एक
ये दासियाँ किस खेत में उगती थीं
आरती
हर कहानी में कोई राजा और उसकी खूबसूरत रानियाँ थीं
राजकुमार और राजकुमारी भी थीं हर कहानी में
एक दिन राजकुमारी की शादी दूर देश के बहुत ही रूपवान, पराक्रमी राजा से होती है
राजा रानी अपनी बेटी को विदा करते हुए बहुत सारा धन घोड़े हाथी और हजारों दासियाँ भी देते हैं
मैं कहानी को थोड़ा रोककर पूछती हूँ कि बताओ!
ये हजारों लाखों दासियाँ कहाँ से आती थीं
क्या राजा के किसी खेत में उगाई जाती थीं
या जंगलों से बीन कर लाई जाती थीं
याकि चट्टानों से तराशकर बनाई जाती थीं
कहानी मेरी ओर आँख तरेरकर देखती है…
हमारे राजाओं ने हमेशा धर्मयुद्ध लड़ा
नहीं लूटा किसी पराजित राजा का धन
औरतों को तो हाथ तक नहीं लगाया
हमें यकीन है इस पर
क्योंकि किसी कहानी में ऐसा कोई जिक्र नहीं है
हालाकि प्रश्न यथावत है और अभी भी अनुत्तरित है…
कुछ कहानियाँ बड़ी ढीठ रहीं हर काल में
अपने गंतव्य से भटक गईं
नतीजन एक दासी को लापरवाही की सजा बतौर भाड़ में झोंक दिया गया
एक को कौहकनी बनाया गया तो कईयों को काल कोठरी की सजा और सजा ए मौत भी हुई
एक कहानी बाँधते बाँधते ऐसी छूटी कि एक दासी का पुत्र तो विद्रोही ॠषि हो जाता है और पूछता है अपनी माँ से -
कि मेरा पिता कौन है?
और वह बिना झिझके उत्तर देती है
'इस नगर के राजा मंत्रियों और महाजनों की सेवा में रही हूँ
उन्हीं में से कोई तुम्हारा पिता होगा... '
और यह पंक्ति नैतिकता से लीपे पोते गाल पर अभी तक तड़ातड़ झापड़ बजा रही है
एक और कहानी की कुबरी कानी दासी
अपनी रानी के हिस्से का अपयश खुद खाकर
इतिहास में अमर हो गई
यहाँ पर कहानियाँ उदास और क्षमायाचना की सूरत में नजर आईं
इन दास दासियों के माँ बाप
पति बेटा बेटी
जमीन जायदाद
उनके अपने लड़ाई झगड़े प्रेम व्यवहार
उनके रंग रूप कुछ तो रहा होगा …
यह प्रश्न इसलिए कि आज भी माता पिता बेटियों को घर से बाहर भेजने को लेकर फ़िक्रमंद होते हैं
नियत समय से आधे घंटे भी लेट हो जायें बेटियाँ तो उन्हें काटो तो खून नहीं
फिर कैसे उस जमाने में दिन- दिन और रात- रात भर पुरुषों के शयन कक्षों में पंखे डुलाती खड़ी रह सकती थीं ये दासियाँ
मैं पूछती हूँ कहानी से...
कहानी हकलाने लगती है...
एक कहानी खुद तो कुछ नहीं बोली
लेकिन मेरे हाथ में एक पर्चा थमा गई
जिसमें लिखा था
कि एक बड़े साम्राज्य की एक जिद्दी रानी राजसत्ता से बगावत कर बैठी
और इन्हीं हजारों लाखों दासियों के अवैध शिशुओं की हत्याओं पर न्यायाधीश से भिड़ गई
राजा तक से भिड़ गई
और नतीजन स्वर्णिम इतिहास के पन्नों से बेदखल कर दी गई
कुछ कहानियाँ एक दूसरे के कान में फुसफुसाकर कहती हैं उसका नाम
और फिर सुधारती हैं अपना ही कहा
कि "हाँ इस नाम की एक नदी बहती थी उस राज्य में"
कहानियाँ तो कहानियाँ ही हैं आखिर
आप बस उनकी आँखों में प्यार से निहारते जाओ
धीरे धीरे हूँकी भरते जाओ
मुझे उम्मीद है एक दिन सत्ताओं की तमाम चेतावनियों को भूलकर वे निडर हो जाएंगी
धीरे धीरे खुलेगी और सब कुछ कह देगीं।
०००
दो
तीर की नोंक पर रखकर स्तन, एक स्त्री घोषणा करती है
प्रकृति ने स्त्री के स्तनों को अपना हमशक्ल माना और उस पर यह सबसे खूबसूरत पंक्ति लिखी
"एक स्त्री बच्चे को जन्म देने के बाद सकुचाती हुई उसे स्तनपान करा रही है"
कैमरे के फोकस लेंस पर आँखें गड़ाये दूसरे कोण से अपने समय को देखती हूँ
और एक ही समय में चीख और अट्टहास के दृश्यों को प्रकाश वेग से सुन सकती हूँ
किसी स्त्री के स्तनों को रौंदकर कोई पुरुष दुग्धपान का स्वाद भूल चुका है
बर्बर और कबीलाई कहते हुए रूक जाती हूँ और कोई बड़ी सी गाली खोजती हूँ उस कुदृश्य के लिए
जब एक स्त्री सिर्फ योनि और दो स्तन में बदल दी जाती है
बर्बर युग तो तभी चरम पर था
जब योगनियों की प्रतिमाओं के पत्थर हो चुके स्तनों को क्षत-विक्षत किया गया था
और सभ्यता को जीत सकने की घोषणा की गई थी
फिर एक स्त्री ने काट कर फेंक दिए थे अपने स्तन
एक आताताई के सामने
और अभूतपूर्व विद्रोह की शुरुआत हो गई थी
जनता ने विद्रोह किया
विद्रोह करके क्या कर लिया
उन्होंने राजा बदल दिया…
एक राजा फिर दूसरा राजा फिर कोई तीसरा आया
थोड़े दिनों बाद फिर वही किस्सा
वह अपनी मर्जी का बादशाह बना
दबोचता रहा सुडोल कुडोल स्त्री देह को
रौंदता रहा स्तन और योनियाँ
समय के दूसरे छोर पर दृश्य बदलता है-
एक नामी-गिरामी फोटोग्राफर
झारखंड बस्तर के घने जंगलों के बीच एक झोपड़ी के पास रूककर
उस अश्वेत स्त्री के सुडौल स्तनों को कला का अनुपम उदाहरण बताता उसे फोटोग्राफी के लिए राजी कर रहा होता है
खुली छातियों को अपने बच्चे के मुँह में दिए वह स्त्री तब शाम का भात राँधने के बारे में सोच रही होती है
स्तन क्या है?
एक जटिल स्वेद ग्रंथि/ अतिरिक्त चर्बी जैसा कुछ/ सत्रह दुग्धधानी स्योत्र/ शिशु के जन्म लेते ही खून का दूध में बदल जाना/ कोई आश्चर्य नहीं, स्त्री देह की प्रमाणिकता..
चिकित्सा शास्त्र की क्लास में एक अनुभवी प्रोफ़ेसर अपने युवा छात्रों को ऐसा पढ़ा रही होती है
फिर भी सम्मोहन ऐसा कि -
भर्तहरि और कुमारसंभव पुस्तक भर वर्णन लिखते हैं
वे राधा कृष्ण के, शिव पार्वती के सम्मोहन की परतों के बहाने खोल रहे होते हैं अपने भी मन को
फिर भी कोणार्क है, खजुराहो है, अजंता- एलोरा है
यानी कला है देह
बिहारी की नायिका के झीने कपड़ों से झाँकते हुए स्तन जंघायें
समूची देहयष्टि
यानी पूरा का पूरा स्त्री शरीर कला है/ कविता है
जिसे समझने की कोशिश सदी दर सदी चलती रही
योग साधना के द्वार पर खोल दी गई कंचुकी
जिसके आधार पर योगी स्त्री का चयन करता है
वह पुरुष जो संसार का त्याग कर सन्यासी हुआ है
वहाँ भी किन्ही परतों के भीतर कंचुकी भर मोह बचा हुआ है
मोहाशक्त सन्यासी इसे दर्शन कहकर बखान करता है
एक स्त्री भी वैसी ही
सिलिकॉन रसायन के इंजेक्शन टेबलेट लेती वह भी तो लगभग फिदा है अपने स्तनों की गोलाई पर
बाजार की नियमावलियों के हंटर फटकारती देह पर
अंतः वस्त्रों की कंपनियों के विज्ञापन करती
कृत्रिमता को एरोटिक बनाती
आंखों में चालों में सिक्कों की चमक की उत्तेजना भरती
वहाँ भी जहाँ कई शोर और आवाजें हैं -
मेरी देह मेरा मालिकाना / देह मात्र टैक्स है/
पर्सनल इज पॉलिटिक्स/ आवर बॉडी इज आवर बैटलफील्ड….
थोड़ी ही दूर पर अस्पताल के कमरा नंबर 321 में अभी-अभी एक स्त्री के स्तनों को काटे जाने की तैयारी चल रही है
अब स्तन सिर्फ छाती में दो सूखे हुए घाव हैं
हमारे युग की स्त्री के पास नहीं है ऐसी कोई मंत्रशक्ति कि तन्मय दुग्धपान कराती स्त्री को उधेड़ कर देख लेने के अपराध में उसकी जुबान को पैरालाइज कर दिया जाये
खैर इस कहानी की प्रमाणिकता पर संशय किया जा सकता है
पर नहीं, हमारे ही युग की एक स्त्री तीर की नोंक पर रखकर एक स्तन घोषणा करती है-
कि सुनो दुनिया की माँओं सुनो!
एक स्तन से हो जाएगा तुम्हारे बच्चे का पोषण..
सुनो स्त्री की छातियां बेड़ियाँ नहीं है..
जुगुप्सा नहीं है/ उत्तेजना नहीं है/
युद्धभूमि नहीं है
सुनो अप्राकृतिक मनुष्यों सुनो
प्रेम है स्त्री देह/ जीवन है/ पूर्णता है…
०००
तीन
रामराज की तैयारी का पूर्वरंग
प्रश्न पूछने वालों को बेंच के ऊपर हाथ उठाकर
खड़ा कर दिया जाएगा
मुंडी हिलाने वालों को मुर्गा बनाया जाएगा और
बात-बात पर तर्क करने वालों को
क्लास से बाहर धकेल दिया जाएगा
प्रहसन की तैयारी से पहले मास्टर जी ने
यह बात तीन बार बताई
रामराज आने वाला है और यह सब
उसी की तैयारी का पूर्वरंग है
अभी राम को अयोध्या के राजा ने अर्थात उनके पिता ने वनवास दिया है और स्वामी की आज्ञा के आगे कोई भी न्याय वगैरे की बात नहीं करेगा
राम ने भी नहीं की थी न ही किसी देशवासी ने
राजा प्रजा का स्वामी होता है
यह बात भी मास्टर जी ने तीन बार बताई
दूसरे हिस्से में युद्ध का अभ्यास चल रहा है
अस्त्र शस्त्रों के नाम से लेकर तकनीकी की भी जानकारी दी जा रही है
और यह भी कि राम के साथ धनुष बाण हमेशा होना जरूरी है
जैसा की तस्वीर में होता है
अब राम राजा नहीं है फिर भी सेना बनाने में जुटे हैं
रामराज लाने की प्रक्रिया में युद्ध बहुत जरूरी है
इसीलिए जंगल में राम ने पहले भीलों किरातों से
फिर वानर भालूओं से दोस्ती बनाई
सुग्रीम की जरूरत पहचान कर उसे राजा बनने में मदद की
और इस तरह दोस्ती के भीतर दासत्व जैसे नए रिश्ते का ईजाद किया
रामराज लाने से संबंधित तमाम प्रोपेगंडा संभालने का काम
हनुमान के मत्थे सौंपा गया
हाँ एक बात याद आई
युद्ध में औरतों का क्या काम
इसलिए सारी लड़कियां क्लास से बाहर चली जाए और
वीरों की आरती उतारने का अभ्यास करें
यह बात भी मास्टर जी ने तीन बार बताई
आगे मास्टर जी ने सोने के हिरण वाली बात बताई
राम ने शबरी के जूठे बेर को कितने प्रेम से खाया, यह भी बताया
उन्होंने मारीच से लेकर बाली कुंभकरण और
रावण वध की कथा सविस्तार बताई और तीन तीन बार बताई
उन्होंने यह भी बताया कि रावण बड़ा विद्वान था और
राम विद्वता का बड़ा सम्मान करते थे
अतः उन्होंने लक्ष्मण को रावण के पास राजनीति सीखने भेजा
मास्टर जी ने यह नहीं बताया कि जब लक्ष्मण को राजा बनना ही नहीं था
तो कायदे से राजनीति सीखने राम को जाना चाहिए था
नहीं बताया मास्टर जी ने राम के दुखों और छोटे-छोटे सुखों के बारे में
कि रात के किस पहर अचानक सीता की याद में घंटों रोए थे
कि उन्हें माँ की याद कब-कब आई
कि पिता की मृत्यु की खबर राम ने कैसे सहन की
उन्होंने यह सब एक बार भी नहीं बताया कि अग्निपरीक्षा लेते हुए
राम कितने आदर्श बचे थे?
कि गर्भवती पत्नी को बनवास देते हुए राम को अपने होने वाले बच्चे का बिल्कुल भी ख्याल नहीं आया?
सच तो यह है कि राम को राजा ही बनना था
चौदह साल बाद ही सही
रावण हमेशा राम की छवि चमकाने के काम आया
सच तो यह भी है कि राजा किसी का सगा नहीं होता
न पिता का न पत्नी का न पुत्र का
यहाँ तक कि उस ईश्वर का भी नहीं
जिसकी ढाल वह हमेशा अपने साथ रखता है...
०००
चार
बीच में एक नदी बह रही है
बीच में एक नदी बह रही है
उस पार दुश्मन देश के लोगों का गाँव है
ऐसा अचानक, इस पार के गाँव वाले सोचने लगते हैं
और लगभग ऐसा ही उस पार के गाँववालों का भी सोचना है
हालांकि कुछ समय पहले दोनों ही गाँव के चरवाहे
एक कान में उंगली डाल विरहा की तान छेड़ते और दोनों ही गाँव में बहने वाली हवाओं के कदम मदमस्त हो जाते
उनकी भेड़ बकरियाँ जब कभी एक दूसरे के घाट में पानी पीते छूट जातीं
तो वे उन्हें अमानत की तरह पालते पोसते और वापस लौटा दिया करते थे
इस पार उस पार के दोनों ही गाँव की बेटियाँ
जो एक दूसरे गाँवों में ब्याही हुई थीं
और उनके बीच अब तक कद्दू ककड़ी तुरई गुजिया नमकीन का बायन बराबर चलता रहता था
इन दिनों वे सब राष्ट्रभक्ति के बटहरे में दस दस ग्राम कम बेसी तौली जा रही हैं
वे तय नहीं कर पा रहीं कि इस धर्मयुद्ध में खड़े भाई और पति के बीच किसे अधर्मी घोषित करें
एक चिड़िया भी इन दिनों उदास और चुपचाप ऊँघ रही है एक गिलहरी बीमार सी पेड़ की डाल पर सोई रहती है
धान के खेतों को जैसे पीलिया हो गया है
एक चील यकायक आसमान से उतरती है और दोनों गांवों को जैसे नापकर अपनी आँखों में
गुम हो जाती है
ये नदी के पार के गाँव भारत- पाकिस्तान के भी हो सकते हैं
इजराइल-फिलिस्तीन के या
क्यूबा अमेरिका के
ये चीन और ताइवान के गाँव भी हैं
रवांडा, क्राकेशिया के
रूस यूक्रेन के गाँव भी नदी के इसपार- उसपार वाले गांवों की शक्ल में समाये हुए हैं
हर देश की डुगडुगी से लेकर
बड़े-बड़े भोपुओं से आवाज लगाई जा रही है
अखबार और चैनलों के दफ्तरों से यही बात चीख चीखकर दोहराई जा रही है
कि देश की खातिर ही राजा युद्ध करता है/ उसे युद्ध करना पड़ता है
और ऐसा सिर्फ राजा के सिपहसालार ही नहीं बहुसंख्यक प्रजा भी मानती है
इसीलिए वह एक जून की रोटी नोन में गुजर करके दोनों जून राजा के विजय की प्रार्थना करती है
हाँ हमें इल्म है कि देश और धर्म को बचाने के लिए इतिहास में राजाओं ने लूटमार की
आबाद नगरों को उजाड़ किया
दुश्मन देश के खेत जलाये
जीते हुए सिपाहियों ने पराजित देश की स्त्रियों से बलात्कार किया
उनके नवजात शिशुओं के टुकड़े-टुकड़े कर दिये
फिर ऐसा क्या हो जाता है कि बाजुओं के दम पर बौराये जीवन भर साम्राज्य विस्तार करते
और अपने खानदान के बीमार नपुंसक पुरुषों के लिए औरतों का हरण करते रहे गंगापुत्र भीष्म
अचानक मृत्युशैया पर युद्धविरोधी हो जाते हैं और
कहते हैं- जो राजा अपनी प्रजा पर बार बार युद्ध थोपता है वह नरकगामी होता है
यही बात हमारे समय के कुछ मुट्ठी भर लोग भी दोहराते हैं
ये सिरफिरे आवारा किस्म के लेखक कलाकार हैं
जो बैनर पोस्टर लिए राजमार्गों पर खड़े
युद्ध के खिलाफ नारेबाजी कर रहे हैं
और दूसरी तरफ हमारे समय की लोकतांत्रिक सत्तायें
अपने जेल की दीवारों को मजबूत कराने में मशगूल हैं।
०००
चित्र गूगल से साभार
पांच
साल दो हजार बीस- इक्कीस और हमारी पीढ़ी का मर्सिया
नहीं देखा मैंने कोई युद्ध
किताबों में पढ़ा और जाना
कि कितनी खतरनाक होती हैं अबैध इच्छाएँ
नहीं देखा देश का बँटवारा
कई दशक बाद पैदा हुई
भूकंप में दरकती धरती की चीख नहीं सुनी
अकाल का कहर नहीं देखा
और दंगों को भी नहीं देखा उस तरह
जिस तरह अलीगढ़ियों ने पंजाबियों ने
और मुजफ्फरपुर वालों ने देखा है
इन सब को जाना किताबों में पढ़कर
डॉक्यूमेंट्रियाँ देख देखकर महसूस किया
मेरा जन्म हलचलों से परे
विन्ध्याचल की ओट में बसे
एक खूबसूरत कस्बे में हुआ
और वैसे ही शांत से गाँव में
नाना नानी के लाड़ दुलार बीच बड़ी हुई
फिर जीवन की जरूरतों को ढूँढ़ते ढाँढ़ते
एक दिन चली आई इस शहर में
सरपट दौड़ने को आतुर यह शहर भोपाल
हमारे प्रदेश की राजधानी
देश का दिल है ये, ऐसा भी कहा जाता है
चौथी कक्षा के सामाजिक विज्ञान में
चौरासी के गैसकांड के रूप में भी जाना था जिसे
हाँ! हमने भोपाल गैस त्रासदी को भी नहीं जाना
उस तरह,जिस तरह कि चार पीढ़ियों बाद भी
अनुवांशिक बीमारियाँ भोगते भोपालियों ने जाना है
मुख्तसर इस दर्द को महसूसा पहली बार
एक बैले देखकर
इस तरह देखा जाए तो हमारी पीढ़ी के बहुसंख्यक लोग
पुरसुकून की पैदाइश ठहरे
पूरे होशोहवास में लिखा मेरा बयान यह
प्रमाणित ही रहता
बयालीस की मेरी उम्र के बाद भी
लेकिन जैसे महाभारत के खांडव वन में आग लगी
और बिल के भीतर छिपे चूहे भी सलामत नहीं रहे
ऐसा अंधड़ चला कि हवाएँ भी झुलस गईं
ऐसी ही एक आग लगी
अभी अभी हमारे समय में
कि अब मुझे साल दो हजार बीस और इक्कीस के
ब्लैकबोर्ड पर दूसरा ही हलफनामा लिखना पड़ रहा है
हाँ हमने साल दो हजार बीस देखा !
हाँ हमने साल दो हजार इक्कीस देखा !
कोई बादल नहीं फटा
धरती नहीं दरकी
दुनिया के किसी भी कोने में परमाणु बम नहीं फेंका गया
दंगे भी नहीं हुए कहीं
लेकिन लाशों के अंबार बिछ गए
बुरी स्मृतियों को भुला देने के तर्क से मैं सहमत नहीं हूँ
दुर्दांत घड़ियों को बार-बार याद करते रहने की
जरूरत होती है
यादें वह सफ्फाक आईना हैं
जिसमें साफ दिखाई देते हैं कील मुंहासे तक
इसीलिए मैं भुलक्कड़ों को झकझोरने की खातिर
शहर की सबसे ऊंची बिल्डिंग पर खड़े होकर
चीख चीखकर
दोहराऊंगी
हाँ याद करो उस डर को
जिसकी देह में असंख्य केचुलें थीं
घर के भीतर बंद लोग रिश्तेदारों और पड़ोसियों से डरे
दोस्तों से डरे
दीवारों से डरे, दरवाजों से डरे
अपनी ही परछाइयों से डरे
सबसे ज्यादा लोग कामगारों से डरे
डर समय का स्थायी भाव बन गया
मैं कहती हूँ उन भुक्तभोगी लोगों से
कि दर्ज करो उन कूर स्मृतियों को
अपने भाई को खो चुकी बहन से कहती हूँ
कि बताओ सबको - एक इंजेक्शन के लिए तुम कितनी दूर दूर तक भटकती रही
और फिरौती की कितनी रकम तुमसे माँगी गई
उस औरत को कहती हूँ जिसके पति के लिये ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं मिला
उस अट्ठाइस साला युवक को भी कहती हूँ
कि याद करो
तुम्हारे बूढ़े बाप को मरने से पहले ही
वेंटिलेटर से उतार दिया गया था
उनसे भी जो अपने परिजनों का
श्मशान तक साथ नहीं दे पाये
बच्चों का चेहरा नहीं देख पाई माँओं से कहती हूँ
और मैं उन अबोध बच्चों से भी कहूंगी किसी दिन
जिन्हें आज भी अपनों के वापस आने का इंतजार है
एक किस्से की तरह ही सही, सुनाओ
शोकगीत की तरह गाओ
बार-बार याद दिलाओ उन सबको
जो भूल चुके हैं
उस समय की भयानकता ही नहीं
काईयांपन भी दोहराना जरूरी है
याद करो कैसे घरों में सुरक्षित बैठे
पकवानों का लुफ्त उठाते लोगों ने
भूख से मरते लोगों पर चुटकुले बनाये
याद करो अपने गाँव के सरपंच से लेकर
विधायक तक को
जो देश की जनता की सेवा की
कसमें बात बात पर दोहराते रहे
वे सब आपदा में अवसर तलाशते रहे
मैं देख रही हूँ अभी भी, सब कुछ वैसे का वैसा
मैं देख रही हूँ दिन-रात मुर्दाघरों को दहकते हुये
करोड़ों लोगों को भूख से तड़पते हुये
अपने प्रियजनों की लाशों को पीठ पर लादे
पैरों को घसीटते हुए
मैं देख रही हूँ अपने देश के सत्तानशीन को
इस सदी की सबसे बड़ी बेकारी के बीच
आत्मनिर्भरता का झुनझुना लोगों को थमाते हुये
मैं तमाम बयानों की उस पंक्ति को
रेखांकित करना चाहती हूँ
जहाँ स्मृतियों को कभी भी विस्मृत न किए जाने की
बात कही गई है
और इस तरह मैं अपनी स्मृतियों के कोनों में
एक बार झाड़ू रोज फेरती हूँ
हाँ मैं आखरी में इतना ही कहूँगी कि
मेरे समय का यह टुकड़ा
मेरी स्मृतियों में हमेशा जिंदा रहेगा
लेकिन बुरी
और बेहद बुरी
स्मृतियों की तरह।
०००
छः
अच्छी लड़की के लिए जरूरी निबंध
एक अच्छी लड़की सवाल नहीं करती
एक अच्छी लड़की सवालों के जवाब सही-सही देती है
एक अच्छी लड़की ऐसा कुछ भी नहीं करती कि सवाल पैदा हों
मेरे नन्ना कहते थे- लड़कियाँ खुद एक सवाल हैं जिन्हें जल्दी से जल्दी हल कर देना चाहिए
दादी कहती- पटर पटर सवाल मत किया करो
तो यह तो हुई प्रस्तावना अब आगे हम जानेंगे
कि कौन सी लड़कियां अच्छी लड़कियाँ नहीं होती
एक लड़की किसी दिन देर से घर लौटती है
वह अच्छी लड़की नहीं रहती
एक लड़की अक्सर पड़ोसियों को बालकनी पर नजर आने लगती है….. वह अच्छी लड़की नहीं रहती
एक लड़की का अपहरण हो जाता है एक दिन
एक लड़की का बलात्कार हो जाता है और उसकी लाश किसी नदी नाले या जंगल में पाई जाती है
एक लड़की के चेहरे पर तेजाब डाल दिया जाता है
और एक लड़की तो खुदकुशी कर लेती है…
क्यों -कैसे?
जानने की क्या जरूरत
यह सब अच्छी लड़कियाँ नहीं होती!
मैं दादी से पूछती -अच्छे लड़के कैसे होते हैं
वह कहती – चुप ! लड़के सिर्फ लड़के होते हैं
और वह शुरू हो जाती फिर से अच्छी लड़कियों के
गुण बखान करने
दादी की नजरों में प्रेम में घर छोड़कर भागी हुई लड़कियां केवल बुरी लड़कियां ही नहीं
नकटी कलंकिनी कुलबोरन होती
शराब और सिगरेट पीने वाली लड़कियाँ दादी के देश की सीमा के बाहर की फिरंगनें कहलाती थीं
और वे कभी भी अच्छी लड़कियाँ नहीं हो सकतीं
खैर अब दादी परलोक सिधार गई और नन्ना भी नहीं रहे
फिर भी अच्छी लड़कियाँ बनाने वाली फैक्ट्रियां
बराबर काम कर रही हैं
और लड़कियों में अब भी अच्छी लड़की वाला ठप्पा अपने माथे पर लगाने की होड़ लगी है
तो लड़कियों! अच्छी लड़की बनने के फायदे तो पता ही है तुम्हें
चारों शांति और शांति…..
घर से लेकर मोहल्ले तक
स्कूल कॉलेज शहर और देशभर में
ये तख्तियाँ लेकर नारे लगाना जुलूस निकालना
अच्छी लड़कियों के काम नहीं है
धरना प्रदर्शन कभी भी अच्छी लड़कियाँ नहीं करतीं
मेरे देश की लड़कियों सुनो!
अच्छी लड़कियाँ सवाल नहीं करती और
बहस तो बिल्कुल भी नहीं करती
तुम सवाल नहीं करोगी तो हमारे विश्वविद्यालय तुम्हें गोल्ड मेडल देंगे
जैसा कि तुमने सुना जाना होगा इस विषय पर डिग्री और डिप्लोमा भी शुरू हो गया है
इन उच्च शिक्षित लड़कियों को देश-विदेश की कंपनियाँ अच्छे पैकेज वाली नौकरियाँ भी देती हैं
देखो दादी और नन्ना अब दो व्यक्ति नहीं रहे
संस्थान बन गए हैं
खैर आखरी पैराग्राफ से पहले एक राज की बात बताती हूँ
कुछ साल पहले तक मैं भी अच्छी लड़की थी।
०००
सात
आदमी का विलोम
जैसे आग का विलोम पानी होता है
जैसे पिघलना का जमना होता है
या कि जैसे टूटना का जुड़ना होता है
क्या वैसे ही आदमी का विलोम औरत होता है
क्योंकि यहां पर मैं शब्दों के प्रयोग की बात कर रही हूं इसलिए भाषा विज्ञानियों को कोट करना जरूरी है
वे कहते हैं-
नहीं, आदमी का विलोम औरत नहीं होता
सही-सही बरतना सीखो तो आदमी का विलोम जानवर होता है
वे भाषा में बरते जाने वाले गलत रिवाजों को कुछ उदाहरण सहित समझाते हैं
जैसे कि फारसी भाषियों ने आदमी के विलोम को बरता और भाषा के संयंत्रघर में यह मुहावरे की तरह प्रयोग किया जाने लगा
कुछ स्त्री- पुरुष एक आयोजन कक्ष में प्रवेश करते हैं और माइक संभाल कर खड़े संचालक महोदय कहते हैं-
कृपया सभी आदमी दाएं तरफ और
औरतें बाई तरफ….
ऐसे ही वह औरत भी "मेरा आदमी... मेरा आदमी" कहकर बर्तन घिसती, पटकती और दाँत पीसती जाती है
मैं हिंदी की विद्यार्थी और थोड़े समय के लिए शिक्षक होने के बाद भी
कुछ शब्दों को ऐसे ही लापरवाही से बरतती आई
जैसे कि यहां पाँच आदमी और पाँच औरतें बैठे हैं
या फिर फलाँ काम को दो आदमी और दो औरत मिलकर कर रहे हैं
दरअसल जानने से ज्यादा मसले आदतों पर निर्भर होते हैं
और आदतें कोई आसमान से टपकती नहीं
इसे ही शायद राजनीति कहा जाता हैं और बड़े गर्व से इसे ही कूटनीति कहा जाता है
यह वाक्य भी ऐसे ही सदियों पहले कूटनीतिक षड्यंत्र का हिस्सा बना
और बना एक सर्वकालिक सिद्धांत जिसके तहत औरतें "आदमी" नहीं होती
जिस तरह से यह प्रश्न समाजशास्त्र का हिस्सा है
उसी तरह दर्शनशास्त्र को कमोबेश अब इसे
अपने सलेबस में प्रश्न की तरह शामिल कर लेना चाहिए?
सुना था कि टाइम मशीन बनी थी कभी
फिर यह भी सुना कि वह महज एक कल्पना थी
काश के बन सकती तो कितना आसान होता ऐसी गलतियों को सुधारना और खुद भी सुधर सकना
खैर अब कहां-कहां, क्या-क्या सुधारने की गुहार लगाई जाये
और आखिर तो यह होगा कि मुझे इस कविता को अधूरा ही छोड़ना पड़ेगा
वरना मेरे जमाने के सभी वरिष्ठ और युवा
गैर आधुनिक और आधुनिक
नाना तरह के आदमी, जिनमें मेरे पुरुष मित्र भी होंगे
वे सब के सब चीख ही उठेंगे
ओह, टू मच फेमिनिज्म!!!
०००
सभी चित्र गूगल से साभार
परिचय
मध्य प्रदेश, रीवा जिले के गोविंदगढ़ में जन्म। हिंदी साहित्य से स्नातकोत्तर और पीएचडी (समकालीन कविता में स्त्री जीवन की विविध छबियां) किया है।
दस साल से अधिक प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रियता। सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। साथ ही समकालीन मुद्दों और खास तौर पर स्त्री विषयक मुद्दों पर लगातार लेखन।कविता संग्रह- 'मायालोक से बाहर' और 'मूक बिम्बों से बाहर' 2024 में ही प्रकाशित हो चुका है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की दो पत्रिकाओं 'मीडिया मीमांसा' और 'मीडिया नवचिंतन' का कई सालों तक संपादन। रवींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित वृहद कथाकोष "कथादेश' का संपादन।
साहित्यिक पत्रिका 'समय के साखी' का संपादन।
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