नदी
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मैंने लिखनी चाही
नदी पर एक खूबसूरत कविता
और कोई खूबसूरत नदी तलाशता रहा ...।
ग्रीष्म में नदी नहीं , नाले मिले
और बरसात में ....
शहर-गाँव-सड़क-पगडंडी
सब जगह उफनी नदी ही नदी थी ।
क्या इसे नदी कहूँ ...
या कचरा-वाहिनी ??
मानव ने बसाई सभ्यताएँ
नदी-घाटियों में , और
मुनाफाखोर छोड़ गए उच्छिष्ट
पानी तक डकार गए....।
'गंगा' पर लिखी स्तुतियाँ बकवास निकलीं !
'यमुना' किनारे दिल्ली बदतर थी या यमुना
कहना मुश्किल था ।
'कोसी' तो अभिशाप की तरह कुख्यात रही ।
'ब्रह्मपुत्र' पर , हो सकता है
युद्ध ही छिड़ जाए कभी...कौन जाने !
नदियों के पानी के बँटवारे में
बंटाधार करते रहे राज्य नदियों का ।
'कावेरी' पर लड़ाए जाते रहे पंजे ,
'पंज-आब' पर चलता रहा सिरफुटौव्वल ।
नदियाँ कभी साफ न हुईं
साफ होते गए सरकारी खजाने ।
मैं बेचैन , खूबसूरत नदी की कविता को
कागज़ पर उतारने की कोशिश करता रहा
पर कविता तो गायब होती गई 'सरस्वती' की तरह
दिमाग के नक्शे से भी ...!
क्या करूँ ? ...
नदी को भूल जाऊँ या कविता को ?
ऐसा नहीं हो सकता ।
मनुष्य को तो खूबसूरत नदी
और नदी की खूबसूरत कविताओं की ज़रूरत है ।
०००
एक मिनट का मौन !
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इस मुल्क की संसद में
ठीक ' सेंगोल' के पास
पड़ी हुई है एक निर्जीव मृत किताब ।
उधर जीवित होकर
शासन के आसन पर
विराजमान हैं नई संहिताएँ ।
पूरा सेंट्रल हॉल भरा है
दारोगा , सिपाही ,
और पुलिस के आलाधिकारियों से ।
बाहर मिलिट्री जोश भरी धुन बजा रही है ।
मैंने सूचना के अधिकार के तहत
पूछने की हिमाकत की -
शवयात्रा कब निकलेगी ...?
जवाब मिला - शवयात्रा नहीं निकलेगी ।
किताब को ममी बनाकर स्थापित करना है ।
ऐतिहासिक क्षण है....!
जोशभरी मिलिट्री धुन बज रही है ।
पुलिस सावधान की मुद्रा में आ गई है ।
धर्मगुरु मंत्रोचार कर रहे हैं ।
इक्कीस तोपों की सलामी दी जा रही है ।
किताब पर न्याय का लेप चढ़ाया जा रहा है ।
किताब ममी बन चुकी है....
नागरिकों , आओ ,
हम एक मिनट का कम से कम मौन तो रखें !!
०००
भयभीत हैं हुक्मराँ
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एक नब्बे फीसद विकलांग इंसान से
एक अधेड़ हो चुकी स्त्री से
चंद निहत्थे लोगों से
सत्तर से भी ऊपर के एक वृद्ध से
सच की बाँह पकड़े एक नौजवान से
सत्तर साल के एक ' महान ' जनतंत्र के
सत्ताधीशों को डर लग रहा है !
डर लग रहा है कि वृद्ध नज़रों में
उठे ज्वलंत सवाल
कहीं ढाह न दे जर्जर जनतंत्र की दीवाल
कि साड़ी बांधे वह स्त्री दौड़ती हुई
पार न कर जाए शासन की खड़ी की गई बाधा-दौड़
कि व्हील-चेयर पर बैठा वह आदमी
तोड़कर फलांग न जाए जेल का फाटक
और कि सच का दामन थामे वह नौजवान
कहीं तोड़ ही न डाले सत्ता की झूठ की पसलियाँ !!
भयभीत हैं हुक्मराँ !
बेहद भयभीत हैं हुक्मराँ !!
रची जा रहीं हैं साज़िशें
ज्ञान की किताबों से डरते ,
सच से घबराते
बेख़ौफ़ निगाहों की
खुली गवाहियों से खौफ़ खाते !!
कमाल है ,इतनी सारी संगीनों को
इतना सारा भय - कलम से !!
जुगत भिड़ाने में व्यस्त हैं हुक्मराँ कि
कैसे गला घोंटकर
क्यों न मार ही दी जाए कलम
आहिस्ता-आहिस्ता , सदा के लिए
जेल की चारदीवारी में ...
क्यों न दाब ही दी जाए कलम
दफ़्न कर दी जाए आवाज़
ऐसे कि कोई खरोंच भी न दिखे ।
सोच में पड़े हैं हुक्मराँ
अकबका कर छीन ले रहे है कलम
तोड़ने को उद्धत ...!
पटक दे रहे हैं कैमरे , ज़ब्त की जा रहीं हैं तस्वीरें !!
ऊँची की जा रही हैं जेल की दीवारें...
जासूसी के लिए पीछे लगाई जा रहीं हैं खोजी-एजेंसियाँ !!
उन्हें शायद पता नहीं कि जेल की दीवारों पर
तमाम पहरों के ठीक नाक के नीचे
न जाने कितनी-कितनी बार
बिना कलम भी लिखी गई है -
संघर्ष की कहानी , मुक्ति की इबारत
उंगलियों , निगाहों , पसीने और रक्त से !!
न जाने कितनी -कितनी बार !!!
०००
वह समय कभी नहीं आएगा
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वह समय कभी नहीं आएगा
जब लोग संघर्ष करना बंद कर देंगे
रोना भूल जाएँगे
हँसना बंद कर देंगे
वह समय कभी नहीं आएगा .….।
ज़ालिम आख़िरी दम तक
फैलाएँ चाहे जितनी घृणा
अज्ञान का अंधकार ,
मनाएँ मृत्यु का उत्सव ....
जीवन को चीखने से नहीं रोक सकते ।
सत्य को उद्घाटित होने से नहीं रोक सकते ।
इस पृथ्वी से न तो प्यार ख़त्म होगा
न गीत ......!
न सपने खत्म होंगे , न संगीत
वह दिन कभी नहीं आएगा
जब चेतना आलोक के लिए मचलना बंद कर देगी
जब ज़िंदगी ज़िंदगी के लिए धड़कना बंद कर देगी
वह समय कभी नहीं आएगा ।
०००
प्रेम की अधूरी कविताएँ
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दोस्त कहते हैं - प्रेम पर कविता क्यों नहीं लिखते ?
मैं दिखाता हूँ उन्हें कई डायरियाँ ,
कुछ भरी , कुछ अधूरी
आड़े - तिरछे रेखाचित्रों से सजे पन्ने
प्रेम कविताओं के ....
जिनमें से बहुत कम ही हैं जो पूरी हो सकीं ।
डायरी के पन्ने के बीच रखे गुलाब की
पंखुड़ियाँ सूख कर झड़ चुकी थीं
बचा हुआ था एक मुरझाया डंठल ।
प्रेम पर लिखने को
जब भी मैंने कलम चलाई
यथार्थ के पन्ने पर काँपने लगी कलम
मुश्किल में पड़ते गए शब्द
बिम्ब की तो बात ही मत पूछो
बुरी हालत थी उसकी
और सबसे बड़ी मुश्किल में तो
खुद ' प्रेम ' शब्द ही फँसा हुआ मिला !
मैंने जब लिखना चाहा प्रेम , तो
पाया कि वह रुपए-पैसे के बदबूदार गटर में
किलोल कर रहा है ...!
मैंने जैसे ही लिखना चाहा - प्रेम
मेरे सामने खड़े हो गए न जाने कितने खाप
कितनी खोजी निगाहें
'संस्कृति' के स्वयम्भू रक्षक
'प्रतिष्ठा' में ऐंठी मूँछें
शोहदे , लफंगे , पुलिस
पड़ोसी , परिवार , राज्य ।
टीवी खोला तो छिड़ी थी बहस
घूँघट और बुर्के पर
सनातन और शरीयत पर !
अखबारों के पन्ने भरे पड़े थे
बलात्कार की खबरों से ....
प्रेमियों तक ने किए थे बलात्कार
प्रेमिकाओं ने दिया था धोखा ...!
मैंने न जाने कहाँ-कहाँ
कितने-कितने पार्क और मैदान तलाश डाले
तालाश किया नदी और समंदर का कोई
निरापद किनारा ...जहाँ
दो जोड़ी नज़रें डूब सकती हों एक-दूसरे में
उन्मुक्त , स्वतंत्र , निर्विकार , निर्विघ्न ।
हम तलाश में भटकते रहे उस जगह की
जहाँ हम ले सकें निर्भय , निर्विरोध
एक गहरा प्रेम भरा चुम्बन ...!
हमने हज़ार जोड़ी आँखों को घूरते हुए पाया
अपनी तरफ.... !
मैं चोरी-छुपे प्यार नहीं कर सकता था ।
सो मैंने जब भी लिखना चाहा - प्रेम
लिखने लगा - खाप
ज़रूरी पाया कि पहले
खाप पर लिखना ज़्यादा ज़रूरी है
और पुलिस और पड़ोसियों पर
शोहदों और लफंगों पर
सनातन और शरीयत पर
धन-संपत्ति , ओहदे-स्टेटस पर
लिखना बेहद ज़रूरी था मेरे समय में ।
ज़ाहिर है -
अधिकांश प्रेम-कविताएँ कभी पूरी न हो सकीं ।
०००
खुदाई
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तो फिर से खुदाई शुरू हो गई !
पता नहीं कितना नीचे तक खोदेंगे ये लोग ?
ज़मीन की ऊपरी सतह से पाँच-सात फीट नीचे तक
मिली किसिम-किसिम की मिट्टी ही
काली , पीली , मटमैली , धूसर , कंकरीली , पथरीली
फिर बलुआही मिट्टी भी मिली , कीड़े-मकोड़े मिले
कुछ सीसे , लोहे , हड्डी के टुकड़े भी मिले
मनुष्य की कुछ खोंपड़ियाँ मिलीं -
जो अभी तक गर्म थीं ... पता नहीं क्यूँ !
तमाम खोदने वालों की खोंपड़ियाँ भी हैं अभी गर्म
वो सभी कुछ न कुछ बुदबुदा रहे हैं
कुछ मंत्र पढ़ रहे हैं , कुछ कलमा पढ़ रहे हैं
कुछ छाती पर क्रॉस बनाकर गौर से देख रहे हैं
कुछ ने भजन , सबद आदि गाना शुरू कर दिया है ।
सतह की तरफ ध्यान नहीं है इनलोगों का
ये नहीं देखना चाहते ज़मीनी हक़ीक़त
ये ज़मीन पे मुँह बाए खड़ी समस्याओं के
पाताल-काल में समाधान खोज रहे हैं
अजीब लोग हैं ... पता नहीं कहाँ तक खोदेंगे ?
कुछ और नीचे लोहे के औजारों के टुकड़े मिले हैं
लोहे के हथियारों के भी टुकड़े मिले
मसलन त्रिशूल , भाले और तलवारों के ....
धातुओं और मिट्टी के बर्तनों के भग्नावशेष भी मिले
जानवरों की हड्डियाँ ,
और मनुष्य के जबड़े और खोंपड़ियाँ यहां भी मिलीं ....
खोदनेवाले लोग अभी भी भुनभुना रहे थे
उनकी खोंपडी अभी तक गर्म है ।
और नीचे , बस पत्थर थे
पत्थर पर उकेरे गए थे चित्र
या फिर कोई भाषा थी , कौन जाने !
खोदने वाले मनुष्य भी नहीं जान पाए
उन्हें अभी खोदने की धुन सवार है
कुछ ने जयकारे के साथ उठा लिए हैं
खुदाई में मिले त्रिशूल ...!
कुछ ने क्रॉस ....बड़ी सी सूली सा !
कुछ ने विजेताओं के तलवार थाम लिए ....
उन्होंने अजीबोग़रीब जंगली आवाज़ें निकालीं
और अपने सर इसतरह टकराए मानो
पाषाणकालीन मृदभांड टकरा रहे हों !
हम और नीचे तक खोदेंगे - कुछ चिल्लाए !
हमें और नीचे से क्या काम ? ... दूसरे भभके
यहाँ तलवारें मिली हैं - तलवारें ही सच हैं ,
ये देखो , ऊँटों के खुरों के निशान यहाँ भी मिले ।
नहीं , त्रिशूल ही सच है ,
और सच हैं पत्थर की ये मूरतें
नीचे और भी पत्थर की मूरतें मिलेंगी ।
तीसरा भी विरोध में खड़ा था -
इस सलीब को क्यों भूलते हो ?
इसपर हमारे मसीह को लटकाया गया था
इतिहास यहीं से शुरू होता है , समझ लो !
ख़बरदार , इतिहास सनातन काल से है
हम सनातन तक खोद कर रहेंगे ........!
वो और नीचे गए , वो और पीछे गए
जहाँ मिला पानी का बहता सोता ...
उसमें बह रहे थे असंख्य जीव-जंतु
वायरस-बैक्टीरिया-अमीबा
मिनरल , काई , शैवाल ...
खोदनेवाले थक गए थे , पर वो अभी भी भुनभुना रहे थे
अब उन्होंने पानी पर लड़ना शुरू कर दिया
एक ने कहा - यही तो जमजम का पानी है
दूसरे ने आपत्ति जताई - ख़बरदार , ये गंगा माँ हैं
तीसरा चिढ़ते हुए बोला - ये होली वाटर है , यू नो !
खोदनेवाले अभी भी लड़ रहे थे
उनकी खोंपड़ियाँ अभीतक गर्म थीं
हालाँकि , उनके पास अब खोदने के लिए कुछ न था ।
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उम्मीद के बीज
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उजाड़ धरती पर भी
खिलेंगे फूल ...!
मानव रक्त जो बहाया जा रहा है
दुनिया में ....
नहीं सूखेगा बिना सींचे
उम्मीद के बीजों को ...!!
पतझड़ में उदास मत होना
मत होना अवसादग्रस्त
जूझते रहना , वसंत आएगा !!
अभी तो बाक़ी है
पूरी धरती का पट जाना
गुलमोहर के टेस लाल फूलों से !!!
०००
परिचय
बिहार के भागलपुर जिले में जन्म । मैट्रिक तक की शिक्षा
कहलगांव के उच्च विद्यालय में पाई । इंटर और उसके बाद की उच्च शिक्षा की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से हुई । कॉलेज के दिनों से ही साहित्य , कला और वाम राजनीति में सक्रियता । अभी भी एक लेखक तथा सांस्कृतिक एवम् राजनीतिक - सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर सक्रिय ।सम्पर्क:- Mob - 9576035916
कमल भाई आपकी कविताएं उद्वेलित करती हैं। एक बार पढ़ा है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है फिर पढ़ना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। साधुवाद स्तरीय रचनाओं के लिए।
जवाब देंहटाएंशानदार अपेक्षित कविताएं आदरणीय
जवाब देंहटाएंशुक्रिया बेनामी भाई ! पढ़कर टिप्पणी अवश्य करें भाई ।
जवाब देंहटाएंआदित्य कमल
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी आशादायी प्रेरक क्रांतिकारी कविताएं।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंबहुत ही अच्छी कविताएँ !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मित्र
जवाब देंहटाएं