था जब कंपनी ने एक अहम प्रोजेक्ट पर
इम्तियाज़ को दुबई रवाना किया। अम्मी अब्बू सभी बेहद ख़ुश थे इस कामयाबी से। निहां
ने मन ही मन तै कर लिया था कि अब माहिम के दो कमरे के मकान में नहीं रहेगी। भले
जोगेश्वरी या मलाड ही सही वह अपना खुद का एक फ्लैट लेगी और असग़र की अच्छी परवरिश
का इंतज़ाम करेगी। आज उसे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था कि आख़िर उसने अपनी पढ़ाई
क्यूं छोड़ी। मैट्रिक में उर्दू मिडियम में डिस्टिंक्शन लाने के बाद उसने शहर के
सबसे अच्छे कालेज में साइन्स में एडमिशन अपनी मर्ज़ी से लिया था।अब्बू आर्ट्स
पढ़ाना चाहते थे। बारहवीं के प्रैक्टिकल्स पूरे हुए ही थे कि घरवालों को उसके और
इम्तियाज़ के रिश्तों की ख़बर लग गई। बड़ा भाई अरमान आग बबूला हो गया था। अब्बू
अम्मी मामू सभी सख़्त ख़िलाफ़ थे। अम्मी ने बड़े प्यार से समझाते हुए कहा था कि हम
लखनऊ के ख़ानदानी लोग हैं, हमारी ज़बान,हमारी तहज़ीब
उनसे अलग है। सिर्फ़ मज़हब एक होने से कुछ नहीं होता। तहज़ीब,ख़यालात,
ज़ुबान,अख़लाक
भी तो मायने रखते हैं कि नहीं? आख़िर पूरबी पाकिस्तान में भी तो
मुसलमान ही रहते थे पर वो अलग हो गए क्योंकि उनकी तहज़ीब अलग थी, ज़ुबान
अलग थी। और ये कोंकणी मुसलमान तो हमसे बिल्कुल जुदा हैं। और मुसलमान भी कोई शरीफ़ा
नहीं जो एकबारगी पेड़ की शाख़ पे नमूदार हो जाए।इन्सान को हर पल हर सांस मुसलमान
बनना पड़ता है।अपने ईमान को मुसलसल रखने की कोशिश करनी पड़ती है।रोज़ा,नमाज़,ज़कात,हज़
से ही मुसलमान नहीं हुआ जा सकता।हर पल ख़ुद को अल्लाह के हुज़ूर में महसूस करना और
उसकी बनाई क़ायनात की हिफ़ाज़त करना और उसकी ख़ूबसूरती को बरकरार रखना भी हमारी
ज़िम्मेदारी है। गोया अम्मी ने बेइंतहां कोशिश की लेकिन इम्तियाज़ की मुहब्बत के
आगे मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था और बारहवीं का इम्तेहान दिए बग़ैर मैंने कोर्ट
मैरिज कर ली। इम्तियाज़ एमएस सी फ़ाइनल में थे और मैं बारहवीं में। मेरे घरवालों ने
साफ़ कह दिया था कि आइन्दा मैं उनके घर में कदम रखने की सोचूं भी नहीं। असग़र के
आने के बाद भी उनका गुस्सा ठंडा नहीं पड़ा।
आख़िर पौने चार बजे सुबह अनाउंस हुआ कि
इम्तियाज़ की फ़्लाइट लैंड कर गई। आज उनकी पसंदीदा दालगोश्त और रबड़ीवाली फिरनी
बनाकर आई थी। हल्का सा मेकअप और हल्के गुलाबी सूट में वह बेहद ख़ूबसूरत लग रही
थी।असग़र तो पहचान भी नहीं पाएगा अपने अब्बू को।
भारी भरकम सामान से लदी ट्राली लिए
डेनिम जींस और सुफ़ैद शर्ट में जंच रहे थे इम्तियाज़।
और ये क्या! उनके पीछे-पीछे एक बीस
साला ख़ूबसूरत लड़की दुल्हन की पोशाक में सटी हुई चली आ रही थी। पहले तो लगा कि ये
उसका भरम है पर करीब आने पर इम्तियाज़ ने कहा कि ये महज़बीं शेख़ हैं और हमारे साथ
हैं। टैक्सी में सामान लदवाते हुए वह 'हमारे साथ' का मतलब समझने
की कोशिश करती रही। घर पहुंची तो सुबह के साढ़े पांच बज रहे थे और असग़र गोद में
ही सो चुका था। पूरा कुनबा इम्तियाज़ के इर्द-गिर्द आंखें मलते जुट गया और एक
धमाके के साथ पता चला कि मोहतरमा महज़बीं से जनाब इम्तियाज़ अली ने पिछले माह ही
निकाह कर लिया है बिना अपनी पहली बीवी निहां सैयद से पूछे या इत्तिला किए। पूरी
तरह से शरीयत के ख़िलाफ़। लेकिन उन्हें अपने किए का अफ़सोस है और वे निहां को उसका
पूरा हक़ देने और उसे अपने साथ रखने को राज़ी हैं। असग़र को भी अपनाने में उन्हें
कोई उज़्र नहीं। इम्तियाज़ के फ़ैसले पर उनके परिवार के किसी ने कोई ऐतराज़ नहीं
किया। आख़िर उनकी ही कमाई पर तो सब पल रहे थे। रात भर की जागी निहां की आंखें थकान
से कम और गुस्से से ज़ियादा जल रही थीं। उसने सोते हुए असग़र को गोद में उठाया और
रात वाला पर्स लिए शफ़ी मंज़िल की सीढ़ियां उतर रही थी तब सुबह के आठ बजे थे।
अब्बू इन्सुलिन लगाकर नाश्ते की टेबल पर बैठे ही थे कि आठ साल बाद निहां अपने
अब्बू के घर में दाखिल हुई। अब्बू ने हैरत भरी निगाहों से बस देखा भर और नाश्ता
करने लगे। मां दूध का गिलास लिए रसोईं की दहलीज़ पर खड़ी थी। शबनम कालेज जा चुकी
थी। बड़ी भाभी अपने देवर को दवा खिलाने की कोशिश कर कर रही थी। चार साल पहले
सिकंदर ने एक बंगाली लड़की की मुहब्बत में पढ़ाई लिखाई छोड़ दी और निकाह पढ़वाकर
अपने घर ले आया। साल भर में प्यारा सा समर पैदा हुआ और जूही भाभी किसी को बिना कुछ
बताए समर को लेकर पता नहीं कहां चली गई। बड़ी खोज-खबर ली गई पर कुछ भी पता न चला।
सिकंदर इस सदमे से उबर नहीं पाया और पागल हो गया। डाक्टर शास्त्री उसका इलाज कर
रहे हैं पर अब तक कोई उम्मीद नज़र नहीं आई। बड़े भैया नज़ीर गवर्नमेंट कालेज में
लेक्चरार हैं और उन्हीं की कमाई पर पूरा घर पल रहा है।ट्यूशन से भी थोड़ी आमदनी हो
ही जाती है। अब्बू उर्दू और अरबी घर पर ही सिखाते हैं। अम्मी भी आस पड़ोस की
लड़कियों बहुओं को क़ुरान शरीफ़ पढ़ना सिखाती है और घर किसी तरह चल रहा है।
घर का कोई भी इम्तियाज़ के घर जाकर बात
करने को राज़ी न हुआ। निहां भी नहीं चाहती थी। उसने साफ़ कह दिया कि अब वह उस घर
नहीं जाएगी। घरवालों को लगा कि जब गुस्सा ठंडा पड़ जाएगा तब यह अपने आप चली जाएगी। आख़िर बेटी कब तक मायके में रह सकती
है?
बारहवीं के प्राइवेट फार्म भरे जा चुके
थे पर बोर्ड आफिस में हाथ पैर जोड़कर निहां ने अपना फार्म भरवा ही लिया और परीक्षा
की तैयारी शुरू कर दी। बड़ी भाभी तबस्सुम ने सीढ़ियों के नीचे पांच बाइ सात में
उसकी और असग़र की गिरस्ती बड़े प्यार से बसा दी। निहां की मैथ्स बहुत अच्छी थी सो
उसने दसवीं की लड़कियों को पड़ोस की खाला के घर कोचिंग देना शुरू कर दिया। खाला
फीस का आधा लेती थीं। बारहवीं में भी निहां को डिस्टिंक्शन मिला और बी एससी में
स्कालरशिप भी मिली। ट्यूशन और स्कालरशिप के बल पर निहां ने फर्स्ट क्लास में एम
एससी मैथमेटिक्स में पास की और उसी साल नेट की परीक्षा भी पास करके नज़ीर भाई की
मदद से टेंपरेरी लेक्चरार हो गई।
उधर इम्तियाज़ की दुल्हन ने तीन
लड़कियों और एक लड़के को जन्म दिया। इम्तियाज़ ने निहां को तलाक नहीं दिया और
निहां ने भी कोई केस नहीं किया। असग़र के नाम के साथ वह इम्तियाज़ का ही नाम लगाती
है जिससे जब असग़र अठारह साल का हो जाए तो इम्तियाज़ की प्रापर्टी में वह बेटे को
हक़ दिला सके। हाई डायबिटीज और ब्लड प्रेशर लिए निहां बेटे को इंजीनियर बना रही है
और नज़ीर भाई की ज़िम्मेदारी को जितना हो सकता है हल्का करने की कोशिश करती है।
इम्तियाज़ ने कई बार चाहा कि निहां उसके बड़े घर में आकर महज़बीं के साथ ही बड़ी
बहन की तरह रहे और पूरे घर की ज़िम्मेदारी
संभाले पर निहां नहीं मानी तो नहीं मानी।
उसका सिर्फ़ एक सवाल था कि इम्तियाज ने
उसकी मुहब्बत और उसके यकीन को रुसवा क्यों किया ? जिस मुहब्बत के
लिए उसने अपने खानदान की नाराज़गी मोल ली उसे नीलाम करते हुए सिर्फ एक बार उससे
पूछा क्यूं नहीं?
इम्तियाज़ के पास इन सवालों का फ़िलहाल
कोई जवाब नहीं।
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डॉ हूबनाथ पाण्डेय की लघुकथाओं की पहली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए
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डॉ हूबनाथ पाण्डेय की लघुकथाओं की पहली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए
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एक एक कथा चिंतन की ओर इंगित करती है
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