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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 नवंबर, 2025

प्रदीप मिश्र की कविताऍं

 








तप रहा है सूरज 


सीने में सक्रिय हो गईं हैं

असंख्य परमाणु भट्टियाँ

जिनमें विरह

ईंधन की जगह है

 

आग बबूला हो रहा है

गर्मी का सूरज

 

महीनों से नहीं गया बादलों की ओट में

हवाएँ भी उजड्ड बनी बहती रहीं

नहीं ठहरीं उसके पास एक पल

 

ठहर कर हाल-चाल कर जातीं

खोज-ख़बर दे जातीं

घर की

प्रेम की

थोड़ी ठंडी पड़ जाती

सीने में धधकती हुई विरह की आग

 

सूरज को प्रेम की नमी चाहिए

बसंत की सुगंध

कैनवास की तरह चाहिए

पूरा आकाश

जिसमें भर सके

अपनी सृजन-ऊर्जा

 

विरह के आग में जज्ब होती है

सृजन की ऊर्जा

जिसमें तप रहा है सूरज

और तड़क रही है

धरती ।

 ००००

 

बरसात का सूरज

 

सीमा पर तैनात सैनिकों की तरह

लगा रहता है

धरती को आलोकित करने में

 

जैसे छुट्टियों में सैनिक लौटते हैं घर

ठीक उसी तरह से

बरसात के दिनों में सूरज लौटता है

अपने बादलों के घर में

 

बादलों के घर में

धरती का प्रेम बसता है

जिसमें डूब जाता है सूरज

प्रेम में डूबकर रचता है वह इंद्रधनुष

 

प्रेम के रंग में डूबे हुए सूरज के मिलन का नेह

बरसता है धरती पर

बरसात की बूंदों में घुलकर

धरती पर उतर आता है सूरज बूंद...बूंद

 

रिमझिम की लय पर थिरकने लगती है धरती

बूंद...बूंद सूरज धरती के गर्भ में समा जाता है

अपने प्रेम को सहेजती हुई धरती

ओढ़ लेती है धानी चुनर

 

धरती को धानी चुनर ओढ़ाकर

वापस लौटता है बरसात का सूरज

और ऐलान करता है

सिर्फ प्रेमी ही रच सकते हैं

इंद्रधनुष ।

 ००००

 

पेड़ चलना चाहते हैं

 

वर्षों से एक जगह पर खड़े हैं पेड़

ऐसा नहीं, कि उनको चलना नहीं आता

वे खड़े हैं इसलिए कि

चिड़ियाँ लौट सकें घोंसलों में सही सलामत

गिलहरी घर-बदर न हो

प्यास और थकान को मुल्तवी करते हुए

बना रहे रेहड़ी और ठेलेवालों के सुस्ताने का ठौर

 

धरती से अपनी जड़ों के नाते को

तोड़ना नहीं चाहते

इसलिए खड़े रहते हैं पेड़

एक ही जगह पर उम्रभर

 

पेड़ भी घूमना चाहते हैं

टहलते हुए राजवाड़े तक जाना चाहते

देखना चाहते हैं

रात की रोशनी में कैसी लगती हैं

राजवाड़ें के मुख्य द्वार पर जड़ी हुई

उनके पूर्वजों की लाशें

 

वे जाना चाहते हैं घरों तक

जिनकी दहलीज़ बनने से

इंकार कर दिया था उनके पूर्वजों ने

फिर हुआ था भयानक संहार

काट-तराशकर बदल दिया गया उनको 

दहलीज़ में

 

वे उन कुर्सियों के हाल-चाल पूछना चाहते हैं

जिनके पाँव तले दबी हुई है

आह और कराह की अनन्त गाथा

 

पेड़ अब चलना चाहते हैं

चलते-चलते संसद तक पहुँच जाना चाहते हैं

 

संसद की आत्ममुग्ध कुर्सियों को याद दिलाना चाहते हैं कि

आखिर वे भी एक पेड़ हैं

जो बदल सकते हैं ,कद्दावर पेड़ों में

ठीक उस समय जब

प्रकृति के खिलाफ़ कोई अध्यादेश पास हो रहा हो

 

पेड़ संसद को कभी भी बदल सकते हैं

जंगल में।

 ००००

 








शिक्षा के श्रेष्ठ समय में

 

 

(एक)

 

पढ़-लिखकर

किसी को इंजीनियर

किसी को डॉक्टर

किसी को आई.ए.एस और

कुछ को वैज्ञानिक भी बनना है

 

सब इसलिए पढ़ रहे हैं कि

नौकरी करनी है

पैसे कमाने है

 

शिक्षा के मूल में सिर्फ पैसा है

पैसे के परिधि से बाहर  हैं  

इतिहास-भूगोल-समाजशास्त्र

 

अंग्रेज़ी में होते हैं तिजोरियों के कोड

फिर हिन्दी किस काम की

 

पढ़ने के लिए  सिर्फ तीन विषय

भौतिकी, रसायन और गणित

गणित तो पढ़ना ही है

वरना पैसों के गणित में फेल हो जाएंगे

रसायन नहीं पढ़ेंगे तो

घालमेल का जीवन कैसे कटेगा

भौतिकवादी समय का

सबसे उपयोगी शास्त्र है भौतिकी

 

बाज़ार सबसे ज्यादा खुश है

शिक्षा के इस श्रेष्ठ समय में ।

 

(दो)

 

शिक्षा के इस श्रेष्ठ समय में

ज्ञान-देश-समाज-चेतना और जीवन के लिए

कोई भी नहीं पढ़ता

 

अगर आपके दिमाग में अभी भी

शिक्षा का कोई रिश्ता

मनुष्य और प्रकृति से है

तो किसी कम्प्युटर की दुकान पर जा कर

मेमोरी फ़ार्मेट करवा लें

आपकी मेमोरी में वायरस लग गए हैं।

 ००००


अन्य पुरुष

 

हम दोनों साथ-साथ बड़े हो रहे थे

दोनों के साथ होने पर हम

हम यानि उत्तम पुरुष

 

खेल-खेल में मैं जीत गया

हारते ही तुम हो गए तुम

यानि मध्यम पुरुष

मैं यानि उत्तम पुरुष

हम को देश-निकाला

 

मैं बड़ा हो गया

तुम भी बड़े हो गए

मैं हमेशा ही उत्तम पुरुष रहा

तुम मध्यम पुरुष से

अन्य पुरुष हो गए ।

 ००००


होनहार बच्चे


होनहार बच्चे

सदैव प्रथम आते हैं कक्षा में

बचपन से ही जूझते

समय की कमी से

उनके पास खेलने के लिए नहीं होता है

समय

स्कूल-कोचिंग-होमवर्क-कम्प्यूटर में खप जाता है

सारा दिन

 

होनहार बच्चे

अपने स्कूल की नाक होते हैं

माँ-पिता के स्वप्न को साकार करते हैं

बचपन से ही होती है उनपर

बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ

 

होनहार बच्चों को आदत पड़ जाती है

मंच से पुरस्कार प्राप्त करने की

अगली पंक्ति में बैठने की

 

उनके कानों में हर वक्त गूंजती रहती है

तालियों की गड़गड़ाहट

वेरीगुड और शाबाश जैसे शब्दों पर

उनका कॉपीराईट होता है

 

होनहार बच्चों के स्वप्न में

वे ही होते हैं स्वंय

उनसे ही शुरू होती हैं

सारी अच्छी चीजें

और उनपर ही खत्म भी

श्रेष्ठता की सीढ़ी चढ़ते हुए

इतनी ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं

जहाँ से पृथ्वी गेंद की तरह दिखाई देती है

और पृथ्वीवासी कीड़े-मकोड़े

 

होनहार बच्चों की दुनिया

हमारी दुनिया से अलग दुनिया होती है ।

 ००००

 

भोग्य और भोग्या

 

सबसे पहले दिखीं उसकी

मांसल जंघाएँ, जीन्स में कसी हुई

और नज़रें कमर के आसपास जाकर ठहर गयीं

कल्पना ने वह सब देखा

जो दिख नहीं रहा था

पूरे बदन में उत्तेजना की एक लहर दौड़ गई

 

उसके स्तनों के आसपास तो

मंडरातीं रहीं नज़रें

निजी क्षणों के अनुभवों ने

कल्पना में उड़ान भर ली

नख से शिख तक डूब गया

भोग की कामना में

जैसे दारू की घूँट ने मदहोश कर दिया हो

 

धड़ के ऊपर पहुँचते ही

उतर गया सारा नशा

सामने एक सुंदर,मोहक,मासूम चेहरा

प्रकृति की सबसे सुंदर रचना

मन अंदर तक भीग गया

झुक गईं नजरें

 

आत्मग्लानि ने दी दस्तक

काँपने लगा अंदर तक

मन ने बचाव में गढ़ा तर्क

 

उसके वस्त्र ही ऐसे थे

जिसमें उभरे अंग

विचलित कर रहे थे

 

सभ्यता और संस्कृति के

लिज़लिज़े तर्कों ने भी हूँकार भरी

सारी गलती उसकी

हम निरा संत और सभ्य

अपनी संस्कृति के रक्षक

उसकी नियति है

भोग्य और भोग्या

 

स्थगित हो चुके आत्मग्लानि ने

अंदर... बहुत अंदर जाकर

जोर से आवाज़ दी  - माँ

 

वह भोग्य और भोग्या

माँ में बदल गयी

बदल गया

जंघे से कमर तक का दृश्य

हमारे अस्तित्व का सूत्र

उर्वर था वहाँ

 

मन जहाँ पर उत्तेजित हुआ फिर रहा था

वहाँ पूरी अस्मिता नतमस्तक्  थी

वह सृजन की पीड़ा

सर्जक की प्रर्थना स्थली

 

वस्त्र  और संस्कृति के तर्क

धू..धू...करके जलने लगे

अक्षम्य अपराध के

गंदे धुएं में घनीभूत हो रही थी घुटन

 

इतनी गंदी नज़र

इतना गंदा मन

इतनी फूहड़ कल्पना

इतनी मूढ़ चेतना

धिक्कार.... धिक्कार...... धिक्कार ।

 ०००

 

जीवन वृत्त

जन्म - १ मार्च १९७०, गोरखपुर, उ. प्र. । डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी तक पढ़ाई। कुछ अखबारों के साहित्य पृष्ठ और पत्रिकाओं के अंकों का संपादन। कविता संग्रह “फिर कभी” एवं “उम्मीद”, वैज्ञानिक उपन्यास “अंतरिक्ष नगर”, बाल उपन्यास “मुट्ठी में किस्मत” प्रकाशित तथा कविता संग्रह “धूप की अलगनी” तथा “तर्क में सुबह” प्रकाशन प्रक्रिया में। “युवा द्वादश” तथा “बहन के होने से” संकलनों में तथा कई साहित्यिक वार्षिकी में रचनाएँ संकलित। साहित्यिक पत्रिकाओं, समाचारपत्रों, आकाशवाणी, ज्ञान वाणी और दूरदर्शन आदि से रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण । म.प्र साहित्य अकादमी का जहूर बक्स पुरस्कार, श्याम व्यास सम्मान, मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार 2016, कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता पुरस्कार के साथ कुछ अन्य सम्मान तथा कुछ रचनाओं का दूसरी भाषाओं में अनुवाद । पांडिचेरी विश्वविद्यालय में अंतरिक्ष नगर किताब पर शोध। भारत भवन और म. प्र. साहित्य अकादमी आदि के कार्यक्रमों में सहभागिता। फिलहाल परमाणु ऊर्जा विभाग के राजा रामान्ना प्रगत प्रौद्योगिकी केंद्र, इंदौर में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत। 

संपर्क -  प्रदीप मिश्र, दिव्याँश ७२ए, सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, डाक : सुदामा नगर,  इंदौर - 452009, म.प्र.,मो.न. : +919425314126, ईमेल – mishra508@gmail.com.