1 - कुचक्र 
छतें होती थीं आकाशगंगा के बीच का द्वीप
जहाँ बैठकर गिनते थे उठती-गिरती अनंत लहरें
खिड़कियाँ थीं डाक सरीखी
जो पहुँचा देती थीं संदेश सुदूर गंतव्य तक
चूल्हे में जलती थी हमारी इच्छाओं की समिधा
सिंकती थी उस पर हमारे ही सब्र की रोटी
मुड़ेर पर रखकर अपनी निगाहें
हम काम पर लग जाते थे
एक पहचानी आहट से कूक उठती थीं नज़रें 
हम बेचैन हो उठते थे 
देहरी की मत पूछो
वो तो बैरन थी
लाँघने पर पैरों से लिपट जाते थे लाँछन के सर्प
और भीतर ठिठकने पर उड़ने लगते थे प्राण
हम प्राण बचाने को
कुचलते हुए हर एक फन निकल भागते थे बाहर
छूटते और गिरते जाते थे सरेराह हमसे हमारी ही बेचैनी के लाल दाने
जिन पर चलते हुए पहुँच जाती थी हम तक
बंदिशें जमाने की
हम फिर लाकर पटक दिए जाते थे देहरी भीतर
और फिर वही खेल 
वही छत, मुंडेर, खिड़की, चूल्हा, देहरी और हम।
2 - बेरोजगार दिनों में 
              (*)
झील की छाती में धंसे चंद्रमा के फाँस जैसी नहीं थी 
बेरोजगारी 
कि रात बीतेगी और फाँस गायब
बेरोजगारी नहीं थी पैर के तलवों में लगी जोंक सी भी 
कि चूसगी खून और चूसते-चूसते ख़ुद ही फट जाएगा उसका पेट
बेरोजगारी तो थी अथाह रेगिस्तान में खो चुकी राह सरीखी 
जितना चलते उतना भटकते
जितना चीखते उतना ही बेआवाज़ होते जाते
हमारे सारे प्रयास दिशाओं से टकराकर
हमारे ही पैरों पर आ गिरते थे
हम बेरोजगार थे 
तो न धरती हमारी थी
न आकाश
बस एक शर्म थी जिसमें छुपाकर अपना चेहरा
हम बेचेहरा हुए जाते थे।
             (**)
बेरोजगार दिनों में 
एक ब्लैक होल था हमारे सीनों में 
जिसमें कूदकर मर जाना चाहते थे हम
पर सुदूर टिमटिमाता एक तारा देख रोकते थे ख़ुद को 
देखते थे सपने कि होगा वो हमारी भी ज़द में 
जैसे बहुत से लोगों के लिए था
पर ये क्या कि 
तारा जब भी बढ़ता हमारी ओर
हमीं से निकलता वह ब्लैकहोल 
और निगल लेता उस तारे को।
3 - ईर्ष्या
पार्क में बैठा देख रहा हूँ
स्वेटर बुनती एक स्त्री को
वह इतनी तन्मयता से लीन है बुनाई में
जैसे धरती रत हो अपनी घुमाई में
बीच-बीच में वह तनिक रुकती है
जैसे देखती है हिरणी
पीछे आ रहे अपने छौनों को रुक-रुक के
वह बुने जा चुके हिस्से को निहारती है
वह उंगलियों से लेती है नाप
लंबाई और चौड़ाई का
और तैर जाती है एक उतनी ही लंबी चौड़ी मुस्कान
उसकी आँखों में
मैं जानता हूँ
अभी जो उसकी आँखों में उतरा वो
कोई काँधा था
कोई पीठ थी
उसके बुने स्वेटर से लैस कोई बदन था
उसकी नरम गर्मी से तर कोई चेहरा था
मैं सोचने लगता हूँ
उस अनदेखे व्यक्ति के बारे में
और अनजाने ही करने लगता हूँ ईर्ष्या।
4 - कमाऊ पूत  
छोटी खेती वाले संयुक्त परिवार की ज्ञात सभी पीढ़ियों में 
पढ़-लिखकर एक अदद सरकारी नौकरी पाने 
और कुल-वंश का नाम रोशन करने वाला इकलौता लाल हुआ वह
सगे-चेचेरे कुल मिलाकर पाँच भाइयों और इतनी ही बहनों के बीच का था वह
पर अब बहुत खास था।
कल तक साथ खेलते, लड़ते और औकात से परे समझते
परिवार में अब सितारा था वह
माँ गर्व से भर उठी थी, पिता कुछ और जवान हो गए थे
चाचियाँ दुलराती थीं, चाचा लोग सम्मान से बुलाते थे
बहनें उसके काम करने को दौड़ती थीं
भाई बिस्तर लगा देते थे, चुप रहकर सम्मान दिखाते थे
उसे अच्छा लग रहा था ये सब।
पर जानता था वह
कि अब उसे ही बहनों को ब्याह कर लगाना है उनके ठिकाने
पढ़ाई में पीछे रह गए भाइयों के रोजगार को खुलवानी है
किराना-परचून की दुकानें 
मां के घुटनों , पिता के अस्थमा, मझले चाचा की आंखों का करवाना है उसे ही इलाज
खेतों में सूखते बोरिंग को उखड़वा कर नया लगवाना है
घर की भीत को और ऊपर उठाना है
दान दक्षिणा सब में नाम कमाना है।
साथ ही उसे ये भी मालूम है कि 
पलकों पर उठाए फिर रहा ये कुनबा
उसकी जिम्मेदारियों की सूची में नहीं देगा कोई रियायत
उल्टे चूकने पर एक ही झटके में लाकर पटक देगा जमीन पर
कोसने-उलाहना देने में हो जाएँगे घर-जवार सब एक
उसका अपने लिए अतिरिक्त लाभ लेने के हर प्रयास पर
रहेगी हर एक की नज़र।
 
अब वह महज़ बेटा नहीं है घर का
वह तो अब उम्मीदों-अपेक्षाओं का दस्तावेज़ है
वह सभ्यता-संस्कारों की ऐसी पताका है
जिसे लहराना है ताउम्र दूसरों की इच्छा पर
उसे नहीं है कोई छूट 
आखिर अब वह है घर का 
कमाऊ पूत।
5 - छवि सुधार 
क्रोध और कुंठा के अतिरेक से 
कभी दाँत कटकटाते और कभी-कभी मुट्ठी भींचते इस शहर में 
ये क्या हुआ मेरे साथ
जो भी हुआ अच्छा हुआ - बहुत अच्छा हुआ
उस हुए ने ही इस कविता कि दूसरी पँक्ति में आ सकने वाले शब्द 'अक्सर' को 'कभी-कभी' में बदल डाला
हुआ यूँ कि आज सुबह ही
दफ़्तर जाते हुए मेरी कार भिड़ गई आगे की कार से
अच्छा खासा दब गया उस कार के पीछे का एक हिस्सा
सोचा, रोडरेज की घटनाओं को मंत्र जाप सा दोहराता ये शहर 
आज पड़ ही गया मेरे गले 
भय की अनंत लहरें उठीं भीतर और दौड़ पड़ीं 
डरी गिलहरियों सरीखी
कार की ड्राइविंग सीट से उतरते उस व्यक्ति को देखकर
कसने लगा कमर मैं भी 
एक अनचाहे लेकिन अवश्यंभावी युद्ध के लिए
गढ़ने लगा ढेरों तर्क-कुतर्क जिससे कर सकूँ सिद्ध कि- 
'ग़लती मेरी नहीं उसकी है' 
ये विचार भी आया कि दबा तो और दबाया जाऊँगा
अच्छा खासा रुलाया जाऊँगा
पर होने नहीं दूँगा आसानी से ऐसा
गालियों की एक पूरी श्रृंखला टपकने लगी दिमाग की नस से कंठ के कूप में 
तनने लगी जीभ की रस्सी और होने लगी तैयार 
उन्हें खींचकर बाहर करने को
कार से उतरे उस बूढ़े दिखते व्यक्ति ने पहले देखा 
अपनी कार को और फिर मेरी कार को
जिसे देखने की हिम्मत आई नहीं थी अब तक मुझमें
वह बढ़ा मेरी ओर 
खटखटा कर शीशा उसे नीचे करने का किया इशारा
काँपते तन से साधते मन को और तैयार करता ख़ुद को
मैंने शीशा किया थोड़ा नीचे और करने को हुआ दोषारोपण
पर ये क्या, पहले ही बोल उठा वह - 
'माफ़ करना, मुझे घूमना था दाईं ओर
और मेरा इंडिकेटर भी ख़राब है इसलिए दे नहीं पाया
मेरी वजह से आपकी भी गाड़ी का भी नुकसान हो गया
आप कहें तो...'
मैने संभालते हुए ख़ुद को देखा उसे
अनायास ही निकला मुँह से- 
'कोई बात नहीं, मुझे भी गैप करके चलना चाहिए था।' 
एक मुस्कुराहट के साथ उसने विदा लेकर गाड़ी बढ़ा दी दाईं ओर
मैं भी चल पड़ा आगे की ओर
विलोपित हो गए युद्ध की तैयारी के सभी अस्त्र 
एक मुस्कान एक विनम्रता ने 
ढहा दी उस पल शहर की पहचान बनी एक बदरंग दीवार
उस अनजान बूढ़े ने पढ़ाया पाठ कि 
इस शहर के विशेषण से 'अक्सर' को 'कभी-कभी' 
और फ़िर 'कभी-कभी' को 'कभी नहीं' में बदलने को 
कर सकते हैं हम ही कुछ।
6 -एक बच्चे की मृत्यु 
न पर्वत न पठार
धरती के सीने पर सबसे भारी है 
निःसंतान हुई एक मां का करुण विलाप
अपने ही बच्चे की लाश उठाए चल रहे पिता के
पदचापों से
कांपती है धरणी 
हिलते हैं दिशाओं के परदे 
आकाश से टपक पड़ती है आंसुओं की बौछार
एक बच्चे की मृत्यु
जो कैसे भी हुई हो
समय के तलवों में चुभा कांटा है
उसे पिहकना है आगे ताउम्र लगातार।
7- शिनाख़्त 
तलहटी नहीं, चोटी हैं पहाड़ के पैर
आकाश के संधान में रत 
कितनी ही चुनौतियों की नाव टाँगें 
किनारों पर नहीं धार में रहती है नदी 
चिट्ठी बाँचती बारिश की बूँदें जानती हैं
आसमान नहीं, जमीन है मेघों का घर
गिलहरी नहीं, आदिवासी को पता है जंगल का दुख
उजड़ने के निशान उसकी पीठ पर हैं 
मंजिलों से नहीं राहों से बँधती हैं संभावनाएं 
कई कई दिशाओं का पता ढूँढते 
कला, साहित्य, संगीत, स्थापत्य में नहीं
पुरसुकून नींद में है किसी सभ्यता की बेहतरी का राज़।
8- आश्चर्य 
ये क्या कम है कि बने हुए हो तुम इस क्रूर समय में 
क्या होगी इससे बड़ी उपलब्धि है कि जलते शवों की अनंत श्रृंखला में 
नहीं है कोई तुम्हारी चिता
तुम जी भी रहे हो और हंस भी
ये कोई छोटी बात है क्या
पर यकीन मानो 
ये सब तुम्हारी जीवटता नहीं कायरता का सबूत है
एक ऐसे समय में जब असहमति राष्ट्र के चरित्र पर एक दाग है
धिक्कार! तुम अब तक धुले नहीं गए
शर्म! कि आज़ादी बोल देने भर से जब भर गईं जेलें
तोड़े नहीं गए तुम्हारे घरों के दरवाज़े 
छिली नहीं गईं तुम्हारी पीठ की चमड़ियां
ऐसा क्या था तुम्हारी विरासत में कि 
अतीत के विकृत और दफ़न होने के दौर में भी
उन पर उठी नहीं कोई उंगली
कैसे थे तुम्हारे गीत कि जिसे सुनकर मिली सिर्फ़ ठंडक
भीतर दहकी नहीं कोई आग
यंत्रणा के समस्त शस्त्रों से लैस और कंधों पर सवार ये समय
क्योंकर तुम पर बना ही रहा विनम्र
कैसे तुम ओझल ही रहे उसकी वक्र दृष्टि से
और तो और आश्चर्य ये कि 
कैसे तुम भी समझते रहे इसे एक साधारण और सामान्य दौर!
छोड़ो सारी बात
पहले ज़रा टटोलो अपनी नब्ज़ 
और देखो कि तुम ज़िंदा भी हो ?
9- जो कविताएँ लिखते हैं
वो जो कविताएँ लिखते हैं
किसी और का क्या लेते हैं
अपना ही समय गँवाते हैं
अपनी ही हँसी उड़वाते हैं
ऊपर से शांत नज़र आते हैं
और भीतर से खदबदाते हैं
किसी घुटन किसी बवंडर से निकलने को
कागज़ पर उतर आते हैं
किसी और का क्या लेते हैं
दर्द, संघर्ष, प्रेम, मृत्यु जैसी बातों से जूझते हैं 
और कलम की जुबान से बड़बड़ाते हैं
अनकहे को शब्द देते हैं
शब्दों को अर्थ का नशा लगाते हैं
मौन को जगाते हैं शोर को सुलाते हैं
नींदें स्थगित करके सपनों के पीछे जाते हैं
वहाँ से लाकर एक मुट्ठी उम्मीद 
सारी दुनिया में बिखराते हैं
कवि किसी का क्या लेते हैं
ख़ुद का ही कुछ गँवाते है।
10 - समय का दीमक  
किसी तीसरे से मिला
बचपन के बिछड़े एक दोस्त का अता-पता और मोबाइल नंबर
रोम-रोम में दौड़ उठी खुशी और रोमांच की लहरें
उड़ने लगीं चारों ओर स्मृतियों की रंगीन तितलियां
जिनको पकड़ते हुए दौड़ता उछलता रहा 
बचपन की सोंधी मिट्टी पर घंटों
याद आने लगी वो साइकिल 
जिस पर बैठकर उड़े महीनों हम साथ-साथ
किसी चलचित्र सी चल पड़ीं स्कूल की कक्षाएं जिसमें रहे हम वर्ष सात
वो नदी भी जो बहती रहती थी हमारे आसपास
और वो गलतियां भी जो अब अफ़सोस की जगह 
बन गईं हैं गुदगुदी की बात
बजाया घंटी अपने मोबाइल से उसके मोबाइल पर
ट्रिन ट्रिन की आगे बढ़ती ध्वनि के साथ बढ़ती रही हृदय की थाप 
अचानक सब ध्वनियों पर उतराई एक परिपक्व आवाज़ 
'हेलो, कौन ?' 
करते हुए नियंत्रण श्वास, हृदय थाप और नाड़ी तंत्र पर
बोल पाया मैं एक अंतराल के बाद ही
बताता रहा ख़ुद को और पूछता रहा उसके बारे में 
आगे बमुश्किल हुई कुछ मिनट की बात
बहुत कुछ याद दिलाने के बाद भी हुई नहीं
उसकी चेतना पर मेरे होने की कोई दस्तक
वह अनजान ही बना रहा मुझसे तब तक
एक औपचारिक माफ़ी के साथ उसने ख़त्म किया संवाद
'सॉरी दोस्त! जगहों, घटनाओं की याद आने के बाद भी
 मैं आपको पहचान नहीं पा रहा।' 
उदासी की एक परत ओढ़कर
मैं सोचता रहा घंटों - 
अंततः खा ही जाता है समय का दीमक 
यादों की मोटी से मोटी साख
ज़रूरी नहीं अक्षत रहे चीजें और यादें 
सब जगह एक जैसी एक साथ।
11 - कथरियाँ 
अनायास लेटे हुए नरम-गरम बिस्तर पर 
न जाने क्यों याद हो आईं मुझे बचपन के दिनों की कथरियाँ
रंग-बिरंगी प्यारी कथरियाँ
वही कथरियाँ जिन्हें हर रात बड़ी जतन से खाट पर बिछाते थे
और सुबह सलीके से समेट कर सिरहाने लगा देते थे
गज़ब ये था कि ये गर्मियों में ठंडक और सर्दियों में ज़रूरी गर्माहट परोसती थीं
हमारी नींदों को हवा देती थीं और सपनों को पोसती थीं 
बनाते हुए उन्हें कई-कई दिनों तक अटकी रहती थी दादी की जान उनमें 
सहेजती थी महीनों पहले से पुराने, छोटे या फट-चिट चुके कपड़े-लत्ते
फैलाकर टाट पर बराबर तह में उन्हें टाँकती और जोड़ती जाती थी ऐसे
जैसे जोड़ रही हो अपने ही बिखरे सपने
या जैसे जोड़े हुए थी हमें भी वर्षों से ख़ुद की छाँव में 
या फिर ऐसे जैसे कुम्हार जोड़ता है मिट्टी के कच्चे बर्तन पकने को आँव में 
कथरी का कद बढ़ता जाता
तरह-तरह के रंग-बिरंगे कपड़ों से जुड़ तन उसका बनता जाता
दादी हमें भी उसमें लगाए रखती
उसका कोई न कोई सिरा पकड़कर दबाए रखने को कहती
अब लगता है कि वह सिखा रही थी हमें मिलकर गढ़ने
और आगे बढ़ने का ज़रूरी पाठ
तब वह ख़ुद सुई-धागे के साथ हमारी ओर बढ़ी आती थी 
कथरी के बदन पर उठती-गिरती धागों की अनेक लहरें
लंबाई-चौड़ाई में भागती हुई दिखतीं 
पर हकीकत में वो स्थिर ही रहतीं
हमारी ज़िंदगी में दादी के होने की तरह
अंत में एक पुरानी पहनी हुई साड़ी का दादी उस कथरी को जामा पहनाती
पहन उसे कथरी हुलसती या हम 
स्मृति अब ये अंतर लगा नहीं पाती
ऐसी कितनी ही कथरियाँ बनाई दादी ने
जिन पर जिए हम जीवन के कितने ही अनमोल पल
देखे कितने ही सपने 
काटी कितनी ही रातें
रोए, हँसे, टूटे, जुड़े उन पर कितनी ही बार 
आख़िर कहाँ गईं वो कथरियाँ
क्या अब भी बनाई जाती हैं वैसे ही
जिन को करता हूँ अब तक याद 
या वो भी चली गईं दादी के साथ!
12- प्रतीक्षा 
जाने कितनी ऋतुओं की लाशें दफ़्न थीं 
उसकी झुर्रियों में,
आँखें थीं कि महाखड्ड थीं 
निमिष भर में समा लेती थीं पूरे संसार का दुःख भीतर।
उसकी खुरदुरी हथेलियों की हर घिसी हुई रेखा
गवाह थीं कितनी ही प्रेमिल नदियों के सूख जाने की,
उसकी झुकी कमर पर छपा था
समय की मार का सबसे गाढ़ा काला निशान। 
बैठे हुए खोलती और आकाश पर सुखाती रहती 
वह बेतरतीब, उलझे और नम स्मृतियों की पोटली,
दिशाओं के काँधे बैठ हवाएँ बाँचती उसकी करुण कथा।
धरती उसकी एड़ियों की बिवाई से रगड़ खाती थी; 
फिर भी भर दोपहर रुककर उसकी मड़ई में 
उससे ही बतियाती थी, सुस्ताती थी।
सुख की एक दूब भी न उगती थी 
उसके दुःखों के पथरीले पहाड़ पर।
दिन भर के काम जल्दी-जल्दी निपटाती
और अपनी अभावों की दरी पर बैठ
गाने लगती वह प्रतीक्षा के गीत,
गीत जिसके शब्द-लय-धुन सब बुने होते उसके दुःखों से। 
परदेश से लौट रहे लोग सुनते थे उसका दारुण गान
और रो पड़ते थे उसे देखकर, सुनकर।
फिर वे भी सुनाते थे उसे दुनिया जहान की बातें,
पर कोई झूठ में भी नहीं बताता था
बरसों पहले परदेसी हुए बेटे की कोई ख़बर।
बस उसी एक ख़बर के लिए 
वह नहीं रही थी मर।
13 - मेरी बेटियो, बुरी लड़की बनना 
अच्छी लड़कियाँ चलती हैं हमेशा सीधी रेख पर सहमी सी नज़रें झुकाए
बुरी लड़कियाँ ताकती हैं तीन सौ साठ डिग्री और नापती हैं दिशाएं
अच्छी लड़कियाँ रसोई में घुली रहती हैं नमक और चीनी बनकर
बुरी लड़कियाँ नाप आती हैं आकाश के छोर यहीं से धुएँ सा उड़कर
अच्छी लड़कियाँ काटती हैं समय किताबों में घुसकर- छिपकर 
बुरी लड़कियाँ निकल आती हैं उससे उसी की खिड़की खोलकर
अच्छी लड़कियाँ नहीं लड़ातीं जुबान ना ही लगाती हैं कहीं कान
बुरी लड़कियाँ उलझ पड़ती हैं जमाने से और उठा देती हैं तूफान
अच्छी लड़कियाँ बनकर रह जाती हैं धर्म, परंपरा, संस्कृति की पहरेदार
बुरी लड़कियों के हर कदम से अक्सर ही पड़ जाती है इन किलों में दरार
अच्छी लड़कियाँ ब्याह कर विदा कर दी जाती हैं जीवन की सुरंग में 
बुरी लड़कियाँ लहराती हैं उम्र भर झंडे सा जो रंगा होता है उन्हीं के रंग में 
सुनो बेटियो, तुम कभी अच्छी न बनकर बुरी लड़कियाँ ही बनना
बिछना नहीं कभी कहीं, नीले आकाश सा सारी दुनिया पर तनना।
14 - फल
विरह के कितने ही कांटे चुभेंगे 
प्रतीक्षा की राह में 
परीक्षाएं तनी रहेंगी सिर पर
जेठ की दुपहरी सी
व्यग्रता फूटेगी तलवों के नीचे
किसी ज्वालामुखी सरीखी
दुःख के पहियों सी घूमती रातें
बीतेंगी बहुत धीरे-धीरे 
पर तुम चलते रहना प्रिय
प्रेम की एक बदली बरसेगी
और बदल जाएगा सारा परिदृश्य
बुझ जाएगी सारी तपन 
हरिया उठेगी पूरी पृथ्वी
जुड़ा जाएगा विकल मन
सुख का एक घूँट उतरेगा हलक में 
और फूट पड़ेगा भीतर से एक बसंत।
000
परिचय:- 
जन्म तिथि:- 10 अगस्त 1984 
ग्राम- लोहटा, पोस्ट- चौखड़ा, जिला- सिद्धार्थ नगर, उत्तर प्रदेश के एक सीमांत किसान परिवार में जन्म। 
शिक्षा:- दिल्ली विश्वविद्यालय से एम. ए. (राजनीति विज्ञान), एम. एड., एम. फिल. (शिक्षाशास्त्र) की डिग्री।
वर्तमान निवास स्थान:- मकान नंबर 280, ग्राउंड फ्लोर, पॉकेट 9, सेक्टर 21, रोहिणी, दिल्ली - 110086 
व्यवसाय:- दिल्ली के सरकारी विद्यालय में शिक्षक (प्रवक्ता, राजनीतिक विज्ञान)। वर्तमान में एससीईआरटी, दिल्ली (डाइट केशवपुरम) में असिस्टेंट प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान) पद पर प्रतिनियुक्ति प्राप्त।
रुचि:- कविता, कहानी और समसामयिक शैक्षिक मुद्दों पर लेखन। 
समय-समय पर कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। जैसे- जनसत्ता, निवाण टाइम्स, द हिंट, दैनिक जागरण, शिक्षा विमर्श, मधुमती, कदम, कर्माबक्श, किस्सा कोताह, परिकथा, मगहर, परिंदे, अनौपचारिका, वागर्थ, हंस, निकट, बहुमत, इंद्रप्रस्थ भारती आदि।
पुस्तक प्रकाशन - 
बोधि प्रकाशन से 'मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा' (2019) कविता संग्रह प्रकाशित।
प्रलेक प्रकाशन से बाल कविता संग्रह 'क्यों तुम सा हो जाऊँ मैं' प्रकाशित। इसी संग्रह पर 'किस्सा कोताह कृति- सम्मान- 2020' मिला।
अनबाउंड स्क्रिप्ट प्रकाशन से शैक्षिक लेखों का संग्रह 'बच्चे मशीन नहीं हैं' (2025) प्रकाशित।
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से कहानी संग्रह 'दूध की जाति और अन्य कहानियां' (2025) प्रकाशित।
मोबाइल नंबर- 9818455879
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