मेरा हत्यारा चलता है साथ-साथ
मोहम्मद अल कै़सी
मैं चलता हूँ
मेरा हत्यारा पीछा करता है मेरा
साये की तरह
हवा लगती है, नहीं भी
अब क्या बचा है
इन गर्मियों में हमारे लिए
अब क्या बचा है
अंगूर की लताओं में हमारे लिए
लौटे हैं हम अधमरे से
अब क्या बचा है
पेड़ों में हमारे लिए
चित्र
वान गाग
हम रह गए हैं सिर्फ़ अहसास
जुलाई गई, अगस्त करता है इन्तज़ार
क्या मालूम है सितम्बर को इस बाबत कुछ भी ?
वीरान, खण्डहर जैसे यातना शिविरों में
इरादा करता है फ़िलिस्तीनी
हम ज़िन्दा हैं
अब जायेंगे सरहद पार
बदक़िस्मती, दिलासा दो हमें
दुआ करो
हम बने रहें अपने जैसे
बिना खोये अपनी पहचान
मौत,
कुरेद दो हमें अन्दर तक
एक फ़िलिस्तीनी शहीद की मां
लिख देती है वक़्त की दीवार पर
हम नहीं हैं जानवर
हम जानवर नहीं है
०००
तैय्यारी
कहता हूँ,
शुरू किया है यह सब
तो तुम्हीं ख़त्म भी करो यह सब
कहता हूँ हमवतनों से, बार-बार
नहीं डरता मैं, किसी मैदाने जंग से
कोई जंग नहीं कर पाई नेस्तनाबूद मुझे
दिल ने बना दिया बेताज बादशाह
हमवतनों ने भरोसा किया, इस कदर मुझपे
हिला देती है मैदाने जंग से आती आवाज़
और तब्दील कर देता हूँ रात को दिन में
जद्दोजहद थी लम्बी
तुम्हारे लिए मेरा डर, मेरा लगाव
बन गए मेरी मुहब्बत, मेरी मंज़िल
बीत गए कितने बरस
बढ़ती जाती है मुहब्बत इन पहाड़ियों के लिए
भोगता हूँ, पर बाँध रखते हैं ये लगाव
बावजूद जंजीरों के
पड़े रेगिस्तान में
बालू के बिस्तर पर
बजती हैं कान में घंटियाँ, बेहिसाब
दौड़ पड़ता हूँ सबसे आगे
भटकने इन पहाड़ियों में
मेरे करीबियों ने ही
बेच डाली ये पहाड़ियों
वो भी, कौड़ियों के मोल
यही वह वक़्त था
जब किया इरादा जाने का
तैय्यार हो, आओ चलें
सपनों तक पहुंचने का रास्ता
लम्बा भी है
दूर भी है
०००
सद्र क्या कहते हैं
मैं नहीं लौटा हूँ यहाँ वापस
फिर भी, रहूँगा मौजूद हरदम
परवाह नहीं इस नुक्ताचीं की
परवाह नहीं खंजरों की
या किसी साजिश की
या किसी बेहूदा बात की
नहीं है परवाह
छुरा भोंके जाने की, ज़ख्मों की
या किसी से दो-दो हाथ होने की
मैं नहीं लौटा हूँ यहाँ वापस
मेरी निगाहें नहीं तरस रहीं
इस मंज़र को गले लगाने
नहीं झुकता कभी
मजाल किसकी दिखाये राह मुझको रोता नहीं
हलाक हुए स्कूली बच्चों की ख़ातिर
जाता नहीं कभी कहवाघरों की तरफ़
नहीं भाते खण्डहर
बिदा लेता हूँ जब उनसे
निकलता नहीं बिदाई का एक भी लफ़्ज़
जो कर दे ज़ाहिर मायूसी को
मैं नहीं छोड़ता कोई भी मौक़ा
खैरख़्वाह दिखने का
मैं नहीं बंधा किसी से
उसकी वफ़ादारी के लिए
इस हमेशा रहने वाले सूनेपन में
जो है बिल्कुल अपना
और चुंधिया देता है आँख
इस क़दर सख़्त है मेरा आना
मेरा आराम इस क़दर तक़लीफ़देह
हर समय कुलबुलाता है मेरे अन्दर
छावनी का पागलपन
गूंजती है मेरे अन्दर
अर्रक़ीम की गुफाओं से निकल भागी आवाज़ें
नफ़रत है जिन चीज़ों से मुझे
शायद नहीं खिंच पाऊँगा कभी उनकी तरफ़
नहीं खिंच पाऊँगा उनकी तरफ़ भी कभी
जो सूख जाते हैं वक़्त के थपेड़ों से
एक बार फिर
प्यार का होना या न होना
नहीं बहा पाते दोनों
अपनी रौ में मुझे
नहीं चबाता अपने अल्फाज़ को कभी
बोलता हूँ, पूरे इत्मीनान से
बिना ठहरे, बिना डरे, बिना पछताये
मैं हूँ, हड्डियों के कड़कने की
धीमी आवाज़
मेरे पास है, मेरी अपनी
सिर्फ़ एक अदद घड़ी
कह सकते हैं उसे
आगे जाने का एकतरफ़ा रास्ता
जो ले जायेगा मुझे हरियाली की ओर
सुन सकता हूँ हादसों की आहट
फिर भी, इन्कार करता हूँ
नग़मों की छाँव में छुपने से
बेसहारा, जमाता हूँ अपने पैर ज़मीन पर
पीछे-पीछे चलता है मेरा जल्लाद
बाक़िफ़ है मेरे दर्द से
दर्द ही तो है अकेला सहारा
मेरा ख़ून चमकता रहेगा मेरे बाद
सोचो, बन रहा है घर
बाक़ी है सिर्फ़ एक खम्भा, मेरी शक्ल में
मेरे ख़याल लौटा लाते हैं
और खड़ा कर देते हैं एक बच्चे को मेरे सामने
औरतों ! बनाओ कॉफी
कड़क, कड़वी
ले आओ थोड़ा पानी
धुल जाएँ जिससे सारी परेशानियाँ
तैयार हो जाओ मुसीवतो
तैयार हो जाओ परेशानियो
तैयार हो जाओ नाकामियो
कुछ कपड़े, कुछ आहें
छुपा लो अपने अज़ीज़ आँसुओं को
तैयार कर दो मुझे
इस जुदाई के लिए
फैला दो तमाम पसलियों को राहों में
बस दे दो एक पल की मुहलत
छोड़ दो तनहा
दर-बदर होने के पहले
छोड़ दो मुझे अयूब दरवाज़े के पास
पाँच मिनट, बस सिर्फ़ पाँच मिनट
शायद धुँधली पड़ जायें यादें
शायद साफ़ हो जायें ज़ेहन से
इन गलियों की तस्वीरें
जो नहीं छोड़तीं पीछा ख़यालों का
शायद तैय्यार कर सकूं रूह को
मंजिल के लिए
थोड़े-से असबाब के साथ
कितना लम्बा है रास्ता
मनाओ दिल को
कर सके कूच की तैयारी
तैय्यार करो काग़ज़ात
तैय्यार करो नावें,
अपनी चाहत जितनी लम्बी,
तैय्यार हो लहरो, तैयार हो हवाओ
चन्द लमहों में
समुन्दर कर देगा सीना चाक
चूर कर देगा हमें शीशे की तरह
औरतो, करो तैय्यारी
रास्ते के वास्ते
बुलबुलो, चहको आख़िरी बार
सिर्फ़ हमारे लिए
अन्दलूसिया, दिखाना हमें रास्ता
ख़ून से सने हमारे तमगे़
चमकेंगे और रौशन करेंगे रास्तों को
तैय्यार करो बच्चों को
कहीं सो न जायें गफ़लत में
कहीं थका न दें हमें
अन्दलूसिया के रास्ते में
एक भी टुकड़ा नहीं
रोटी का घर में
टिकाए हैं अपना वजूद
चन्द आलुओं से,
दूध के चन्द क़तरों से
देना जरा सहारा
कसना कमरबन्द ठीक से
ऐ मेरे जिस्म के कमज़ोर काठी वाले घोड़े
चलना अन्दलूसिया के रास्ते
सम्भल सम्भल के
०००
सभी चित्र गूगल से साभार
कवि का परिचय
मोहम्मद-अल-कै़सी- जन्म 1945 में। अब तक दस कविता-संग्रह प्रका- शित । 1984 में जार्डन-अरब कविता पुरस्कार। 1987 में अरब-स्पैनिश सेन्टर, मैड्रिड द्वारा 'इब्न-खाफ़ाजा' पुरस्कार। इनकी अधिकांश रचनाएँ एक अकेले बड़े संग्रह में उपलब्ध हैं।
०००
अनुवादक
राधारमण अग्रवाल
1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए
पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।
उस दौर का फिलिस्तीन कितना दारुण और भयावह था , इन कविताओं से गुजर कर ही पता चलता है ।
जवाब देंहटाएंइस दौर का भी कम दारुण नहीं है।
जवाब देंहटाएंयथार्थ की सघन अभिव्यक्ति हैं ये कविताएं
जवाब देंहटाएंमार्मिक और यथार्थ को छूती विचारणीय रचनाएँ।
जवाब देंहटाएंसादर।
......
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २४ सितम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक शुक्रिया जी
जवाब देंहटाएंफ़िलिस्तीन अब भी आज भी आग में जल रहा है, कविता हार जाती है हर बार युद्ध जीत जाते हैं
जवाब देंहटाएंसटीक
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