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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

23 अप्रैल, 2020

कहानी


          प्रीत वाली पायल बजी

         
कुसुम लता पाण्डेय
    
        मिट्टी से लिसड़ा प्रेम का नन्हा अंकुरपहली दो पत्तियां निकलीं. एकदम तनी पत्तियां. पौधा बन फलने फूलने को उतावली. एकदम चटक हरियाली ने समूचा कोना ढक लिया. मेरे भीतर स्मृति की अंधेरी नदी में अनगिनत दिये थरथरा उठे. वह लहरों पर तैरते कुछ इस तरह आकार लेने लगे कि संजू नाम लिख गया. फूलों से नहाए वे दिन. मैं पीछे मुड़ा और उन दिनों को देखने लगा.

          संजू को पहली बार अपने घर के सामने से गुजरते देखा. अमलतासी रंग का चूड़ीदार पायजामा. कढाई वाली लाल कुर्ती. स्कार्फ से ढका हुआ चेहरा. उन दो बोलती आंखों से बड़ी पुरानी पहचान महसूस हुई. शाम होतीमैं सड़क से गुजरते लोगों मे वह बोलती आंखें ढूंढने लगा. अगर किसी दिन गाड़ी रिक्शा की आड़ की वजह से दीदारे-यार वाली सूरत नहीं बनती. एक अनमनापन मुझमें उसे न देखने तक फैल जाता. जिस दिन देख लेता मैं, खुद को बडभागी मान बैठता.

               जाने कितने दिनों के बाद उगता हुआ सूरज देखा. भोर का नर्म उजाला ओंस के फूलों पर तितली की तरह मंडराने लगा. संजू आती दिखाई दी. अब हर सुबह उगता हुआ सूरज देखना है. मैंने निश्चय कर लिया. अगर प्रेम वर्ग-पहेली हैं तो उसकी पेंचीदगियों मे मैं उलझता गया. जिसे हल करने में हार कर शागिर्द बना अपने दोस्त पियूष का. हम दोस्तों की मंडली उसे जेम्स बांड007 कहती. संजू के हिस्से में परिवार का इतना ही दुलार आयाघर के पिछले हिस्से तक जितनी रोशनी जाती है. सुनी तो संवेदनाएं गझिन हो गई.

              वह प्रो.विकास की देखभाल करने लगी हैं. मालूम पड़ने पर लगाकारू का खजाना मिल गया. सेवानिवृत्त प्रो.सर के दो मंजिला घर में यदि उनके साथ कोई रहता है तो वह अकेलापन हैं. बच्चे सेटेल हो चुके हैं. पत्नी को किसी बीमारी ने असमय छीन लियापरन्तु उन्होंने अपनी व्यस्तता का पूरा इन्तजाम कर रखा है. घर के एक कमरे में लाइब्रेरी, जिसमें साहित्य और दर्शन से जुड़ी किताबों का शानदार संग्रह है. वह पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना और समीक्षाएं लिखा करते हैं. इतनी व्यस्तता में समय पर दवाई के अलावा कई अन्य ज़रूरी काम छूट जाते. अखबार में विज्ञापन निकलवाया और जब संजू ने सम्पर्क किया, उसे रख लिया. वह आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे किताबें तो पढ़ लेते, टेढे-मेढे अक्षरों में लिखना भी हो जाता परन्तु गर्दन में दर्द के कारण टाइप नहीं हो पाती. मुझे जब समय मिलता मैं प्रो.सर के मैटर टाइप कर देता.

                 संजू क्या आई अचानक उनके घर जाने के मायने बदल गए. वह घर मंदिर बन गयामेरे लिए. इधर संझौती को दिया बत्ती का समय होता. मैं चाह के दो फूल लेकर चल पड़ता. कमर मे चुन्नी बांधे, मैंने पहली बार वह चेहरा देखा. बिना स्कार्फ के. फूल पर पड़ी क्वारी ओंस जैसा रूप. सादगी भरी बेफिक्री बयान करती आंखेंं.

                सर्दियों के दिन छोटे होने लगे. उनके घर से संजू लौटती, रात का अंधेरा जैसे हो आता. मैंने कई बार साथ चलने को कहा. वह झिझकीलेकिन विकास सर के कहने पर राज़ी हो गई. खुद में सिमटी सी बाइकपर बैठती. कुछ दिन बीते. वह थोड़ा खुलने लगी. बाजार से कुछ लेना होता, साथ में खरीद लेती. झिझक वाली धुंध से उगी गूंगी यात्राएं अर्थपूर्ण हो गईं. मैं जान न सका. यह मुझे उस दिन पता चला जब अचानक "आप" बदल गया "तुम" में. कहीं उस ओर भी तो नहीं अंखुआने लगे ढेरों सपने.

                फरवरी के मधुमासी दिन. पार्क में खिले फूलों का भरा पूरा यौवन. नर्म धूप के छूने से पेड़ों का रह-रह कर झूमना. रुक-रुक कर हवा की सरगोशी से बजती पत्तियां और एकान्त की गुदगुदी. तन की कितनी गांठें खुलने लगीं. "तुम्हारा प्रेम मेंहदी की खूशबू हो जैसे. मेरे रोम रोम में यह रच बस सा गया है." विडचैम की पतली रूनझुन वाली आवाज मुझमें उतरी.

              "समय के पत्थर पर हमारा प्रेम कितनी गहरी लकीर खींच पाता है, कुछ कह पाना मुश्किल है"
              "ऐसा क्यों?" संजू पर जैसे आसमान से बिजली गिरी हो.

              "मुझे गुंडगांव जाना होगा,एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने जॉब ऑफर की है", मैंने बताया.

              "अरे यह तो खुशी की बात है." अगले ही पल वह गौरैया सी चहक पड़ी.

       "हांसो तो है." मैंने बात यही पर वाइंड अप कर दी. कुम्हलाया कमल मैं कैसे देखता. पर संजू खामोश बैठी रही. कहीं भीतर उद्देलन तूफान की तरह चलता रहा. मैंने कबूतरों की गुटरगूँ से भरे खंडहर तक चहलकदमी का प्रस्ताव रखा. सोचागुड़गांव जाने से उपजी उदासी पिघल जाएगी.

           खंडहर के प्रवेश द्वार पर पर पैर रखते ही अपने नीड़ों मे दुबके सचेत परिन्दे कुनमुना उठे. निचाट उजाड़ खंडहर. अंधेरे के महीन रेशे संजू के गालों से लटों की तरह खेलने लगे. "अंधेरे में परछाई की तरह तुम मेरा साथ छोड़ तो न दोगे." संजू की आंखों में गहरी झील उग आयी.

          "अरे, मैं कोई दुष्यंत हूँ जो शकुंतला से अंगूठी गुम होने पर वह भूल गया." मैंने उसे समझाया.

           सांझ की झील में अंधेरा जलपाखी की तरह तैरने लगा. हम घरों की ओंर लौटने लगे. रास्ते भर बात बात पर खिलखिला देने वाले होंठ आज नहीं हंसे. मैं संजू को उसके घर से कुछ पहले तक छोड़ने आया. उन आंखों में उदासी का पानी अभी तक सूखा नहीं था.

           अब तक उसकी छाया को छूकर खुश हो लेता मैं. स्फटिक जैसा पवित्र मन लेकर यह रिश्ता जीता रहा मैं. संजू को खंडहर बन चुकी पाषाण खंड की प्राचीरें भली लगी. उसकी सांझ के झुटपुटे में प्रेम गंध से नहाई देह आमंत्रित करने लगी. हर रोज़. उस दिन, क्षितिज परआसमान का धरती की देह पर झुकाव देखा. अंधेरे की पलकें गेरुए उजाले ने चूम लीं. अंधेरा कांप उठा. वह सकुचाकर खुद में ही सिमट गई. मेरे भीतर आदिम चाहना की कच्ची नींद उसी पल टूट गई. सामने हरा-भरा यौवन का जंगल. मैं खुद को जंगली बनने से रोक न सकापर संजू की मर्ज़ी के बगैर नहीं. भीतर से उठती तरंगों ने एक ही कोण ढूंढ लिया.

           प्यार से पगे वे पल. सुदूर पहाडियों के झुरमुट से पीछे, अकल्प अछोर उतरता रहा.

          अपने शहर में मेरी आखिरी रात. संजू का मायूस चेहरा रह-रह कर सामने आता रहा. जैसे वहां उतरती सांझ का अंधेरा जम गया हो.

           रेलवे स्टेशन पर खामोश आंखों ने एक-दूसरे के कितने संदेश स्वीकारे. मन के किसी कोने में अनकहा कितना कुछ छूट गया. अगला दिन. नया शहर. नये लोग. नया माहौल. मैं उस परिवेश को खुद में आत्मसात करने लगा. परिवार में बिना नहाए एक कप चाय नहीं पी थी. यहां आकर दिन भर के काम से उपजा तनाव थकान दो चार पैग से दूर होने लगी. मेरा माज़ी मुझसे दूर होता चला गया, बहुत दूर "जूम लैंस" में से पास का दृश्य दूर चला जाए. मैं लिव-इन में एक कलीग्स के साथ रहने लगा. गार्गी नाम था उसका. लड़की नहीं फूलों की बहार हो जैसे. पास होती तो सब मह-मह करता.

           वह जिस घर में पेइंग-गेस्ट थीमंदी के दिनों में उनके बेटे की नौकरी छूट गई. वह अपने परिवार के साथ वापस लौट आया.

           पहले प्यार को अपने भीतर बेरुखी का क्लोरोफार्म सुंघाकर सुला दिया. यह बेहोशी भरी नींद संजू के फोन और मैसेजों से भी न टूटी और दूसरा, वह प्यार था ही कब मेरे फ्लैट के साथ-साथ मुझे किसी रिहायशी होटल के कमरे की तरह इस्तेमाल किया. तीन साल का वक्त लगा मुझे छोटा सा सच जानने में कि लिव इन में दो देह एक छत के नीचे रहती रहती हैं, बिना किसी नियम शर्त से बंधे. जिस दिन गार्गी चली गईं, प्रो.विकास से तर्कों मे विजयी होने का दर्प, युद्ध में हारे सिपाही की तरह सामने सिर झुका कर खडा हो गया.

             सुख देकर दु:ख तो नहीं मिलता.

           लड़की की कहानी में पात्र बदलते आ रहे हैं. जाने कब से. घटनाएं घूम फिर कर वही रहती हैं. अपनी धुरी पर घूर्णन करती. वह बदलती हैं पर निहायत ही मंथर गति से. बेहिसाब बंधनों मे शिथिलता आएगी भी कितनी. बुझे बुझे मन वाली लड़की को रत्ती भर प्रेम मिला.मैं खिल गई. आह!मुझमें अप्लावित ढाई आखर का वह सिंचन. सुनी अनसुनी ढेरों आकांक्षाएं एक साथ फल-फूल उठीं. राजीव के आकर्षण की धूप में तन सुनहरा हो आया और मन भी. पहली बार जाना, मेरा वजूद भी हैं.

          वह खुद मे कितना रहता है, मैं नहीं जानती. मुझमें अखंडित ढंग से रहने लगा.और एक दिन अंतरंगता वाले बादलों ने निजता का सारा आकाश ढंक लिया.

         "इन आंखों में लहराता नीला समुद्र पीना है मुझे, प्लीज." वह मेरी ओर तीखी प्यास लिए बढ़ा. उन होंठों ने प्यासी ज़मीन पहली बार छू ली. एक आंच सी सुलग उठी मुझमें. उन पलों में वह अगस्त्य बन गया. देह में उठती-बैठती सांसें कांप उठीं. उनकी गति तेज़ हो आई. कबूतरों की गुटरगूँ के शोर से भरे खंडहरों में उस शाम बिजली की कौंध सी जन्मी. शायद इसलिए कि तुम अपने हिस्से का सुख चुन लो और तुम्हारे छोड़े दु:खों के विराने मे अभिशापित सी सिसकती रहूं, सुबकती रहूं. मैं तो समझ बैठी थी कि होंठ से होंठ पर दस्तखत वाला अनुबन्ध उम्र भर सिरजना हैं पर नहींयह हमारे रिश्ते का पक्का सुबूत कहांं था. सब जाली दस्तावेज की तरह फर्जी. प्रो. साहब के सामने लव मैरिज के पक्ष मे खड़ा होना अब मछली फंसाने को जाल फेंकने जैसा लगता है.

           हरी दूब जैसी मुलायम छुअन थीतुम्हारी. कहाँ जान पाई धुंधलके में जिस हरियाली पर मोह उठी हूँ वहां कांटों से भरे कैक्टस के सिवा कुछ नहीं मिलेगा. अपना समुद्र तुम्हें सौंप दिया. अब मैं उजाड़ रेगिस्तान ही शेष बच्चे. रेतीला सपाट मैदान, जहाँ कोई ख्वाहिश नहीं उगती.

           जीवन की अनुकूलता तलाशने प्रवास के कुछ महीने साइबेरियाई चिड़िया आती हैं. उनके साथ तुम आए. बसंत का आना तुम्हारी विदा बना थातुम जब तक पास थे, दिन हिरण की तरह चौकड़ी भरते हुए गुजरते गए. तुम्हारे जाते ही गीली रेत बन गए. क्या मजाल एक कण टस से मस हो.

        शहर क्या बदलातुम बदल गए. तुम सचमुच दुष्यन्त बन गए और मुझे शकुंतला बना डाला. मेरी अनिच्छा के बाद भी.

            खोकर कितना कम मिला.

          एक माह हो गया. शादी के बाद इसी शहर में रहने वाली बेटी मिलने नहीं आई. जब फोन पर बात करने की कोशिश करता हूँ किसी काम का बहाना करके बात नहीं करती. लोगों की निगाहें संजू से इस बेमेल से रिश्ते की वजह पूछती है. वह खिल्ली उड़ाती सी महसूस होती हैं. सच कहूं तो इस कहानी में मुझे नैरेटर होना था. जिन्दगी पीछे छूट चुकी हैं. हांफती हुई उम्र. अपनी बासठ साल की जिन्दगी मे कितने पात्रों को जी चुका हूँपरन्तु इस कहानी का पात्र बनकर मुझे सिर्फ अफ़सोस है और शायद आप भी मेरी सोच से सहमत होगे कहानी पढ़ने के बाद ही सही.

              यह कहानी बावफा संजू और उसके बेवफा प्रेमी राजीव की है. कहानी में शब्द दर शब्द, रेशा रेशा यथार्थ मिलेगा. पर बेतरतीब ढंग से फैला पसरा. कोई सुगढ़ क्रमबद्धता नहीं.

                मैं खूब जानता था, क्या चल रहा है उनके बीच. मुझे मालूम था कि दोनों सांझे जीवन के आकाश का हिस्सा बन चुके है. स्थितियों से अनुकूलन बैठाना कैक्टस की विशेषता है. उन दोनों ने स्थितियों को अनुकूल बना लेने की जिद ठानी हैं. देखकर अच्छा लगा.

              उन दिनों वह लड़का लड़की कमप्यार से भरे हुए प्याले ज्यादा दिखाई पड़ते. बात बेबात छलकते, होंठ खामोश. आंखें हंस देती उनकी. मेरी मौजूदगी में आंखें बचाते हुए एक-दूसरे को चोर नजर से देखते. जिस दिन उन दोनों में से एक नहीं आता, उनकी बेचैनी देखता मैं. इन्तजार गर्म दोपहरी हैं, मुश्किल से गुजरती हैं.

               वह पर्त दर पर्त आपस में खुलते गए. इतना जहां से सब समेट पाना मुश्किल है. झीनी पर्त भी न बची.

              संजू कल तक गाती गुनगुनाती रही. अचानक दीवार पर टंगी बेजान तश्वीर बन गई. मुझे लगाराजीव चला गया इसलिए उदास हैं. असल वजह मुझे सोया जानकर किसी सहेली से बातचीत से मालूम पड़ी. राजीव से मेरे रिश्ते को दुनियावी अर्थ मिलना बेहद ज़रूरी हो चुका है.

             राजीव के रवैये ने संजू से उस रिश्ते का धरातल छीन लिया. इसके बाद वह गहरी उदासी भरी घाटियों में कब तक भटकती. वापसी के सारे रास्ते बंद हो चुके थे. चयन अपना जो था. वह निरूपाय जान देने पर अमादा थी. मेरी प्रतिष्ठा क्या दो प्राणों से ज्यादा मूल्यवान थी. काफ़ी सोच विचार के बाद संजू से शादी का निश्चय किया.

              उसके घरवालों को लगा कि संजू के भाग्य जाग गए. जबकि शादी क्या उसके सम्मान पर चुनरी डाल दी मैंने. क्लैडर से समय ने सवा तीन साल नोंचकर फेंक दिए. पल-पल का हिसाब बेमानी है. यह कहानी को अनावश्यक रुप से लम्बा ही खींचेगा. हां, संजू के लिए इस घर मे अलग कमरा है और नमन हूबहू राजीव की ज़ीरॉक्स कॉपी लगता है.

             ज़बरदस्त कोहरीली और सर्द हवा से ठिठुरती रात. दस साढे दस का समय. संजू नमन के साथ शायद अपने कमरे मे सो चुकी होगी. मैं ब्लोअर की आंच के सहारे किसी लेखक मित्र का ताजा छपा उपन्यास पढ़ने में तल्लीन था. मोबाइल ने बजना शुरू किया. स्क्रीन पर राजीव का नाम चमकता देखकर मैं चौंक पड़ा. निहायत ही शुष्क औपचारिकता के साथ "हैलो" बोला.

             "हैलो! विकास सर नमस्कार', मैं राजीव..." लहरों की तरह अलमस्त अंदाज में बात करते राजीव की आवाज़ में भारीपन व लड़खड़ाहट रही. कहीं कुछ टूटा फूटा था.

               "आधुनिक जीवनशैली बेहतर है के पक्ष में मैंने आपसे कई बार लम्बी जिरह की. इस भ्रम में हमने कई साल गंवा डाले. अपने शहर में बीते दिनों की यादें सुकून देती हैं. ऊपर से आकर्षक किन्तु भीतर से बोझिल है यहां ज़िन्दगी. वर्क लोड और कम्पटीशन का स्लो प्वाइज़न है यह आधुनिकता. जिन कंधों पर सर रखकर लोग सुख-दुख बांटते हैं. सरोकार बदले, कंधा भी बदल दिया."

         राजीव तुमने शराब पी है, मैने पूछ लिया.

                "हां पी है. खैर मेरी छोड़िए, आप कैसे है और संजू आपकी देखभाल करती है वह."

                "राजीव, मैं स्वस्थ हूँ और संजू यहीं है मेरे पास"

                बेनतीजा मोड़ पर खडी़ कहानी अपने अंत की आज भी राह देख रही है.

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परिचय

कुसुम लता पाण्डेय


शिक्षा - स्नातक डिप्लोमा (DWED)
सम्प्रति - स्वतन्त्र लेखन

रचनाऐं :
दैनिक जागरण, कथाक्रम, सर्वसृजन, वर्तमान साहित्य, जनसंदेश टाइम्स हरि भूमि स्वतन्त्र भारत, उत्तर प्रदेश, इत्यादि पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशितआकाश वाणी लखनऊ से कहानी प्रसारित अनुभूति के इन्द्रधनुष कविता संग्रह में कविताएं
समीक्षा कहानी संग्रह 
जलेस लखनऊ इकाई सदस्य

सम्मान :
सर्वसृजन कथा सम्मान 2015

मेल आई डी :
pandey.kusum537@gmail.com


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