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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 अगस्त, 2009

मजीद मजीदीः रिश्तों की ख़ूबसूरती

हॉलीवुड और वालीवुड के बाहर भी फ़िल्में बनती हैं और अच्छी बनती हैं यह हमारे ज़ेहन में तब नहीं आती जब तक कि हम किसी समारोह में दूसरे देशों की फ़िल्में नहीं देखते हैं. आम दर्शक को दूसरे देश की फ़िल्में देखने का मौक़ा यदा कदा ही मिल पाता हैं। इस बीच चेक रिपब्लिक, पौलैंड, टर्की, फ्राँस, क्यूबा, जर्मनी, इटली, बाँग्ला देश, इज़राइल, हंगरी तथा ईरान की कुछ बेहतरीन फ़िल्में देखने का अवसर मिला। ईरान के फ़िल्म निर्देशक मजीद मजीदी की फ़िल्में देखने अपने आप में एक सुखद चाक्षुष अनुभव है। यहाँ उनकी कुछ फ़िल्मों की झाँकी प्रस्तुत है।

कुछ समस्याएँ सार्वभौमिक और सार्वकालिक होती हैं। ऎसी ही एक समस्या तब उत्पन्न होती है जब एक किशोर बालक के पिता की मृत्यु हो जाती है और वह अपने आप को परिवार चलाने के लिए ज़िम्मेदार मानकर अपनी माँ और बहनों की परवरिश के लिए काम करने निकल पड़ता है। लेकिन उसके ग़ुस्से का अंदाज़ा किया जा सकता है जब उसे पता चलता है कि उसकी माँ ने एक अन्य व्यक्ति से विवाह कर लिया है। एक अनजान आदमी को अपने पिता के रूप में देखना शायद ही किसी किशोर को स्वीकार हो। किशोर की बेबसी, खीज, विद्रोह को परदे पर उतारना आसान नहीं है। किशोर अवस्था स्वयं में ही काफी उलझन भरी होती है तिस पर ऎसी भयंकर परिस्थिति! किशोर के मन में उठ रहे तूफान की कल्पना की जा सकती है, उस तूफान को परदे पर प्रस्तुत करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। उसी कठिन कार्य को बड़ी सहजता, कुशलता और ख़ूबसूरती के साथ, बहुत कम किरदारों की सहायता से ईरान के फ़िल्म निर्देशक मजीद ने ‘फादर’ (पेडर) फ़िल्म में कर दिखाया है। चौदह वर्ष का मेहरोल्लाह (हसन सेदिघी) समुद्र तट पर स्थित शहर से कमाई करके वापस आता है तो पाता है कि उसकी विधवा माँ ने एक पुलिस वाले से विवाह कर लिया है। वह ग़ुस्से से उबल पड़ता है। माँ अपने नए पति के साथ उसके नए घर में रह रही है। मेहरोल्लाह अपने पुराने घर में जाता है जो जब उजाड़ पड़ा है। घर की उजड़ी स्थिति उसके मन की उजड़ी दुनिया को बख़ूबी प्रस्तुत करती है। कहाँ तो वह सोच और मान रहा था कि वह अपने पिता के रिक्त स्थान की पूर्ति कर रा है और कहाँ देखता है कि एक अजनबी उस आसन पर चढ़ बैठ है। उसे लगता है कि इस दू्सरे पुरुष ने उसकी माँ तथा बहन को बँधक रख लिया है। वह इस नये पुरुष के सामने रकम फेंक कर उन्हें उसके बंधन से छुड़ाना चाहता है, और जब इसमें नाकामयाब रहता है, तो पुलिस आॉफीसर की पिस्तौल चुरा कर हत्या करने की कोशिश करता है। अपने मालिक लूटना चाहता है। किशोर का पूरा आत्मविश्वास चकनाचूर हो जाता है। उसकी दुनिया उलट-पलट हो जाती है। उसके मन की हलचल ग़ुस्से में फूट पड़ती है। वह अपने इस नये पिता को सिरे से नकार देता है।

उसका क्रोध अपनी माँ पर भी है जो उसके लौटने तक धैर्य न रख सकी और जिसने उसकी ग़ैरहाज़िरी में दूसरे पुरुष के घर में आराम से रहना शुरू कर दिया है। उसे स्वीकार नहीं है कि उसके पिता के रिक्त स्थान की पूर्ति जिसे वह स्वयं भरना चाहता है एक अजनबी द्वारा हथिया ली जाए। उसे लगता है कि पुलिस वाला उसकी माँ पर अत्याचार करता है। उसने उसकी माँ के वैधव्य का फ़ायदा उठाया है। घर पर चूँकि कोई पुरुष नहीं था इसलिए इस पुलिसिए ने उसके परिवार को अपने कब्जे में कर लिया है। उसका ख़ून खौल उठता है और वह अपने परिवार पर हो रहे अत्याचारों का प्रतिकार करना चाहता है। इस फ़िल्म में एक किशोर की मनःस्थिति का बड़ी बारीकी से चित्रण हुआ है।

दूसरी ओर उसका नया पिता पुलिस वाला होते हुए भी बहुत नर्म दिल है और अपनी नई पत्नी तथा उसके बच्चों को बहुत प्यार करता है। वह स्वयं तलाक़ शुदा है और निःसंतान है। वह इस नई शादी से भरे पूरे परिवार की उम्मीद कर रहा है। वह अपनी पत्नी के बेटे को समझने और समझाने का प्रयास करता है परंतु मेहरोल्लह का जिद्दी व्यवहार उसके अंदर के पुलिसिए को जगा देता है। उसका धैर्य चुक जाता है। वह एक ईमानदार पुलिस आॉफिसर है और अपराधी उसके शिकंजे से बच नहीं सकता है। मेहरोल्लाह का व्यवहार उसके ग़ुस्से का का बायस बनता है। अंततः पिता उसे पकड़ लेता है और दोनों घर की ओर लौटने लगते हैं। रास्ते की परिस्थितियाँ उनके संबंधों को नया मोड़ देती हैं। यह एक किशोर के व्यस्क होने की यात्रा है। जब लौटते वक़्त पुलिस आॉफीसर मृत्यु की कगार पर पहुँच जाता है, तब यही बच्चा उसकी जान बचाता है। इस तरह पुनः उसका विश्वास लौटता है। वह बालक से व्यस्क की भूमिका में आ जाता है। यह आगमन बहुत सकारात्मक है। वह नये रिश्ते को मन में ग्रहण करता है और परिवार में अपना स्थान पा लेता है।

पुलिस आॉफीसर के भीतर बैठे कोमल ह्रदय पिता की भावनाओं को मोहम्मद कासेबी ने बहुत स्वाभाविक अभिनय द्वारा प्रस्तुत किया है। साथ ही उसका पुलिस आॉफीसर वाला किरदार भी काफ़ी आधिकारिक बन पड़ा है। परिवाश नज़रिये नामक अभिनेत्री ने पत्नी तथा माँ की कशमकश को ख़ूबसूरती से अंजाम दिया है। एक और चरित्र है मेहरोल्ला का अटपटा, भोंदू-सा दोस्त. इस किरदार को निभाया है हुसैन अबेदीनी ने, जिसकी भूमिका बहुत छोटी है, परंतु अपने अभिनय की ताज़गी से जो दर्शकों को याद रह जाता है। इसी अभिनेता ने बाद में मजीदी की फ़िल्म ‘बरन’ में मुख्य भूमिका की है।

ईरान के ग्रामीण परिवेश की उजाड़ और रूखी-सूखी प्रकृति भरे-पूरे परिवार के लिए पृष्ठभूमि का काम करती है। फ़िल्म ‘फादर’ को मजीद मजीदी ने सैयद मेहंदी शौदाई के संग मिल कर लिखा है। सबसे ऊपर काबिलेतारीफ़ है मोहसिन ज़ोलानवर की फोटोग्राफी। इस फ़िल्म में प्रकृति और मानवीय रिश्तों की ख़ूबसूरती को कैमरे की नज़र से बहुत सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया गया है। कम से कम संवादों मजीद अपनी बात बखूबी कहते हैं । फ़िल्म माध्यम पर उनकी मज़बूत पकड़ है। उनका कैमरा आँखों की भाषा, चेहरे के भावों और शारीरिक मुद्राओं को पकड़ने की कुशलता रखता है। इसमें उनके फोटोग्राफिक डायरेक्टर मोहसिन ज़ोलानवर का भरपूर सहयोग है।

ईरान की फ़िल्में अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में एक विशिष्ट स्थान रखती हैं और वहाँ की नई लहर के सिनेमा में मजीद मजीदी का एक ख़ास स्थान है। 1959 में जन्में मजीदी की रुचि प्रारंभ से नाटकों में रही है। उन्होंने थियेटर की बाकायदा ट्रेनिंग ली और इसी दौरान उनकी रुचि फ़िल्मों की ओर भी हुई। शुरुआत में उन्होंने फ़िल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएँ कीं। शीघ्र ही वे निर्देशन की ओर मुड़ गये।

1992 में उन्होंने अपनी पहली फ़िचर फ़िल्म बनाई। 1996 में आई फ़िल्म ‘फादर’ के साथ मजीदी अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में एक चर्चित नाम बन गए। इस फ़िल्म को कई पुरस्कार मिले, साथ ही इस फ़िल्म ने उन देशों में भी ईरानी फ़िल्मों के लिए द्वार खोल दिए जिनमें इसके पूर्व कभी ईरानी फ़िल्मों की पहुँच न थी. इस दृष्टि से यह ईरान के फ़िल्म उद्योग में ऎतिहासिक महत्व की फ़िल्म है।

मजीद को बच्चों और परिवार को सामाजिक तथा राजनैतिक परिवेश में दिखने में महारत हासिल है। उनकी फ़िल्म 1997 में बनी ‘चिल्ड्रेन आॉफ हेवन’ को आॉस्कर पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। एक साक्षात्कार में मजीदी ने कहा है कि वे बच्चों का संसार छोटा और सरल तथापि विशाल और आश्चर्यजनक होता है। मजीद मानते हैं कि यह आकाश की भाँति नीला, नदी की तरह स्वच्छ, और पहाड़ों की तरह ऊँचा तथा समग्र होता है। ये फ़िल्में बच्चों के विषय में हैं, उनकी दुनिया को प्रदर्शित करती हैं परंतु बच्चों के लिए नहीं हैं। बच्चों को लेकर जब वयस्कों के लिए फ़िल्में बनती हैं तो अक्सर वे सफल नहीं होती हैं। वयस्कों की उनमें रुचि नहीं होती है लेकिन मजीदी की विशेषता है कि उनके द्वारा निर्देशित ये फ़िल्में सफल रही हैं।

युद्ध जनजीवन को तबाह कर देता है यह एक सर्वविदित तथ्य है। युद्धक परिणाम ग़रीबी और बदहाली भी होता है। युद्ध के फलस्वरूप लाखों लोग अपनी ज़मीन से उखड़ जाते हैं, शरणार्थी बन जाते हैं, आज यह एक भयंकर समस्या है। विश्वयापी समस्या है।

अफगान लंबे समय से इन परिस्थितियों से जूझ रहा है। पहले सोवियत दमन और उसके बाद तालिबानी शोषण। अफगान की जनता को स्वतंत्रता में सांस लिए एक युग बीत चुका है। अफगानी जीवन भी इन समस्याओं से ग्रसित है। नतीजतन आम अफगान मौक़ा मिलते ही रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे देशों को पलायन करता है। जब ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से व्यक्ति दूसरे देश में रहता है, तो उसे किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, मजीद मजीदी ने इसी गंभीर अंतरराष्ट्रीय समस्या की पृष्ठभूमि पर अपनी फ़िल्म ‘बरन’ को खड़ा किया है। बरन की कहानी एक ऎसे ही परिवार से प्रारंभ होती है जो काम की तलाश में अफगानिस्तान से भाग कर ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से रह रहा है। पिता नज़फ (गुलाम अली बख्शी) एक कंस्ट्रक्शन कम्पनी में मज़दूर है। इन शरणार्थी मज़दूरों की स्थिति ईरानी मज़दूरों की अपेक्षा बदतर है। उन्हें जी तोड़ मदद करना पड़ती है। बदले में देशी मज़दूरों से कम मज़दूरी मिलती है। रहने को ढंग का स्थान नहीं होता है और जब तब जाँच के दौरान छिपना पड़ता है। उनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती है।

सत्रह साल का ईरानी छोकरा लतीफ (हुसैन अबेदीनी) लोगों को चाय पिलाना, उनका खाना ले आना आदि हल्के-फुल्के काम करता है। यह आलसी, चिड़चिड़ा लड़का गरम दिमाग़ का है। जब-तब अपने आसपास के लोगों के साथ बुरा व्यवहार करता है। जब एक दुर्घटना के फलस्वरूप अफगान मज़दूर नज़फ घायल हो जाता है, उसका लड़का रहमत उसके स्थान पर काम करने आता है। वह नाजुक-सा लड़का भारी काम नहीं कर पाता है। ठेकेदार उस लतीफ को सताने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ता है।

जब एक दिन उसे पता चलता है कि उसका काम छीनने वाला एक लड़का नहीं वरन मज़बूरी में पुरुष का रूप धारण किए हुए एक लड़की बरन (ज़हरा बेहरामी) है तो उसका नज़रिया बदल जाता है। वह बरन की सहायता करने लगता है, उसे परेशानियों से बचाता है। स्वयं को ख़तरे में डालकर उसकी और उसके परिवार की भी सहायता करता है। जाने-अनजाने में वह बरन की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लेता है। मजीद के अनुसार उन्होंने पहले ही निश्चित कर लिया था कि लतीफ और बरन न तो शारीरिक रूप से एक-दूसरे को स्पर्श करेंगे ना ही एक-दूसरे से बात करेंगे और पूरी फ़िल्म में यही होता है। वह उसकी ओर पूरी तौर से आकर्षित है परंतु कभी उससे बात नहीं करता है। वह उससे कभी आँख नहीं मिलाता है। वह दिन-रात बरन का साया बना रहता है, सबसे छिप कर रोता है।

प्यार लतीफ के कठोर स्वभाव में कोमलता ला देता है, वह परिवर्तित हो जाता है। बेफ़िक्र लतीफ बरन के लिए फ़िक्र करने लगता है। उसकी मानवीय भावनाएँ जाग उठती हैं। जिसे बदले की भावना से वह दिन-रात परेशान करता था उसी के लिए परेशान रहने लगता है। वह अपने दिल की बात अपनी ज़बान पर कभी नहीं लाता है। निर्देशक उसकी भूरी आँखों पर कैमरा केन्द्रित करके उसके उसके अंतर की भावनाओं को दर्शकों तक प्रेषित करने मे क़ामयाब रहता है। ऎसा नहीं है कि बरन लतीफ की भावनाओं से परिचित नहीं है या उसे लतीफ में आया परिवर्तन नहीं दिखता है। हाँ, मूक रूप से अपनी भावनाओं का प्रदर्शन अवश्य करती है, जैसे कि वह चुपचाप एक गिलास उसके लिए चाय रख देती है।

शायद यह ईरान और अफगान की सभ्यता-संस्कृति का तकाज़ा है और कहानी का कमाल कि फ़िल्म के दोनों पात्र एक-दूसरे से बात नहीं करते हैं फिर भी दर्शकों को बाँधे रखते हैं। कहानी में कोई नयापन नहीं है, वही लड़का-लड़की की प्रेम कहानी। वही ग़रीबी और शोषण। पुरुष समाज में जीने के लिए स्त्री का पुरुष वेष धारण करना भी नया नहीं है। शेक्सपीयर से लेकर न मालूम कितनी कहानियों में यह आ चुका है लेकिन बरन का ट्रीटमेंट उसे ताज़गी प्रदान करता है। उसे एक विशिष्ट सामाजिक-राजनैतिक परिस्थिति में एक नया अर्थ मिल जाता है। फ़िल्मांकन ख़ूबसूरत बन पड़ा है। शुरू से अंत तक लतीफ का प्रेम मासूम है और इसे निर्देशक सफलता पूर्वक दिखा पाता है। उसका पुरस्कार अंत में लतीफ को मिलता है जब जाते समय बरन अपना बुरका उलट कर लतीफ को देखती है। बड़े-बड़े लंबे-चौड़े डायलॉग जो न कह पाते, यह निगाह वह बात अनायास कह जाती है। पहली बार दोनों की आँखें मिलती हैं। बरना का चेहरा उसने पहले देखा था लेकिन इस बार बरन जिस निगाह से उसे देखती है उस निगाह से लतीफ को नया जीवन मिलता है। बरन का यह एक जेस्चर लतीफ को जीने का संबल प्रदान करता है। कीचड़ में बरन की जूती का निशान बारिश के पानी से भर जाता है। वे अपना जीवन पुनः प्रारंभ करते हैं।

ग़रीबी क्या नहीं करवाती है। छोटे-छोटे मासूम बच्चों को अपने माता-पिता से झूठ बोलने पर मज़बूर कर देती है। बच्चे मन के सच्चे होतें हैं इसलिए उन्हें हर बार झूठ बोलते समय या माता-पिता से कोई बात छिपाते समय असह्य पीड़ा होती है। उनका चेहरा खिंच जाता है, संकुचित हो जाता है। इन्हीं बारीक भावनाओं का मजीदी ने अपनी फ़िल्म ‘चिल्ड्रेन आॉफ हेवन’ में बड़ी ख़ूबसूरती से फ़िल्मांकन किय है। फ़िल्म की शुरुआत होती है जब एक मोची गुलाबी रंग के नन्हें जूतों की मरम्मत कर रहा है। नौ साल का बच्चा अली (मीर फारुख हश्मियान) अपनी छोटी बहन ज़हरा (बहार सेदगी) के जूतों की मरम्मत करा कर लौटते हुए कुछ अन्य काम भी समेटता है और इसी चक्कर में ग़लती से बहन के जूते खो बैठता है। उसे मालूम है कि उसकी एक कौठरी के घर का किराया पाँच महीने से नहीं दिया गया है। उसकी माँ काफ़ी दिन से बीमार है। ऎसे में वह अपने पिता को जूते खोने की बात बताकर और हलकान नहीं करना चाहता है और ख़ुद हलकान होने की प्रतिक्रिया से जुड़ जाता है। भाई-बहन मिलकर उपाय निकालते हैं, चूँकि दोनों के स्कूल का समय अलग-अलग है अतः दोनों मिलकर तय करते हैं कि ज़हरा सुबह अली के फटे जूते पहनकर स्कूल जाएगी और लौटते में समय में अली आधे रास्ते में सबसे छिपा कर अपने जूते उससे ले लेगा और ख़ुद उन्हें पहन कर स्कूल जाएगा। समय पर जूते लेने-देने के चक्कर में भाई-बहन की दौड़-भाग चलती है, परंतु अक्सर अली स्कूल में लेट हो जाता है। स्कूल हेडमास्टर अली को लगातार देर से आने के कारण स्कूल से निकाल देने की धमकी देता है।

मजीद मजीदी सार्वभौमिक थीम उठाते हैं, जिसका किसी ख़ास देश, संस्कृति या धर्म से संबंध होना आवश्यक नहीं है। यह किसी देश, किसी धर्म और किसी संस्कृति में रखी जा सकती है। पारिवारिक प्रेम और परिवार के लिए बलिदान एक ऎसी ही थीम है। थीम नई न होने पर भी उसका ताज़गी भरा ट्रीटमेंट उसे नवीनता प्रदान करता है। ‘चिल्ड्रेन आॉफ फेवन’ का कथानक ऎसा ही देश काल की सीमा का अतिक्रमण करने वाला है। घर में लगातार तनाव की स्थिति बनी रहती है। माली के काम की तलाश में अली का पिता उसे साइकिल पर लेकर शहर की ओर निकलता है। शहर जहाँ तरह-तरह के आकर्षण होते हैं। इसी बीच अली का स्कूल एक ऎसी प्रतियोगिता का आयोजन करता है जिसमें दौड़ कर तीसरा स्थान प्राप्त करने पर एक जोड़ा नए जूते मिलने की संभावना है। अली उस रेस के लिए नाम लिखाता है। रेस का दृश्य और परिणाम पहले से ग्यात रहने पर भी दर्शक अली के साथ दौड़ता है और उसकी सफलता (तृतिय स्थान) की कामना करता है। स्लो मोशन और क्लोज अप में दिखाई गयी यह रेस बच्चे के भीतर चल रही भावनाओं को परदे पर उतार कर दर्शकों तक पहुँचा देती है।

निर्देशक के रूप में मजीदी बच्चों से बेहतरीन काम लेने का गुर जानते हैं। बच्चों की दुनिया छोटी-छोटी ख़ुशियों से समृद्ध होती है, छोटी-छोटी परेशानियों से बिखरने की कगार पर आ जाती है, वे घबरा जाते हैं। मजीद इनका भरपूर उपयोग करते हैं, मसलन बच्चों का तालाब के शीतल जल में पैर डालकर बैठना और मज़े लेना, गुब्बारे का फूलना और बच्चों का आनंदित होना। एक बहते नाले में जूता बहने लगता है या फिर स्कूल टीचर का क्रोध उन्हें भयभीत कर देता है। दौड़ते-भागते छिप कर जूते बदलते बच्चे दर्शकों के दिल पर अपने अभीनय की छाप छोड़ जाते हैं।
1997 में बनी इस फ़िल्म को ढेरों पुरस्कार प्राप्त हुए। इक्कीसवें मोंट्रियल फ़िल्म फेस्टीवल में इसे तीन-तीन पुरस्कार मिले, साथ ही तेहरान फ़िल्म समारोह में नौ पुरस्कार तथा फिनलैंड, जर्मनी,पोलैंड,सिंगापुर में भी सम्मान मिला। मजीदी की फ़िल्में अपने दृश्यांकन के लिए जानी जाती हैं, चाहे वह ‘बरन’ हो या ‘फादर’ अथवा ‘चिल्ड्रेन आॉफ हेवन’ सबका फ़िल्मांकन आँखों को लुभाने वाला है। वे जीवन की छोटी-छोटी बातों, छोटी-छोटी ख़ुशियों को पकड़ते हैं। रिश्तों की गर्माहट, चरित्रों की मासूमियत, मानवीय लगाव के बारीक रेशों से अपनी फ़िल्म बुनते हैं। मजीदी अपनी फ़िल्मों में संगीत का उपयोग इस कदर से करते हैं कि इससे उनकी फ़िल्मों की लयात्मकता और बढ़ जाती है। उनके लिए ‘स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल’ बिलकुल सही है।

वे पेशेवर नेताओं से काम नहीं लेते हैं। ग़ैर पेशेवर से काम करा ले जाना उनकी ख़सियत है। मजीद अपने कलाकारों का चुनाव करने में काफ़ी मशक्कत करते हैं और बहुत सावधानी से उन्हें चुनते हैं। कलाकारों का चुनाव करते समय वे उनकी आँखों का विशेष ध्यान रखते हैं। उन्हें भावप्रवण, स्वच्छ आँखों की तलाश रहती है। इसके लिए वे दूर-दूर तक जाकर खोज करते हैं। चाहे वह बालक अली की निष्पाप भूरी आँखें हों अथव ‘बरन’ की नायिका की बोलती आँखें, बरन की नायिका की तलाश में वे ख़ूब भटके। वे एक ऎसी लड़की की खोज में निकले जो बहुत ख़ूबसूरत न हो परंतु जिसके चेहरे पर मासूमियत और अध्यात्मिकता की छाया हो। जो नैसर्गिक रूप से नाजुक हो जिसकी आँखों में तरलता और सौम्यता हो। इन गुणों को ध्यान में रखकर मजीद सहायकों के साथ वीडियो कैमरा संभाले ऎसी लड़की की खोज में निकल पड़े। वे बताते हैं कि इस खोज में वे तेहरान जा पहुँचे। क़रीब डेढ़ महीने वे कई स्कूलों की खाक छानते रहे पर सफलता न मिली। वे लोग शहर के बाहर उन इलाकों में गए जहाँ किसान और कामगार रहते हैं। वहाँ भी निराशा हाथ लगी। तब उन लोगों ने मशाद जाने का फ़ैसला किया। मशाद अफगानिस्तान की सीमा से लगा हुआ है जहाँ रेगिस्तान में दो बड़े अफगान शरणार्थी शिविर थे। उन्होंने कैंप निदेशक से बात की और 13 से 16 साल की लड़कियों को देखना चाहा। थोड़ी देर उनके सामने इस उम्र की क़रीब पाँच सौ लड़कियाँ खड़ी थीं। उन्हीं के बीच उन्होंने सफेद और काले बुरके में उसे देखा। जब मजीद ने उससे बातचीत की तो उन्हें ग्यात हुआ कि यह लड़की ज़हरा काफ़ी मजबूत व्यक्तित्व की स्वामिनी है। वह एक साल की उम्र से शिविर में रह रही थी लेकिन स्कूल जाती थी और अपने इलाके की पूरी जानकारी रखती थी। इतना ही नहीं वह मजीद और मजीद की फ़िल्मों के बारे में भी जानती थी, उसने उन्हें टी.वी पर फ़िल्मों में अभिनय करते देखा था।

फिर मजीद उस लड़की के परिवार से मिले। वे बहुत अच्छे स्वभाव के निकले। मजीद पूरे परिवार को तेहरान ले आए. शूटिंग के दौरान उनके रहने ठहरने का प्रबंध किया। उसके स्कूल जाने वाले भाइयों के लिए ट्यूशन का इंतजाम किया। इस लड़की के पिता ने भी ‘बरन’ फ़िल्म में एक मज़दूर की भूमिका की। मजीद ज़हरा को अपनी बेटी की तरह प्यार करते हैं और वह भी जब-तब उनसे सलाह लेने आती है। ईरान में रहने वाले अफगान इस फ़िल्म से काफ़ी ख़ुश और मजीद के एहसानमंद हैं। वे गर्व के साथ ज़हरा की फोटो अपने घर की दीवाल पर लगाते हैं।

‘बरन’ का नायक किशोर हुसैन अबेदीनी पहले ही उनकी फ़िल्म ‘फादर’ में बुद्धू दोस्त की भूमिका कर चुका था। यह भी पेशेवर अभिनेता नहीं है। इसे मजीदी ने फल मंडी से ढूंड निकाला था। उस समय बारह साल का यह किशोर स्कूल छोड़ कर तरबूज बेच रहा था। फ़िल्म में काम करके वह बहुत ख़ुश है। फ़िल्म की सफलता का नशा उसके सिर नहीं चढ़ा है। उसे लगता है कि वह प्रसिद्ध हो गया है और अब लोग उसके फल ज़्यादा ख़रीदेंगे। मजीद बहुत चाहा कि वह फिर से स्कूल जाने लगे, पर यह न हो सका। यह सरल युवक हुसैन अब भी फल बेचता है। मजीद ने सिद्ध कर दिया है कि बिना स्टार कास्ट के भी बेहतरीन फ़िल्में बनाई जा सकती हैं।

मजीदी उन पाँच अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म निर्देशकों में से एक हैं जिन्हें चीन की सरकार ने इस वर्ष हो रहे ओलंपिक खेलों के लिए बेजिंग शहर पर वृत्तचित्र बनाने के लिए आमंत्रित किया था। निकट भविष्य में भारतीय कलाकारों को लेकर का मजीद मजीदी मन बना रहे हैं।
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विजय शर्मा
151 बाराद्वारी, जमेशदपुर
( झारखण्ड)

4 टिप्‍पणियां:

  1. जी हाँ उनकी फिल्मे मैंने देखी है ....ओर सौभाग्य से अब वर्ड सिनेमा से दुनिया की इस खिड़की में झाँकने का मौका भी मिल जाता है ...

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  2. Dost, hum bhi majid majeedi ke diwane hai.. aapki samicha bahut hi achchi lagi..Majid Majeedi ki filmo me manviy rishto aur prakriti ki khubsurati ka adbhut samnvay hota hai. asha hai unaki anya filmo jaise - fateless, song of sparrow, colour of paradise etc per bhi kuch jankari uplabdh karaenge..

    -Mubarak Lal
    http://movementofthought.wordpress.com

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