फ़िलिस्तीनी कविताओं का यह संग्रह आपके हाथ में है । समकालीन फ़िलिस्तीनी साहित्य हमारे पाठकों को हिन्दी भाषा में उपलब्ध हो सके, इसी उद्देश्य को सामने रखते हुए यह प्रयास किया गया है । 'पहल' के सम्पादक और हिन्दी कथा-साहित्य के जाने-माने हस्ताक्षर श्री ज्ञानरंजन ने इस दिशा में पहलकदमी की है । 'पहल' पत्रिका अर्से से विदेशी साहित्य से हमारे पाठकों का परिचय कराती रही है । हमें पूर्ण आशा है कि यह सत्प्रयास उस कमी को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देगा जो इस समय अफ्रीका, एशिया, दक्षिण अमरीका आदि के साहित्य को लेकर हमारे देश में पाई जाती है ।
यह बहस कितनी पुरानी पड़ चुकी है कि कलाकार को सामाजिक-राजनैतिक मसलों से जुड़ना चाहिए या नहीं। इसका जवाब कोई किसी फ़िलिस्तीनी कवि के दिल से माँगे, कि यह सवाल, द्विविधा बनकर कभी उसके मन से उठता है या नहीं । फ़िलिस्तीनी कौम की अनेक पीढ़ियाँ उन यातनापूर्ण स्थितियों में और उनसे पैदा होने वाले माहौल में साँस ले चुकी है, जिसमें अपमान है, छल-कपट है, उत्पीड़न है, घोर अन्याय है, पर साथ ही साथ आत्म-सम्मान के साथ ज़िन्दा रह पाने का, अपने हकूक़ के लिए लड़ने, संघर्ष करने का जुझारूपन भी है, गहरी आशा और आत्मविश्वास भी है ।
यह चार दशाब्दियों का संघर्ष एक गौरवगाथा भी बनती है, वैसी ही जैसी वियतनाम की जुझारू जनता के बारे में सुनने में आती थी। ऐसे महौल में से वैसी ही कविता फूटकर निकलेगी जिसमें उन सभी भावनाओं का समावेश होगा जो उस माहौल में पाई जाती हैं ।
"मेरी कविता वह जलता दिया है जिसे मैं एक द्वार से दूसरे द्वार तक ले जा रहा हूँ ।"न जाने इस संघर्ष का अंत कब होगा। अभी तो उन लोगों को जो अपने देश की भूमि के लिए, अपने हक़ के लिए जूझ रहे हैं, 'आतंकवादी' की संज्ञा दी जा रही है और हर तरह से उन्हें बदनाम करने की कोशिश की जा रही है।
इस साहित्य को आप तक पहुँचाने का हमारा अभिप्राय केवल इतना ही है कि आप भी उन लोगों के दिल की धड़कनें सुन सकें, उन भावनाओं को महसूस कर सकें जो इस समय उन फ़िलिस्तीनी लेखकों, कलाकारों के दिलों को उद्वेलित कर रही हैं, उस तड़प को महसूस कर सकें जिसमें से उनकी रचनाएँ जन्म ले रही हैं और उस विराट अभियान के साथ भावनात्मक स्तर पर जुड़ सकें जो इस समय फ़िलिस्तीन के संदर्भ में ही नहीं, दुनिया में जगह-जगह सामाजिक न्याय के लिए अन्यायपूर्ण विषमताओं को दूर करने के लिए शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के आधार पर राष्ट्रों के आपसी रिश्तों को कायम कर पाने के लिए चल रहा है।
हम उन सभी मित्रों के, सहकर्मियों के आभारी हैं जिन्होंने इस प्रयास में योग दिया है। 1987 में अफ्रो-एशियाई लेखक संघ (भारत) के तत्वावधान में अफ्रो- एशियाई युवा लेखकों का एक सिम्पोजियम दिल्ली में आयोजित किया गया था। उसके प्रबन्ध के लिए भारत सरकार की ओर से दी गई धनराशि में से ही इस संग्रह के प्रकाशन की व्यवस्था की गई है। भविष्य में भी ऐसे संकलन जुटा पाने के प्रयास किए जाते रहेंगे ।
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भीष्म साहनी सदस्य : अध्यक्ष समिति अफ्रो-एशियाई लेखक संघ
फिलिस्तीनी कविताओं ने विश्व साहित्य में अपना स्थान बनाया है । उनके विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हो रहे हैं । हिंदी के अनुवादों से गुजरते हुए हमलोगो को भी फिलिस्तीनी कवियों की कुछ श्रेष्ठ कविताएं पढ़ने को मिली हैं । हमने फिलिस्तीन की पीड़ा को महसूस किया है ।
जवाब देंहटाएंजी हमारी कोशिश रहेगी कि बिजूका के पाठकों को विश्व साहित्य से कुछ बेहतरीन रचनाएं पढ़वाते रहे। शुक्रिया साथी
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