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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 अगस्त, 2025

हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ


चट न लो फ़ैसला

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आज शाम जाकर मिला दोस्त शिवराज से

अरसे से इधर फोन पर लगते थे नाराज़ से

दुआ-सलाम इधर-उधर की बात

कहने लगे छोड़ दिया भैया पीना आज से


चिहुंका मैं क्या हुआ यार

कहने लगे आ गयी है हम दोनों के बीच दरार

बहुत दिनों से चल रहा था झगड़ा - तकरार

मान गया भैया मैं उससे हार

बिना बात करती है वो रार


अरे किस बात झगरा था भाई

मियां -बीबी की बात है

क्या हुआ जो हो गई हाथापाई

ऐसे कोई थोड़े ही हार मानता है भाई


कहने लगे खाने पर लड़ती है

पीने पर झगड़ती है

मेरी कविता पढ़कर शक-सुबहा करती है

मेरे जीवन में है कई नार

ऐसा हरदम कहती है


कहने लगे भाई शिवराज

तकरार में कह दिया उन्होंने भी भाभी को दगाबाज

फिर क्या था बन गई वो रणचंडी छोड़ सब लोकलाज

क्या बताएं उसके बाद क्या हुआ दिन में आज


हर घर में झगरा है मरद-लुगाई में

किस को दूँ दोष

भाभी है सोने की

मुझे तो कोई दोख नहीं आता नजर शिवराज भाई में


ज़रा सी बात सह लेते

दोनों हंसी मज़ाक में गिले-शिकवे कह लेते

किसमें नहीं है कुछ कमजोरी काश समझ लेते

कौन नहीं लड़ता है, लड़कर दोनों गले लग लेते


कहा मैने आओ भैया पी लो

जीवन जैसे जीते हो जी लो

कथरी जो फट जाए, फेंको नहीं, सी लो

भाभी को दो समय ज़रा फिर उनसे मिलो


झुक जाओ

चट न लो फ़ैसला रुक जाओ!

०००













बेतरतीब छंद

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शब्द मिला वफ़ादार मतलब उसका मक्कार

शब्द मिला इनकार मतलब था स्वीकार

विद्रोही समझा जिसे अव्वल दर्जे का वह चाटुकार

उन्होंने मारा पीठ में छूरा जिन्हें समझा यार


यह दौर ऐसा घनघोर विकट है

पल में तोला पल में माशा फटाफट है

नफ़रत है अंदर, जीभ पर प्यार की रट है

कहता हूँ अच्छा पर रहा सब बुरा ही घट है


दिवस में देखो कितना हुआ अंधेर

दिन दोपहर लूट बलात्कार लाशों की है ढेर

रामनामी ओढ़कर नगर में आया है शेर

रजनी ही रोशन समय का ऐसा है फेर


यह इतना चौंधियाता समय है

कि आपका धोखा खाना तय है

यह चुप्पी शांति नहीं दरअसल भय है

जिसके हाथों में लाठी उसकी जय-जय है


प्रेम का  नफ़रत में अनुवाद हुआ है

आदमी चेहरों की किताब हुआ है

जीवन का छंद बेतरतीब हुआ है

रिश्तों का अनुक्रम पाखंडों में बँटा हुआ है।

०००


आम आदमी

_____

मैं आदमी क्या

बस वही मांस और हाड़

मेरे सामने ज़िम्मेदारियों का पहाड़

सुबह से शाम होती झोंकते बस भाड़


दिन और रात

दिन और रात

रोज़-रोज़ वही तो बात

जैसे नियति हो घात-प्रतिघात


दायरा यहाँ से वहाँ तक

श्रम से दरमाहा तक

चाबुक ही चाबुक पहुँच मेरी जहाँ तक

सुनाऊं व्यथा मैं कहाँ तक


मौसम बदलते हैं

मालिक बदलते हैं

मगर मेरे भाग्य वही तो रहते हैं


ठंड में ठिठुरते

गर्मी में तड़पते

बारिश में भीगते-गलते


पेट भरते तन ढँकते

जी हुजूरी करते-करते

चला जाऊंगा गिरते-पड़ते!

०००


हार गये

___________

यूँ ही नहीं टूटा भरोसा

पहले तो उस बेटे ने कोसा

जिसको जन्म दिया, पाला-पोसा


यूँ नहीं छोड़ दी अच्छाई

पहले तो धोखा दिया सगा भाई

जिसकी न जाने कितनी बोझ उठाई


बेवजह ही नहीं छोड़ दी सच्चाई

सच्चाई उनकी भला कहाँ किसी को रास आई

उसके कारण ही झेला झगरा-झंझट मार-पिटाई


साहस के कारण संगी ने छोड़ दिया

लचीला हुए तो सबने मोड़ दिया

ज़रा से स्वाभिमान पर अपनों ने ही तोड़ दिया


सत्पथ पर चले लुट गये

स्वारथ के संगी सगे सब छूट गये

ममता के कारण ही वे टूट गये


जब वे अपनों से ही हार गये

तो कुछ भी पूछा चुप्पी मार गये

हर मसले को हँस कर टाल गये!

०००


आई लव यू यार!

______


तीन गली छोड़कर

रहती थी वह चाय वाले मोड़ पर

हिम्मत ख़ूब जोड़कर

खिड़की से फेंक आया चिट्ठी मैं मोड़ कर

लाल गमछा ओढ़ कर


महीना था फरवरी दिन था इतवार

न जाने कौन भूत हुआ था सवार


जाति का मैं अहीर था बाभन की वह बेटी थी

खिड़की के पास ही तखत पर वह लेटी थी


चिट्ठी मेरी पकड़ी गई

जान मेरी कूटी गई

क़िस्मत मेरी फूट गई


फरवरी में जलाया गया घर

बाबू मेरे भटके शहर-दर-शहर


जब भी आती फरवरी

माई मेरी रहती डरी-डरी

बुलाती मेरा नाम लेके घरी-घरी


यार मेरे जीवन में नहीं आया प्यार

ज़िंदगी मेरी ऐसी है लाचार

सलेमपुर की गीता संग बसाया घर-बार

सुबह-शाम होती है तकरार

भड़कती है जब कहता हूँ 'आई लव यू यार!'

०००


खेती-बाड़ी

______


अरे भैया ये किसान

कर रहे आजकल बहुत परेशान


हक़ माँग रहे हैं

हिसाब माँग रहे हैं

ये अन्न का दाम माँग रहे हैं

इनके बेटे काम माँग रहे हैं


ऐसा करो इनके खेत ले लो

दाम इनको औने-पौने दे दो


घर में बैठाओ इनको

बोलें तो लाठी से मार भगाओ इनको

दो इनके खेत फैक्ट्री लगानी है जिनको


न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी

खेती-बाड़ी की झंझट ही ख़त्म करो ससुरी


हम-आप विदेश से मँगा लेंगे

जैसे खाते हैं, खा लेंगे

इनको लोकतंत्र पकड़ा देंगे!

०००


यह हम सबका ही क़िस्सा

________

नई-नई हुई है शादी

सुबह-शाम पकानी होती है चार रोटी

आफ़िस में हुई देर, बॉस खिंचता है चोटी

वहाँ भी हूँ मैं सबसे ही छोटी


कभी अच्छा कभी सुंदर कहता है

मुझे देर तक रुकने को छछूंदर कहता है

है चार जवान बच्चों का पापा

ज़रा सी बात में खोता है आपा


कभी यह तो कभी वह

कुछ भी देता है कह

शर्माता नहीं है दंतचियार

गुस्सा तो आता है कि दूँ दो थप्पड़ मार

सबके सामने ही दूँ भूत उसके उतार

नौकरी के ख्याल ने बना रखा है मुझको लाचार


कहाँ-कहाँ बचे लड़की

आते-जाते मिलते हैं ठरकी

पिया भी मेरा नंबर वन है सनकी

कहाँ सुनता वह किसी की


बच के बचा के चल रही हूँ

जैसे जंगल के बीच से निकल रही हूँ

यह हम सबका ही क़िस्सा

कोई नयी बात थोड़े ही कह रही हूँ।

०००


बताना चतुर कवियो

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लिखना नहीं है खेल

यह तब लगा, चला गया भाई

लिखने के कारण जब जेल


वे कुशल लोग हैं जो लेते हैं शब्दों से खेल

शब्द मगर सच बोलें 

कुर्सी पर बैठा आदमी नहीं पाता उनको झेल


लिखने के कारण मारा गया एक दोस्त बस्तर में

लिखने के कारण कोई पकड़ा गया है कुंभ शहर में


कुछ लोग लिखने के कारण ही पा रहे पदवी और पुरस्कार

पैसे भी कमा रहे कुछ लिखने वाले ऐसे होशियार

कुछ लिखने के कारण ही खा रहे पुलिस के डंडों की मार


कहिए लिखूं कौन सा अक्षर

लिखते लगता है अब डर

सपने में बुल्डोजर ढाहने लगता है घर


वे खिलौने जैसे शब्द कहाँ से लाऊं

जिनसे खेल कुर्सी पर बैठे राजा को बहलाऊं

आँखें मूँदकर कौन सा गाना गाऊं

बताना चतुर कवियो

किस राह मैं आऊं-जाऊं

कैसे सच को मैं पीठ दिखाऊं!

०००


वक़्त की तरह नहीं बदलना

________


ग़र कुछ ऊंच-नीच हो गई हो गत साल

तो माफ़ कर देना भूल जाना उसे इस साल

रखना मुझे साथी अपने दिल में हर हाल

अपना हाथ बढ़ाना लड़खड़ा न पाये मेरी चाल


जीवन कोई कैलेंडर नहीं

साल के बदलने से उसे कोई डर नहीं


माना कि बुरा बहुत हूँ 

मगर तुम्हारे बग़ैर अधूरा बहुत हूँ


माथे का चंदन नहीं, पैरों की धूल हूँ

बावला जो बोकर आम, काटता बबूल हूँ


रखना साथी, अपने संग ही मुझे रखना

तुम्हारे बग़ैर भी क्या ज़िंदा रहना


रास्ते में आते रहते हैं मुसीबतों के पहाड़

हाथ जो पकड़ लेंगे तुम्हारा, क्या लेंगे बिगाड़


लड़ना झगड़ना रूठना मचलना

चाहे जो भी सुनाना कहना

पर साथी वक़्त की तरह नहीं बदलना

आना-जाना घूम आना कहीं, पर मेरे दिल में रहना!

०००


हर साल

____

क्या नया साल और क्या गया साल

मेरा जीवन तो वही रोटी और दाल

दवाई खटाई और रुलाई में गुज़रा गया साल

कंबल न रजाई ठंड की चढ़ाई के सामने नया साल


पूरी ठंड कांपते हुए काटूंगा

बसंत में कोयल बन बाग-बाग कुहकूंगा

ज़रा सी हवा में टिकोले सा झरूंगा

महुआ हूँ झरूंगा देसी दारू में पड़ूंगा


गर्मी में आग बन जाऊंगा

दुपहरिया में निकल के कमाऊंगा

तपूंगा जलूंगा जलते हुए चलूंगा

आप खिड़की से देखना हांफते हुए मिलूंगा


आएगी निगोड़ी बरसात

टपकेगी मड़ैया सारी रात

दिन भर का थका-हारा गात

जागते गुजारेगा पूरी-पूरी रात


हर साल यही होता है

मन मेरा बेवजह उम्मीद को बोता है

कोई साथ नहीं होता है, मन मेरा रोता है

उड़ जाए चिरईं, रह जाए खोंता है!

०००


आदिवासी

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जहाँ भी गया

हर जगह मुझे पंक्ति में खड़ा किया गया

आई जब बारी मेरी तो बखेड़ा किया गया

इस तरह पंक्ति से भी बाहर किया गया


भूलकर मानवता की शर्म

पूछा गया जाति और धर्म

जब बताने से किया इनकार

मेरे लिए बंद किया गया द्वार


जब की मैंने हक़ की बात

बताई गई मेरी औक़ात


मुझे याद किया गया हर पाँचवें साल

जब मैंने जानना चाहा मुल्क़ का हाल

हिकारत से दिया गया, चावल और दाल

पढ़ाई दवाई कमाई के नाम पर बजाया गया गाल


मेरी झोपड़ी उजाड़कर कारखाने लगा दिये

जो मुँह खोला तो होश ठिकाने लगा दिये


मुझे कभी आदिवासी कहा गया

कभी वनवासी कहा गया

मेरे ही देश में मुझे प्रवासी समझा गया!

०००


जान हथेली पर लिए

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ये लोग कहाँ से आये हैं

नट हैं छत्तीसगढ़ से आये हैं

दोनों तरफ़ दो-दो बांस जमाये हैं

बीच में मोटी रसरी लटकाये हैं


रसरी पर चढ़कर 

ख़तरे से खेल रही है मोनी बुचिया

किसने खींच दिया है देश के पृष्ठ पर ये हाशिया

जहाँ ऐसे जीवन जीने को विवश है ये मुनिया


यही इनके जीवन का आधार है

पेट भरने भर को भटकता यह परिवार है

मुनिया जान हथेली पर लिए रस्सी पर सवार है

हे भारत भाग्य-विधाता! तुम्हें धिक्कार है 


इनका इस धरती पर कहीं कोई घर नहीं है

कह रहे ये कि मौत से तो हमें कोई डर नहीं है

करे क्या आदमी जब कोई आसरा रोटी भर नहीं है!

०००


माला बेचने वाली लड़की

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शुक्रिया आपको अच्छा लगा मेरा मुस्कुराना

कभी आप मेरे गाँव भी आना

देख पाएं तब शायद मेरा रोना-गाना

शायद समझ लें मेरी ज़िंदगी का ताना-बाना


दूर शहर से आई हूँ मैं माला बेचने

आएं होंगे आप तो मेला देखने

कुछ आएं हैं यहाँ पाप धोने

सबके हैं मक़सद अपने-अपने


मैं माला बेचकर ज़िंदगी चलाती हूँ

भैया कुछ कमाती हूँ तब खाती हूँ

कमाने के लिए मैं नगर-नगर जाती हूँ

आँखें छलक न जाएं, सो मुस्कुराती हूँ


मैं समझती हूँ आपके इशारे

पर ज़िंदगी जी नहीं सकती उस सहारे

जाइये गंगा में बहा दीजिए अपने मंसूबे सारे

दो रोटी कमाने दीजिए हटिए ज़रा किनारे


एक माला ले लीजिए

अपनी लंपटता को वश में कीजिए

दिल में शराफ़त को ज़रा जगह दीजिए

आएं हैं पाप कटाने तो कुछ पुण्य कीजिए


शुक्रिया आपको मेरी आँखें पसंद हैं

मगर आपकी वजह से मेरा काम सब बंद है!

०००


प्रेम की भूख

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प्रेम की भूख किसे नहीं है

कृपया अपना हाथ उठाए जिसे नहीं है


क्या मरद क्या औरत क्या बच्चा

हर इन्सान प्रेम ढूँढ रहा है सच्चा


गया गांव-जवार में चाहे खेत-बधार में

नगर-नगर जाकर देखा घर-बार में

हर आदमी दिखा प्रेम के इंतज़ार में


प्रेम में देखा लफड़ा भारी

प्यासे ही जग में रह गये नर-नारी

ज्यों जाल में उलझी मछरी बेचारी


जो प्रेम में था उसे भी था प्रेम का इंतज़ार

गजब का यह संसार

प्रेम का पंछी हर वक्त जैसे उड़ने को तैयार


सच कोई नहीं बोले

मन ही मन मन डोले

मिले मन तो पल दो पल संग हो ले


नहीं मिटती प्रेम की भूख है

प्रेम भी एक सुख है

मगर उससे सटकर रहता दुख है!

०००


पुस्तक मेला आऊंगी

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करोलबाग से तुम आना

मैं ग्रीन पार्क से आऊंगी

दो बजे प्रगति मैदान मेट्रो पर मिल जाऊंगी


घर से झूठ बोल कर आऊंगी

आफ़िस में हाफ डे लगाऊंगी

तेरे संग सेल्फी मैं खिंचाऊंगी

 तेरे पुस्तक मेले में मैं आऊंगी


और सुनो राधेश्याम

मुझे तेरी किताबों से क्या काम

घूमेंगे हाथ में डाले हाथ पूरी शाम


छोले-भटूरे खाएंगे

बैठ कहीं गपिआएंगे

हँस-हँस गले लग जाएंगे


तुम खींचना मेरी फोटो

मैं खिंचूँगी तेरी फोटो


और सुनो डार्लिंग राधेश्याम

फेसबुक पर फोटो डाल करना ना बदनाम!

०००


पुस्तक मेले में नहीं मिले हम

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रोज़-रोज़ गया इस बार मेले में

किया इंतज़ार तेरा बैठकर अकेले में

क्या हुआ जो हम नहीं मिले पुस्तक मेले में

छोले भटूरे क्या कम अच्छे मिलते हैं बब्बू के ठेले में


मिलेंगे आज वहीं सेक्टर बारह के मोड़ पर

आना तुम सारा काम-धाम छोड़ कर

मम्मी जो पूछें तो आना अर्जेंट काम बोल कर

मुझे पीनी है लव वाली लस्सी

शहद जैसी तेरी बातों में घोल कर


मैं तेरा 'गुनाहों का देवता' लेकर आऊंगा

तुझको बाइक पर बैठाकर गोलचक्कर घुमाऊंगा


तुम मेरी 'मधुशाला' लेकर आना

देखो आज कोई बहाना न बनाना


तुम चांद-तारों की करती हो बात

अरे पागल वे निकलते हैं जब चढ़ती है रात

हमारी तो होगी बस ज़रा देर भर की ही मुलाक़ात


चाहे जैसे भी आना

बुरके में आना

दुपट्टे में आना

गलियों से छुप-छुप के आना

देखो आज थोड़ी जल्दी से आना


क्या हुआ जो पुस्तक मेले में नहीं मिले हम

हमें मिलने से रोके ज़माने में नहीं इतना दम!

०००


समय ही ऐसा है

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जहाँ अन्याय दमन हो

वहाँ जुबान पर ताले लटकाएगा

जहाँ चीखना हो लड़ना हो

वहाँ चुप रह जाएगा

झुक जाएगा 


जिस पर चाहिए थूकना

उससे हँस-हँस कर बतियाएगा

हत्या पर ग़र ताली बजाएगा

हत्यारों की शान में कविता सुनाएगा

तो हे श्रीमान तू क्या नहीं पा जाएगा


समय ही ऐसा है

सत्य बोलेगा, मारा जाएगा

झूठ बोल बे मंच पे तूझे पुकारा जाएगा

माथ नवा बे इज़्ज़त पदवी तमगे पाएगा


लोकतंत्र का नया ज़माना

पहले पिंजरे में आ बे

तभी तो कटोरी का दाना खाएगा!

०००



सुनो दु:ख!

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ए दु:ख! ऐसा भी क्या प्यार

जो रहते हरदम हमरे ऊपर ही सवार

जाकर कहीं और भी हो आइये कभी-कभार

मना लें हम भी अपने परिवार संग होली-त्योहार


ए दु:ख! आप महलों में क्यों नहीं जाते

जाकर अमीरों के घर क्यों नहीं छप्पन भोग उड़ाते

सुखियों के घर जाते तो क्या नहीं पाते

हमरी सूखी रोटी पर क्यों हैं लार टपकाते


ए दु:ख! हमरे पास न रुपिया न पईसा

देख ही रहे हैं जीवन जी रहे हैं कईसा

हमरे भाग के दुआरी बइठा रहता जमराज के भईंसा

जिनगी हमारी अनेरिया कुकुर के जईसा


ए दु:ख! आप ही बताएं हम कहाँ चले जाएं

कौन दरवाज़ा खटखटाएं कइसे न्याय हम पाएं

बताइए न और कितना जांगर खटाएं

कौन जतन करें कि हम भी कभी जीतें जश्न मनाएं


ए दु:ख! बहुत हुआ अनुनय विनय

बहुत खाया इनसे उनसे सबसे ही भय

अब कुछ दूसरे करेंगे हम मिली-जुली तय

बदलेंगे बदल के रहेंगे जिनगी के छंद अरु लय!

०००












मज़दूरी में क्या देंगे

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रोज़ शहर के चौराहे पर 

ज़िंदगी की रोशनी आँखों में भर

अलसुबह ही जुटते हैं दस-बारह गांवों के लोग


खड़े रहते हैं

हर गुजरते को तकते रहते हैं

वे मन ही मन कुछ तो कहते रहते हैं

क्या आपने सुना जब आप बगल से गुज़रते हैं


किसी की मां बीमार है

किसी पर पंसारी का उधार है

हर आदमी यहाँ जो खड़ा है, लाचार है

साहब! समझते तो होंगे क्या दरकार है


आप टहल के आ रहे हैं

सुबह का सुहाना मौसम, गाना गा रहे हैं

वे आपको उम्मीद से देखते जा रहे हैं

क्या आप कुछ समझ पा रहे हैं


वे दूर से आये हैं चल कर

चिड़ियों के जगने से पहले घर से निकलकर

अपनी मुसीबतों से जूझेंगे आपके यहाँ वे खटकर

जीते हैं रोज़ इसी तरह ज़िंदगी से लड़कर


सुनो सूरज भैया, तुम आराम से आना

काम चाहिए इन्हें पहले, जिसे ज़रूरत हो बताना


कल चंदर को नहीं मिला था काम

हो नहीं पाया था उसके आटे का इंतज़ाम

आज तो‌ मन ही‌ मन जप रहा वह राम-राम

बबन कहता है, देखिए हमें पसंद नहीं आराम

कुछ भी बताइये, हमें तो करना है काम


बाबूजी ये आपका मकान बना देंगे

आपकी शानो-शौकत रंग कर चमका देंगे

आपके गमलों में ख़ुशबू के फूल खिला देंगे

कर देंगे हर काम जो आप बता देंगे

कहिए बाबूजी! मज़दूरी‌ में क्या देंगे?

००००


 परिचय

कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब जीविकोपार्जन के लिए प्रकाशन का कुछ काम बिहार के एक गाँव में जन्म। अभी लखनऊ में वास।

पाँच किताबें- 

चार कविता संग्रह - 

1. खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं

2. नया रास्ता

3. काली मुसहर का बयान

4. हर जगह से भगाया गया हूँ

एक उपन्यास- बखेड़ापुर

अनियतकालीन पत्रिका 'मंतव्य' का संपादन

पता - 

महाराजापुरम

केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास

पो- मानक नगर

लखनऊ -226011

मोबाइल - 8756219902