राजाराम भादू
जयपुर-दिल्ली
राष्ट्रीय राजमार्ग पर जयपुर से दिल्ली की ओर थोड़ा दूर चलते ही एक कस्बा है-
मनोहरपुर। इसी कस्बे में कवि कैलाश मनहर रहते हैं। जयपुर की लेखक-मंडली में कैलाश
को अलग दिखाने वाली सिर्फ दो चीज़ें हैं- एक तो उनका सादा लिबास और दूसरा खांटीपन-
जो उन्हें सबसे आत्मीय और अंतरंगता से घुले-मिले होने पर भी अलगाता है। आयोजन के
बाद,
जब सब लोग
बिछडऩे लगते हैं तो कोई मानसरोवर, प्रतापनगर या विद्याधर नगर जाता है,
कैलाश की मंजि़ल
मनोहरपुर ही होती है। ये कैलाश को जानने वाले ही जानते हैं कि अपनी सादगी और सहजता
में साधारण-सा नज़र आने वाला यह शख़्स अपनी धारणाओं के प्रति कितना दृढ़ और
स्वाभिमानी है।
मेरी प्रगतिशील
लेखक संघ में सक्रियता और आलोचना लिखने का सिलसिला एक साथ शुरू हुआ और काफ़ी समय
तक साथ चला। आठवें दशक का कोई साल था, जब जयपुर में पहली बार जिला इकाई का गठन किया
जा रहा था। उसके आयोजन में राजस्थान की युवा कविता पर एक गोष्ठी और उसके बाद जयपुर
इकाई की कार्यकारिणी घोषित होनी थी। मैं गोष्ठी में मुख्य वक्ता था। चूंकि कैलाश
मनहर से मेरा कोई परिचय नहीं था, उन्हें पढ़ा भी नहीं था,
तो मैंने उनका
नामोल्लेख नहीं किया। चर्चा में कैलाश ने जिस भावुकता से अपनी अनदेखी पर रोष और
क्षोभ व्यक्त किया, उसने मुझे हिला दिया। मैंने चाचा बी. पी.
सारस्वत से कैलाश के बारे में पूछा तो उनकी प्रतिबद्धता व सदाशयता की जानकारी मिली,
जो बाकी मित्रों
की राय जुड़कर लगातार बढ़ती रही। आयोजन के बाद मैंने कैलाश से बात की,
लेकिन वे
सामान्य नहीं हो पाये।
लेकिन मैंने उनसे संपर्क-संवाद बनाये रखा और
अंतत: उनका भरोसा हासिल करने में सफल रहा। मुझे लग गया कि इस शख़्स में कुछ खास है,
किन्तु उनके
पहले संकलन 'कविता की सहयात्रा में" ने मुझे निराश किया। उस समय की गोष्ठियों-प्रकाशनों
की कविताओं ने भी आश्वस्त नहीं किया। एक अर्से बाद, जब मुझे उनके
दूसरे संकलन 'सूखी नदी" की पांडुलिपि
मिली,
तो मैं चकित रह
गया। संकलन एक काव्य शृंखला है, जो एक सूखी नदी पर आधारित है। जब यह छपकर आया
तो इसने और लोगों को भी चौंकाया।
प्रबंध काव्यों
की पारंपरिक संरचना को विखंडित करते हुए लम्बी कविताओं या शृंखलाबद्ध कविताओं के
रूप में जो नयी सर्जना शैली सामने आयी थी, उसने जल्दी ही अपनी पहचान बना ली थी। सूखी
नदी से सहसा सर्वेश्वर की कुआनो नदी की याद आती थी। इसमें जिस तरह शृंखलाबद्ध
कविताएँ हैं, वैसी राजस्थान में भी नंदकिशोर आचार्य के 'वह एक समुद्र
था"
संकलन में हैं।
सवाईसिंह शेखावत का एक समूचा संकलन मृतक शृंखला कविताओं पर हंै। कैलाश के संकलन
में नदी है, जो अब सूख गयी है।
साथ ही नदी एक
काव्य-रूपक है। ये मनुष्य की अंत: सलिला के सूखते जाने की चिन्ता की अभिव्यक्ति
है। कविता में मानवीय संवेदना व अनुभूतियों का वर्णन और चिन्तन इस तरह
अन्तव्र्याप्त है कि पूरा संकलन एक आवयविक संरचना प्रतीत होता है। सूखी नदी का
अपने प्राकृतिक परिवेश से साहचर्य है, तो मानवीय परिवेश से द्वन्द्व है। यह
द्वन्द्व खुद मनुष्य की बाह्य और आभ्यंतर दुनिया के द्वन्द्व की समानांतरता हासिल
कर लेता है। यह एक ऐसी रचना है, जिसमें यथार्थ और अमूर्तन,
आत्मसंघर्ष और
सामाजिक अन्तर्विरोध तथा संवेदना अपनी जटिलता के साथ प्रस्तुत हुए हैं। यह रचना
विषय. वस्तु और अभिव्यक्ति. विधान के सर्जनात्मक संघर्ष से और प्रभावी होकर उभरी
है। यहाँ प्रसंगवश उल्लेख है कि बाद में मुझे सूखी नदी की पृष्ठभूमि पर ही विनोद
पदरज की एक लगभग समान भावभूमि की कविता पढऩे को मिली,
हालाँकि पदरज का
तो अंदाज़े-बयां ही और है।
सूखी नदी के बाद
कैलाश का काफी दिनों तक कुछ नया सामने नहीं आया। एकाध जगह बहसों में उनका
हस्तक्षेप जरूर देखने को मिला। समसामयिक मुद्दों पर कैलाश अक्सर संयत और गंभीर
प्रतिक्रिया करते रहे हैं। नवभारत टाइम्स के 'आठवां कॉलम' और जनसत्ता के 'दुनिया मेरे आगे'
स्तंभों में
हमने उन्हें पढ़ा है। हमने 'मीमांसा' पत्रिका शुरू की तो इस पर कैलाश का आत्मीय खत
मिला। उसके साथ उसने अपनी दो कविताएँ भेजीं। मुझे पहली बार में कविताओं ने
प्रभावित नहीं किया, मैंने कैलाश को लिख भी दिया कि इन्हें नहीं
छाप रहे हैं। किन्तु बाद में मुझे कुछ खास बिम्ब, ध्वनियों और
अनुगूँजों ने हॉन्ट करना शुरू किया। मैं याद नहीं कर पा रहा था कि ऐसा मैंने कहाँ
देखा है या ये ध्वनि मैंने कहाँ सुनी है। इस बीच कैलाश का उन्हीं कविताओं के बारे
में एक खत मिला, जिसे मैंने ठीक से बिना पढ़े मीमांसा की फाइल
में रख दिया। जब मीमांसा के अंक को तैयार करने लगे तो मैंने वह खत ठीक से पढ़ा।
फिर वह कविता निकाल कर फिर से पढऩे लगा ताकि उसे अच्छे से जवाब लिख सकूँ,
लेकिन कविता
पढ़ते ही मुझे लगा कि यही तो वे बिम्ब और ध्वनियाँ हैं,
जो इतने दिनों
से मेरा पीछा कर रहे हैं। ये तो अलग ही तरह की कविता है। ये हमारे बीहड़ और
अनुर्वर होते अंचल में उम्मीद की टोह ले रही है।
पहले कैलाश ने
इस कविता के संदर्भ में क्या लिखा, वह देखें-
मीमांसा कुछ ऐसे
समय में प्राप्त हुई, जब मैं संस्कृति-सभ्यता,
लोक-संस्कृति
तथा संस्कृत और संस्कार के सामाजिक पदों, सहचर प्रकृति और शब्द की व्युत्पत्ति और
उद्भव आदि-आदि उलझाऊ अव्ययों-प्रत्ययों में अनावश्यक खोया हुआ था। अकेलेपन से घिरे
हुए और व्यर्थ के चिंता-चिंतन में निठल्लेपन से जूझते हुए एक दिन
अजबगढ़-भानगढ़-टहलाबास (थानागाजी-अलवर से दौसा सड़क मार्ग पर) निकल पड़ा,
तो इस अवसाद-पाश
से कुछ मुक्त हो पाया। अवसाद-मुक्तिके इन प्रयत्नों और स्मृतियों के सूत्र सुलझाने
की इस प्रक्रिया के बीच दो कविताएँ अनायास (हाँ, वाकई) बन गयीं।
मेरे शब्दों पर
शंका करते हुए भी, प्लीज विश्वास करने की कोशिश कीजिये कि ये
कविताएँ लगभग स्वत: स्फूर्त हैं। मुझे लगा कि मीमांसा द्वारा संस्कृति में नया
विमर्श प्रारंभ करने में ये कविता भी शायद कुछ कर सकती हैं। इसी उम्मीद में ये
दोनों कविताएँ- नीलकंठ के जोगी और झिलमिल दह पर भेजी हैं।
इधर मेरी कमजोरी
यह बनती जा रही है कि पढऩा कम-सोचना ज़्यादा के शून्य पथ पर ठिकाना तलाशने में चल
रहा हूँ,
यदि सही रास्ता
और ठिकाना तलाशने के लिए लौट सका अथवा मुड़ सका तो कुछ और नया भी कर पाऊंगा। पता
नहीं यह हीनता बोध, इससे उपजा भय, यह झिझक और
अवसाद-ग्रस्तता कहाँ ले जाकर छोड़ेगी।
बहरहाल,
कविताएँ
प्रस्तुत हैं। इधर हंस, बया, पाखी आदि में भी कविताएँ थीं।
मीमांसा (मार्च,
2009) में वे कविताएँ
छपीं। और ये पत्र भी साथ में छापा। फिर मनहर से नियमित संवाद शुरू हो गया। इन
कविताओं को लोगों का बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला। मनहर की दो और कविताएँ इसी प्रकृति
और प्राकार की हैं- अरे भानगढ़ और लोहार्गल पर। उन्हीं दिनों मनहर ने अपने अवसाद
में होने और उस दौरान कविताएँ लिखने का जि़क्र किया। अवसाद-पक्ष शीर्षक से
उन्होंने इनकी बाकायदा एक पुस्तिका छपा ली थी। ये अलहदा कविताएँ हैं और आपके भीतर
उतर जाती हैं। मुझे याद आता है, इन कविताओं पर मैंने उन्हें पत्र भी लिखा था।
इनमें एक कविता यह है-
किसी अँधेरे
कमरे के
सीलन भरे कोने
की
ठंडी दीवार से
बात करते हुए
जो स्त्री रो
रही है
क्या आप उसके
बारे में जानते हैं?
जो उसके बारे
में नहीं जानता
वह अपनी माँ के
बारे में क्या जानता है?
और पत्नी के
बारे में तो बिलकुल नहीं।
वह कदाचित ही
जानता है अपनी
बहिन और बेटी के
बारे में भी
जो एकांत में
बिलखती स्त्री के बारे में
पूरी तरह नहीं
जानता,
वह धरती के बारे
में क्या जानता है?
सारे संसार की
स्त्रियों का
प्रतिरूप है यह
धरती।
बाद में मुझे
पता चला कि कैलाश की माँ ने अवसाद के चलते जलकर आत्महत्या कर ली थी। और यह त्रासदी
उनके चेतन-अवचेतन को उन दिनों तक निरंतर त्रस्त कर रही थी। अपने आत्मकथ्य में
उन्होंने इस घटना का विवरण इस प्रकार दिया है: ओह! यह जो राग परभाती और विहानिया
गीत गाती हुई, चाकी के ऊपरी पाट को हाथली पकड़ कर घुमाती
हुई,
पीले फूलों वाली
(आश्चर्य कि श्वेत-श्याम चित्र में भी उसकी रंगत पुनर्जीवित हो उठी है।) साड़ी
पहने,
गौर वर्ण प्रौढ़
स्त्री है, यह तो शायद माँ है। और इसकी गोद के गुनगुनेपन
में तंद्रायित, अधसोया-अधजागा ऊगन्तों उजास वरणों,
आथणतो सिंदूर
वरणो,
नेम-धरम संसार
की विहान-गीत की लयात्मक संगत के साथ चल रहे चाकी की घर्रर्र के सुरभित स्वर और
दोनों पाटों के सिरों से रिसते हुए चून की मादक गंध के आनंद में निमग्न माँ शीर्षक
वाली स्त्री की भरी-भरी छातियों में यदा-कदा
हाथ-पाँव मारता हुआ यह, जो डेढ़-दो साल का बालक है,
यह तो शायद
तुम्हीं हो कैलाश।.... इसी गौर-वर्ण, गुलाबी आभा वाली माँ नामक स्नेहिल स्त्री को
मैंने अपनी उम्र के इकत्तीसवें शरद में प्रवेश करते हुए जंगल में जले हुए पेड़ की
तरह उठाकर पड़ोसियों की मदद से श्मशान तक पहुँचाया था और शायद उन्हीं दिनों अपने
आपसे बात करते हुए कहा था-
तीस वर्षों
पूर्व
मैं जिन अँधेरों
में था
उनमें प्रकाश तो
हुआ
लेकिन आग बनकर
आग का अर्थ आँसू
आग का अर्थ
प्रकाश
और आग का अर्थ
जीवन
मैंने पहली बार
जाना।
हम लोग मीमांसा
में रचनाकार के व्यक्तित्व पर भी लेख छाप रहे थे। एक दिन बातों-बातों में कैलाश को
कथाकार सत्यनारायण पर लिखने के लिए राजी कर लिया। इस लेख पर मिली प्रतिक्रियाओं से
उत्साहित होकर कैलाश ने ईशमधु तलवार पर लिखने का प्रस्ताव किया और यह सिलसिला
अंतत: खुद कैलाश के आत्मकथ्य (मीमांसा, मार्च 2017, लेख में सभी
उद्धरण इसी से हैं) पर जाकर खत्म हुआ। मुझे लगता है, दूसरों के भीतर
झांकने के साथ-साथ कैलाश अपने भी भीतर झांकते रहे और इस आत्मावलोकन से वे
निद्र्वंद्व होते गये। इन आलेखों को उनकी कविता से कहीं ज़्यादा ख्याति मिली,
जो बाद में 'मेरे सहचर मेरे
मित्र'
में पुस्तकाकार
छपे। इससे उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता में इज़ाफा हुआ और आत्मविश्वास बढ़ा।
आत्मकथ्य में वे स्वीकार करते हैं- अनेकानेक तरह के विरोधाभासों से घिरे रहते हुए,
बेवजह के डरों
से डरते हुए और किसी भी सामान्य दुनियादार व्यक्ति की तरह ईष्र्या और द्वेष की आँच
में सुलगते हुए भी मैंने खुदगर्जी और अहंकार की खरपतवार को अपनी मनोभूमि पर नहीं
पनपने दिया है।
अपने साक्षी-भाव
में कैलाश की रचना-यात्रा को मैं तीन चरणों में देखता हूँ। उन्होंने कविता की
दीक्षा गीत-$गज़लों से ली। लेकिन उस दौर ने छंदमुक्ति के हो-हल्ले से गीति-काव्य को नेपथ्य
में धकेल दिया था। कैलाश आरंभिक कोशिशों के बाद सूखी नदी तक आते हैं। सूखी नदी
संकलन की संरचना और विन्यास काफी हद तक पारंपरिक है। वहाँ नवीनता कवि की दृष्टि और
संवेदना में है। यह उनकी कविता का पहला पड़ाव है। दूसरे चरण में फिर वे मुख्यधारा कविता
से संगत बिठाने लगते हैं और का$फी हद तक सफल भी होते हैं। उन्होंने बताया ही
है कि उनकी कविताएँ किन पत्रिकाओं में छपी हैं, आप देख सकते हैं कि ये मुख्यधारा की
पत्रिकाएँ हैं। उदास आँखों में उम्मीद संकलन वाली कविताएँ लिखी जा चुकी हैं। लेकिन
कैलाश उस समय में दोनों स्तरों पर- वैयक्तिक और रचनात्मक जद्दोजहद कर रहे हैं। वे
छंद विहीन कविता की अपनी ही खास रूढि़ में सुकून नहीं पा रहे। उनकी अवसाद वाली
कविताएँ इसी समय की हैं और तभी वे गीत-गज़लों में कृष्ण कल्पित और अजंता के साथ
सृजनात्मक जुगलबंदी कर रहे हैं।
नीलकंठ के जोगी
और उस तरह की अन्य कविताओं से कैलाश की सर्जना का तीसरा चरण आरम्भ होता है,
जो आज तक
विस्तारित है। नीलकण्ठ... मनहर का मुक्ति-प्रसंग है, जिसमें वे अपनी
प्रकृति और सोच के अनुरूप अभिव्यक्ति पा लेते हैं। आगे हमने इसी परिप्रेक्ष्य में
उनके संकलनों का संक्षिप्त-सा आकलन किया है।
कैलाश ने अपने
संकलन 'उदास आँखों में
उम्मीद'
की पाण्डुलिपि
मुझे ब्लर्ब लिखने के लिए दी। कविताएँ एक नये कैलाश से परिचय करा रही थीं,
जो समकालीन
कविता की मुख्यधारा से स्वर मिला रहा था। मैंने यही लिखा भी,
समकालीन कविता
के प्रमुख कवियों के बारे में जो बातें प्राय: कही जाती हैं,
वे कैलाश मनहर
के कवि और कविता पर भी उपयुक्त बैठती हैं। मसलन, वे ज़मीन से
जुड़े कवि हैं। उनकी कविता जीवन के राग-विराग की कविता है अथवा वे मनुष्य के
पक्षधर कवि हैं।
इसी भाँति कैलाश
मनहर की कविता की अन्तर्वस्तु भी मुख्यधारा की कविता से स्थूल रूप में तो विलग
नहीं दिखती। वहाँ जनसामान्य का हाशियाकरण, कथित विकास से विस्थापित जीवन और चहुँमुखी
मूल्य-क्षरण जैसे सामयिक विषय आपको मिलते हैं। ग्रामीण और शहराती का कोई साफ
विभाजन भी वहाँ नहीं है। निश्चय ही ये विषय वर्तमान के ज्वलंत विषय हैं और कविता
के जरिये इनके प्रभाव जीवन पर परिलक्षित हुए हैं। तथापि मनहर की कविता इससे भी कुछ
ज़्यादा और कुछ खास है। इन कविताओं से एक पाठक की तरह गुजरने के बाद आप वह नहीं
रहते,
जैसे पहले थे।
हालाँकि इससे आये बदलाव और प्रभाव की अन्विति आसान नहीं है। आसान तो इन कविताओं का
निहितार्थ भी नहीं है, जोकि प्रकटत: ऐसा लगता है। ये कविताएँ आपसे
विशेष संलग्नता और सहयात्रा की मांग करती हैं और बदले में कुछ भिन्न अनुभवों और
अनचीन्हे एहसासों से समृद्ध करती हैं। कविताओं की भाषा कहीं भी एकायामी नहीं है,
लेकिन जल्दी ही
आप इसकी गूँज-अनुगूँजों के ध्वन्यार्थ समझने लगते हैं। वहाँ हताशा का बीहड़ जीवन
है,
दुधुर्ष संघर्ष
है,
तो साथ ही
उज्ज्वल जिजीविषा है। इस अनुभूति को अपने उसी आत्मकथ्य में कैलाश ने बयान किया है:
सभ्यता के नाम पर इस सुंदर सृष्टि को तबाह कर रहे उस अदृश्य आखेटक को कदाचित
आँसुओं की भाषा पर कतई विश्वास नहीं है।और मैं भी इस छल-युद्ध में बार-बार पराजित
होते हुए सि$र्फ आँसू ही बहा सकता हूँ, क्योंकि मेरे पास तो-
सिर्फ आँसू हैं
और कुछ भी नहीं
आँखों में
छलकेंगे,
टपकेंगे,
सूख जायेंगे।
यह कहना भी शायद
दोहराव ही लगे कि इन कविताओं में कवि का आत्मसंघर्ष भी है। इसमें भी जोडऩा जरूरी
है कि यह आत्मसंघर्ष कहीं अलहदा नहीं है, सृजन में एकमेक है,
कवि-कर्म से
अविभाज्य है यदि वह संघर्ष क्षेत्र में अपनों के बीच वैसा ही जीवन जीता है। किनारे
से गुजरते और फैलते मेगा हाइवे ने कैलाश के गाँव के जीवन को बदल दिया है। विकास का
यह चक्र हाशिये के व्यक्ति, परिवेश और उसकी भीतरी दुनिया को कैसे बदल रहा
है,
कैलाश की कविता
इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए उसे जीवन की नियति के प्रश्नों से संबद्ध करती है।
अरे भानगढ़ तथा
अन्य कविताएँ संकलन के ब्लर्ब की टिप्पणी में उन्हें पिछले संकलन से अलगाते हुए
मैंने लिखा था- वे अक्सर अपनी कविताओं में मनुष्य की आभ्यन्तर दुनिया के
कोने-अतरों की टोह लेते रहे हैं। कलाओं में इस दुनिया के रहस्यों के प्रति
जबर्दस्त आकर्षण रहा है। इस दिशा में कैलाश की सृजन-यात्रा ने आश्वस्तकारी संधान किया
है। इन कविताओं में कैलाश बाह्य-जगत का पर्यावलोकन कर रहे हैं। ये कविताएँ
अपेक्षाकृत लम्बी और विवरणात्मक हैं। एक अर्थ में यथार्थवादी लगती इन कविताओं में
गद्य का अतिक्रमण एक बड़ी चुनौती था, कैलाश ने इसका सक्षम निर्वहन किया है। वहाँ
काव्यार्थ बहुपर्ती और अन्तक्र्रियात्मक है। इनमें कोई सतही संदेश या बडबोलापन
नहीं है।
जब कविता देश
(परिवेश) से मुखामुखम है, तो भला काल से कैसे निरपेक्ष रह सकती है।
वर्तमान समय को प्राय: नृशंस और संक्रमणशील कहा जा रहा है। कैलाश मनहर भी समय को
जटिल और क्रूर मान रहे हैं, जिसके समक्ष सामान्य जन पराजित और हाशियाकृत
हो रहा है। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि कवि का स्वर हताशा और अवसाद से भरा है।
वहाँ एक सात्विक गुस्सा भी तारी है। कविताएँ हमें तात्कालिक उत्तेजना देने के
वनिस्पत: उद्वेलित करती हैं।
यहीं कैलाश मनहर
अपने समकालीनों में अलग दिखायी देते हैं। उनका मानवीय गरिमा,
सामाजिक
उत्तरदायित्व और अंत:शक्ति में जो भरोसा है, वह विकासगत परिवर्तनों में व्याप्त क्षरण को
भी विश्लेषित करता चलता है। यहाँ कवि उन सबके साथ शामिल हैं,
जो जिजीविषा और
संघर्ष के मानवीय गुणों के साथ जीवन की मूल्यवान भावनाओं से सन्नद्ध हैं और किसी
हद तक निद्र्वंद्व भी।
इधर कैलाश कविता
की कई विधा व रूपों में सक्रिय हैं। उनकी $गज़लों का भी एक संकलन आ गया है। मुरारी
चरित्र को लेकर वे तीखी व्यंग्य गाथा कहे जा रहे हैं। गीत-गज़ल के साथ सानेट में
प्रयोग कर रहे हैं। एक असमाप्त वाक्य और मध्यरात्रि का प्रलाप जैसे रचनात्मक
नवाचार हैं। मध्यरात्रि का प्रलाप कैलाश की काव्य-सर्जना का एक और आयाम है। इसकी
कैफियत उन्होंने बयान की है, कभी गालिब ने भी की थी,
नींद क्यों
रातभर नहीं आती।
बहरहाल,
यहाँ कवि की चिन्ता
और उद्विग्नता वैयक्तिक नहीं है, वह व्यापक है। यही चीज़ कवि को उदात्त ज़मीन
प्रदान करती है। कबीर ने कहा है- सुखिया सब संसार है,
खाबै और सोबैय
दुखिया दास कबीर है, जागै और रोबै।
यूरोप में
दास-प्रथा के संदर्भ में एक सवाल उठा था कि यह इतने लंबे समय तक क्यों चली। इसका
जवाब भी लंबे समय में जाकर ही मिला कि उन्हें अपने दासत्व का बोध ही नहीं था।
हमारे यहाँ दलितों के संदर्भ में प्राय: कहा जाता है कि वे पहले प्रेम से रहते थे
और कहने पर भी खाट पर नहीं बैठते थे, इत्यादि। जब उत्पीडि़त को अपनी अधीनस्थता
अथवा शोषण का बोध होता है, तो वर्चस्व के विरुद्ध द्वंद्व और संघर्ष
उत्पन्न होता है। चैतन्य व्यक्ति को उत्प्रेरित और सक्रिय करता है। एक शायर,
मूल नाम भूल रहा
हूँ- की पंक्ति है- 'जागते और सोचते साँसों का इक दरिया हूँ मैं।
मुझे लगता है, मनहर जागते और सोचते इन कविताओं को रच रहे
हैं,
ये एक उत्तप्त
आत्मा का संताप है, प्रलाप नहीं।
मध्यरात्रि के
इस सृजन की रंगतें हैं। गंभीर, सान्द्र, गीतिपरक, उद्बाोध और सूफियाना।
यही कवि का ऐश्वर्य है,
जो इन कविताओं
में प्रकट हुआ है। और त्रिलोचन के सानेटों की याद दिलाती ये पंक्तियाँ- 'जिस धरती का कवि
हूँ,
उसे प्यार करता
हूँ/ जन-साधारण के हित में, जीता-मरता हूँ। ऐसी ही एक और पंक्ति है- 'प्रेमाश्रु का
बीज हूँ शायद, स्मृति-धरा में बोया हूँ मैं। तभी तो कड़ाके
की ठंड में अधनंगे ठिठुरते व्यक्ति का ख्य़ाल कवि की नींद उचाट जाता है। ऐसी ही एक
शीत मध्यरात्रि में आग तापते कवि कहता है- 'इसी आग और जाग में छुपी है तड़कती हुई
सुबह।इसी तरह एक पद का अंत है- 'मुश्किल में मनहर जी हैं अब,
रोयें या गायें।'
कैलाश ने अपने
आत्मकथ्य में भी कहा था- 'मैं अपने परम पूर्वज कबीर की जागै और रोवै
वाली स्थितियों से थोड़ा-सा अलहदा रहते हुए भी अपनी आँखें खुली रखने का प्रयत्न
करता हूँ। इस समय के अन्तर्विरोध कवि के सामने और स्पष्ट हुए हैं,
जिसमें वह
साहित्य-समाज के छद्मों को देख पा रहा है। साथ ही सत्ता के भक्तों को देखकर कहता
है- समर्पण भक्ति थी या दासत्व, उन्हें पता नहीं था।
इन कविताओं की
विविधता और प्रयोगशीलता पाठ को रोचक बनाती है। आप कवि की संवेदना और संवाद से
आत्मीय तादात्म्य बिठा लेते हैं, तब आपके लिए कवि के सात्विक क्रोध,
मासूम हताशा और
अहर्निश व्यग्रता के मायने बदल जाते हैं।
हिन्दी साहित्य
के आज के दौर में ये कैसी विडंबना घटित हुई है कि जब फासीवाद नहीं था,
तो उसके विरुद्ध
तीव्र प्रतिवाद और फूत्कारें थीं। अब जबकि यह हमारे जीवन के अधिकांश पर तारी हो
चुका है,
प्रतिरोध की
आवाजें क्षीण और विरल होती गयी हैं। कविता में देखें तो हमारे कई प्रतिनिधि
जन-कवियों की मुद्राओं में भी पहले जैसा आक्रोश व आवेग नहीं रहा है। युवा कवि
एंग्री यंग मैन की छवि को स्टीरियो टाइप और राजनीतिक कविता के चिर-परिचित तेवर को
अक्सर रेह्टरिक मानकर उससे सचेत दूरी बनाकर चलते हैं।
ऐसे समय में
कैलाश मनहर एक फायर ब्रांड कवि के रूप में उभरे हैं। उन्होंने न केवल शत्रु को
सर्वनाम-संकेतों से बाहर लाकर उसकी सही शिनाख्त से पुकारा है। साथ ही,
जन-कविता की
तमाम पारंपरिक धाराओं से सत्व ग्रहण कर अपनी कविता को ऊर्जस्व और धारदार बनाया है।
कैलाश ने हिन्दी कविता के बिखर चुके पाठक-श्रोता वर्ग को पुन: आकर्षित करते हुए
क्रमश स्फूर्त, सचेत और उद्वेलित करने की प्रक्रिया को गति
दी है। स्वाभाविक है, लोगों ने उन्हें जनकवि के संबोधन से अभिहित
किया है और अपने इलाके में हरीश भादानी के वारिस की तरह देखा जा रहा है।
कैलाश ने कविता
के परिसर में आने के बाद कहा था- 'सच कहता हूँ मित्रो! कि अतीत की मोहक प्रतीति
से टूटन की आह को भविष्य के दायित्वपूर्ण लगाव की वाह में बदलने के हितार्थ स्वयं
के जीवन को कविता के आश्रय स्थल पर ले आने का चुनाव, मेरे लिए घाटे
का सौदा तो नहीं ही रहा और प्राय: तो ऐसा लगा कि जैसे यहाँ आकर ही मैं इस जीवन के
वास्तविक निहितार्थों से भी साक्षात हुआ।... कैलाश की सृजन यात्रा उरूज पर है।
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राजाराम भादू
संपर्क : ईमेल- rajar.bhadu@gmail.com
मोबा.9828169277
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