मृत्युंजय पाण्डेय
रेणु अपने पाठकों के लिए जितने सहज हैं, आलोचकों के लिए
उतने ही कठिन। पाठक जहाँ उनकी हर रचना में रसमग्न होकर आनंद के गोते लगता रहता है, वहीं विश्लेषक के लिए उनकी हर रचना
एक नयी चुनौती लेकर आती है। इन चुनौतियों से उसे कई स्तरों से गुजरना पड़ता है।
उनके रचना के मर्म को समझने के लिए कई संभावनाओं की तलाश करनी पड़ती है और इन कई
संभावनाओं में से किसी एक संभावना के सहारे रचना के मर्म तक पहुँचा जा सकता है।
रेणु उन लोगों के लिए और चुनौतीपूर्ण हो जाते हैं, जिनका गाँव से कोई नाता
नहीं है। ‘गाँव की कविता और
गाँव के गद्य’ को न जानने वाले
रेणु को नहीं समझ सकते। किसान जीवन, वहाँ की संस्कृति, परम्परा और बतरस से आपको
न सिर्फ परिचित होना होगा, बल्कि उसे गहरे रूप में जानना भी होगा। उनके एक-एक
शब्दों पर ठहरकर आपको सोचना होगा, उससे जूझना होगा।
‘लाल पान की बेगम’ उनकी एक ऐसी ही कहानी है। एक पाठक की नजर से यह
कहानी अद्भुत है—रस से सरबोर—लेकिन एक समीक्षक की नजर से देखते ही कई प्रश्नों
से सामना होता है। उसे कई प्रश्नों से जूझना पड़ता है। पहला प्रश्न तो दिमाग में
यही आता है कि रेणु ने इस कहानी का शीर्षक ‘लाल पान की बेगम’ क्यों रखा ? इसका ताश के ‘लाल पान की बेगम’ से कोई सम्बन्ध
है क्या ? यदि है तो किस
अर्थ में यह सम्बन्ध है ? और यदि नहीं है तो रेणु ने बिरजू की माँ को ‘लाल पान की बेगम’ क्यों कहा है ? एक सामान्य
(फेसबुक) सर्वे से यह तथ्य सामने आया है कि ताश के ‘लाल पान की बेगम’ और कहानी की ‘लाल पान की बेगम’ में कोई खास
सम्बन्ध नहीं है। लेकिन मेरा मन इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हो रहा था, इसलिए मैंने और
कई संभावनाओं की तलाश की। कई चीजों को देखा और अंत में पाया कि रेणु की ‘लाल पान की बेगम’ और ताश के ‘लाल पान की बेगम’ में थोड़ी-बहुत तो
समानता है ही। रेणु जैसे सजग कथाकार ने यदि यह शीर्षक दिया है और वे बिरजू की माँ
को ‘लाल पान की बेगम’ कहते या कहवाते
हैं तो उसके पीछे जरूर कोई कारण होगा। थोड़ी देर के लिए ‘लाल पान की बेगम’ को विराम देते
हुए हम कथा की पृष्ठभूमि में प्रवेश करते हैं।
‘ठुमरी’ संग्रह में
संकलित ‘लाल पान की बेगम’ सन् 1956 की
कहानी है। इलाहाबाद से प्रकाशित ‘कहानी’ पत्रिका के जनवरी, 1957 के अंक में यह
प्रकाशित हुई थी। पुंज प्रकाश ने इस कहानी का नाट्य रूपान्तरण भी किया है, जिसे सन् 2017 में—शारदा
सिंह के निर्देशन में—पटना के ‘कालिदास रंगालय’ में मंचित किया गया। इस
नाटक में बिरजू की माँ के द्वारा ‘स्त्री सशक्तिकरण’ की मिशाल पेश की गई है।
बिरजू की माँ अपनी जिन्दगी अपने शर्तों पर जीती है, पूरे आत्मसम्मान एवं ठसक के
साथ।
पहली नजर में यह
कहानी जितनी सहज-सरल दिखती है, वास्तव में उतनी सहज-सरल है नहीं। इस कहानी की समय
सीमा और पृष्ठभूमि दोनों वही है, जो रेणु के दूसरे महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘परती : परिकथा’ की है। ‘परती : परिकथा’ का भी प्रकाशन
वर्ष 1957 है और उसकी भी पृष्ठभूमि में ‘लैंड सर्वे सेट्लमेंट’ वाली घटना है। इस
कहानी को पढ़ते हुए रेणु द्वारा 1955 में लिखित रिपोर्ताज ‘एकलव्य के नोट्स’ की भी याद आती है।
इसमें ‘बिहार टेनेण्टी
एक्ट दफा 40’ पर विस्तार से
चर्चा की गई है। यह अकारण नहीं है कि ‘लाल पान की बेगम’ में ‘परती : परिकथा’ के लुत्तो के बाप
‘लरेना खवास’ का जिक्र आया है।
उसकी पत्नी बिरजू की माँ के साथ बैलगाड़ी में बैठकर नाच देखने जाती है। लरेना खवास
छोटी जाति का है। जितेन्द्र के बाप शिवेन्द्रनाथ मिश्र ने उसे लोहे की दगनी से
दगवाया था। खैर, इस कथा को हम यही
छोड़ते हैं और चलते हैं—एकलव्य के पास। इसमें एकलव्य यानी रेणु लिखते हैं—
“इधर कुछ दिनों से लगता है कि दुनिया तेज रफ्तार से भागी जा रही है। दिशा ज्ञान की
बातें पीछे करूँगा—चाल की तेजी का अनुभव सभी कर रहे हैं।...उदाहरणार्थ—लैंड सर्वे
सेट्लमेंट ! जमीन की फिर से पैमाइश हो रही है। साठ-सत्तर साल बाद। भूमि पर अधिकार
! बाँटैयादार का जमीन पर सर्वाधिकार हो सकता है, यदि वह साबित कर दे कि
जमीन उसी ने जोती-बोई है।...चार आदमी (खेत के चारों ओर के गवाह जिसे ‘अरिया-गवाह’ अथवा चौहद्दी के
गवाह कहते हैं) कह दें, बस हो गया। बिहार टेनेण्टी एक्ट दफा 40 के मुताबिक
लगातार तीन साल तक जमीन आबाद करने वालों को ‘आकोपेंसी राइट’ (मौरूसी हक)
हासिल हो जाता था। जमींदारी प्रथा खत्म करने के बाद राज्य सरकार ने अनुभव किया—पूर्णिया
जिले में एक क्रान्तिकारी कदम उठाने की आवश्यकता है।...हिन्दुस्तान में, संभवतः सबसे पहले
पूर्णिया जिले पर ही ‘लैंड सर्वे आपरेशन’ का प्रयोग किया गया है।” सन् 1947 में देश
आजाद हुआ। 1950 में संविधान लागू हुआ। 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना की नींव पड़ी।
1952 में बेज़मीनों और बाँटैयादारों को जमीन दिलाने के लिए ‘जमींदारी प्रथा’ को तोड़ा गया और
इसी के परिणाम स्वरूप 1953 में ‘राष्ट्रीय प्रसार योजना’ और ‘चकबंदी’ (लैंड सर्वे
सेट्लमेंट) लागू हुआ। इस लैंड सर्वे सेट्लमेंट ने सामाजिक और पारिवारिक जीवन में
कितना बड़ा उथल-पुथल मचाया, इसको विस्तार से रेणु ने ‘परती : परिकथा’ में दिखाया है। सर्वे
के समय परिवार काँच के बर्तनों की तरह टूट रहे थे। आपसी सम्बन्धों में दरार आ गई
थी।
‘लाल पान की बेगम’ की समय सीमा के बाद अब हम उसकी पृष्ठभूमि में
प्रवेश करते हैं। बिरजू की माँ कहती है— “बिरजू के बप्पा ने तो पहले ही कुर्माटोली
के एक-एक आदमी को समझाके कहा, ‘जिन्दगी भर मजदूरी करते रह जाओगे। सर्वे का समय आ
रहा है, लाठी कड़ी करो तो
तीन-चार बीघे जमीन हासिल कर सकते हो।’ सो गाँव की किसी पुतखौकी का भतार सर्वे के
समय बाबूसाहेब के खिलाफ खाँसा भी नहीं।...बिरजू के बप्पा को कम सहना पड़ा है !
बाबूसाहेब गुस्से से सरकस नाच के बाघ की तरह हुमड़ते रह गए। उनका बड़ा बेटा घर में
आग लगाने की धमकी देकर गया।...आखिर बाबूसाहेब ने अपने सबसे छोटे लड़के को भेजा।
बिरजू की माँ को ‘मौसी’ कहके पुकारा— ‘यह जमीन बाबूजी ने मेरे
नाम से खरीदी थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई उसी जमीन की उपज से चलती है।’ खूब मोहना जानता
है उत्ता जरा-सा लड़का। जमींदार का बेटा है कि...” इसी सर्वे के समय लाठी के ज़ोर से
बिरजू के बाप ने पाँच बीघा जमीन हासिल की। बिरजू की माँ अपने पति के अंदर सोये हुए
मर्द को बार-बार जगाते हुए कहती थी— ‘जोरू-जमीन ज़ोर के, नहीं तो किसी और के !...’ वे बार-बार अपने ‘गोबरगनेश’ पति के गुस्से को
सान चढ़ाती और हर बार उसका गुस्सा चढ़ता जाता। गाँव में सीधे-सादे आदमी को ‘गोबरगनेश’ ही कहा जाता है।
बिरजू का बाप छल-कपट न जानता था। उसकी सरलता और भोलापन बाबूसाहेब के खिलाफ जाने से
रोकती थी, लेकिन बिरजू की
माँ जानती थी, यही सही समय है
किस्मत बदलने का। सर्वे के समय शोषित-दलित लोगों के जीवन में हल्का-सा बदलाव आया।
उस समय जिसने भी संघर्ष किया उसका जीवन बदला। एक अर्थ में यह पिछड़े वर्ग के संघर्ष
की भी कथा है।
अब लौटते हैं ‘लाल पान की बेगम’ के पास। प्रश्न
को वहीं से शुरू करते हैं, कहानी की ‘लाल पान की बेगम’ और ताश के ‘लाल पान की बेगम’ में क्या समानता
है ? दोनों कहाँ और
किस रूप में जुड़ते-मिलते हैं ? ‘वेबदुनिया’ पर अनिरुद्ध जोशी का ताश
पर एक लेख (संकलन) है। उससे थोड़ी-सी हम मदद लेते हैं। चूँकि मैं ताश का जानकार
नहीं हूँ, इसलिए मुझे इसका
सहारा लेना पड़ रहा है। ताश के 52 पत्ते होते हैं और एक साल में 52 सप्ताह होता है।
इसमें भारत की चार ऋतुएँ भी जोड़ ली जाएँ। इसी के आधार पर ताश का निर्माण किया गया
है। ताश खेलने वाले इस बात को बखूबी जानते हैं कि ताश के पत्तों के चार प्रकार
होते हैं— पान, चिड़ी, ईंट और हुकूम।
इसके आधार पर जिन्दगी के चार रंग माने गए हैं— पहला- बादशाह, दूसरा- बेगम, तीसरा- इक्का और
चौथा- गुलाम। हम यहाँ ‘बेगम’ पर अपनी बात को केन्द्रित करते हैं। इसमें
भी सिर्फ ‘लाल पान की बेगम’ पर ‘काला पान की बेगम’ पर नहीं। ऐसा कहा
गया है कि ‘जो व्यक्ति बेगम (लाल)
को अधिक महत्त्व देता है वह समन्वयवादी, सुधारवादी और आशावादी होता है। लाल पान के
स्वभाव वाले व्यक्ति के अन्दर भावना, प्यार तथा विनम्रता होती है।’ कहना न होगा रेणु
सबको साथ लेकर चलाने वाले, सुधार पर विशेष बल देने वाले घोर आशावादी लेखक हैं
तथा बिरजू की माँ के अन्दर भावना भी है, प्यार भी है और विनम्रता भी है। मखनी फुआ
और जंगी की पतोहू से लाख विवाद होने के बावजूद अंत में वह उनसे प्यार एवं शालीनता
से न सिर्फ बात करती है, बल्कि मखनी फुआ को दिल खोलकर तम्बाकू खाने को देती
है और जंगी की बहू को अपनी बैलगाड़ी पर मेला भी ले जाती है। समन्वयवादी, सुधारवादी और
आशावादी ये तीनों गुण बिरजू की माँ के अन्दर भी हैं। गाँव में जितने लोग बचे हुए
थे, वह सबको नाच दिखाने
के लिए बलरामपुर लेकर जाती है। अब रही बात सुधार और आशावाद की तो उसके विषय में
कहना ही क्या ! उसी की आशावादिता के चलते उसके परिवार की जिन्दगी सुधरती है। बिरजू
का बाप भी सबको साथ लेकर चलने वाला है। सर्वे के समय उसने गाँव के एक-एक आदमी से
कहा था, यही सही समय है
अपनी लाठी कड़ी करो, नहीं तो जिन्दगी भर गुलामी करते रह जाओगे। वह आशावादी भी बहुत
है, उसे अंत-अंत तक
इस बात की उम्मीद रहती है कि उसे बैलगाड़ी मिलेगी और उसके विश्वास की जीत भी होती
है। ...और एक बात, गाँव के सभी लोग जमींदार (बाबूसाहेब) से डरते हैं। एक तरह से
वे उसके गुलाम हैं—चिड़ी के गुलाम और चिड़ी के गुलाम को लाल पान की बेगम से ही काटा
जा सकता है, लेकिन लाल पान की
यह बेगम बिरजू के बाप के पास है। बिरजू की माँ गुलाम के स्वर को जीत की खुशी में
बदल देती है। ‘लाल पान की बेगम’ को हुक्म की बेगम
भी कहा जा सकता है। ‘लाल पान की बेगम’ जो हुक्म देती है, बिरजू का बाप वही करता है।
रेणु की इस कहानी में प्रत्यक्ष रूप से दो ‘लाल पान की बेगम’ है और अप्रत्यक्ष
रूप एक। यानी इस कहानी में कुल तीन ‘लाल पान की बेगम’ है। पहली ‘लाल पान की बेगम’ बिरजू की माँ है, दूसरी— नाच में नाचने
वाली नर्तकी और तीसरी— ताश के लाल पान की बेगम है। पहली ‘लाल पान की बेगम’ दूसरी ‘लाल पान की बेगम’ से मिलने जा रही
है। मिलन की इसी कथा को रेणु ने पिरोया है। गाँव की औरतें बिरजू की माँ को ‘लाल पान की बेगम’ उसकी सुन्दरता और
उसके स्वाभिमान को देखकर कहती हैं। “दो बच्चों की माँ होकर भी वह जस-की-तस है।
उसका घरवाला उसकी बात में रहता है। वह बालों में गरी का तेल डालती है। उसकी अपनी
जमीन है।...तीन बीघे में धान लगा हुआ है, अगहनी...” ये सारी चीजें गाँव की औरतों को
ऐसी प्रतीत होती हैं, मानो वह कोई सामान्य स्त्री न होकर ‘लाल पान की बेगम’ हो। सभी की निगाह
और केन्द्र में रहने वाली स्त्री को रानी या बेगम ही कहते हैं। जिस तरह नाचने वाली
सबकी निगाह में बसी रहती हैं, उसी प्रकार बिरजू की माँ भी सबकी निगाह में बसी
हुई है। जिस प्रकार नाच की नर्तकी के बारे में लोग गलत-सलत बातें करते हैं, उसी प्रकार बिरजू
की माँ के बारे में भी गाँव की औरतों ने एक कहानी गढ़ी है— “चंपिया की माँ के आँगन
में रात-भर बिजली-बत्ती भुकभुकाती थी ! चंपिया की माँ के आँगन में, नाकवाले जूते की
छाप घोड़े की टाप की तरह !...” यह कहानी उसे दुख देती है। वह तिलमिला जाती है।
बिरजू की माँ की दुख और तिलमिलाहट के सहारे नाच के नर्तकी के दुख और तिलमिलाहट को
जाना जा सकता है। इसकी थोड़ी-सी झलक हमें ‘तीसरी कसम’ में देखने को
मिलती है। गाँव की सभी औरतें बिरजू की माँ की सुख और समृद्धि से जलती हैं, वह उन्हें अच्छी
नहीं लगती। अच्छा तो गाँव के पुरुषों को बिरजू का बाप भी नहीं लगता। वे नहीं चाहते
कि बिरजू का बाप अपनी औरत को बैलगाड़ी पर बैठाकर नाच दिखाने ले जाए। यही कारण है कि
गाँव वाले उसे बैलगाड़ी नहीं देते। वरना जिसके पास बैल हों, उसके लिए गाड़ी क्या
मुश्किल चीज है। जलन-डाल जो इस कहानी में देखने को मिलती है, वह मनुष्य का
स्वाभाविक गुण है। गाँवों में यह चीजें गहरी समाई हुई हैं। क्षण भर में लोग अपनी
नजरें फेर लेते हैं और क्षण भर बाद ही वे मिल भी जाते हैं।
रेणु ने इस कहानी
में गाँव की उस मान्यता का भी खुलकर उल्लेख किया है कि रेलवे स्टेशन के पास की
लड़कियाँ मुँहज़ोर होती हैं। जंगी की पतोहू भी रेलवे स्टेशन के पास की लड़की है। उसका
ससुर जंगी दागी चोर है और पति रंगी कुर्माटोली का नामी लठैत। इसलिए वह किसी से
नहीं डरती। हमेशा लड़ने का बहाना खोजती रहती है। चंपिया की वह मास्टरनी है। वह उसी
से सिनेमा का गाना सिखती है, जो बिरजू की माँ को पसन्द नहीं। बिरजू की माँ जंगी
की बहू को लक्ष्य करते हुए अपनी बेटी से कहती है— “गले पर लात देकर कल्ला तोड़
दूँगी हरजाई, जो फिर कभी ‘बाजे न मुरलिया’ गाते सुना ! चाल सीखने
जाती है टीशन की छोकरियों से !” ‘बाजे न मुरलिया’ ‘बैजू बावरा’ (1952) फिल्म का
गीत है। गीत के बोल हैं— ‘दूर कोई गाए धुन ये सुनाये/ तेरे बिन छलिया रे बाजे ना
मुरलिया रे/ हो जी हो/.../ मन
के अन्दर हो प्यार की अग्नि/ हो मन के अन्दर प्यार की अग्नि/ नैना खोए-खोए कि अरे
रामा नैना खोए-खोए/ अरे रामा नैना खोए-खोए/ अभी से है ये हाल हो/ अभी से ये हाल तो
आगे न जाने क्या होये/ के अरे रामा ना जाने क्या होये/ नींद नहीं आए बिरहा सताये/
तेरे बिन छलिया रे, बाजे ना मुरलिया रे/ .../ हो मोरे अँगना लाज का पहरा/ लाज का
पहरा रामा लाज का पहरा/ पाव पड़ी जंजीर की/ अरे रामा पाव पड़ी जंजीर हो/ याद किसी की
जब-जब आए/ लागे जिया पे तीर/ .../ आँख भर आये जल बरसाए/ तेरे बिन...।’ इस गीत के सहारे
चंपिया के मन को जाना जा सकता है। चंपिया दस वर्ष की है, वह उम्र की उस दहलीज पर
पहुँच गयी है, जहाँ मन
खोया-खोया रहता है। उसके मन में एक अजानी प्रेम की रागिनी बजनी शुरू हो चुकी है। लेकिन
उसके आँगन में लाज का पहरा भी है और पाव में माँ नाम की एक जंजीर भी है। उसे किसी
की याद आती है और वह उसे तीर की तरह चुभती है। शायद वह गाँव के ही किसी युवक से
प्रेम करती है, तभी तो सहुआइन की
दुकान पर सामान लेने में उसे देरी होती है।
कहानी
के शुरू में बिरजू की माँ जिस जंगी की पतोहू से चिढ़ती है और अपनी बेटी को गीत गाने
के लिए मारती है, वही कहानी के अंत में खुद जंगी की बहू और अपनी बेटी चंपिया को
सिनेमा का गीत गाने के लिए कहती है। जंगी की पतोहू चंपिया के कान में धीरे से ‘चन्दा की
चाँदनी...’ गीत के बोल बोलती
है। ‘चन्दा की
चाँदनी...’ गीत भी 1952 का
ही है। रेणु ने यह गीत ‘पूनम’ फिल्म से ली है। गीत के बोल हैं— ‘चन्दा की चाँदनी
में झूमे-झूमे दिल मेरा /.../ अंगड़ाई आने लगी, मस्ती भी छाने लगी/ आँखों
में प्यार लिए, रात भी गाने लगी/
.../ मैं नाचूँ प्यार नाचे, मेरा शृंगार नाचे/ तारों ने साज छेड़ा, दिल की पुकार
नाचे/ .../ जीने का ढंग आया, लेकर उमंग आया/ किरणों के दीप जले, गीतों को संग
लाया /...’ इस गीत और कहानी के अंत में अद्भुत समानता है।
चाँदनी रात में बिरजू की माँ का दिल झूम रहा है। उसकी आँखों में प्यार दिखता है।
चाँदनी रात में तारों की साज और दीप के किरणों में उसका अंग-अंग तथा शृंगार नाच
रहा है। अंत तक आते-आते उसे अंगड़ाई और मस्ती छाने लगती है। उसे नींद आने लगती है।
‘लाल पान की बेगम’ कहानी को चारों
दिशाओं से देखना होगा। ये चार दिशाएँ वास्तव में चार दृष्टियाँ या कहें चार कोण
हैं। पहला— लैंड सर्वे सेट्लमेंट, दूसरा— कथानक, तीसरा— उसका शीर्षक और
चौथा गीत के बोल। इन सभी दृष्टियों से कहानी का निरीक्षण करने के बाद ही हम उसे
समग्र रूप में जान पाते हैं। रेणु के साहित्य में अनगिनत गीत के बोल आए हैं। वे
गीत कथा को एक नयी दिशा देते हैं। एक नया अर्थ। उन्हें नजरअंदाज करके उनकी रचना के
मर्म को नहीं जाना जा सकता। ‘लाल पान की बेगम’ कहानी में दो गीत आए हैं, पहली गीत का
सम्बन्ध चंपिया से है, वह उसके मन का कपाट खोलती है, दूसरे गीत का सम्बन्ध
चंपिया की माँ से है, वह चंपिया की माँ के भावनाओं को अर्थ देती है। उसके भावों को
रूप देती है।
__________
परिचय :
मृत्युंजय पाण्डेय
जन्म : 20 जुलाई, 1982
मूल निवासी : दिघवा दुबौली, गोपालगंज (बिहार)
शिक्षा : एम. ए., एम. फिल., पीएच. डी. (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
आलोचनात्मक पुस्तकें :
कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव, कहानी से संवाद, कहानी का अलक्षित प्रदेश, रेणु का भारत, कविता के सम्मुख, साहित्य, समय और आलोचना, केदारनाथ सिंह का
दूसरा घर
सम्पादन :
नयी सदी : नयी कहानियाँ
(तीन खंडों में), प्रेमचंद : निर्वाचित कहानियाँ, जयशंकर प्रसाद : निर्वाचित
कहानियाँ
सम्मान : देवीशंकर अवस्थी सम्मान (2018)
जीविका : अध्यापन, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सुरेन्द्रनाथ कॉलेज (कलकत्ता विश्वविद्यालय) 24/2, महात्मा गाँधी रोड, कोलकाता – 700009
सम्पर्क : 25/1/1, फकीर बगान लेन, पिलखाना, हावड़ा – 711101
(पश्चिम बंगाल)
मोबाइल : 9681510596
रेणु जी के जन्मशतब्दी बर्ष में आपका यह समिच्छा एक यादगार और गहन साबित होगी ।रेणु जी को याद इससे बढ़िया तरीका क्या हो सकता है ।बिना किसानी मन को जाने बगैर रेणु केरचनाओं का मर्म जानना बास्तव में मुश्किल है ।आपको बहतों बधाई ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपने बहुत सुंदर लिखा है। बधाई।
जवाब देंहटाएंआपने बहुत सुंदर, सार्थक और सटीक विश्लेषण किया है। बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित व सटीक विश्लेषण किया है आपने सर।
जवाब देंहटाएंगुरु जी बहुत अच्छा लिखा है उच्चस्तर का
जवाब देंहटाएंबहूत अच्छा लिखा है
जवाब देंहटाएंWell done 👍 real research Kiya Aapne.lal paan ki bagam par
जवाब देंहटाएं....✍️ 👌👍
जवाब देंहटाएंशानदार लेखन🙏
जवाब देंहटाएंशुक्रिया