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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 अक्टूबर, 2025

फिलिस्तीनी कविताऍं


महमूद दरवेश (13 मार्च 1941 – 9 अगस्त 2008)

फ़िलिस्तीन के राष्ट्रीय कवि थे, जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से निर्वासन, मातृभूमि, पहचान और प्रतिरोध के विषयों को व्यक्त किया।


खत्म हो जाएगा युद्ध

महमूद दरवेश

नेतागण हाथ मिलाएंगे। 

वह बूढ़ी औरत अपने शहीद बेटे का इंतज़ार करती रहेगी। 

वह लड़की इंतज़ार करेगी अपने प्रिय पति का। 

और वे बच्चे अपने वीर पिता का करेंगे इंतज़ार। 

मुझे नहीं पता हमारी मातृभूमि को किसने बेचा।

पर किसने इसकी कीमत चुकाई, मैंने देखा है।

०००


मोसाब अबू तोहा - जन्म 17 नवंबर 1992, गाजा पट्टी के एक फ़िलिस्तीनी लेखक, कवि, विद्वान और पुस्तकालयाध्यक्ष हैं । उनकी पहली कविता पुस्तक, " थिंग्स यू मे फाइंड हिडन इन माई ईयर" (2022) ने फ़िलिस्तीन बुक अवार्ड और एक अमेरिकन बुक अवार्ड जीता। 

अबू तोहा एडवर्ड सईद लाइब्रेरी के संस्थापक हैं , जो गाजा की पहली अंग्रेजी भाषा की लाइब्रेरी है। उन्हें नवंबर 2023 में इज़राइली सेना ने हिरासत में लिया था जब वह अपने परिवार के साथ मिस्र भागने की कोशिश कर रहे थे। बाद में पूछताछ के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया और तब से वे दूर से युद्ध के इतिहासकार के रूप में काम कर रहे हैं। द न्यू यॉर्कर में गाजा युद्ध के चित्रण के लिए उन्हें 2025 में पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।


ग़ज़ा का हर बच्चा मैं हूँ

मोसाब अबू तोहा


हर माँ-बाप मैं।

हर घर मेरा दिल है

हर पेड़ मेरा पैर।

हर पौधा मेरी बांह है

हर फूल मेरी आँख।

पृथ्वी पर हर सूराख़ मेरा घाव है।

०००


अब तक मिली जानकारी के अनुसार जूद सबै (जूद अल सबै ) 2015 में मीडिया की नज़र में वही लड़की है जो इज़राइली हमले में मारी गई माँ की मृत्यु के बाद बेहद व्यथित थी.









अगली बार 

​जूद सबे


    एक


अगली बार मैं प्यार करूंगी समुद्र को 

बिना हथियारों वाली नावों के। 

मैं जाऊँगी बिना डर के। 

मैं सपने देखने से डरूँगी नहीं। 

अगली बार, जब मैं सड़क पर एक महिला को रोते हुए देखूँगी,

मैं कहूँगी उसने अच्छा समाचार सुना, 

यह नहीं कि अभी-अभी वह मरने से बच गई। 

अगली बार, जब मैं बाहर शोर सुनूँगी,

मैं मेरे दिमाग से खंडित देहों के दृश्यों को परे हटा दूँगी 

मैं कहूँगी यह एक विवाह कार्यक्रम है न कि शहीद की मौत का जुलूस

अगली बार, जब मैं क़तार देखूँगी  

मैं सुबह की प्रार्थना सभा में स्कूल के अनुशासन की प्रशंसा करूंगी। 

मैं खाने की सहायता की क़तारें, पानी के लिए क़तारें, और अपमान भूल जाऊँगी। 

अगली बार, मैं नकार दूँगी ऐसे जीवन को, 

जो मैं अब जी रही हूँ।

मैं अपनी यादों से आज की कड़ुआहट मिटा दूँगी

मैं एक गुलाबी भविष्य बनाऊँगी 

जो दुस्वप्नों या भयावह दृश्यों के बिना होगा। 

अगली बार, मैं निडर होकर खुशी के दिन जियूँगी। कृपया...


         दो 

​अगली बार मैं सीखूँगी करना कुछ ज़्यादा तारीफ़। 

मैं हर बार विस्मित हो जाऊँगी,

जब देखूँगी स्वच्छ फ़ुटपाथ वाली कोई सड़क।

मैं हर दरार-मुक्त इमारत के पास ठहर जाऊँगी।

मैं हर दुकान को अपलक निहारूँगी,

और पेड़ों को पेड़ की तरह देखकर प्यार करूँगी, 

जलाऊ लकड़ी नहीं।

​अगली बार, यदि मुझे कोई तंबू दिखा,

तो मैं दावा करूँगी कि वह कैंपिंग होगा, 

महज़ प्रसन्नचित्त लोगों का।

और जो धुआँ उठ रहा होगा, वह सपनों के जलने का नहीं,

बल्कि बारबेक्यू पार्टी का होगा।

​अगली बार, मैं खिड़कियों के पास जाने से नहीं डरूँगी।

न ही मुझे सड़कों पर मौतें देखने की आदत होगी।

मैं हर तेज़ आवाज़ पर तनाव में नहीं आऊँगी।

मैं सबसे बुरे अंजाम की उम्मीद नहीं करूँगी।

मैं कहूँगी यह नए साल का जश्न है, 

उड़ते हुए सिरों का मंज़र नहीं।

मैं मिसाइलों को भूल जाऊँगी।

०००

 

मुमीनाह महरीन एक फोटोग्राफर, लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता और क्यूरेटर हैं, जो विवेक और मानव पीड़ा के विषयों की खोज करने वाले काम के लिए जाने जाते हैं। मुमीना महरीन न्यूयॉर्क में रहती हैं।







दुनिया की अंतरात्मा 

 मुमीना महरीन       


वे कहते हैं ─

लकड़ी और कपड़े का बना एक जहाज़ क्या कर सकता है,

लोहे की दीवारों के विरूद्ध 

बमों की भूख के विरुद्ध 

जो ग़ज़ा के आकाश को फाड़कर खा जाते हैं?  


लेकिन वे नहीं जानते। 

वे नहीं जानते 

कि समुद्र हर उस हाथ को याद रखता है 

जो घेर लिए गए लोगों की ओर पतवार चलाता है।  

उस हवा को जो उन लोगों की फुसफुसाहटों को लेकर चलती है 

जो साहस से कहते हैं:

अकेले नहीं हो तुम। 


ओ ग़ज़ा, पीड़ा की संतान, 

तुम जिस हवा में साँस लेते हो वह भारी है धुएं के भार से 

तुम जो पानी पीते हो वह नमक और ख़ून है, 

तुम्हारे चारों ओर जो दीवारें हैं 

उन पर बच्चों के नाम खुदे हैं 

जो ‘कल’ कभी नहीं पहुँच पाए। 

तुम्हारी ज़मीन सीख चुकी है पालना उन बच्चों को 

जो ताबूत के लिए बहुत छोटे हैं अभी।  


और फिर भी ─

जहाज़ अब भी आते हैं

तोपों के बिना, 

सेना के बिना, 

वे आते हैं केवल अंतरात्मा की पुकार 

पर, प्रेम की अदम्य भावना के साथ। 


वे प्रसिद्धि के लिए जलयात्रा नहीं करते,

न ही किसी पुरुस्कार के लिए,

बल्कि वे दिल के फ़र्ज़ की ख़ातिर आते हैं ─

रोटी देने के लिए,

उम्मीद देने के लिए, और इन सबसे बढ़कर

इस बात का प्रमाण देने के लिए 

कि अब भी साँस लेती है इंसानियत।  

   

ओ समुद्र के यात्री, 

तुम जो कांपते हाथों से क्षितिज को पार करते हो,

तुमने पहले से ही प्रतिरोध की किताब में 

लिखे जा चुके हो,

ग़ज़ा के बंदरगाह,

तुम्हारे क़दमों का इंतज़ार करते हैं,

और इतिहास स्वयं आगे झुककर

स्मृतियों की शिला पर तुम्हारा नाम उकेरती है।   


उन लोगों से जो मज़ाक उड़ाते हैं और कहते हैं,

इससे क्या अंतर पड़ेगा?

हम कहेंगे ─

इससे यह अंतर पड़ेगा: 

कि लहरें साक्षी बनने के लिए स्वयं ऊपर उठ जाएंगी।

कि ग़ज़ा में एक माँ अपने भूखे बच्चे को झुलाती है,

वह जानती है कि समुद्र के रास्ते आ रहे अपरिचितों ने 

उसके दर्द को अपना लिया है। 

यहाँ तक कि मृत्यु के सामने भी,

प्रेम की नाव अडिग चलती है।


ओ ग़ज़ा,

रात की ख़ामोशी में,

सुनो:

ज्वार आवाज़ें साथ लेकर आता है। 

वे तुम्हारे लिए गा रहे हैं। 

वे तुम्हारे लिए दुआ कर रहे हैं। 

वे तुम्हारे बच्चों के लिए रो रहे हैं। 

और फिर भी पतवार चला रहे है। 


और यदि दीवारें बच जाती हैं,

यदि आसमान क्रूर बना रहता है,

यदि क़ब्रें लगातार इतनी जल्दी खुलती रहीं ─

तब भी, तुम्हारी कहानी अलग होगी। 

क्योंकि इंसानियत ने तुम्हें नहीं छोड़ा है अब तक। 

क्योंकि कहीं न कहीं, 

किसी ने असंभव समुद्र से पार पाने का दुस्साहस किया है,

और यह अपनेआप में विजय है।   


तो चलो जहाज़ों को चलने दो, 

उन्हें न केवल मदद का सामान लाने दो,

बल्कि दुनिया की अंतरात्मा भी लेकर चलने दो,

और यदि वे डूब जाते हैं,

जागेगी उनकी याद। 

यदि वे रोके गए, जारी रहेगा उनका प्रतिरोध। 

यदि उन्हें चुप कराया जाता है

प्रतिध्वनियाँ चुप्पी की बमों से ज़्यादा ज़ोर से गूँजेगी  ।   


यह क्या अंतर लाएगा? 

इससे यह होगा: 

कि ग़ज़ा को भुलाया नहीं जाएगा,

कि डूबी नहीं है आशा। 

कि दुनिया में अब भी लोग हैं

जो जब ग़ज़ा अकेले मरता है 

वे समुद्र में मृत्यु का जोखिम उठाना चाहेंगे

बजाए इस दुनिया में चुपचाप जीने के।

०००

 

अंग्रेजी भाषा से अनुवाद : भास्कर चौधुरी

19 अक्टूबर, 2025

आलोक कुमार मिश्रा कविताऍं

 












1 - कुचक्र 


छतें होती थीं आकाशगंगा के बीच का द्वीप

जहाँ बैठकर गिनते थे उठती-गिरती अनंत लहरें

खिड़कियाँ थीं डाक सरीखी

जो पहुँचा देती थीं संदेश सुदूर गंतव्य तक

चूल्हे में जलती थी हमारी इच्छाओं की समिधा

सिंकती थी उस पर हमारे ही सब्र की रोटी

मुड़ेर पर रखकर अपनी निगाहें

हम काम पर लग जाते थे

एक पहचानी आहट से कूक उठती थीं नज़रें 

हम बेचैन हो उठते थे 


देहरी की मत पूछो

वो तो बैरन थी

लाँघने पर पैरों से लिपट जाते थे लाँछन के सर्प

और भीतर ठिठकने पर उड़ने लगते थे प्राण

हम प्राण बचाने को

कुचलते हुए हर एक फन निकल भागते थे बाहर

छूटते और गिरते जाते थे सरेराह हमसे हमारी ही बेचैनी के लाल दाने

जिन पर चलते हुए पहुँच जाती थी हम तक

बंदिशें जमाने की

हम फिर लाकर पटक दिए जाते थे देहरी भीतर

और फिर वही खेल 

वही छत, मुंडेर, खिड़की, चूल्हा, देहरी और हम।



2 - बेरोजगार दिनों में 


              (*)


झील की छाती में धंसे चंद्रमा के फाँस जैसी नहीं थी 

बेरोजगारी 

कि रात बीतेगी और फाँस गायब

बेरोजगारी नहीं थी पैर के तलवों में लगी जोंक सी भी 

कि चूसगी खून और चूसते-चूसते ख़ुद ही फट जाएगा उसका पेट


बेरोजगारी तो थी अथाह रेगिस्तान में खो चुकी राह सरीखी 

जितना चलते उतना भटकते

जितना चीखते उतना ही बेआवाज़ होते जाते

हमारे सारे प्रयास दिशाओं से टकराकर

हमारे ही पैरों पर आ गिरते थे


हम बेरोजगार थे 

तो न धरती हमारी थी

न आकाश

बस एक शर्म थी जिसमें छुपाकर अपना चेहरा

हम बेचेहरा हुए जाते थे।


             (**)


बेरोजगार दिनों में 

एक ब्लैक होल था हमारे सीनों में 

जिसमें कूदकर मर जाना चाहते थे हम

पर सुदूर टिमटिमाता एक तारा देख रोकते थे ख़ुद को 

देखते थे सपने कि होगा वो हमारी भी ज़द में 

जैसे बहुत से लोगों के लिए था


पर ये क्या कि 

तारा जब भी बढ़ता हमारी ओर

हमीं से निकलता वह ब्लैकहोल 

और निगल लेता उस तारे को।



3 - ईर्ष्या


पार्क में बैठा देख रहा हूँ

स्वेटर बुनती एक स्त्री को


वह इतनी तन्मयता से लीन है बुनाई में

जैसे धरती रत हो अपनी घुमाई में


बीच-बीच में वह तनिक रुकती है

जैसे देखती है हिरणी

पीछे आ रहे अपने छौनों को रुक-रुक के

वह बुने जा चुके हिस्से को निहारती है


वह उंगलियों से लेती है नाप

लंबाई और चौड़ाई का

और तैर जाती है एक उतनी ही लंबी चौड़ी मुस्कान

उसकी आँखों में


मैं जानता हूँ

अभी जो उसकी आँखों में उतरा वो

कोई काँधा था

कोई पीठ थी

उसके बुने स्वेटर से लैस कोई बदन था

उसकी नरम गर्मी से तर कोई चेहरा था


मैं सोचने लगता हूँ

उस अनदेखे व्यक्ति के बारे में

और अनजाने ही करने लगता हूँ ईर्ष्या।


4 - कमाऊ पूत  


छोटी खेती वाले संयुक्त परिवार की ज्ञात सभी पीढ़ियों में 

पढ़-लिखकर एक अदद सरकारी नौकरी पाने 

और कुल-वंश का नाम रोशन करने वाला इकलौता लाल हुआ वह

सगे-चेचेरे कुल मिलाकर पाँच भाइयों और इतनी ही बहनों के बीच का था वह

पर अब बहुत खास था।


कल तक साथ खेलते, लड़ते और औकात से परे समझते

परिवार में अब सितारा था वह

माँ गर्व से भर उठी थी, पिता कुछ और जवान हो गए थे

चाचियाँ दुलराती थीं, चाचा लोग सम्मान से बुलाते थे

बहनें उसके काम करने को दौड़ती थीं

भाई बिस्तर लगा देते थे, चुप रहकर सम्मान दिखाते थे

उसे अच्छा लग रहा था ये सब।


पर जानता था वह

कि अब उसे ही बहनों को ब्याह कर लगाना है उनके ठिकाने

पढ़ाई में पीछे रह गए भाइयों के रोजगार को खुलवानी है

किराना-परचून की दुकानें 

मां के घुटनों , पिता के अस्थमा, मझले चाचा की आंखों का करवाना है उसे ही इलाज

खेतों में सूखते बोरिंग को उखड़वा कर नया लगवाना है

घर की भीत को और ऊपर उठाना है

दान दक्षिणा सब में नाम कमाना है।


साथ ही उसे ये भी मालूम है कि 

पलकों पर उठाए फिर रहा ये कुनबा

उसकी जिम्मेदारियों की सूची में नहीं देगा कोई रियायत

उल्टे चूकने पर एक ही झटके में लाकर पटक देगा जमीन पर

कोसने-उलाहना देने में हो जाएँगे घर-जवार सब एक

उसका अपने लिए अतिरिक्त लाभ लेने के हर प्रयास पर

रहेगी हर एक की नज़र।

 

अब वह महज़ बेटा नहीं है घर का

वह तो अब उम्मीदों-अपेक्षाओं का दस्तावेज़ है

वह सभ्यता-संस्कारों की ऐसी पताका है

जिसे लहराना है ताउम्र दूसरों की इच्छा पर

उसे नहीं है कोई छूट 

आखिर अब वह है घर का 

कमाऊ पूत।


5 - छवि सुधार 


क्रोध और कुंठा के अतिरेक से 

कभी दाँत कटकटाते और कभी-कभी मुट्ठी भींचते इस शहर में 

ये क्या हुआ मेरे साथ

जो भी हुआ अच्छा हुआ - बहुत अच्छा हुआ

उस हुए ने ही इस कविता कि दूसरी पँक्ति में आ सकने वाले शब्द 'अक्सर' को 'कभी-कभी' में बदल डाला


हुआ यूँ कि आज सुबह ही

दफ़्तर जाते हुए मेरी कार भिड़ गई आगे की कार से

अच्छा खासा दब गया उस कार के पीछे का एक हिस्सा

सोचा, रोडरेज की घटनाओं को मंत्र जाप सा दोहराता ये शहर 

आज पड़ ही गया मेरे गले 

भय की अनंत लहरें उठीं भीतर और दौड़ पड़ीं 

डरी गिलहरियों सरीखी


कार की ड्राइविंग सीट से उतरते उस व्यक्ति को देखकर

कसने लगा कमर मैं भी 

एक अनचाहे लेकिन अवश्यंभावी युद्ध के लिए

गढ़ने लगा ढेरों तर्क-कुतर्क जिससे कर सकूँ सिद्ध कि- 

'ग़लती मेरी नहीं उसकी है' 

ये विचार भी आया कि दबा तो और दबाया जाऊँगा

अच्छा खासा रुलाया जाऊँगा

पर होने नहीं दूँगा आसानी से ऐसा

गालियों की एक पूरी श्रृंखला टपकने लगी दिमाग की नस से कंठ के कूप में 

तनने लगी जीभ की रस्सी और होने लगी तैयार 

उन्हें खींचकर बाहर करने को


कार से उतरे उस बूढ़े दिखते व्यक्ति ने पहले देखा 

अपनी कार को और फिर मेरी कार को

जिसे देखने की हिम्मत आई नहीं थी अब तक मुझमें

वह बढ़ा मेरी ओर 

खटखटा कर शीशा उसे नीचे करने का किया इशारा

काँपते तन से साधते मन को और तैयार करता ख़ुद को

मैंने शीशा किया थोड़ा नीचे और करने को हुआ दोषारोपण


पर ये क्या, पहले ही बोल उठा वह - 

'माफ़ करना, मुझे घूमना था दाईं ओर

और मेरा इंडिकेटर भी ख़राब है इसलिए दे नहीं पाया

मेरी वजह से आपकी भी गाड़ी का भी नुकसान हो गया

आप कहें तो...'


मैने संभालते हुए ख़ुद को देखा उसे

अनायास ही निकला मुँह से- 

'कोई बात नहीं, मुझे भी गैप करके चलना चाहिए था।' 


एक मुस्कुराहट के साथ उसने विदा लेकर गाड़ी बढ़ा दी दाईं ओर

मैं भी चल पड़ा आगे की ओर

विलोपित हो गए युद्ध की तैयारी के सभी अस्त्र 

एक मुस्कान एक विनम्रता ने 

ढहा दी उस पल शहर की पहचान बनी एक बदरंग दीवार


उस अनजान बूढ़े ने पढ़ाया पाठ कि 

इस शहर के विशेषण से 'अक्सर' को 'कभी-कभी' 

और फ़िर 'कभी-कभी' को 'कभी नहीं' में बदलने को 

कर सकते हैं हम ही कुछ।


6 -एक बच्चे की मृत्यु 


न पर्वत न पठार

धरती के सीने पर सबसे भारी है 

निःसंतान हुई एक मां का करुण विलाप

अपने ही बच्चे की लाश उठाए चल रहे पिता के

पदचापों से

कांपती है धरणी 

हिलते हैं दिशाओं के परदे 

आकाश से टपक पड़ती है आंसुओं की बौछार


एक बच्चे की मृत्यु

जो कैसे भी हुई हो

समय के तलवों में चुभा कांटा है

उसे पिहकना है आगे ताउम्र लगातार।


7- शिनाख़्त 


तलहटी नहीं, चोटी हैं पहाड़ के पैर

आकाश के संधान में रत 


कितनी ही चुनौतियों की नाव टाँगें 

किनारों पर नहीं धार में रहती है नदी 


चिट्ठी बाँचती बारिश की बूँदें जानती हैं

आसमान नहीं, जमीन है मेघों का घर


गिलहरी नहीं, आदिवासी को पता है जंगल का दुख

उजड़ने के निशान उसकी पीठ पर हैं 


मंजिलों से नहीं राहों से बँधती हैं संभावनाएं 

कई कई दिशाओं का पता ढूँढते 


कला, साहित्य, संगीत, स्थापत्य में नहीं

पुरसुकून नींद में है किसी सभ्यता की बेहतरी का राज़।



8- आश्चर्य 


ये क्या कम है कि बने हुए हो तुम इस क्रूर समय में 

क्या होगी इससे बड़ी उपलब्धि है कि जलते शवों की अनंत श्रृंखला में 

नहीं है कोई तुम्हारी चिता

तुम जी भी रहे हो और हंस भी

ये कोई छोटी बात है क्या


पर यकीन मानो 

ये सब तुम्हारी जीवटता नहीं कायरता का सबूत है


एक ऐसे समय में जब असहमति राष्ट्र के चरित्र पर एक दाग है

धिक्कार! तुम अब तक धुले नहीं गए

शर्म! कि आज़ादी बोल देने भर से जब भर गईं जेलें

तोड़े नहीं गए तुम्हारे घरों के दरवाज़े 

छिली नहीं गईं तुम्हारी पीठ की चमड़ियां


ऐसा क्या था तुम्हारी विरासत में कि 

अतीत के विकृत और दफ़न होने के दौर में भी

उन पर उठी नहीं कोई उंगली

कैसे थे तुम्हारे गीत कि जिसे सुनकर मिली सिर्फ़ ठंडक

भीतर दहकी नहीं कोई आग


यंत्रणा के समस्त शस्त्रों से लैस और कंधों पर सवार ये समय

क्योंकर तुम पर बना ही रहा विनम्र

कैसे तुम ओझल ही रहे उसकी वक्र दृष्टि से

और तो और आश्चर्य ये कि 

कैसे तुम भी समझते रहे इसे एक साधारण और सामान्य दौर!


छोड़ो सारी बात

पहले ज़रा टटोलो अपनी नब्ज़ 

और देखो कि तुम ज़िंदा भी हो ?


9- जो कविताएँ लिखते हैं


वो जो कविताएँ लिखते हैं

किसी और का क्या लेते हैं

अपना ही समय गँवाते हैं

अपनी ही हँसी उड़वाते हैं

ऊपर से शांत नज़र आते हैं

और भीतर से खदबदाते हैं

किसी घुटन किसी बवंडर से निकलने को

कागज़ पर उतर आते हैं

किसी और का क्या लेते हैं


दर्द, संघर्ष, प्रेम, मृत्यु जैसी बातों से जूझते हैं 

और कलम की जुबान से बड़बड़ाते हैं

अनकहे को शब्द देते हैं

शब्दों को अर्थ का नशा लगाते हैं

मौन को जगाते हैं शोर को सुलाते हैं

नींदें स्थगित करके सपनों के पीछे जाते हैं

वहाँ से लाकर एक मुट्ठी उम्मीद 

सारी दुनिया में बिखराते हैं

कवि किसी का क्या लेते हैं

ख़ुद का ही कुछ गँवाते है।



10 - समय का दीमक  


किसी तीसरे से मिला

बचपन के बिछड़े एक दोस्त का अता-पता और मोबाइल नंबर


रोम-रोम में दौड़ उठी खुशी और रोमांच की लहरें

उड़ने लगीं चारों ओर स्मृतियों की रंगीन तितलियां

जिनको पकड़ते हुए दौड़ता उछलता रहा 

बचपन की सोंधी मिट्टी पर घंटों

याद आने लगी वो साइकिल 

जिस पर बैठकर उड़े महीनों हम साथ-साथ

किसी चलचित्र सी चल पड़ीं स्कूल की कक्षाएं जिसमें रहे हम वर्ष सात

वो नदी भी जो बहती रहती थी हमारे आसपास

और वो गलतियां भी जो अब अफ़सोस की जगह 

बन गईं हैं गुदगुदी की बात


बजाया घंटी अपने मोबाइल से उसके मोबाइल पर

ट्रिन ट्रिन की आगे बढ़ती ध्वनि के साथ बढ़ती रही हृदय की थाप 

अचानक सब ध्वनियों पर उतराई एक परिपक्व आवाज़ 

'हेलो, कौन ?' 

करते हुए नियंत्रण श्वास, हृदय थाप और नाड़ी तंत्र पर

बोल पाया मैं एक अंतराल के बाद ही

बताता रहा ख़ुद को और पूछता रहा उसके बारे में 

आगे बमुश्किल हुई कुछ मिनट की बात

बहुत कुछ याद दिलाने के बाद भी हुई नहीं

उसकी चेतना पर मेरे होने की कोई दस्तक

वह अनजान ही बना रहा मुझसे तब तक

एक औपचारिक माफ़ी के साथ उसने ख़त्म किया संवाद

'सॉरी दोस्त! जगहों, घटनाओं की याद आने के बाद भी

 मैं आपको पहचान नहीं पा रहा।' 


उदासी की एक परत ओढ़कर

मैं सोचता रहा घंटों - 

अंततः खा ही जाता है समय का दीमक 

यादों की मोटी से मोटी साख

ज़रूरी नहीं अक्षत रहे चीजें और यादें 

सब जगह एक जैसी एक साथ।



11 - कथरियाँ 


अनायास लेटे हुए नरम-गरम बिस्तर पर 

न जाने क्यों याद हो आईं मुझे बचपन के दिनों की कथरियाँ

रंग-बिरंगी प्यारी कथरियाँ

वही कथरियाँ जिन्हें हर रात बड़ी जतन से खाट पर बिछाते थे

और सुबह सलीके से समेट कर सिरहाने लगा देते थे

गज़ब ये था कि ये गर्मियों में ठंडक और सर्दियों में ज़रूरी गर्माहट परोसती थीं

हमारी नींदों को हवा देती थीं और सपनों को पोसती थीं 


बनाते हुए उन्हें कई-कई दिनों तक अटकी रहती थी दादी की जान उनमें 

सहेजती थी महीनों पहले से पुराने, छोटे या फट-चिट चुके कपड़े-लत्ते

फैलाकर टाट पर बराबर तह में उन्हें टाँकती और जोड़ती जाती थी ऐसे

जैसे जोड़ रही हो अपने ही बिखरे सपने

या जैसे जोड़े हुए थी हमें भी वर्षों से ख़ुद की छाँव में 

या फिर ऐसे जैसे कुम्हार जोड़ता है मिट्टी के कच्चे बर्तन पकने को आँव में 


कथरी का कद बढ़ता जाता

तरह-तरह के रंग-बिरंगे कपड़ों से जुड़ तन उसका बनता जाता

दादी हमें भी उसमें लगाए रखती

उसका कोई न कोई सिरा पकड़कर दबाए रखने को कहती

अब लगता है कि वह सिखा रही थी हमें मिलकर गढ़ने

और आगे बढ़ने का ज़रूरी पाठ

तब वह ख़ुद सुई-धागे के साथ हमारी ओर बढ़ी आती थी 


कथरी के बदन पर उठती-गिरती धागों की अनेक लहरें

लंबाई-चौड़ाई में भागती हुई दिखतीं 

पर हकीकत में वो स्थिर ही रहतीं

हमारी ज़िंदगी में दादी के होने की तरह

अंत में एक पुरानी पहनी हुई साड़ी का दादी उस कथरी को जामा पहनाती

पहन उसे कथरी हुलसती या हम 

स्मृति अब ये अंतर लगा नहीं पाती


ऐसी कितनी ही कथरियाँ बनाई दादी ने

जिन पर जिए हम जीवन के कितने ही अनमोल पल

देखे कितने ही सपने 

काटी कितनी ही रातें

रोए, हँसे, टूटे, जुड़े उन पर कितनी ही बार 

आख़िर कहाँ गईं वो कथरियाँ

क्या अब भी बनाई जाती हैं वैसे ही

जिन को करता हूँ अब तक याद 

या वो भी चली गईं दादी के साथ!



12- प्रतीक्षा 


जाने कितनी ऋतुओं की लाशें दफ़्न थीं 

उसकी झुर्रियों में,

आँखें थीं कि महाखड्ड थीं 

निमिष भर में समा लेती थीं पूरे संसार का दुःख भीतर।

उसकी खुरदुरी हथेलियों की हर घिसी हुई रेखा

गवाह थीं कितनी ही प्रेमिल नदियों के सूख जाने की,

उसकी झुकी कमर पर छपा था

समय की मार का सबसे गाढ़ा काला निशान। 


बैठे हुए खोलती और आकाश पर सुखाती रहती 

वह बेतरतीब, उलझे और नम स्मृतियों की पोटली,

दिशाओं के काँधे बैठ हवाएँ बाँचती उसकी करुण कथा।

धरती उसकी एड़ियों की बिवाई से रगड़ खाती थी; 

फिर भी भर दोपहर रुककर उसकी मड़ई में 

उससे ही बतियाती थी, सुस्ताती थी।

सुख की एक दूब भी न उगती थी 

उसके दुःखों के पथरीले पहाड़ पर।


दिन भर के काम जल्दी-जल्दी निपटाती

और अपनी अभावों की दरी पर बैठ

गाने लगती वह प्रतीक्षा के गीत,

गीत जिसके शब्द-लय-धुन सब बुने होते उसके दुःखों से। 

परदेश से लौट रहे लोग सुनते थे उसका दारुण गान

और रो पड़ते थे उसे देखकर, सुनकर।

फिर वे भी सुनाते थे उसे दुनिया जहान की बातें,

पर कोई झूठ में भी नहीं बताता था

बरसों पहले परदेसी हुए बेटे की कोई ख़बर।


बस उसी एक ख़बर के लिए 

वह नहीं रही थी मर।



13 - मेरी बेटियो, बुरी लड़की बनना 


अच्छी लड़कियाँ चलती हैं हमेशा सीधी रेख पर सहमी सी नज़रें झुकाए

बुरी लड़कियाँ ताकती हैं तीन सौ साठ डिग्री और नापती हैं दिशाएं


अच्छी लड़कियाँ रसोई में घुली रहती हैं नमक और चीनी बनकर

बुरी लड़कियाँ नाप आती हैं आकाश के छोर यहीं से धुएँ सा उड़कर


अच्छी लड़कियाँ काटती हैं समय किताबों में घुसकर- छिपकर 

बुरी लड़कियाँ निकल आती हैं उससे उसी की खिड़की खोलकर


अच्छी लड़कियाँ नहीं लड़ातीं जुबान ना ही लगाती हैं कहीं कान

बुरी लड़कियाँ उलझ पड़ती हैं जमाने से और उठा देती हैं तूफान


अच्छी लड़कियाँ बनकर रह जाती हैं धर्म, परंपरा, संस्कृति की पहरेदार

बुरी लड़कियों के हर कदम से अक्सर ही पड़ जाती है इन किलों में दरार


अच्छी लड़कियाँ ब्याह कर विदा कर दी जाती हैं जीवन की सुरंग में 

बुरी लड़कियाँ लहराती हैं उम्र भर झंडे सा जो रंगा होता है उन्हीं के रंग में 


सुनो बेटियो, तुम कभी अच्छी न बनकर बुरी लड़कियाँ ही बनना

बिछना नहीं कभी कहीं, नीले आकाश सा सारी दुनिया पर तनना।




14 - फल


विरह के कितने ही कांटे चुभेंगे 

प्रतीक्षा की राह में 

परीक्षाएं तनी रहेंगी सिर पर

जेठ की दुपहरी सी

व्यग्रता फूटेगी तलवों के नीचे

किसी ज्वालामुखी सरीखी

दुःख के पहियों सी घूमती रातें

बीतेंगी बहुत धीरे-धीरे 


पर तुम चलते रहना प्रिय


प्रेम की एक बदली बरसेगी

और बदल जाएगा सारा परिदृश्य

बुझ जाएगी सारी तपन 

हरिया उठेगी पूरी पृथ्वी

जुड़ा जाएगा विकल मन

सुख का एक घूँट उतरेगा हलक में 

और फूट पड़ेगा भीतर से एक बसंत।

000

परिचय:- 

जन्म तिथि:- 10 अगस्त 1984 

ग्राम- लोहटा, पोस्ट- चौखड़ा, जिला- सिद्धार्थ नगर, उत्तर प्रदेश के एक सीमांत किसान परिवार में जन्म। 

शिक्षा:- दिल्ली विश्वविद्यालय से एम. ए. (राजनीति विज्ञान), एम. एड., एम. फिल. (शिक्षाशास्त्र) की डिग्री।

वर्तमान निवास स्थान:- मकान नंबर 280, ग्राउंड फ्लोर, पॉकेट 9, सेक्टर 21, रोहिणी, दिल्ली - 110086 

व्यवसाय:- दिल्ली के सरकारी विद्यालय में शिक्षक (प्रवक्ता, राजनीतिक विज्ञान)। वर्तमान में एससीईआरटी, दिल्ली (डाइट केशवपुरम) में असिस्टेंट प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान) पद पर प्रतिनियुक्ति प्राप्त।


रुचि:- कविता, कहानी और समसामयिक शैक्षिक मुद्दों पर लेखन। 

समय-समय पर कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। जैसे- जनसत्ता, निवाण टाइम्स, द हिंट, दैनिक जागरण, शिक्षा विमर्श, मधुमती, कदम, कर्माबक्श, किस्सा कोताह, परिकथा, मगहर, परिंदे, अनौपचारिका, वागर्थ, हंस, निकट, बहुमत, इंद्रप्रस्थ भारती आदि।


पुस्तक प्रकाशन - 

बोधि प्रकाशन से 'मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा' (2019) कविता संग्रह प्रकाशित।

प्रलेक प्रकाशन से बाल कविता संग्रह 'क्यों तुम सा हो जाऊँ मैं' प्रकाशित। इसी संग्रह पर 'किस्सा कोताह कृति- सम्मान- 2020' मिला।

अनबाउंड स्क्रिप्ट प्रकाशन से शैक्षिक लेखों का संग्रह 'बच्चे मशीन नहीं हैं' (2025) प्रकाशित।

न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से कहानी संग्रह 'दूध की जाति और अन्य कहानियां' (2025) प्रकाशित।


मोबाइल नंबर- 9818455879

ईमेल- alokkumardu@gmail.com

05 अगस्त, 2025

हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ


चट न लो फ़ैसला

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आज शाम जाकर मिला दोस्त शिवराज से

अरसे से इधर फोन पर लगते थे नाराज़ से

दुआ-सलाम इधर-उधर की बात

कहने लगे छोड़ दिया भैया पीना आज से


चिहुंका मैं क्या हुआ यार

कहने लगे आ गयी है हम दोनों के बीच दरार

बहुत दिनों से चल रहा था झगड़ा - तकरार

मान गया भैया मैं उससे हार

बिना बात करती है वो रार


अरे किस बात झगरा था भाई

मियां -बीबी की बात है

क्या हुआ जो हो गई हाथापाई

ऐसे कोई थोड़े ही हार मानता है भाई


कहने लगे खाने पर लड़ती है

पीने पर झगड़ती है

मेरी कविता पढ़कर शक-सुबहा करती है

मेरे जीवन में है कई नार

ऐसा हरदम कहती है


कहने लगे भाई शिवराज

तकरार में कह दिया उन्होंने भी भाभी को दगाबाज

फिर क्या था बन गई वो रणचंडी छोड़ सब लोकलाज

क्या बताएं उसके बाद क्या हुआ दिन में आज


हर घर में झगरा है मरद-लुगाई में

किस को दूँ दोष

भाभी है सोने की

मुझे तो कोई दोख नहीं आता नजर शिवराज भाई में


ज़रा सी बात सह लेते

दोनों हंसी मज़ाक में गिले-शिकवे कह लेते

किसमें नहीं है कुछ कमजोरी काश समझ लेते

कौन नहीं लड़ता है, लड़कर दोनों गले लग लेते


कहा मैने आओ भैया पी लो

जीवन जैसे जीते हो जी लो

कथरी जो फट जाए, फेंको नहीं, सी लो

भाभी को दो समय ज़रा फिर उनसे मिलो


झुक जाओ

चट न लो फ़ैसला रुक जाओ!

०००













बेतरतीब छंद

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शब्द मिला वफ़ादार मतलब उसका मक्कार

शब्द मिला इनकार मतलब था स्वीकार

विद्रोही समझा जिसे अव्वल दर्जे का वह चाटुकार

उन्होंने मारा पीठ में छूरा जिन्हें समझा यार


यह दौर ऐसा घनघोर विकट है

पल में तोला पल में माशा फटाफट है

नफ़रत है अंदर, जीभ पर प्यार की रट है

कहता हूँ अच्छा पर रहा सब बुरा ही घट है


दिवस में देखो कितना हुआ अंधेर

दिन दोपहर लूट बलात्कार लाशों की है ढेर

रामनामी ओढ़कर नगर में आया है शेर

रजनी ही रोशन समय का ऐसा है फेर


यह इतना चौंधियाता समय है

कि आपका धोखा खाना तय है

यह चुप्पी शांति नहीं दरअसल भय है

जिसके हाथों में लाठी उसकी जय-जय है


प्रेम का  नफ़रत में अनुवाद हुआ है

आदमी चेहरों की किताब हुआ है

जीवन का छंद बेतरतीब हुआ है

रिश्तों का अनुक्रम पाखंडों में बँटा हुआ है।

०००


आम आदमी

_____

मैं आदमी क्या

बस वही मांस और हाड़

मेरे सामने ज़िम्मेदारियों का पहाड़

सुबह से शाम होती झोंकते बस भाड़


दिन और रात

दिन और रात

रोज़-रोज़ वही तो बात

जैसे नियति हो घात-प्रतिघात


दायरा यहाँ से वहाँ तक

श्रम से दरमाहा तक

चाबुक ही चाबुक पहुँच मेरी जहाँ तक

सुनाऊं व्यथा मैं कहाँ तक


मौसम बदलते हैं

मालिक बदलते हैं

मगर मेरे भाग्य वही तो रहते हैं


ठंड में ठिठुरते

गर्मी में तड़पते

बारिश में भीगते-गलते


पेट भरते तन ढँकते

जी हुजूरी करते-करते

चला जाऊंगा गिरते-पड़ते!

०००


हार गये

___________

यूँ ही नहीं टूटा भरोसा

पहले तो उस बेटे ने कोसा

जिसको जन्म दिया, पाला-पोसा


यूँ नहीं छोड़ दी अच्छाई

पहले तो धोखा दिया सगा भाई

जिसकी न जाने कितनी बोझ उठाई


बेवजह ही नहीं छोड़ दी सच्चाई

सच्चाई उनकी भला कहाँ किसी को रास आई

उसके कारण ही झेला झगरा-झंझट मार-पिटाई


साहस के कारण संगी ने छोड़ दिया

लचीला हुए तो सबने मोड़ दिया

ज़रा से स्वाभिमान पर अपनों ने ही तोड़ दिया


सत्पथ पर चले लुट गये

स्वारथ के संगी सगे सब छूट गये

ममता के कारण ही वे टूट गये


जब वे अपनों से ही हार गये

तो कुछ भी पूछा चुप्पी मार गये

हर मसले को हँस कर टाल गये!

०००


आई लव यू यार!

______


तीन गली छोड़कर

रहती थी वह चाय वाले मोड़ पर

हिम्मत ख़ूब जोड़कर

खिड़की से फेंक आया चिट्ठी मैं मोड़ कर

लाल गमछा ओढ़ कर


महीना था फरवरी दिन था इतवार

न जाने कौन भूत हुआ था सवार


जाति का मैं अहीर था बाभन की वह बेटी थी

खिड़की के पास ही तखत पर वह लेटी थी


चिट्ठी मेरी पकड़ी गई

जान मेरी कूटी गई

क़िस्मत मेरी फूट गई


फरवरी में जलाया गया घर

बाबू मेरे भटके शहर-दर-शहर


जब भी आती फरवरी

माई मेरी रहती डरी-डरी

बुलाती मेरा नाम लेके घरी-घरी


यार मेरे जीवन में नहीं आया प्यार

ज़िंदगी मेरी ऐसी है लाचार

सलेमपुर की गीता संग बसाया घर-बार

सुबह-शाम होती है तकरार

भड़कती है जब कहता हूँ 'आई लव यू यार!'

०००


खेती-बाड़ी

______


अरे भैया ये किसान

कर रहे आजकल बहुत परेशान


हक़ माँग रहे हैं

हिसाब माँग रहे हैं

ये अन्न का दाम माँग रहे हैं

इनके बेटे काम माँग रहे हैं


ऐसा करो इनके खेत ले लो

दाम इनको औने-पौने दे दो


घर में बैठाओ इनको

बोलें तो लाठी से मार भगाओ इनको

दो इनके खेत फैक्ट्री लगानी है जिनको


न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी

खेती-बाड़ी की झंझट ही ख़त्म करो ससुरी


हम-आप विदेश से मँगा लेंगे

जैसे खाते हैं, खा लेंगे

इनको लोकतंत्र पकड़ा देंगे!

०००


यह हम सबका ही क़िस्सा

________

नई-नई हुई है शादी

सुबह-शाम पकानी होती है चार रोटी

आफ़िस में हुई देर, बॉस खिंचता है चोटी

वहाँ भी हूँ मैं सबसे ही छोटी


कभी अच्छा कभी सुंदर कहता है

मुझे देर तक रुकने को छछूंदर कहता है

है चार जवान बच्चों का पापा

ज़रा सी बात में खोता है आपा


कभी यह तो कभी वह

कुछ भी देता है कह

शर्माता नहीं है दंतचियार

गुस्सा तो आता है कि दूँ दो थप्पड़ मार

सबके सामने ही दूँ भूत उसके उतार

नौकरी के ख्याल ने बना रखा है मुझको लाचार


कहाँ-कहाँ बचे लड़की

आते-जाते मिलते हैं ठरकी

पिया भी मेरा नंबर वन है सनकी

कहाँ सुनता वह किसी की


बच के बचा के चल रही हूँ

जैसे जंगल के बीच से निकल रही हूँ

यह हम सबका ही क़िस्सा

कोई नयी बात थोड़े ही कह रही हूँ।

०००


बताना चतुर कवियो

______


लिखना नहीं है खेल

यह तब लगा, चला गया भाई

लिखने के कारण जब जेल


वे कुशल लोग हैं जो लेते हैं शब्दों से खेल

शब्द मगर सच बोलें 

कुर्सी पर बैठा आदमी नहीं पाता उनको झेल


लिखने के कारण मारा गया एक दोस्त बस्तर में

लिखने के कारण कोई पकड़ा गया है कुंभ शहर में


कुछ लोग लिखने के कारण ही पा रहे पदवी और पुरस्कार

पैसे भी कमा रहे कुछ लिखने वाले ऐसे होशियार

कुछ लिखने के कारण ही खा रहे पुलिस के डंडों की मार


कहिए लिखूं कौन सा अक्षर

लिखते लगता है अब डर

सपने में बुल्डोजर ढाहने लगता है घर


वे खिलौने जैसे शब्द कहाँ से लाऊं

जिनसे खेल कुर्सी पर बैठे राजा को बहलाऊं

आँखें मूँदकर कौन सा गाना गाऊं

बताना चतुर कवियो

किस राह मैं आऊं-जाऊं

कैसे सच को मैं पीठ दिखाऊं!

०००


वक़्त की तरह नहीं बदलना

________


ग़र कुछ ऊंच-नीच हो गई हो गत साल

तो माफ़ कर देना भूल जाना उसे इस साल

रखना मुझे साथी अपने दिल में हर हाल

अपना हाथ बढ़ाना लड़खड़ा न पाये मेरी चाल


जीवन कोई कैलेंडर नहीं

साल के बदलने से उसे कोई डर नहीं


माना कि बुरा बहुत हूँ 

मगर तुम्हारे बग़ैर अधूरा बहुत हूँ


माथे का चंदन नहीं, पैरों की धूल हूँ

बावला जो बोकर आम, काटता बबूल हूँ


रखना साथी, अपने संग ही मुझे रखना

तुम्हारे बग़ैर भी क्या ज़िंदा रहना


रास्ते में आते रहते हैं मुसीबतों के पहाड़

हाथ जो पकड़ लेंगे तुम्हारा, क्या लेंगे बिगाड़


लड़ना झगड़ना रूठना मचलना

चाहे जो भी सुनाना कहना

पर साथी वक़्त की तरह नहीं बदलना

आना-जाना घूम आना कहीं, पर मेरे दिल में रहना!

०००


हर साल

____

क्या नया साल और क्या गया साल

मेरा जीवन तो वही रोटी और दाल

दवाई खटाई और रुलाई में गुज़रा गया साल

कंबल न रजाई ठंड की चढ़ाई के सामने नया साल


पूरी ठंड कांपते हुए काटूंगा

बसंत में कोयल बन बाग-बाग कुहकूंगा

ज़रा सी हवा में टिकोले सा झरूंगा

महुआ हूँ झरूंगा देसी दारू में पड़ूंगा


गर्मी में आग बन जाऊंगा

दुपहरिया में निकल के कमाऊंगा

तपूंगा जलूंगा जलते हुए चलूंगा

आप खिड़की से देखना हांफते हुए मिलूंगा


आएगी निगोड़ी बरसात

टपकेगी मड़ैया सारी रात

दिन भर का थका-हारा गात

जागते गुजारेगा पूरी-पूरी रात


हर साल यही होता है

मन मेरा बेवजह उम्मीद को बोता है

कोई साथ नहीं होता है, मन मेरा रोता है

उड़ जाए चिरईं, रह जाए खोंता है!

०००


आदिवासी

____


जहाँ भी गया

हर जगह मुझे पंक्ति में खड़ा किया गया

आई जब बारी मेरी तो बखेड़ा किया गया

इस तरह पंक्ति से भी बाहर किया गया


भूलकर मानवता की शर्म

पूछा गया जाति और धर्म

जब बताने से किया इनकार

मेरे लिए बंद किया गया द्वार


जब की मैंने हक़ की बात

बताई गई मेरी औक़ात


मुझे याद किया गया हर पाँचवें साल

जब मैंने जानना चाहा मुल्क़ का हाल

हिकारत से दिया गया, चावल और दाल

पढ़ाई दवाई कमाई के नाम पर बजाया गया गाल


मेरी झोपड़ी उजाड़कर कारखाने लगा दिये

जो मुँह खोला तो होश ठिकाने लगा दिये


मुझे कभी आदिवासी कहा गया

कभी वनवासी कहा गया

मेरे ही देश में मुझे प्रवासी समझा गया!

०००


जान हथेली पर लिए

________________

ये लोग कहाँ से आये हैं

नट हैं छत्तीसगढ़ से आये हैं

दोनों तरफ़ दो-दो बांस जमाये हैं

बीच में मोटी रसरी लटकाये हैं


रसरी पर चढ़कर 

ख़तरे से खेल रही है मोनी बुचिया

किसने खींच दिया है देश के पृष्ठ पर ये हाशिया

जहाँ ऐसे जीवन जीने को विवश है ये मुनिया


यही इनके जीवन का आधार है

पेट भरने भर को भटकता यह परिवार है

मुनिया जान हथेली पर लिए रस्सी पर सवार है

हे भारत भाग्य-विधाता! तुम्हें धिक्कार है 


इनका इस धरती पर कहीं कोई घर नहीं है

कह रहे ये कि मौत से तो हमें कोई डर नहीं है

करे क्या आदमी जब कोई आसरा रोटी भर नहीं है!

०००


माला बेचने वाली लड़की

_____________________

शुक्रिया आपको अच्छा लगा मेरा मुस्कुराना

कभी आप मेरे गाँव भी आना

देख पाएं तब शायद मेरा रोना-गाना

शायद समझ लें मेरी ज़िंदगी का ताना-बाना


दूर शहर से आई हूँ मैं माला बेचने

आएं होंगे आप तो मेला देखने

कुछ आएं हैं यहाँ पाप धोने

सबके हैं मक़सद अपने-अपने


मैं माला बेचकर ज़िंदगी चलाती हूँ

भैया कुछ कमाती हूँ तब खाती हूँ

कमाने के लिए मैं नगर-नगर जाती हूँ

आँखें छलक न जाएं, सो मुस्कुराती हूँ


मैं समझती हूँ आपके इशारे

पर ज़िंदगी जी नहीं सकती उस सहारे

जाइये गंगा में बहा दीजिए अपने मंसूबे सारे

दो रोटी कमाने दीजिए हटिए ज़रा किनारे


एक माला ले लीजिए

अपनी लंपटता को वश में कीजिए

दिल में शराफ़त को ज़रा जगह दीजिए

आएं हैं पाप कटाने तो कुछ पुण्य कीजिए


शुक्रिया आपको मेरी आँखें पसंद हैं

मगर आपकी वजह से मेरा काम सब बंद है!

०००


प्रेम की भूख

_________

प्रेम की भूख किसे नहीं है

कृपया अपना हाथ उठाए जिसे नहीं है


क्या मरद क्या औरत क्या बच्चा

हर इन्सान प्रेम ढूँढ रहा है सच्चा


गया गांव-जवार में चाहे खेत-बधार में

नगर-नगर जाकर देखा घर-बार में

हर आदमी दिखा प्रेम के इंतज़ार में


प्रेम में देखा लफड़ा भारी

प्यासे ही जग में रह गये नर-नारी

ज्यों जाल में उलझी मछरी बेचारी


जो प्रेम में था उसे भी था प्रेम का इंतज़ार

गजब का यह संसार

प्रेम का पंछी हर वक्त जैसे उड़ने को तैयार


सच कोई नहीं बोले

मन ही मन मन डोले

मिले मन तो पल दो पल संग हो ले


नहीं मिटती प्रेम की भूख है

प्रेम भी एक सुख है

मगर उससे सटकर रहता दुख है!

०००


पुस्तक मेला आऊंगी

_______


करोलबाग से तुम आना

मैं ग्रीन पार्क से आऊंगी

दो बजे प्रगति मैदान मेट्रो पर मिल जाऊंगी


घर से झूठ बोल कर आऊंगी

आफ़िस में हाफ डे लगाऊंगी

तेरे संग सेल्फी मैं खिंचाऊंगी

 तेरे पुस्तक मेले में मैं आऊंगी


और सुनो राधेश्याम

मुझे तेरी किताबों से क्या काम

घूमेंगे हाथ में डाले हाथ पूरी शाम


छोले-भटूरे खाएंगे

बैठ कहीं गपिआएंगे

हँस-हँस गले लग जाएंगे


तुम खींचना मेरी फोटो

मैं खिंचूँगी तेरी फोटो


और सुनो डार्लिंग राधेश्याम

फेसबुक पर फोटो डाल करना ना बदनाम!

०००


पुस्तक मेले में नहीं मिले हम

__________


रोज़-रोज़ गया इस बार मेले में

किया इंतज़ार तेरा बैठकर अकेले में

क्या हुआ जो हम नहीं मिले पुस्तक मेले में

छोले भटूरे क्या कम अच्छे मिलते हैं बब्बू के ठेले में


मिलेंगे आज वहीं सेक्टर बारह के मोड़ पर

आना तुम सारा काम-धाम छोड़ कर

मम्मी जो पूछें तो आना अर्जेंट काम बोल कर

मुझे पीनी है लव वाली लस्सी

शहद जैसी तेरी बातों में घोल कर


मैं तेरा 'गुनाहों का देवता' लेकर आऊंगा

तुझको बाइक पर बैठाकर गोलचक्कर घुमाऊंगा


तुम मेरी 'मधुशाला' लेकर आना

देखो आज कोई बहाना न बनाना


तुम चांद-तारों की करती हो बात

अरे पागल वे निकलते हैं जब चढ़ती है रात

हमारी तो होगी बस ज़रा देर भर की ही मुलाक़ात


चाहे जैसे भी आना

बुरके में आना

दुपट्टे में आना

गलियों से छुप-छुप के आना

देखो आज थोड़ी जल्दी से आना


क्या हुआ जो पुस्तक मेले में नहीं मिले हम

हमें मिलने से रोके ज़माने में नहीं इतना दम!

०००


समय ही ऐसा है

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जहाँ अन्याय दमन हो

वहाँ जुबान पर ताले लटकाएगा

जहाँ चीखना हो लड़ना हो

वहाँ चुप रह जाएगा

झुक जाएगा 


जिस पर चाहिए थूकना

उससे हँस-हँस कर बतियाएगा

हत्या पर ग़र ताली बजाएगा

हत्यारों की शान में कविता सुनाएगा

तो हे श्रीमान तू क्या नहीं पा जाएगा


समय ही ऐसा है

सत्य बोलेगा, मारा जाएगा

झूठ बोल बे मंच पे तूझे पुकारा जाएगा

माथ नवा बे इज़्ज़त पदवी तमगे पाएगा


लोकतंत्र का नया ज़माना

पहले पिंजरे में आ बे

तभी तो कटोरी का दाना खाएगा!

०००



सुनो दु:ख!

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ए दु:ख! ऐसा भी क्या प्यार

जो रहते हरदम हमरे ऊपर ही सवार

जाकर कहीं और भी हो आइये कभी-कभार

मना लें हम भी अपने परिवार संग होली-त्योहार


ए दु:ख! आप महलों में क्यों नहीं जाते

जाकर अमीरों के घर क्यों नहीं छप्पन भोग उड़ाते

सुखियों के घर जाते तो क्या नहीं पाते

हमरी सूखी रोटी पर क्यों हैं लार टपकाते


ए दु:ख! हमरे पास न रुपिया न पईसा

देख ही रहे हैं जीवन जी रहे हैं कईसा

हमरे भाग के दुआरी बइठा रहता जमराज के भईंसा

जिनगी हमारी अनेरिया कुकुर के जईसा


ए दु:ख! आप ही बताएं हम कहाँ चले जाएं

कौन दरवाज़ा खटखटाएं कइसे न्याय हम पाएं

बताइए न और कितना जांगर खटाएं

कौन जतन करें कि हम भी कभी जीतें जश्न मनाएं


ए दु:ख! बहुत हुआ अनुनय विनय

बहुत खाया इनसे उनसे सबसे ही भय

अब कुछ दूसरे करेंगे हम मिली-जुली तय

बदलेंगे बदल के रहेंगे जिनगी के छंद अरु लय!

०००












मज़दूरी में क्या देंगे

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रोज़ शहर के चौराहे पर 

ज़िंदगी की रोशनी आँखों में भर

अलसुबह ही जुटते हैं दस-बारह गांवों के लोग


खड़े रहते हैं

हर गुजरते को तकते रहते हैं

वे मन ही मन कुछ तो कहते रहते हैं

क्या आपने सुना जब आप बगल से गुज़रते हैं


किसी की मां बीमार है

किसी पर पंसारी का उधार है

हर आदमी यहाँ जो खड़ा है, लाचार है

साहब! समझते तो होंगे क्या दरकार है


आप टहल के आ रहे हैं

सुबह का सुहाना मौसम, गाना गा रहे हैं

वे आपको उम्मीद से देखते जा रहे हैं

क्या आप कुछ समझ पा रहे हैं


वे दूर से आये हैं चल कर

चिड़ियों के जगने से पहले घर से निकलकर

अपनी मुसीबतों से जूझेंगे आपके यहाँ वे खटकर

जीते हैं रोज़ इसी तरह ज़िंदगी से लड़कर


सुनो सूरज भैया, तुम आराम से आना

काम चाहिए इन्हें पहले, जिसे ज़रूरत हो बताना


कल चंदर को नहीं मिला था काम

हो नहीं पाया था उसके आटे का इंतज़ाम

आज तो‌ मन ही‌ मन जप रहा वह राम-राम

बबन कहता है, देखिए हमें पसंद नहीं आराम

कुछ भी बताइये, हमें तो करना है काम


बाबूजी ये आपका मकान बना देंगे

आपकी शानो-शौकत रंग कर चमका देंगे

आपके गमलों में ख़ुशबू के फूल खिला देंगे

कर देंगे हर काम जो आप बता देंगे

कहिए बाबूजी! मज़दूरी‌ में क्या देंगे?

००००


 परिचय

कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब जीविकोपार्जन के लिए प्रकाशन का कुछ काम बिहार के एक गाँव में जन्म। अभी लखनऊ में वास।

पाँच किताबें- 

चार कविता संग्रह - 

1. खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं

2. नया रास्ता

3. काली मुसहर का बयान

4. हर जगह से भगाया गया हूँ

एक उपन्यास- बखेड़ापुर

अनियतकालीन पत्रिका 'मंतव्य' का संपादन

पता - 

महाराजापुरम

केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास

पो- मानक नगर

लखनऊ -226011

मोबाइल - 8756219902