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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 जुलाई, 2009

लिटिल टेरेरिस्ट यानी नानुसो आतंकी

लिटिल टेरेरिस्ट युवा निर्देशक अश्विन कुमार द्वारा बनायी गयी फ़िल्म है। फ़िल्म में तीन केन्द्रीय पात्र है। पहला और फ़िल्म का मुख्य पात्र जमाल नाम का छोटा बच्चा है। जमाल का गाँव हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की रेतीली सीमा के किनारे पाकिस्तान की तरफ़ बसा है। जमाल क्रिकेट का शौकीन है, और जमाल ही क्यों पिछले दस-पन्द्रह बरसों से क्रिकेट को सटोरियों ने जिस तरह खेलों के केन्द्र में ला खड़ा किया है और ख़ासकर जबसे भारत-पाक के बीच होने वाले मैचों को युद्ध का नाम दिया है, जमाल और उसके आगे की कई पीढ़ियों को उसे देखने की लत-सी लग गयी है।

भारत-पाक के बीच होने वाला मैच, मैच नहीं भारत-पाक की सेना के बीच का युद्ध माना जाता है। मैच में होने वाली हार-जीत को खेल में होने वाली हार-जीत नहीं, बल्कि युद्ध की हार-जीत माना जाता है। साम्प्रदायिक नज़रिये से क्रिकेट को देखने की भावना ने देश में सिर्फ़ हिन्दुओं को ही नहीं, बल्कि दूसरे सम्प्रदाय के लोगों के मन में भी मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा की है, और ज़्यादातर लोग यह मानते हैं कि जब भी भारत-पाक का मैच होता है, मुसलमान पाक के जीतने की कामना करते हैं। पाक के खिलाड़ियों द्वारा छक्का लगाने या भारतीय बल्लेबाज का विकेट लेने पर मुसलमान पटाखे फोड़ते हैं। ऎसी पूर्वाग्रह से ग्रसित भावना ने मुसलमान को शेष भारतीयों के बीच संदेहास्पद स्थिति में खड़ा कर दिया है।

निर्देशक अश्विन कुमार ने लिटिल टेरेरिस्ट में यह सब नहीं दिखाया है, लेकिन फ़िल्म देखने पर सजग दर्शक को यह सब याद न आये, ऎसा भी तो नहीं है। अगर सटोरियों ने क्रिकेट को इतना लोकप्रिय नहीं बनाया होता, तो जमाल रेतीले मैदान पर अपने दोस्तो के साथ क्रिकेट नहीं, कोई पारंपरिक खेल खेलता, शायद कुश्ती या कबड्डी जैसा कोई खेल। लेकिन उस रेतीले मैदान पर, ‘जिस पर बारूदी सुरंग बिछी हैं, एक शॉट की दूरी पर तार फैंसिंग खींची है। तार फैंसिंग से कुछ दूरी पर खड़े निगरानी टॉवर पर भारतीय सेना के जवान भरी बंदूक निगरानी कर रहे हैं।’ वहाँ महज तेरह-चौदह बरस का जमाल अपने दोस्तो के साथ क्रिकेट खेलता है।

हम सीमा पर नहीं रहते। हम सीमा के बारे में ज़्यादा जानकारी भी नहीं रखते। हम उसी झूठ को सच मानते हैं, जो हमसे कूटनीतिक ढंग से बोला जाता है। शायद इसीलिए सीमा पर रहने वालों का दुखः संजीदगी से नहीं समझते। अगर लिटिल टेरेरिस्ट को एक इंसान के पाक नज़रिये से देखें, तो हम समझ जायेंगे कि हम वाकय में आतंक के बारे में कितना कम जानते हैं।

जब जमाल अपने दोस्तो के साथ क्रिकेट खेलता है, और गेंद बल्ले से मार खाकर कँटीले तारों को पार कर भारत की सीमा में चली जाती है, दो बारूदी सुरंग के बीच ठाट से रुकी लाल चेथरे से बनी गेंद को जब जमाल लेने पहुँचता है, और उसे देखकर भारतीय सेना के चौकन्ने और बहादुर सैनिकों की रायफल से गोलियों की जो बरसात होती है, उससे जमाल का पजामा तो गीला हो जाता है, लेकिन उसे देखकर दर्शक का मन गीला न हो, एक क्षण को उसकी साँस स्वाँस नली में लरज़कर ठिठक न जाए, तो कहना। मैं आपको दर्शक नहीं, भारतीय संसद के गर्भ ग्रह में बैठा और सीमा पर चौकसी करता सेना का जाँबाज सिपाही मान लूँगा।

जब गोलियों की बरसात क्षण भर को ठहरती है, तो उसी क्षण भर के ब्रेक में फ़िल्म का एक दूसार मुख्य पात्र, ‘जो भारत के सरकारी स्कूल का मास्टर है’ अपनी साइकिल पर सवार राजस्थानी वेशभुषा में नमुदार होता है। मास्टर भारत की सीमा के एक गाँव में रहता है। यहाँ से फ़िल्म को थोड़ी और संजीदगी से समझने की ज़रूरत होती है। फ़िल्म भरोच, जयपुर के इलाक़े में फिल्माई गयी है और पूरी फ़िल्म में राजस्थानी लोक संगीत का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है।

खैर। करने को बातें अभी भी बहुत है। लेकिन बहरहाल दो-तीन जगह खटकी निर्देशकीय कमज़ोरी और स्क्रीप्ट की गेप को नज़र अंदाज़ कर यह कहकर अपनी बात समाप्त करता हूँ कि महज छः दिन की शूटिंग में बनायी गयी इस फ़िल्म की अवधि 15 मिनट है। सन 2005 में इस फ़िल्म को आॉस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था। इस फ़िल्म को आॉस्कर भले न मिला हो, लेकिन देश-विदेश के कई पुरस्कार इसके हिस्से में आये हैं।

हिन्दुस्तान के बंटवारे की राजनीति और बंटवारे के बाद सत्ता को हथियाने और उस पर बने रहने की राजनीति ने दोनों ही मुल्कों की जम्हुरियत के मग़ज़ में जो ज़हरीले बीज बोए हैं, और दोनों ही मुल्कों के राजनीतिग्यों और सटोरियों ने ज़हरीले बीजों को क्रिकेट की खाद से जिस लहलहाती फ़सल में बदल दिया, उसे देखने और समझने के लिए देखे- लिटिल टेरेरिस्ट यानी नानु सो आतंकी।

बिजूका फ़िल्म क्लब द्वारा ज़ल्दी यह फ़िल्म दिखाई जाना है। इसे देख किसी भी दर्शक के पन्द्रह मिनट व्यर्थ न जायेंगे, बल्कि देखने वाला इन पन्द्रह मिनट में शायद वैसा कुछ पाये, जो पिछले कई वर्षों से खोता आ रहा है।

सत्यनारायण पटेल
संयोजकः
बिजूका फ़िल्म क्लब,
इन्दौर- (म.प्र.)
09826091605
1 जुलाई 2009

9 टिप्‍पणियां:

  1. खबर मिली थी इस क्‍लब। फिल्‍मों का चयन शानदार लग रहा है। इस प्रयोग की सफलता के लिए अग्रिम बधाई स्‍वीकार करें।
    वर्ड वेरीफिकेशन हटा लें। इसका कोई खास फायदा नहीं है।

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  2. सार्थक उददेश्य को लेकर बनाया गया क्लब। बधाई।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  3. आत्म विश्वास से भरपूर एक अच्छा आलेख।

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  4. हिंदी भाषा को इन्टरनेट जगत मे लोकप्रिय करने के लिए आपका साधुवाद |

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  5. हिंदी भाषा को इन्टरनेट जगत मे लोकप्रिय करने के लिए आपका साधुवाद |

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  6. हम सीमा पर नहीं रहते। हम सीमा के बारे में ज़्यादा जानकारी भी नहीं रखते। हम उसी झूठ को सच मानते हैं, जो हमसे कूटनीतिक ढंग से बोला जाता है। शायद इसीलिए सीमा पर रहने वालों का दुखः संजीदगी से नहीं समझते।

    SAHEE BAAT HAi

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