जिस ज़मीं पर भी खुला मेरे लहू का परचम
लहलहाता है वहाँ अरज़े1फ़िलिस्तीन का अलाम 2
तेरे आदा 3 ने किया एक फ़िलिस्तीं बर्बाद
मेरे ज़ख्मों ने किये कितने फ़िलिस्तीं आबाद
फ़ैज़
(1- ज़मीन, 2- झंडा, 3- दुश्मन )
फ़ैज़ ने फ़िलिस्तीन का दर्द महसूस करने के बाद ही यह लाइनें लिखी होंगी। शायद ही कोई हो, जो फ़िलिस्तीन का इतिहास जानने के बाद, उसके साथ हुई ज़्यादती से विचलित न होता हो । जानबूझ कर आँखें बन्द कर ली जायें तो बात अलग है । इतिहास ने सम्भवतः किसी और क़ौम या मुल्क के साथ इतना क्रूर मज़ाक नहीं किया । बहरहाल, फ़िलिस्तीन का वजूद एक सच्चाई है ।
पिछले वर्ष अफ्रो-एशियाई लेखक संघ द्वारा प्रकाशित फ़िलिस्तीनी कहानी संग्रह 'सुबह' में कुछ अनुवाद करने का अवसर प्राप्त हुआ था । यह अपनी तरह का अलग अनुभव था । उसी समय फ़िलिस्तीनी त्रासदी से गहरे रूप में साक्षात्कार हुआ। फिर कविता संग्रह का अनुवाद करने की इच्छा हुई । श्री भीष्म साहनी ने कृपापूर्वक मेरे आग्रह को स्वीकार किया । 'सुबह' का जिस तरह से सर्वत्र स्वागत हुआ, उससे भी उत्साह बढ़ा ।
प्रकाशन पूर्व इन अनुवादों का पाठ जबलपुर, भोपाल, दिल्ली एवं वाराणसी में हुआ। सुधी श्रोताओं ने डूबकर इन्हें सुना । एक ही प्रतिक्रिया थी — स्तब्धता । हिन्दी में इस तेवर की और इतनी संख्या में एक साथ फ़िलिस्तीनी कविताएँ पहली बार प्रकाशित हो रही हैं। इन कविताओं का अनुवाद करके मुझे गहरी आत्मतुष्टि मिली है।
कविताओं का अंग्रेज़ी पाठ 'लोटस' पत्रिका के प्रधान सम्पादक श्री ज़ियाद-अब्द-अल-फ़तह ने उपलब्ध कराया। अधिकांश कविताएँ 'द ब्रेथ ऑफ द कन्ट्री' संग्रह में हैं जो 1990 में अफ्रो-एशियाई लेखक संघ द्वारा प्रकाशित किया गया था । कविताएँ अगर आपको अच्छी लगें तो इनका श्रेय मूल कविता और कवियों को है। यदि कुछ अटपटा लगे तो यह निश्चय ही मेरे अनुवाद की अक्षमता है।
मैं सर्वश्री भीष्म साहनी, ज्ञानरंजन और दूधनाथ सिंह के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने समय-समय पर अपने सुझावों से मुझे उपकृत किया । अफ्रो-एशियाई लेखक संघ का भी कृतज्ञ हूँ जिसने इसके प्रकाशन का दायित्व लिया ।
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चित्र फेसबुक से साभार
मौत उनके लिए नहीं, कविता संग्रह के अनुवादक
राधारमण अग्रवाल
इलाहाबाद
22 फ़रवरी, 1991
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