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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 मई, 2010

राजा दासगुप्ता हमारे समय के महत्त्वपूरण बंगाली फ़िल्म निर्देशक है। सुनील दीपक द्वारा लिया उनका साक्षात्कार बिजूका के पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं। साक्षात्कार का अँग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद युवा पत्रकार पंकज जोशी ने किया है।
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युवा फ़िल्म निर्देशकों को सार्थक सिनेमा पर काम करने की ज़रुरत है...
सुनील दीपक

सुनील: राजा, अपने पिछले कामों को ध्यान में रखते हुए, आप एक फ़िल्म निर्माता के रूप में स्वयं को कहाँ पाते हैं? आप में किन संदर्भों में और कैसे बदलाव आए हैं?

राजा: अभी तक मैंने केवल छोटे पर्दे पर काम किया है, जिसमें अधिकांश बंगाली चैनल्स के लिए फ़िक्शन तैयार किए हैं। मैंने लगभग हर विधा पर काम किया है, और अब पिछले चार वर्षों से मैं अपनी पहली फ़ीचर फ़िल्म बनाने के बारे में सोच रहा हूँ। मुझे नहीं लगता कि एक फ़िल्म निर्माता के तौर पर मुझ में कोई बदलाव आए हैं, क्योंकि मैं अपने आप को हर विधा से जुड़ा पाता हूँ। हाँ, समय के साथ-साथ अनुभव ज़रूर बढ़ता जाता है। इसलिए, मुझे किसी भी चीज़ को करने में सहजता महसूस होती है।

सुनील: मैंने सत्यजीत रे या रित्विक घतक जैसे लोगों का बनाया नियोरियलिस्टिक सिनेमा देखा है, और मेनस्ट्रीम की कुछ ऐसी लोकप्रिय फ़िल्में भी देखी हैं जिन्हें उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की भावुक फ़िल्मों के समकक्ष रखा जा सकता है। हालाँकि, जितनी भी समकालीन फ़िल्में मैंने देखी हैं उन पर बॉलीवुड का बहुत प्रभाव दिखता है। क्या आप भी इससे सहमत हैं? क्या आपको लगता है कि फ़िल्मों में किसी विशेष बंगाली संवेदनशीलता के लिए उचित स्थान है। हाँ या नहीं, और आप ऐसा क्यों सोचते हैं?

राजा: हाँ, बॉलीवुड के प्रभाव के बारे में आपका सोचना बिल्कुल ठीक है। किं‍तु उनका क्रियान्वयन बहुत ढीले तरीके से किया जाता है। दरअसल, वर्तमान में अधिकतर निर्माता ग़ैर-बंगाली हैं और वे अपने निर्देशकों पर इस तरह की सामान्य कृतियाँ बनाने के लिए दबाव डालते हैं। और, मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस है कि आजकल के तथाकथित काबिल युवा निर्देशक भी बहुत खोखला सिनेमा बना रहे हैं... मैंने अनुभव किया है कि वि‍श्वभर में इसी तरह का काम हो रहा है।

हाँ, फ़िल्मों में अब भी विशेष बंगाली संवेदनाओं के लिए पर्याप्त स्थान है, किंतु खेद इस बात का है कि ऐसा करने के लिए चुनिंदा निर्देशक ही हैं। पिछले दो-तीन सालों में केवल दो निर्देशकों ने इसे सफलता से किया है। आप सुमन मुखर्जी की “हर्बर्ट” (उनकी पहली फ़िल्म) और गौतम घोष (जो कि जाने-माने निर्देशक हैं) की “कालबेला” देखें। और मुझे उम्मीद है कि बिरसा की फ़िल्म “033” भी ऐसी ही फ़िल्म होगी।

सुनील: आपकी सभी कृतियों में से कौन-सी तीन ऐसी हैं जिनसे आप सबसे अधिक संतुष्टि हुए और क्यों?

राजा: मेरी टेलीफ़िल्म्स “मुखगुली”, “अन्य नक्शी” और मेरा धारावाहिक “एकुशा पा”। “मुखगुली” इसलिए क्योंकि इसमें में वृद्धाश्रम जैसी अति संवेदनशील विषय पर काम कर रहा था। “अन्य नक्शी” इसलिए क्योंकि इसमें मुस्लिम रूढ़िवाद के बारे में संदेश था। और “एकुशा पा” एक कैंपस की कहानी थी जिसमें युवावर्ग केंद्र में था।

सुनील: मुस्लिम रूढ़िवाद पर आपकी फ़िल्म अन्य नक्शी कब बनाई गई थी? फ़िल्म निर्माता सामान्यत: इस तरह के संवेदशील विषयों पर फ़िल्म बनाने से परहेज़ करते हैं, क्योंकि इनसे विवादों और प्रतिरोधों को हवा मिलती है। हाल ही में पश्चिम बंगाल में भी बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन का कड़ा विरोध किया जा रहा है। आपको अपनी फ़िल्म के लिए किस तरह की प्रतिक्रियाएँ मिली, विशेषकर मुस्लिमों के द्वारा?

राजा: अन्य नक्शी मैंने 2003 में बनाई थी जिसे एक प्रमुख बंगाली चैनल ईटीवी पर दिखाया गया था। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उसकी कोई आलोचना नहीं हुई और न ही विवाद या विरोध प्रदर्शन हुए। कई प्रगतिशील मुस्लिमों ने टेलीफ़िल्म को सराहा और उसकी प्रशंसा की। इस हिसाब से मैं स्वयं को भाग्यशाली मानता हूँ।
सुनील: क्या आप किसी पुस्तक, किसी व्यक्तित्व या किसी घटना पर आधारित कोई फ़िल्म बनाना चाहते हैं?

राजा: हाँ, मैं सिराज-उ-दौल्लाह के सेनापति मीर जाफ़र जैसे व्यक्तित्व पर फ़िल्म बनाना चाहता हूँ, जिसे भारतीय इतिहास में ग़लत रूप से एक देशद्रोही बताया जाता है। मैं इन ग़लतियों को ठीक करना चाहता हूँ। मैंने निजी तौर पर इस पर बहुत शोध किया है और अपने दावों को साबित करने के लिए मेरे पास ठोस सबूत भी हैं।


सुनील: मीर जाफ़र पर फ़िल्म बनाने के आपके विचार को लेकर मैं बहुत हैरान हूँ। सभी लोगों की तरह, मेरे मन में भी उसकी छवि एक देशद्रोही की ही है। इसलिए मैं इसके पीछे छिपी कहानी के बारे में उत्सुक हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि इस तरह की फ़िल्म वर्तमान का आईना भी बन सकती है क्योंकि आजकल कई कारणों से सत्य को तोड़ा-मरोड़ा जाता है और समस्याओं से जुड़े जनप्रतिनिधि उसके पीछे की जटिलता को कम ही दर्शा पाते हैं।

राजा: मीर जाफ़र की फ़िल्म एक अंतर्राष्ट्रीय प्रोजेक्ट होगी...और गिल के जाने के बाद अब मुझे इस प्रोजेक्ट पर संदेह है। हमने इस पर बहुत चर्चा की थी और इसे लेकर बहुत उत्साहित भी था। लगता है कि अब ये सिर्फ़ एक सपना रह जाएगा!!!

सुनील: आपके बेटे बिrrरसा भी एक फ़िल्म निर्माता हैं। आप उन्हें या अन्य युवा फ़िल्मकारों को क्या सलाह देंगे?

राजा: फ़िलहाल, बिrrरसा अपनी पहली फ़ीचर फ़िल्म के पोस्ट प्रोडक्शन पर काम कर रहा है जो कि इस साल अगस्त में रिलीज़ होगी। मैंने कभी उसे कोई सलाह नहीं दी और न ही कभी उसने कभी मुझसे कोई सलाह मांगी। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा मेरे साथ 1979 में मेरी पहली डॉक्यूमेंटरी के समय हुआ था। न तो मैंने कभी अपने पिता से कोई सुझाव माँगा था और न उन्होंने आगे होकर कोई सुझाव दिया। सुनील, समय बहुत तेज़ी से बदल रहा है और ये एक तरह का जनरेशन गैप है। अब, युवा फ़िल्मकारों को मेरी सलाह यही है कि: बस “बेहतर” फ़िल्में बनाएँ (वो भी अपनी पसंद की) लेकिन याद रखें कि आप इस पर बहुत पैसा लगाते हैं और एक फ़िल्मकार होने के नाते आपके ऊपर एक ‘सामाजिक ज़िम्मेदारी’ होती है। ये एक कविता लिखने जैसा बिल्कुल नहीं है... जिसमें सिवाय एक काग़ज़ के टुकड़े और स्याही की कुछ बूंदों को छोड़कर... आपको एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ता है।

सुनील: फ़िल्मों और सामाजिक ज़िम्मेदारी के संबंध में, क्या आपको लगता है कि फ़िल्में या बंगाली फ़िल्में अब भटक गई हैं? क्या ये बाज़ार का प्रभाव है? और क्या सामाजिक ज़िम्मेदारी अब बस छोटे पर्दे और कुछ फ़िल्मों तक सीमित रह गई है?

राजा: जैसा कि आपने ही कहा... ये सब कुछ पूरी तरह से बाज़ार का ही प्रभाव है।

सुनील: धन्यवाद राजा।
अनुवादः पंकज जोशी

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