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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 अप्रैल, 2025

प्रेम रंजन अनिमेष की कविताऍं

 

स्त्री अशेष..

          

1          

                                

कुछ उसी तरह

                                

कुछ उसी तरह

जैसे कहते 

समाचार के

आखिर में 


कहा भी कहाँ 

बंद कमरे में 

रहा गूँजता 


इस जिंदगी के लिए 

केवल इतना...

                            








2


स्त्री की बात

                                

भोथरा कुठार

धारदार तलवार

बम गोले बारूद

अस्त्रों का भंडार

शस्त्रागार 


संसार के सारे हथियार

क्या बनाये गये इसीलिए 

कि रखा जाये  

किसी तरह बरकरार 

पौरुष का अहंकार 


या कि खत्म करने के लिए 

हर जगह से

स्त्री की जात

स्त्री की बात 


बात जो

अपने चरमोत्कर्ष पर

हो जाती 


एक बहस

कोई दलील

कहीं गवाही...

                               


3


बंद दरवाजे के पीछे

                                

कोई दरवाजा

हो बाहर से लगा 

तो उसे खाली

एक कपाट मत समझो 


कान लगा कर सुनो

हो सकता है

उसके भीतर 

कोई धड़कन हो 


कोई मासूम जान

जिंदगी के लिए 

जूझती हुई 


मुमकिन है 

यह भी

कि आरक्षियों को 

खबर हो 


पर वे अपनी सहूलियत से

या किसी इशारे पर

देर से पहुँचें 


समय पर पहुँचने से

कोई जान बच सकती है

कई जानें बच सकती हैं 


दीवारों के बीच 

दरवाजा तो बना ही 

इसी के लिए 


इसलिए कोई चीख सुनायी दे

तो अनसुनी मत करो 

और न रहो ठिठके 


चाहे वह निकली हो कहीं से

कौन जाने अपने ही भीतर से 


बाहर जो ताला झूल रहा 

उसे तोड़ा जा सकता 


ताले तो बने ही 

कभी न कभी 

टूटने के लिए 


और वह समय

है आज

और अभी ...

                              


4


परिहार

                               

क्या ऐसा कभी होता है 


कि दो पहियों की गाड़ी में 

एक पहिया एक दिन उठे

और दूसरे को अलग कर दे

कि वह अकेला काफी है 


जिंदगी में 

ऐसा होते देखा है...

                              


5


रुखसती

                               

जो बरसों बरस साथ रहा

एक दिन सहसा

उसी ने कर दिया जुदा 


न जाने क्या

तकलीफ ऐसी

होने लगी थी

होने से उसके 


कोई बात नहीं 

खास या नयी 


इस तरह स्त्रियों की

विदाई की परंपरा

सदियों से चली आ रही 


क्योंकि हर घर यह कहता

वह किसी और का 


बस उसके सिवा

अपने को होम कर जिसने

उसे बनाया बसाया...

                             


6


कलम की ताकत

                               

लेखनी

कोई  

कितनी

बड़ी 


और कलम की

काट कैसी 


क्या नोक उसकी

देखते चुभने लगती

आँखों को कई 


रोशनाई 

जो उसमें भरी

कितनी पक्की

किस कदर गाढ़ी  


क्या किसी 

स्त्री के हाथ लग कर

हो जाती वह और सुंदर

और धारदार 


इतनी असरदार 

कि तोड़ देने के लिए  

बलवंत कोई कापुरुष कोई 

उठाये हथियार 

करे प्रहार...?

                             











7


विडंबना

                                

स्त्री तो

सदा से ही

रचयिता 


सबसे सपनीली

और सच्ची 


फिर क्यों 

किसी को 

रचने की 

सजा 

ऐसी भारी 


अपराधियों को भी जैसी

दी नहीं जाती


रचना 

हालाँकि हमेशा

जोखिम से भरा 


और यही

इस समय समाज की

सबसे बड़ी विडंबना 


कि जो रचता है

कहाँ बचता है...?

                              


8


कुछ करने चलती स्त्री

                                 

कुछ करने चलती स्त्री 


घर संसार सँभार

उससे परे

उसके पार 


वह जो आधार 

और आकार 

होकर भी

निराधार निराकार 


सोचती रहती 

कोई स्वप्न उसके लिए भी 

तो हो साकार 


पर जीवन भर

तन से मारी जाती

मन मार कर जीती

न जाने औरतें कितनी 


और किसी तरह भी

होने जीने की 

कोशिश करते ही 

होने लगतीं 

हटाने मिटाने समेटने की

साजिशें कई 


कुछ करने चलती स्त्री 

तो अकसर 

ऊपर आसमान से

होता नहीं वज्रपात 


बल्कि बहुत पास से 

कोई कहने को 

बिलकुल अपना 

करता कुठाराघात

हठात...

                              


9


स्त्रियोचित                           

                                🌀

झाड़ू पोंछा छोड़ कर 

बने कलम जो हाथ

सिलवट सिलवट हो गया

कैसा प्रभु का माथ 


दी लकड़ी किस पेड़ ने

किस लोहे ने धार

करता जिससे आदमी

औरत पर यूँ वार...

                              


10


असहजीवन

                               

बात दीगर 

कि शब्दों में 

रही अमर 


मारने की

कोशिश तो की गयी

मीरा को भी 


और जनश्रुतियाँ जैसा बतातीं

प्याला विष का

भेजा था

राणा जी ने ही 


मध्ययुग था तब

काल आथुनिक अब

खूब उद्घोषित हर ओर

उन्नति प्रगति अपार


किंतु स्त्री के साथ 

उसके विरुद्ध 

वही विषम व्यवहार

अमानुषिक अत्याचार 


और आदमी के वैसे ही 

आदिम हथियार...

                              


11


रिक्तता

                                

एक और औरत

उठ गयी

भेज दी गयी

इस असार संसार से

वह भी असमय 


स्त्रियाँ भेजी जातीं 

इसी तरह से

कई बार तो

जन्म से भी 

पहले ही 


चलता रहा यही

तो रुक न जाये कहीं

एक दिन यह दुनिया 

जीवन सत से खाली 


रिक्तता की वह खाई गहरी

और बढ़ाती 

हमेशा खलेगी

कमी उसकी


किसी स्त्री के जाने से बनी  

जगह कभी

भरी कहाँ जा सकी...

                                 


12


बिसात                           

                                

कितनी सदियों का

यह अँधेरा 

कितनी रातों की

एक रात 


किसी घास को तो

जड़ से उखाड़ नहीं सकते

मिल कर दुनिया के

बवंडर बवाल झंझावत सारे


फिर औरत के आगे

क्या बिसात

कैसी औकात 


जड़ से जुड़े

और बढ़े 

अगर वह साथ


जोड़ ले

थाम ले 

हाथ में हाथ...

   ०००                                                       

   

                                                                                                                

 संक्षिप्त परिचय

*देश के सर्वाधिक सशक्त, नवोन्मेषी एवं बहुआयामी रचनाकारों में अग्रगण्य 

* जन्म 1968 में आरा (भोजपुर), बिहार में  

* बचपन से ही साहित्य कला संगीत से जुड़ाव, विविध विधाओं में अनेक पुस्तकें प्रकाशित 

* कविता हेतु भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार  तथा 'एक मधुर सपना' और 'पानी पानी' सरीखी कहानियाँ प्रतिष्ठित कथा पत्रिकाओं  'हंस' व 'कथादेश' द्वारा  शीर्ष सम्मान से सम्मानित 

*कविता संग्रह* : मिट्टी के फल,  कोई नया समाचार, संगत, अँधेरे में अंताक्षरी, बिना मुँडेर की छत, संक्रमण काल, माँ के साथ, स्त्री सूक्त, 'कुछ पत्र कुछ प्रमाणपत्र और कुछ साक्ष्य', 'जीवन खेल' आदि बहुचर्चित 

**ईबुक* :  'अच्छे आदमी की कवितायें', 'अमराई' एवं 'साइकिल पर संसार' ईपुस्तक के रूप में ( क्रमशः 'हिन्दी समय', 'हिन्दवी' व 'नाॅटनल' पर उपलब्ध)

*अनेक बड़ी कविता श्रृंखलाओं के लिए सुविख्यात 

*कहानी संग्रह*  'एक स्वप्निल प्रेमकथा' ('नाॅटनल' पर उपलब्ध) तथा  'एक मधुर सपना' पुस्तकनामा से प्रकाशित, 'लड़की जिसे रोना नहीं आता था', 'थमी हुई साँसों का सफ़र', 'पानी पानी', 'नटुआ नाच', 'उसने नहीं कहा था', 'रात की बात', 'अबोध कथायें' आदि शीघ्र प्रकाश्य । 

*उपन्यास* ' 'माई रे...', 'स्त्रीगाथा', 'परदे की दुनिया', ' 'दि हिंदी टीचर', आदि 

*बच्चों के लिए कविता संग्रह* 'माँ का जन्मदिन' प्रकाशन विभाग से प्रकाशित, 'आसमान का सपना' प्रकाशन की प्रक्रिया में। 

*ग़ज़ल संग्रह* 'पहला मौसम' और ग़ज़ल की और किताबें

संस्मरण, नाटक, पटकथा,  आलोचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद तथा गायन एवं संगीत रचना भी । अलबम *'माँओं की खोई लोरियाँ'*,*'धानी सा'*, *'एक सौग़ात'* ।

*ब्लॉग* : 'अखराई' (akhraai.blogspot.in) तथा 'बचपना' (bachpna.blogspot.in)

*स्थायी आवास*: 'जिजीविषा', राम-रमा कुंज, प्रो. रमाकांत प्रसाद सिंह स्मृति वीथि, विवेक विहार, हनुमाननगर, पटना 800020  

*वर्तमान पता* : 11 सी, आकाश, अर्श हाइट्स, नाॅर्थ ऑफिस पाड़ा,  डोरंडा, राँची 834002 

ईमेल : premranjananimesh@gmail.com 

दूरभाष : 9930453711, 9967285190

10 अप्रैल, 2025

अपने समय के सम्मुख

  

 एस.एस.पंवार

कहते हैं कि कविताओं का मूल्य बोध कवि के भोगे या जांचे-परखे जीवन का निचोड़ होता है। रश्मि भारद्वाज के कविता संग्रह 'सम्मुख' की कविताएं भी इसी ओर इशारा करती हैं। कवयित्री रश्मि की आत्मस्वीकारोक्ति है कि स्त्री होने और कविता लिखने की अपनी क्षतियाँ भी हैं। ये निश्चय ही कविता लिखने वाली हर स्त्री महसूस करती ही होंगी। वे कहती हैं एक स्त्री की कविता को उसके स्त्री होने में ही बांध दिया जाता है। रचनाओं के प्रति

पाठक वर्ग या समाज के किसी भी वर्ग की अवधारणाओं के प्रति कवयित्री की नजर पैनी है। वे शुरू में ही पाठक को सचेत करती हैं कि किसी भी झुकाव में बंधकर उसकी रचनाओं को न पढ़कर इन कविताओं की एक तटस्थ स्वीकार्यता जरूरी है। स्त्री चिंतन रश्मि की कविताओं में जोर-शोर से अपनी पैठ दर्ज कराता है। आत्मानुभूति, आत्मस्वीकारोक्ति के साथ-साथ सजगता और मनन का एक अन्य भाव, जो कि कविताओं के मूल्य का पक्ष है; बराबर उनकी कविताओं में परिलक्षित होता रहा है। पाठक की सजग और महीन दृष्टि ही इस भाव को हूबहू ग्रहण कर पाती है। दर्शन और मूल्य उनकी ऐंद्रजालिक गूढ़ शैली में साथ साथ चलते हैं। एक कविता में पूर्व की किसी स्मृति के मार्फ़त वे लिखती हैं


बचपन की एक साइकिल 

जिसे सीखते हुए जाना कि रास्ते सीधे-सरल नहीं 

बहुत घुमावदार होते हैं

सन्तुलन साधते काँटों की झाड़ पर गिर गयी थी 

काँटों से बचना अभी भी सीख ही रही हूँ 

रास्ते अब भी छल जाते हैं


निश्चय ही यह भौतिक घटना के जरिये जीवन की कटु सच्चाई को उद्घाटित करता हुआ पद्य है। व्यक्तिगत न होकर यह पूरी स्त्री वर्ग की पीड़ा है। वह बार-बार छली जाती रही है। एक अन्य जगह वर्कपैलेस पर काम करती हुई स्त्री को लेकर पंक्तियां हैं


नौकरी पर जाते हुए मैं आत्मसम्मान 

घर की दराज में बन्द कर आती हूँ 

घर लौटकर छिपा देती हूँ अपनी बाहर वाली चप्पलें 

इस तरह मैं दोनों जगह पूरी हो पाती हूँ


समानता की दुहाई देते हुए समाज में स्त्री निजी क्षेत्रों में नौकरी के लिए जरूर पुरुषों के साथ आई है। लेकिन पुरुष दृष्टि जिस नजर से उसे देख रही है। कवयित्री उसे बखूबी समझती है। जिस रूप में, जिस किरदार में स्त्री को उतरना पड़ता है; कवयित्री उसे सजगता के साथ अभिव्यक्त करती है।


कवयित्री रश्मि भारद्वाज को समझौतों के भ्रमजाल में जीना बर्दास्त नहीं। वह अपने जीवन के फैसले सजगता से लेती है और उसी से निर्मित चट्टान की तरह मजबूत व्यक्तित्व उनकी प्रतिबद्धताओं से भरी कविताओं में भी नजर आता है। 'एक पुरुष वाला घर' इसी की परिचायक कविता है। कवयित्री के पास उसके पद्य में, मार्मिकता, सजगता और भविष्य दृष्टि सब कुछ है।

'एक विचार की तरह' एक टुकड़ों में बंटी हुई कविता है। एकबारगी यह एक अधूरी सी प्रतीत हो सकती है, लेकिन यह वास्तव में अपने अधूरे होने के दर्शन में अधूरी; लेकिन एक मुकम्मल कविता है जो किसी की अनुपस्थिति को मुक़म्मल बयां करती है और हमें भावुकता से नम कर देती है। हिंदी के बहुचर्चित उपन्यास 'आपका बंटी' सरीखा बाल मनोविज्ञान और उसके इर्द गिर्द का तमाम घटा-जोड़ कवयित्री इसके मार्फ़त  संजीदगी से दर्ज करती है। 'नक्षत्रविहिन है अगस्त का आकाश' कविता में कवियित्री अपनी बेटी को संबोधित पंक्तियों में हिदायत लिखती है। उसे मजबूत करती है। इस कविता की कुछ पंक्तियां हैं


मैं उससे कहूँगी 

उसे किसी हार का भय नहीं होना चाहिए

दुख का नहीं 

विरह का नहीं 

मृत्यु का भी नहीं, 

भय तो इस जीवन का है 

जिसके छल से 

जो पराजित नहीं हुआ 

बिखरा नहीं 

वह भी एक दिन 

क्लान्त हो जाता है।


पशु पक्षी प्रेम और हमदर्दी उनकी कविता में बराबर चलती है। 'गहन वृष्टि की रातों में' कविता की पंक्तियां हैं


ज्यों काँपती है नन्हीं चिड़िया 

किसी वाहन तले छिपा कुनमुनाता है श्वान


वहीं एक याचित मृत्यु के साथ कविता में भी ठीक ऐसे दृश्य यकायक बन पड़ते हैं।


यह कैसा करुण विलाप 

एकाएक उचटती है नींद 

सफेद झब्बेदार पूँछ वाली उसकी साथिन को 

कल बेरहमी से कुचल गया था कोई गाड़ी वाला 

अकेला छूट गया वह श्वान रोता है


पत्तों की ओट से चिहुँकी है 

वह एकाकी चिड़िया 

घायल है उसका एक पैर,


निश्चित रूप से ये दृश्य इस मत को प्रबल करते हैं कि एक सच्चे कवि में अपने परिवेश को लेकर संजीदगी होती है। वह अपने आसपास के सजीव और निर्जीव तमाम वस्तुओं को बारीकी से देखता महसूसता है। प्रकृति के मानवीकरण और उसे आत्मसात कर लेने की बखूबी झलक 'काशी' कविता में दिखती है। 


मैं शिव को खोजने गयी भी नहीं थी 

मुझे एक नदी के वक्ष पर सर टिका

उसकी सिहरती धड़कन सुननी थी 

मुझे एक शोर की लय में 

कहीं डूब जाना था।


रश्मि संभावनाओं की कवयित्री है। वह अपने सुखों-दुखों के साथ जीवन के तमाम पक्षों पर विमर्श करती हैं। अपनी अब तक की साहित्यिक यात्रा में वह नवीनता खोजती रही है। अपनी कविता 'सर्व मंगल मांगल्ये' वे कहती हैं 


कवियों ने ईश्वर को मृत घोषित कर दिया वियोगियों ने प्रेम को 

दोनों का ही कोई विकल्प 

वे कभी नहीं दे सके


अर्थात आम जन की तरह वह साहित्य में इस जिज्ञासा और संभावना को बराबर किसी परिणाम की उम्मीद से देखती रही हैं।

देवियों के व्रत-अनुष्ठान करने वाली अधिकतर स्त्रियों के पास महज एक अंधी श्रद्धा और एक पारंपरिक रीत होती है जिसमें वे महज देवियों का गुणगान करती हैं, उन्हें मनाती हैं। रश्मि की कविताएं दुर्गाओं के तमाम रूपों पर सजगता से अपनी बात कहती है। कवयित्री रश्मि भारद्वाज का मानना है कि नवदुर्गा कोई और नहीं, हमारी आन्तरिक शक्ति है, हम स्त्रियाँ में अन्तर्निहित चेतना, संकल्प शक्ति, प्रेम और तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी हमें उबार ले जाने वाली हमारी जिजीविषा। वे परम्परा से मिली धरोहर हैं और वहीं से आधुनिक स्त्री का स्वरूप भी मिलता है। ऐसी आधुनिक स्त्री जो गढ़े गये रूपकों और मिथकों के बाहर सन्धान करती है अपना अस्तित्व। हम सबके अन्दर स्थित दुर्गा महाकाव्यों के पार जाकर आम जीवन में खोजती है अपने स्त्री होने के मायने। एक आम स्त्री की तरह पराजित होती है, भयभीत होती है लेकिन अपनी सारी ताक़त बटोर पुनः अपनी यात्रा आरम्भ करती है। वही नवदुर्गा मेरा हाथ गह अपना यह नया स्वरूप लिखने के लिए मेरी अन्तः प्रेरणा बन जाती है। नव दुर्गाओं में प्रथम रूप शैलपुत्री के मार्फ़त कुछ पंक्तियां हैं 


शैलपुत्री, पिता से रखना अनुरक्ति 

कोई आस मत रखना 

प्रथम मोहभंग सदैव पिता ही करते हैं 

जब उनके गृह में ही नहीं 

हृदय में भी तुम आगन्तुक हो जाती हो 

मिलेंगे तुम्हें ऐसे पिता भी 

गर्भ में वीर्य डाल आने के अतिरिक्त 

एक जीवन में वे कहीं नहीं होते, 

मात्र अपनी काया का अंश हो तुम 

अपनी ही योनि से जन्म लेती हो


इस तरह निश्चय ही उनकी कविता दुर्गा-भक्तिन स्त्रियों को एक नई दृष्टि प्रदान करती हैं। रश्मि की ये कविता पितृसत्ता को लेकर मजबूती से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। कविता के अंत में कवयित्री नारी शक्ति को इंगित कर कहती हैं


योगिनी, तुम करो अपना आह्वान 

गाओ केवल अपनी स्तुति के मन्त्र 

तुम जिसे बाहर खोजती चली आयी हो सदियों से 

वह तिलिस्म सदैव तुम्हारे भीतर ही है। 


इस कड़ी में देवी के अष्टम रूप महागौरी पर एक कविता के माध्यम से वह पूरे वर्तमान की व्यवस्था को भी उद्घाटित करती है, समग्र अस्तित्व के प्रति उनका प्रश्न है कि 


यह किसकी गणना रही 

काला तम का प्रतीक हो गया

घोर उजाले की ओट में जबकि

होते रहे अधर्म ।


इसी तरह कवयित्री नव दुर्गाओं के माध्यम से उनके समस्त रूपों-गुणों की जानकारी रखते हुए बेहतरी से स्त्री मन को खोलती है।

सम्मुख कविता संग्रह अपने समय और समाज पर संवेदनशील दृष्टि रखने वाले ऐसी स्त्री नागरिक की अभिव्यक्ति है जो सिर्फ़ अपने सम्मुख ही नहीं है, अपने सामने घटित दृश्यों की भी सचेत साक्षी है और धर्म, समाज, राजनीति, बाज़ार के सम्मुख असहाय पड़ते जा रहे व्यक्ति के संघर्ष और जिजीविषा को कलमबद्ध कर रही हैं।

०००

एस.एस पंवार 

युवा कवि व समीक्षक 



04 अप्रैल, 2025

बिक्रम सिंह की कहानी

         

एक प्रोफेसर की हत्या

मैं यह पहले ही बता देना चाहता हूं  कि यह कोई  कहानी नहीं,  कोरी  कल्पना  है।  इसका वास्तविक घटना से कोई लेना- देना नहीं है।  उसके बाद भी आपको कहानी पढ़ते -पढ़ते कहानी के मध्य में  या समाप्ति पर यह महसूस होने लगेगा कि यह तो  वही घटना है, जो कुछ समय पहले महानगर में घटी थी। जिसकी चर्चा चाय-पान की दुकान से लेकर कॉलेज- स्कूल,साहित्य और सिनेमा के गलियारों में और  महानगर के अखबारों के पन्नों पर भी तैर रही थी। आपको बताता  चलूं  कि उस घटना का 

एकमात्र दोषी मैं ही हूं । उसकी मौत का जिम्मेदार भी मैं  ही हूं। मौत इसलिये कह रहा हूँ, क्योंकि पुरी दुनिया की नजर में यह हत्या नहीं बल्कि आकस्मिक मत्यु है। पर मेरी नजर में यह हत्या है । मेरी बातों से आप सबको लग  रहा होगा  कि मैं भी कैसा पागल  आदमी हूं ।

 चलिए,  मैं आपको पहले अपना परिचय दे देता हूं,ताकि आप मेरी  कहानी में निहित सच को समझ जाने के बाद मुझे पागलों में गिनना छोड़ दें । जैसा कि परिचय में सबसे पहले नाम बताया जाता है तो मेरा नाम डॉ शिवशंकर सिंह है। मैं जाति से राजपूत हूं । अपने आपको मैं राजपूत इसलिए बता रहा हूं क्योंकि  मैं सामान्य कैटिगरी से आता हूं । वैसे मैंने अपने जीवन में एक मच्छर तक नहीं मारा है। हो सकता है कि मेरी तरह आप भी न मार पाए हों, क्योंकि आप भी मेरी तरह मच्छरदानी लगाकर ही सोने के आदी होंगे।

 आप  यह भी जान लें कि मैं शाकाहारी नहीं हूँ । बहुत बार कोशिश करके  भी  नहीं हो पाया। मुँह का स्वाद हमेशा मेरी चेतना पर भारी  पड़ा। अंडा, मुर्गा,मछली,बकरा सब खाया। खूब चाव से खाया,लेकिन मैं इन सबका हत्यारा नहीं हूं ,क्योंकि उनकी हत्या बुचड़खाने में हुई थी । मैंने सिर्फ मांस पका कर खाया था ,पर जैसा कि मारने वाले से ज्यादा   दोषी मांस खाने वाला  होता है। 

 उसी तरह मेरा मित्र अश्वनी, जिसका आज ही दाह- संस्कार करके कोलकाता से लौट रहा हूं........  हाँ ! वही कोलकाता शहर जो कभी कलकत्ता हुआ करता था। मुझे  यह महानगर कभी पसंद नहीं आया। खैर ! अब  मेरा कोलकाता आना  हमेशा के लिए छूट जाएगा। गर्मी में     पसीने से कई-कई बार

नहाना पड़ जाता है।  उस पर लोगों और गाड़ियों की भीड़भाड़ ।  भारी शोरगुल से तो जैसे दम ही  घुटने  लगता  है। मन करता था कब इस शहर को जल्दी छोड़कर वापस अपने रानीगंज चला जाऊं। रानीगंज एक छोटा सा शहर था। यहाँ वो सब कुछ  उपलब्ध  नहीं था जो कोलकाता में  था । सुकून नहीं था कोलकाता में । वैसे कोलकाता में क्या नहीं है ? इस भीड-भाड़ से इतर   कोलकाता वस्त्रों की विविधता और प्रचुर उपलब्धता के लिए प्रसिद्ध है। यहां रेशम, तांत और सूती साड़ियों की  विविधताओं में उपलब्ध  हैं। नायलॉन, खादी,  ढाकाई हथकरघा और बनारसी साड़ियों की कई किस्में यहां उपलब्ध रहती हैं । कोलकाता जब भी आता था तो मित्र के साथ  बाजार जाकर पत्नी के लिए सूती साड़ियां जरूर  खरीद ले आता था।

जिस शहर में मेरा मन नहीं लगता था, उसी शहर में हर दिन ट्रेन भर भर कर लोग काम करने आते थे। फिर शाम को वापस लौट जाते थे। इस आवाजाही में मुश्किल से वो अपने घर में  छह घन्टे से  ज्यादा नहीं रह पाते  होंगे। 

इन सब बातों को अगर छोड़ दूं तो आखिर  मैं कोलकाता क्यों आता था और क्यों  मेरा मन वहां लग जाता था? कोलकाता में बस मेरा यार  अश्वनी था।  आज वह भी हम लोगों को छोड़कर चला गया। एक दुर्घटना ने उसकी जान ले ली।   जिसे सब एक दुर्घटना मान रहे हैं,दरअसल वो दुर्घटना नहीं है।  निश्चित रूप से वो हत्या है,जिसका दोषी मैं हूं । मैं जानता हूं ,आप सब मुझे अभी भी पागल  ही समझ रहे होंगे।  चूंकि  मैं आपको अपना परिचय बता रहा था  ,जो  अधूरा रह गया है । मैंने हिंदी में पीएचडी कर रखी है। इसलिए मेरे नाम के पहले डॉ लगा हुआ है अर्थात मुझे डॉ. की उपाधि मिली है।  मैंने अपने जीवन में कई कहानियाँ  और लघुकथाएं लिखी है। इसके बावजूद मैं प्रोफ़ेसर  नहीं बन  सका। पूरी जिंदगी स्कूल में पढ़ता  ही रह गया । अच्छा कहानीकार होने के कारण भी स्कूल में मेरी अवहेलना होती रही। स्कूल तो छोड़िये, घर में भी यही हाल था ,क्योंकि   मैं अन्य टीचरों की तरह  पढ़ाकर लाखों रुपये नहीं कमा रहा था । ऐसा भी नहींं कहूंगा   कि  पढ़ाने की इच्छा नहींं थी ।इसकी कोशिश भी की पर हर बार कोई न कोई कहानी मेरे दिमाग में चलने लगती और सुबह -शाम टाईप राइटर पर कहानियाँ टाईप करता रहता। मेरे पास यही वो समय था, जब मैं लिख- पढ़  और  बच्चों को  ट्यूशन पढ़ा सकता था।  किसी ने सही कहा कि एक वक़्त में एक ही काम हो सकता है।  सो मैंने एक ही काम चुना लिखने का । हमेशा वही काम करो जो मन का हो। पर तमाम अमूल्य कहानियाँ लिखने के बाद  भी  मेरा परिवार  और समाज  मुझे नहीं समझ सका, क्योंकि आज की दुनिया में जीवन की हर उपलब्धि को पैसे से ही मापा जाता है। मैं उस उपलब्धि को  अपने लेखन से  अर्जित  नहीं कर पाया,जिसे फ़िल्म स्टार  और क्रिकेटर   सहज ही प्राप्त कर लेते हैं । 

पर मुझे इसका मलाल नहीं है, क्योंकि ट्यूशन न पढ़ाने की वजह से  ही मैं अपने बच्चों को पढ़ा पाया और आज मेरे दोनो बेटे सरकारी अफसर हैं।

जीवन में मैं इस बात से खुश था, पर धीरे -धीरे  जीवन में दुःखों के कई पहाड़  मुझ पर टूटने लगे।  सबसे बड़ा दुख  तो मुझे मेरे मित्र  के दुनिया छोड़ जाने पर  लगा।

वैसे मैं दुखी  तो बचपन से ही  रहा हूं।  पांच साल की उम्र में मां छोड़ कर चली गयी।  मां और पापा में उस दिन किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया था।  मां बहुत गुस्से में आ गयी। मां  कहने लगी  कि"मैं जान दे दूंगी"  ।  पापा ने बस यह कह दिया,जान देना आसान है क्या? बस पापा ने यहीं  गलती कर दी। मां  ने उस दिन अपने शरीर पर किरासन तेल  छिड़ककर अपने आपको आग के हवाले करके यह साबित कर दिया  कि जान देना बहुत आसान  काम है।   लव और कुश जैसे दो छोटे- छोटे बच्चों को छोड़कर मां चली गयी। 

 पापा को हम दो भाईयों को पालने के लिए दूसरी शादी करनी पड़ी।सौतेली मां के प्यार और सगी मां के प्यार में क्या फर्क होता है  ,इसके बाद ही पता चला। इसके पहले मैं मां को सिर्फ मां ही समझता था। दुनिया की हर मां को एक जैसा ही समझता था। धीरे -धीरे मुझे समझ में आने लगा कि कोख से जन्म  दी हुई मां और सौतेली मां में एक  बड़ा फर्क होता है । उसी

भवर में  मैं फस गया था। मां कोई ऐसी वस्तु तो नहीं कि बाजार  जाकर दूसरी बदल लाता। कई बार मां की शिकायत पापा से करने की कोशिश भी की, पर हर बार पापा और मां के आपसी प्यार और तालमेल को देख मैं चाह कर भी कुछ नहींं कर पाया। मगर शायद पापा सब कुछ समझते थे । कई बार वो मुझे हाट-बाजार  साथ ले जाते और पूछते,"दूसरी मां प्यार करती है न तुझे। "

मैं अक्सर खामोश रहता। फिर पिता मेरी खामोशी से सब कुछ समझ जाते। हम दोनोें की खामोशी का तालमेल  मां को हम दोनों के साथ रखे  हुआ था। इसी खामोशी की वजह थी कि आज मेरे सौतेले भाईयों ने मुझे जमीन से बेदखल कर दिया है। जमीन पर दावा करने का मतलब है, उनसे लड़ाई-झगड़ा,कोर्ट- कचहरी। अगर मैं   इन  झंझटों से दूर  न रहता तो अपने  उपन्यास और कहानियों को पूरा न कर पाता ।  गांव और भाईयों से दूर होने का फैसला भी मेरा और पिताजी का था। दसवीं के बाद बारहवीं की पढ़ाई के लिए मैं भागलपुर हॉस्टल में चला गया। यहां मैं अपने दोस्तों में रम गया। नये- नये दोस्त बन गये ।गांव बहुत कम जाता। पिताजी ही मुझसे मिलने आ जाया करते।  बी.ए पास करके एम.ए  में आ गया।  यहीं मेरी दोस्ती अश्वनी से हुई थी।  उसके पहले मेरा मित्र  यतीश हुआ करता था ।   यतीश अक़्सर अश्वनी  के बारे में मुझसे कहा करता था -" एम ए में एक नया दोस्त बना है,  जो बहुत ही जीनियस है , बहुत ही अच्छा लड़का है। " यतीश ने मेरा परिचय. अश्वनी से कराया। फिर मेरी भी वही राय थी जो यतीश की थी। उसमें सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह  निजी प्रसंगों पर बात न के बराबर करता था, ख़ास कर उन बातों से परहेज़ करता था, जिनमें किसी की बुराई होती हो या ईर्ष्या की झलक मिलती हो। मुझे कोई ऐसी बातचीत याद नहीं है, जिसमें उसने किसी की निंदा की हो। 

सबसे खास तो यह था कि उसके चरित्र से उसका चेहरा भी  मिलता था। गोरे चेहरे पर घनी काली दाढ़ी,सिर पर  घने बाल । उसके चेहरे की चमक किसी को भी अपनी ओर खींच लेती थी। अश्वनी की अपनी विशेषता रही है कि वह जहां भी रहा, उसने शत्रु कम और मित्र अधिक बनाए।

छात्र जीवन से लेकर अब तक हम मित्रों के बीच जाति- धर्म की भावना कभी आड़े नही आई और न तो हम लोगों ने किसी दूसरे के साथ  कोई भेदभाव किया। सबसे बड़ी बात कि हमारा पारिवारिक संबंध बहुत दृढ़ था। हमारे साथ-साथ हमारे बच्चे भी आपस में खून के रिश्तों की तरह जुड़ गए थे।

हमारी दोस्ती की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि हमलोग एक दूसरे की टांग खींचने का भरपूर आनंद लिया करते थे।  अश्वनी कहता भी था-" तुम लोग मेरी गोदी में बैठकर मेरी दाढ़ी  नोंचते रहते हो , क्या मुझे पता नहीं है ? "

इतना जिंदादिल इंसान आखिर ऐसी मौत मरेगा, यह कौन सोच सकता था ।  सुबह बेटा रसोई में चाय बनाने गया। जैसे ही उसने गैस ऑन किया कि फिर रसोई में आग ही आग के सिवा कुछ नहींं था। यह देख मित्र अश्वनी   बेटे को बचाने के लिए आग में कूद कर बेटे को बाहर ले आया। पर आग में वो भी आधा झुलस गया। तत्काल चारों तरफ  हो-हल्ला मच गया और आनन -फानन  में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया।  चूंकि अश्वनी  एक कवि था। कोलकाता के सभी साहित्यिक मित्र मदद के लिए अस्पताल पहुंच गये। सूचना मिलते ही मैं रेलवे स्टेशन पहुंच गया। जो ट्रेन मिली,उसी पर सवार  जो गया।

वैसे एक बात थी -रानीगंज  से कोलकाता जाते वक़्त  ट्रेन में तरह -तरह के व्यंजन बेचने वाले आते । खास कर ट्रेन में कचौड़ी, समोसा,  प्याज साथ में खीरा और  उबले हुए अंडे। अक्सर जब भी कोलकाता  जाता तो ट्रेन में कचौड़ी-समोसा का नाश्ता करता था।  ऐसा नहींं था कि रानीगंज शहर में  कचौड़ी-समोसा  नहीं मिलता था। पर ट्रेन के अंदर बड़े- बड़े साइज के कचौड़ी-समोसा की बात ही अलग थी। खैर  ! में भी किन बातों में आप सबको उलझा रहा  हूं।  पर आज इच्छा  हो रही है कि आप सबको अपने दिल की सारी बात बता डालूं।  सच कहूं तो इन सबकी वजह भी मैं ही  हूं और असली दोषी  भी।  खैर! मैं अपने आपको अगर दोषी मान भी लूं तो मैं अपने आपको क्या सजा दे सकता हूं?

वैसे भी तो डिप्रेशन और नींद की गोलियां खाकर ही सो  पा रहा हूं।  बड़े बेटे का अपाहिज  पैदा होना।  छोटे का दारू पीकर शरीर को नष्ट करना। कुछ दिन पहले ही वह हॉस्पिटल में एडमिट हुआ था। गांव से भाईयों का मुझे जमीन -जायदाद से बेदखल करना मुझे बुरी तरह तोड़ गया है। 

कई- कई दिनों तक  मैं लोगों का फोन नहीं उठाता । कई बार तो मैं मोबाइल भी स्विच ऑफ करके रख देता हूं। मित्रों की मुझसे बहुत शिकायत रहती है कि तुम्हारा फोन नहीं लगता और लगता भी है तो तुम उठाते नहीं। 

आखिर कौन मेरी चिंता को बांट लेगा या कम कर देगा?आखिर कौन मेरे कष्ट को दूर कर सकता है?

तीस साल तक स्कूल  टीचर की नौकरी की। अपने क्षेत्र का अच्छा कथाकार होने के  बावजूद  न तो स्कूल के   प्रिंसिपल   ने और न ही शिक्षकों ने मेरी   कोई इज्जत की। मुझे ऐसा महसूस होता था कि यह सब मुझसे जलते हैं। जलते हैँ, इसलिए कह रहा हूं कि आप सब साधारण भाषा में इस तरह की प्रक्रियाओं को जलना-भुनना  और अंदर-अंदर सड़ना कहते हैं ।

लोग कहते हैं कि तुम्हें डिप्रेशन किस बात का है? दो  बेटों की  सरकारी नौकरी लग गई।  रानीगंज शहर में तीनतल्ला   घर बना लिया। तीस हजार रुपये हर महीने   पेंशन आ रही है।

आज जो अश्वनी का दाह - संस्कार करके आ रहा हूं ,क्या यह मेरे डिप्रेशन का कारण नहीं बनेगा? हर सुबह  अश्वनी  का मुझे फोन आ जाता था और हम  घंटों बातें करते। बस यही वो समय  था ,जब मुझे  सच में खुशी मिलती थी।

हम दोनों की एक -दूसरे से कोई भी बात छिपी नहीं थी। जब उसने अपने बेटे की शादी की बात  पक्की की तो मुझे लड़की के बारे पता लगाने को कहा गया। लड़की रानीगंज शहर से थोड़ी दूर स्थित आसनसोल शहर की थी,जो मेरे शहर से मात्र चौदह  किलोमीटर दूर है । उस शहर में मेरे कई मित्र भी थे।

फिर बातों -बातों में मित्रों से इस बात की चर्चा कर लड़की के बारे में पता लगाने को  कह देता। फिर धीरे -धीरे कई मित्रों से लड़की की जानकारी मेरे पास आने लगी। किसी एक ने गलत कहा होता तो मान लेता लड़की गलत है। पर सबकी राय एक थी। लड़की दो लड़कों से प्रेम लीला कर चुकी थी। पहला प्रेम कॉलोनी के लड़के से थाऔर दूसरी बार का प्रेम यूनिवर्सिटीे में  हुआ।  दोनों बार प्रेम शादी की दहलीज तक नहीं पहुंच पाया। चूंकि पहले प्रेम के वक़्त उसकी पढ़ने की उम्र थी, सो घर में पता लगते ही भाई ,पिता,मां सबने उसको खूब फटकार लगाई और पास में मोबाईल रखना बंद करवा दिया । मैंने यह सोचा था कि अश्वनी को यह बात बताऊंगा। एक बार कोलकाता गया तो घर पर खुशी का जो नज़ारा देखा  तो कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं हुई । शाम के वक़्त होने वाली बहू  भाभी (अश्वनी की पत्नी) से खूब बातें कर रही थी। बहुत खुश दिख रही थी । भाभी भी होने वाली बहू की खूब तारीफ कर रही थी । यह सब देखकर  कुछ कहने की मेरी  हिम्मत ही नहीं हुई।

सब कुछ ठीक चल रहा था। अश्वनी का बेटा गौरव एम.ए के बाद एक न्यूज़ एजेंसी में नौकरी  पर लग गया। करीब तीन साल नौकरी करने के बाद गौरव नौकरी छोड़कर वापस कोलकाता आ गया और  दोबारा नौकरी न करने की बात कही। वो अपना  व्यवसाय   करना चाहता था। 

बस गौरव का यह फैसला बहू को पसंद नहीं था। गौरव दो साल तक कुछ नहींं कर सका। दोनों के  बीच मनमुटाव बहुत बढ़ गया था। हां! अश्विनी ने अपने मित्रों से जो आखिरी बात कही थी ,वो यह थी कि गौरव से बहुत बड़ी गलती हुई है। वो कौन सी गलती की बात कर रहे थे? सुबह -सुबह गौरव का गैस का जलाना या  नौकरी का छोड़ना?  आखिरी  सांस तक अश्वनी यही कहता रहा  कि गौरव से गलती हो गई है। अब तक भाभी किडनी की बीमारी के वजह से गुजर चुकी थी, जिससे कुछ पता कर सकते। 

उस दिन  बहू सामने  पलंग पर चुपचाप बैठी थी। उसे एक खरोंच तक नहींं आयी थी। घर पर इतना बड़ा हादसा हो जाये और बहू को खरोंच तक न आये। यह बात मेरे  पल्ले  न पड़ी। खैर! क्या आपको यही लगता है कि इस घटना को जिस तरह मैं देख रहा हूं ,अगर उसी नज़र से आप भी देखें तो इस मौत 

 का जिम्मेदार क्या मैं  नहीं लगता? 

 अश्वनी को  दुनिया से गये आज चार महीने हो गये हैं। बहू अश्वनी के घर पर ही रह रही है । वो उस जगह को छोड़ कर नहीं गयी है।वहीं एक प्राईवेट स्कूल में नौकरी पकड़ ली है । अश्वनी के पूरे जायदाद की मालकिन अब वही है।  मेरे मन में बहुत कुछ जानने की इच्छा थी। पर सच तो यह है कि मैं अश्वनी से मिल ही नहीं पाया। डॉक्टरों द्वारा उससे मिलने  की मनाही थी। बेटा  और बाप दोनो   ही आई सी यू में थे।

मुझे दुख इस बात का है कि विदा होने से पहले मैंने भाभी को देखा था , गौरव को देखा था , लेकिन अश्वनी  को देखने का मुझे अवसर  ही नहीं मिला। एक तरह से यह अच्छा भी है कि उसका सौम्य चेहरा ही अभी तक मेरी आंखों में बसा हुआ है। जब तक हम लोग जिंदा हैं, भौतिक रूप से  ही उसकी विदाई हुई है।वह हमारी स्मृतियों से दूर जा ही नहीं सकता। कैसे उसे विदाई दे दूं ?


परिचय

ईमेल: bikram007.2008@rediffmail.com

जन्म : १ जनवरी १९८१ को जमशेदपुर (झारखण्ड)  में

शिक्षा: ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा

संपर्क : बी-११, टिहरी विस्थापित कॉलोनी, हरिद्वार, उत्तराखंड-२४९४०७

0 देश भर की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में  कहानियाँ  प्रकाशित

0 प्रकाशित कहानी  संग्रह : 

" और कितने टुकड़े"(२०१५) 

प्रकाशित उपन्यास -"अपना खून","लक्खा सिंह",मऊ जंक्शन

फ़िल्म-निर्माण - "पसंद-नापसंद" (शॉर्ट फिल्म) "वजह''(शॉर्ट फिल्म)

अभिनय:- "त्वमेव सर्वम्" (शॉर्ट फिल्म)

पी से प्यार फ से फरार (हिंदी फीचर फिल्म)

"मेरे साँई नाथ," (हिंदी फिल्म)

पसंद-नापसंद (शॉर्ट फिल्म)

 लेखन और अभिनय

वजह(शॉर्ट फिल्म)- लेखन और अभिनय

एक अजनबी शाम - मुख्य भूमिका

पुरस्कार:-

* बेस्ट स्टोरी (मधुबनी फिल्म फेस्टिवल)

* अवार्ड ऑफ एक्सीलेंस (हमीरपुर, हिमाचल फिल्म फेस्टिवल)&

*आउट स्टैंडिंग अचीवमेंट अवॉर्ड (टैगोर इंटरनेशनल शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल)

*बेस्ट शॉर्ट फिल्म  ऑन सोशल अवॉर्नेस (पिंक सिटी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल)

*अवॉर्ड फेस्टिवल स्पेशल मेंशन (चंबल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल)

30 मार्च, 2025

रमा त्यागी ' एकाकी ' की कविताऍं

 

एक

पहली कविता 


पहली कविता 

जिसने भी लिखी होगी 

दर्द में लिखी होगी 

या शायद प्रेम में !

प्रेम कविताएँ 

सिर्फ़ उन्हें ही पसंद आती हैं 

जो प्रेम में होते हैं ।

दर्द में लिखी कविताएँ 

 सबका हृदय छूती हैं ।

क्योंकि 

दर्द शायद 

सबके साझा होते हैं ।

तुम महादेवी कहते हो मुझे 

शायद 

इसीलिए दर्द देते हो ।

०००

 











दो

कैसे मान लूँ ।


तुमने कहा 

तुम मुझे छोड़ गई थी 

मैंने मान लिया।

तुमने कहा 

परिणय हो गया था 

मैंने मान लिया 

तुमने दुल्हन कहा 

मैंने मान लिया ।

तुमने गृह प्रवेश कराया 

मैंने उस घर को 

मंदिर मान लिया .

तुमने स्पर्श किया 

मैंने स्वीकार लिया ।

तुमने बायाँ स्थान दिया 

मैंने स्वीकार लिया ।

तुमने आत्मसात किया 

मैंने मान लिया 

तुमने शक्तिपात कहा 

मैंने मान लिया ।

तुमने उर्वशी कहा 

मैंने मान लिया ।

तुमने प्रेम किया 

मैंने जी लिया ।

अब तुम कहते हो 

तुम खुश रह भी सकती हो 

मेरे बिना 

कैसे मान लूँ ?

क्या 

तुम ख़ुश रह सकते हो 

मेरे बिना ?

०००

तीन

ये तो ना कहो ।


कह दो 

दम घुटता है मेरा 

तुम्हारे साथ। 

थोड़ी दूरी रखो 

साँस लेने दो मुझे ।

कुछ भी कह दो 

लेकिन 

आक्षेप तो ना लगाओ।

ये तो ना कहो 

कि तुममें 

वह पहली सी चाह नहीं ।

हम दोनों की अब 

एक राह नहीं।

०००

चार

मैं अभिशप्त थी ।


तुमने मुझे कहा 

उर्वशी!

कल्याणी!

संजीवनी !

नत नयनी! 

विद्योत्तमा! 

पार्वत्य सुषमा। 

और 

फिर 

अपने शीश पर धर लिया 

शिव की तरह।

और मैं 

शक्तिरूपा हो गई ।

तुम जटाओं में समाकर 

धरा पर ले आए 

बिल्कुल 

शिव की तरह ।

मैं कल कल बहती 

गंगा की तरह 

यौवना सी ख़ुश हो गई।

लेकिन 

मैं  तो

अभिशप्त थी 

सती की तरह 

टुकड़ों में 

बिखरने के लिए ।

और 

अब तुम 

बिलख रहे हो 

मुझे कंधे पर लादकर 

शिव की ही तरह।

०००

पाँच


तुमने देखा है कभी।


तुमने देखा है कभी 

दीवारों के कपोल पर 

अश्रु रेखाओं को।

दीवारों की भी होती हैं 

आँखे।

उन आँखों में होता है 

सूनापन।

वे भी सिसकती हैं 

एकाकी होकर।

कभी छूकर देखना 

सर्द रातों में उनको 

तपती हैं वे ।

जेठ की दुपहरी में 

सुन्न हो जाती है।

प्रतीक्षा करती हैं 

ना जाने किसकी।

शायद उसकी 

जो लौट कर आने का 

वादा कर गया था 

लेकिन आया नहीं।

शायद प्रतीक्षा करती हैं 

डाकिये की 

उसके एक ख़त की।

कान लगाकर सुनती है 

दरवाज़े की 

हर दस्तक को।

लेकिन भ्रम था उसका 

ये तो बासंती हवा थी 

जो खड़का गई द्वार को।

बोलता है कागा 

मुंडेर पर 

तो चहक जाती है

शायद 

अब आयेगा वह ।

चाहती है

कोई तो लगा जाए 

उसके गालों पर गुलाल ।

भिगो दे उसकी चूनर 

टेसू के रंगों से।

चाहती हैं 

कोई तो जला जाये 

उसकी देहरी पर 

एक दिया।

पगली! 

जानती ही नहीं 

जो जाते हैं लगाकर 

हल्दी के थापे 

दीवार पर 

अपनी हथेलियों से 

वे लौट कर नहीं आते !

वे लौटकर नहीं आते ।

०००


छह


कब 


कब 

उसके मन की चली है ?

बार बार राह में 

नियति ने छली है।

छलनी हुआ मन 

पाथर हुआ तन ।

पथराई  सीप आँखों में 

मोती समेटती रही।

टूटे वजूद को 

बार बार सहेजती रही ।

आओ! चलो!

तोड़ दे सब तटबंध।

बहने दे 

सूखी नदी को 

कल-कल।

शायद 

कभी तो 

वो भी छलके

 छल-छल।

कभी तो किनारों से टकराएगी 

चीख चीख कर शोर मचाएगी ।

कहाँ हो तुम प्रियतम!

कहाँ हो तुम प्रियतम!

०००


 सात


एक नदी की यात्रा !


वो बरसी बूँद बूँद 

हिमखंडों पर ।

शुभ्र स्वच्छ 

ज्योत्सना सी 

पुलक कर।

अबोध बालक सी,

कभी उछलती , 

कभी ठहरती ,

कभी मचलती , 

कभी सिहरती।

पत्थरों को आगोश में लेती,

लताओं को चूमती ,

शाख़ सी झूमती,

कभी  छुपती , 

कभी झाँकती

अबाध गति सी बह चली ।

टूट कर वो चली 

टूट कर वो बही 

टूट कर वो मिली 

टूट कर प्रेम किया 

राह में 

पत्थरों ने रोका उसे 

रेत कण ने टोका उसे 

फिर भी टकराती रही 

टूटती रही 

बड़े - छोटे और बहुत छोटे 

महीन कण ,

अपने गर्भ में समेटती रही ।

जानती थी!

सब छूट जाएँगे राह में,

कोई भी ना चलेगा उसके साथ में ।

टूटने के दुःख से अधिक बड़ा था 

शायद उस लंबी यात्रा का सुख।

मासूम बालिका सी चली थी पर्वतों से ,

फिर अल्हड़ नव यौवना सी 

उल्लसित हुई ,

ठोकरें खाई 

लहूलुहान होती रही ।

फिर प्रौढ़ा सी ठहर गई 

शांत हो सिहर गई।

सागर तक पहुँचते पहुँचते 

थक गई ,

वृद्ध हो गई।

सागर तो खड़ा था 

बाँहे फैलाए,

धीरे धीरे , 

उसके आगोश में सिमट गई ।

अपने अस्तित्व को 

सागर में समाहित कर

अब वो शुद्ध हो गई ।

सच है!

अब वो बुद्ध हो गई!

अब वो बुद्ध हो गई!

०००

आठ


एक तारा


एक तारा देखा उसने 

और मोहित हो गया ।

लेकिन 

वो उसकी पहुँच से 

दूर बहुत दूर  था।

शायद वह भ्रम में था ।

फिर एक दिन 

देखते देखते वह 

आँखों से 

ओझल हो गया ।

वो उसे अमावस की रातों में 

तलाशता रहा।

ना जाने वो कहाँ खो गया।

आकाश गंगाओ की भीड़ में 

तलाशना आसान ना था ।

पूरी धरती,आकाश ,अंतरिक्ष 

सब छान डाला।

वो भटकता रहा  

रुक्षता, शुष्कता संग हो ली 

लेकिन तलाश 

कभी ख़त्म ना हुई।

हर गली हर चप्पे पर 

ढूँढते ढूँढते 

वह थक गया।

कितनी 

अमावस और पूर्णिमा सरक गईं।

 कितने 

शुक्ल और कृष्ण पक्ष फिसल गये।

हताशा में 

विरोध के स्वर उभरने लगे।

समाज ,परिस्थितियाँ ,आक्रोश 

सब कुछ बदलने का अनथक प्रयास।

जीने की जिजीविषा को 

बचाने का संघर्ष ।

स्नेह से रीता 

उसका मन और तन 

धीरे धीरे थक गया । 

क्यों जियूँ ? 

किसके लिये जियूँ ? 

सब प्रश्नों के उत्तर निरुत्तर । 

लेकिन 

उस तारे की ललक 

उसे पाने की छटपटाहट 

ना थकी 

ना बदली।

अब तो सिर्फ़ 

निराशा ही थी

हताशा थी 

जीवन के प्रति भी 

और जिजीविषा के प्रति भी ।

भटकन के प्रबल तूफ़ान से 

कैसे ,

कितना बच पाता । 

कभी सोचता 

समय के प्रलाप ,आलाप 

क्या सब उसी के लिए है ?

काश ! 

दिख जाता वो तारा 

एक बार 

ज़िंदगी चलती गई 

टूट कर बिखरता गया 

और

एक दिन  चमत्कार हुआ।

प्रेम उसका साकार हुआ 

तारा टूटा 

और उसकी गोद में आ गिरा 

चमकता आभामंडल 

और वह उसके नूर में खो गया।

ना जाने कौन किसके लिये तरसा? 

कौन? कब ?कैसे ? क्यों ?

निरुत्तर हर प्रश्न 

बस एक आलोकित शक्ति 

जिसने उनको है मिलाया ।

सुकून से उनको सहलाया 

फिर जो सावन बरसा 

उसको कोई रोक ना पाया 

सब तटबंध टूट गये   

ना किनारों का पता रहा 

ना नदी का।

धरती आकाश 

सब गड्ड मडड हो गये।

अंतरिक्ष से आवाज़ गूंजी 

आह ! मेरा तारा

आक्रोशित गगन 

शांत हो गया।

धरा की उँगलियाँ 

उसके बालों में 

मचलने लगी ।

उठो प्रिय ! 

निशा ख़त्म हुई।

उषा की प्रभा 

प्रतीक्षा कर रही है।

देखो ! 

प्राची में आशा की लालिमा है। 

अब कैसा संताप प्रिय !

अनंत आकाश है तुम्हारे पास ।

आओ उड़ चलें!

आओ उड़ चलें!

०००


परिचय

जन्म स्थान : बिजनौर (यू.पी.)

जन्म तिथि : 21 मार्च 1961 

शिक्षा : M.A., B. Ed 

सेवानिवृत्त शिक्षिका , कवयित्री एवं लेखिका।

प्रकाशित एकल काव्य संग्रह:

1. अभिव्यक्ति के पंख 

2. अभिव्यक्ति की उड़ान 

3. ⁠हे सखि !

तीनों काव्य संग्रह Amazon पर उपलब्ध हैं।

बहुत सी पत्रिकाओं और साझा संकलनों में सहभागिता।

online और offline कवि सम्मेलन में प्रतिभागिता।

सप्तऋषिकुलम के साहित्य प्रकोष्ठ की संचालिका।

facebook, U ट्यूब, Instagram और spotify पर काव्य पाठ की audio and video।

निवास स्थान : इन्दिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद, (यू .पी.)