सैल्फ़ी
जीवन में इतना दुख
कि तुम्हारी कृत्रिम मुस्कान भी
छिपा नहीं पा रही उसे
तुम्हारी मुस्कुराहट से ढकी उदासी
टपक रही है आँखों से
लेकिन अनदेखा किये जा रहे हो तुम
हालात के थपेड़ों से घबरा कर
दुख को चकमा देने की असफल कोशिश है तुम्हारी सैल्फ़ी
आख़िर स्वीकार क्यों नहीं कर लेते
कि दुखी हो तुम
शायद दुख के स्वीकार से ही निकले
दुख से मुक्ति का कोई रास्ता
तुम्हारी सारी कोशिश
दुखी न होने की नहीं है
बल्कि दुखी दिखाई न देने की है
कविता में बार-बार प्रयोग किया गया शब्द "तुम"
"हम" भी पढ़ा जा सकता है।
०००
कुछ इच्छाएं/घोषणाएं
इतने चुपके से
गुज़र जाय यह सफ़र
कि छूटे न कहीं भी
क़दमों के निशां
अमर होना बड़ा बोरियत ख़्याल है
किसी की स्मृति का हिस्सा बनूं
या मूर्ति बन खड़ा रहूं चौराहे पर
परिंदों की बीट से घिन है मुझे
पराजय का भय
उसी दिन मिट गया
जिस दिन
जीतने की इच्छा खत्म हुई थी
"प्रतिष्ठा"
या "महान" शब्द का बोझ ढोना कष्टकारी है
मेरे जैसे मामूली आदमी के लिए
मैं अपने साधारण प्रदेश का राजा हूं
मेरे गाये गीत या मेरी कविताएँ
जमा पूंजी है मेरे जीवन की
किसी अंबानी अदाणी से
कम थोड़ी है ये संपत्ति
निंदा या प्रशंसा के प्रभाव को
झटकार देता हूँ ऐसे
जैसे पूंछ हिलाकर कोई श्वान
उड़ा देता है मक्खियाँ
निंदा या प्रशंसा के शब्दों से
हिंसा की बू आती है मुझे
किसी अंजान जगह में
अजनबी की तरह
चौराहे की गुमटी में
अदरख वाली चाय पीने का सुख
सौंपना चाहता हूँ
आने वाली पीढ़ी को।
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वर्ष 2020 में इंडिया नेटबुक्स से कहानी संग्रह "जड़-ज़मीन प्रकाशित।
अरुण यादव की ये अच्छी कविताएं हैं। वे अपनी बात सीधे-सीधे रखते हैं -अभिधा में । लेकिन अपनी बेफिक्री को कुछ नये तरीके से कह रहे हैं। इसलिए वह खास हैं। बधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंमेरी टिप्पणी को हीरालाल नागर के नाम से छापा जाये।
जवाब देंहटाएंसच्चाई बयां करती है कविताएँ। बधाइयाँ
जवाब देंहटाएंबहुत ही जीवंत और जरूरी कविताएँ
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सत्य भाई।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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