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31 अक्टूबर, 2011
संघ राम की अंगूठी नहीं पहचानता
प्रियदर्शन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पता नहीं, अपने एक नेता, हरबंस लाल ओबेरॉय की अब याद होगी या नहीं। उन्होंने एक बहुत महत्त्वपूर्ण काम किया था- उन्होंने दुनिया भर से रामकथाओं से जुड़ी तस्वीरों और पोस्टरों का संग्रह इकट्ठा किया था। वे उनकी प्रदर्शनी भी लगाया करते थे। इन्हीं प्रदर्शनियों की मार्फत हमें पहली बार यह बात समझ में आई कि रामकथा कोई एक कथा नहीं है, राम की कई कथाएं हैं जो एक-दूसरे से कहीं-कहीं नितांत भिन्न भी हैं। उन्हीं दिनों यह समझ भी बनी कि राम की स्मृति का वितान इस देश में बहुत बड़ा है। रामकथा सिर्फ वाल्मीकि या तुलसी ने नहीं लिखी है, और भी कई-कई लोगों ने कई-कई भाषाओं में लिखी है, और यह कहानी जितनी लिखी जाती रही है, उससे ज़्यादा कही जाती रही है। यही नहीं, यह कहानी जितनी बार लिखी और कही गई, उतनी बार बदलती भी रही। राम, लक्ष्मण और सीता के सिर्फ़ किरदार ही नहीं बदले हैं, उनके आपसी रिश्ते भी बदले हुए हैं। कुल मिलाकर रामकथा लोकस्मृतियों में कई रूपों में मौजूद है- बताती हुई कि ढाई हज़ार वर्षों के दौरान भारतीय मानस पर उसकी छाप कितनी गहरी पड़ी है- सबके अपने-अपने राम हैं, सबकी अपनी-अपनी रामकथा है।
हरबंसलाल ओबेरॉय की तस्वीरों का वह संग्रह, अब पता नहीं कहां है और किस हाल में है। एक बात साफ़ है कि संघ में दीक्षित होने के बावजूद हरबंस लाल ओबेरॉय के भीतर वह धार्मिक इकहरापन नहीं रहा होगा जो उन्हें राम के एक ही रूप की अभ्यर्थना के लिए मजबूर करता। यह भी संभव है कि हिंदुत्व के इकहरे प्रतिमानों में फंसा संघ ख़ुद भी उस मिथक संसार की जटिलता समझने में नाकाम रहा हो जिससे उसकी अपनी विचारधारा को चुनौती मिलती। शायद यह अस्सी के दशक में छेड़ा गया राम मंदिर आंदोलन था जिसने पहली बार संघ परिवारियों का ध्यान इस तरफ खींचा कि न हिंदुत्व के बहुत सारे संस्करण होने चाहिए और न ही राम की बहुत सारी छवियां होनी चाहिए- बस एक ही हिंदुत्व और एक ही राम चाहिए जिसे अपनी राजनीतिक ज़रूरत के हिसाब से युद्धभूमि में उतारा जा सके।
इत्तिफाक से 1987 में, जब संघ परिवारी राम की एक ऐसी योद्धा छवि बनाने और अपने इकलौते मंदिर के लिए रामनामी ईंटे जुटाने में लगे थे, तभी लेखक और विद्वान एके रामानुजन का लेख, ‘थ्री हंड्रेड रामायंस, फाइव एग्जैम्पल्स ऐंड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशन’ पहली बार सामने आया। स्मृति, जनश्रुति, इतिहास, मिथक और चेतना को एक साथ समायोजित करता, रामकथा की लिखित और वाचिक परंपराओं को ‘टेलिंग’ यानी किस्सागोई की तरह देखता यह अनूठा लेख बताता है कि राम कितने बड़े हैं, कितनी तरह के हैं और कितने आयामों और युगों में फैले हैं। इस लेख को पहली बार पढ़ते हुए मुझे हरबंसलाल ओबेरॉय याद आए जिनके पास भी राम की कई छवियां थीं और एक छवि उस कथा की भी थी जिसमें राम-सीता भाई-बहन बताए गए थे।
इस लेख की खूबी यही नहीं है कि इससे हमें रामकथा के विविध रूपों की जानकारी मिलती है, बल्कि यह भी थी कि इससे इतिहास और परंपरा के बारे में हमारी दृष्टि कुछ साफ होती है। इसे उचित ही, दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए, इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। लेकिन 2008 में संघ परिवार से जुड़े संगठनों ने इस नितांत सहिष्णुतापूर्ण लेख पर भी एतराज और हंगामा किया जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इस लेख पर राय मांगी। दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस पर चार विशेषज्ञों की कमेटी बनाई जिनमें से तीन ने साफ तौर पर इस लेख को बेहद महत्त्वपूर्ण बताते हुए पाठ्यक्रम के लिहाज़ से भी ज़रूरी बताया। सिर्फ चौथे विद्वान की इस पर असहमति थी। कायदे से इस पर बहुमत से फ़ैसला होना चाहिए था, लेकिन हुआ नहीं। एकैडमिक काउंसिल ने लेख के ख़िलाफ़ फ़ैसला लिया। एकैडमिक काउंसिल के सिर्फ नौ सदस्य इस लेख के पक्ष में खड़े हुए, बाकी या तो ख़िलाफ़ दिखे या फिर खामोश, इस मासूम से लगने वाले बहाने के साथ कि इस राजनीति में उन्हें नहीं पड़ना है। इस तरह एक बहुत ही समृद्ध, शोधपूर्ण, बहुलतावादी और अपनी प्रकृति में नितांत समन्वयकारी पाठ दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए अस्पृश्य हो गया।
यह शर्मनाक है और डरावना भी। यह हमारे समय और समाज में बढ़ रही अपढ़ता और असहिष्णुता दोनों का सूचक है। इसमें शक नहीं कि रामानुजन के लेख का विरोध करने वाले ज्यादातर लोगों ने वह लेख पढ़ा ही नहीं होगा। वह सलमान रुश्दी की रचनाओं की तरह किसी मान्यता को चिढ़ाने वाला लेख नहीं है और न ही तसलीमा नसरीन के लेखों की तरह किसी आक्रोश से भरा हुआ, वह बस एक सुंदर और सहिष्णु लेख है जिसे बहुत मेहनत और शोध से तैयार किया गया और जिसे पढ़ते हुए रामकथा या रामकथाओं की विराटता के प्रति सम्मान ही पैदा होता है। लेकिन खुद को रामभक्त और संस्कृति का पहरेदार बताने वाली ताकतों को ऐसे राम नहीं चाहिए क्योंकि वे उनकी क्षुद्र राजनीति के दायरे में समाते नहीं। हरबंसलाल ओबेराय आज इस अगर इस संघ परिवार में बचे होते तो ख़ुद को एकाकी और कई तरह के हमलों के बीच असुरक्षित पाते।
यह रामानुजन प्रसंग इस बात की नए सिरे से पुष्टि है कि विचार और अभिव्यक्ति की जो बुनियादी स्वतंत्रता है, उस पर हमले तीखे हुए हैं। असहिष्णु ताकतें अपना दाय़रा लगातार बढ़ा रही हैं और इसकी जद में आकर वे सारे उदार-अनुदार, सायास-अनायास पाठ कुचले जा रहे हैं जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते। रामानुजन का लेख इसकी ताज़ा कड़ी भर है। ऐसी ही ताकतों के दबाव में इसके पहले मुंबई विश्वविद्यालय से रोहिंटन मिस्त्री के उपन्यास ‘सच अ लांग जर्नी’ को हटाया गया। यही वे लोग हैं जिन्होंने मक़बूल फिदा हुसेन जैसे गंगा-जमनी ही नहीं, कई और रंगों और परंपराओं की तूलिका साधने वाले कलाकार की पेंटिंग्स जलाईं और आखिरकार 90 पार की उम्र में उन्हें देश से बाहर रहने और वहीं मरने पर मजबूर किया। इन्हीं लोगों ने एक दौर में हबीब तनवीर के नाटकों पर हमले किए। यही लोग कश्मीर पर अलग राय रखने की वजह से प्रशांत भूषण के साथ हाथापाई करते हैं और अंत में ऐसे ही लोग दिल्ली विश्वविद्यालय में एके रामानुजन का लेख हटाए जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों को धमकी भी देते हैं कि उनसे अपने ढंग से निबटा जाएगा।
यह एक ख़तरनाक चलन है जो पूरे समाज पर अपनी तरह का सतहीपन लादना चाहता है। कविता, कहानी, लेख, विचार और शोध में उसे वही मंज़ूर है जिससे सपाट, अप्राश्नेय और अतार्किक किस्म की दक्षिणपंथी मूल्य संहिता की पुष्टि होती हो। सौंदर्य, सरोकार और बहुलता जैसे इसके लिए अजनबी शब्द हैं।
एके रामानुजन का लेख हनुमान की कहानी से शुरू होता है जो राम की खोई हुई अंगूठी खोजने निकले हैं। पाताल का राजा एक थाली में ढेर सारी अंगूठियां लेकर आता है और कहता है कि हनुमान अपने राम की अंगूठी खोज लें। हनुमान यह देखकर हैरान हैं कि सारी अंगूठियां राम की हैं। पाताल लोक का राजा बताता है कि वाकई जितनी अंगुठियां हैं, उतने राम हुए हैं। जब वह अपना समय पूरा कर लेते हैं तो उनकी अंगूठी उनके हाथ से निकल कर पाताल में पहुंच जाती है जिसे वह संभाल कर रख लेता है। इसके बाद दूसरे राम आते हैं और दूसरी अंगूठी आती है।
लेकिन संघ परिवार को राम की यह न ख़त्म होने वाली परंपरा मंज़ूर नहीं। वह अपने एक राम के पीछे पड़ा है और उसकी अंगूठी भी ठीक से पहचान नहीं पा रहा है। वह जैसे सारी अंगूठियां छीन कर छुपा लेना चाहता है। वह राम को लोकस्मृति और परंपरा की ज़मीन से उठाकर अपनी विचारधारा के दुर्ग में कैद करना चाहता है। लेकिन इससे राम दूर चले जाते हैं। डर बस इतना है कि वे इतने दूर न चले जाएं कि फिर लौट कर आ भी न सकें। अगर हम चाहते हैं कि राम लौटें तो हमें पहले रामानुजन को लौटाना होगा।
20 अक्टूबर, 2011
अन्धा युगः टूटे पहिए के साथ उलटा पड़ा समय का रथ
संगम पांडेय
फिरोजशाह कोटला के विस्तृत परिसर के मध्य मंच के पीछे पेड़ों के झुरमुट, भग्न दीवारें और एक विशाल दरवाज़ा दिखाई पड़ता है। युद्ध में घायल लोग कमर पकड़े, करहाते, लंगड़ाते किसी के कंधे पर लदे इस दीवार पर पीछे से चले आ रहे हैं। सत्रह दिन के युद्ध के बाद यह मंजर है कौरव नगरी का। अंधे धृतराष्ट्र छू-छूकर जान रहे हैं घायलों की पीड़ा। इस दीवार के पीछे से कुछ देर बाद युयुत्सु का प्रवेश होता है। अभागा युयुत्सु जिसने महाभारत युद्ध में सत्य का साथ देना चुना। आज वह अकेला बचा है। यह कौरव पुत्र अपनों की ही घृणा का शिकार है। इसी दीवार से सटे मुख्य मंच पर धृतराष्ट्र, गांधारी और विदुर दिखते हैं, लेकिन यह सिर्फ़ मंच का एक छोर है। दूसरा छोर ऊबड़खाबड़ पत्थरों के बीच एक गुफा है, जहाँ कुछ देर बाद नरपशु बन चुका अश्वत्थामा वृद्ध याचक की हत्या करेगा। इन दोनों छोरों के बीच रुके हुए समय का रथ अपने टूटे पहिए के साथ उलटा पड़ा है।
साढ़े छह सौ साल पुराने फिरोजशाह कोटला के भग्नावशेषों में इन दिनों खेले जा रहे नाटक ‘अन्धा युग’ में मूल आलेख की मुद्रा कुछ बदली हुई है। यह धर्मवीर भारती के आलेख से निकाला हुआ निर्देशक भानु भारती का पाठ है। आस्था और अनास्था के उप पाठों में जटिल होते आशय को भानु भारती ने उसी तरह सीधा किया है जैसे कभी मॉर्क्स ने हीगेल की ‘द्वंद्वात्मक आदर्शवाद’ की दार्शनिक अवधारणा को किया था, जिस तरह सुकरात के बारे में कहा जाता है कि उसके सवाल अपनी दुनिया में जी रहे लोगों को असमंजस में डाल देते थे। वैसा ही कुछ काम ‘ अन्धा युग ’ भी करता है। वह जीवन की तर्कहीनता पर अपने प्रतितर्कों के जरिए एक विलक्षण नाटकीयता पैदा करता है।
भानु भारती उसे पुनर्गठित करने के क्रम में इस नातकीयता को दरकिनार करने का जोखिम लेते हैं। फिर वे एक बड़े मंच के फैलाव में विषय के तनाव को सतत बनाए रखने का मुश्किल काम चुनते हैं। अपनी प्रश्नाकुलता में निरंतर व्यग्र पाठ को वे हमारी समकालीन दुनिया के वास्तविक सवालों के परिप्रेक्ष्य में स्थिर करने की कोशिश करते हैं। इस क्रम में नाटक के अंतिम दो अंक प्रस्तुति में नाममात्र के हैं और आस्था के विवादित केन्द्र कृष्ण एक गौण पात्र।
भानु भारती किसी पारलौकिक संदर्भ से ज्यादा तवज्जो वस्तुजगत को देते हैं। वे मनुष्यता की त्रासदी में विडंबनाओं के रहस्य से ज्याद स्वार्थ के अन्धेपन से उपजी व्यक्ति की हिंसा और प्रतिहिंसा को रेखांकित करते हैं। व्यक्ति , जिसका इलहाम धृतराष्ट्र की तरह का है जिसे नहीं पता था कि वैयक्तिक सीमाओं के बाहर भी कोई सत्य हुआ करता है। तटस्थ दृष्टा संजय उनकी प्रस्तुति का केन्द्रीय किरदार है। लेकिन उसके चरित्र की अनाटकीयता मंच पर सबकुछ के बाद भी उसे बहुत प्रमुख नहीं बनने देती। इस भूमिका में जाकिर हुसैन अपने साफ़-सुथरे वाचिक के बाद भी दर्शकों का बहुत ध्यान नहीं खींच पाते हैं।
मंच और आसपास का परिवेश एक पूरी दुनिया बनाता है। मंच पर घटित हो रहे दृश्य धीरे-धीरे इस दुनिया का हिस्सा बनते जाते हैं। भीम के छल से युद्ध में पराजित दुर्योधन के शव को झाड़ी के पीछे कुछ पशु घसीट ले गए हैं। कृतवर्मा और कृपाचार्य उसे ढूँढ़ रहे हैं। पूरा दृश्य कुछ देर के लिए दर्शकों को एक स्तब्धता में डाल देता है। मानो सचमुच दुर्योधन वहाँ हो.., जिसे वहीं जाकर देखने की एक हठात उत्कंठा स्तब्धता के इस क्षण में कहीं से उठती है।
नाटक का अश्वत्थामा मंच पर शीद्दत के साथ दिखाई देता है। उसकी प्रतिहिंसा हो या गांधारी के संवादों की, लगता है भानु भारती अपनी प्रस्तुति में उनके चरित्रों के तनाव को एक ऊँचाई पर ले जाकर उनका या दर्शकों का भाव विरेचन करते हैं। हालाँकि गांधारी की भूमिका में उत्तरा बावकर के स्वर की तल्खी में उतार-चढ़ाव की किंचित कमी मालूम देती है। लेकिन कृष्ण द्वारा शाप को कबूल कर लिए जाने के बाद के विलाप में इसकी क्षतिपूर्ति करती हैं।
एक बड़े कैनवास पर और सामान्य से कहीं ज्यादा दूर घटित होते दृश्यों में आंगिक अभिनय वाचिक के सहयोग की कुछ जयादा दरकार रखता है। यहाँ ध्वनियाँ प्रोसिनियम से कुछ अलहदा प्रभाव लिए हैं। आधुनिक उपकरण उन्हें एक मेटेलिक रंगत दे देते हैं। धृतराष्ट्र की भूमिका में वरिष्ठ रंगकर्मी मोहन महर्षि स्वर का ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर पाए हैं। लेकिन जाहिर है आलेख के संपादन में धृतराष्ट्र की भूमिमा कुछ सीमित हो गई है। प्रस्तुति के बड़े स्पेस में संगीत, कोरस, प्रकाश योजना आदि के जरिए निरंतर एक ऎसी गति बनी रहती है, जो देखने वाले को बहुत मोहलत नहीं देती। इसके लिए प्रकाश परिकल्पक आर.के. धींगरा और संगीत डिजाइन करने वाले नवनीत वधवा ने निश्चित ही काफी मेहनत की है।
अश्वत्थामा की भूमिका में टीकम जोशी एक अच्छी ऊर्जा के साथ प्रस्तुति में हैं। उनके अलावा विदुर की भूमिका में रवि खानविलकर, वृद्ध याचक बने रवि झांकल, कृपाचार्य बने गोविंद पान्डे, कृतवर्मा की भूमिका में दानिश इकबाल भी ठीक ठाक हैं। गोविन्द और दानिश ज्यादा नजदीक से दर्शकों को दिखते हैं, जबकि प्रहरी बने अमिताभ श्रीवास्तव और कुलदीप सरीन दूर दीवार पर हैं। यह बात उनकी उपस्थिति के प्रभाव पर एक निश्चित असर डालती है। मूल आलेख के युधिष्ठिर , बलराम और कृष्ण हंता व्याध के चरित्र संपादन की वजह से प्रस्तुति का हिस्सा नहीं बन सके हैं। इसके अलावा ‘प्रभु’ हूँ या परात्पर, पुत्र हूँ तुम्हारा, तुम माँ हो, जैसे संवाद में ओमपुरी का स्वर भी कुछ भारी लगता है।
साभारःजनसत्ता
संगम पांडेय
फिरोजशाह कोटला के विस्तृत परिसर के मध्य मंच के पीछे पेड़ों के झुरमुट, भग्न दीवारें और एक विशाल दरवाज़ा दिखाई पड़ता है। युद्ध में घायल लोग कमर पकड़े, करहाते, लंगड़ाते किसी के कंधे पर लदे इस दीवार पर पीछे से चले आ रहे हैं। सत्रह दिन के युद्ध के बाद यह मंजर है कौरव नगरी का। अंधे धृतराष्ट्र छू-छूकर जान रहे हैं घायलों की पीड़ा। इस दीवार के पीछे से कुछ देर बाद युयुत्सु का प्रवेश होता है। अभागा युयुत्सु जिसने महाभारत युद्ध में सत्य का साथ देना चुना। आज वह अकेला बचा है। यह कौरव पुत्र अपनों की ही घृणा का शिकार है। इसी दीवार से सटे मुख्य मंच पर धृतराष्ट्र, गांधारी और विदुर दिखते हैं, लेकिन यह सिर्फ़ मंच का एक छोर है। दूसरा छोर ऊबड़खाबड़ पत्थरों के बीच एक गुफा है, जहाँ कुछ देर बाद नरपशु बन चुका अश्वत्थामा वृद्ध याचक की हत्या करेगा। इन दोनों छोरों के बीच रुके हुए समय का रथ अपने टूटे पहिए के साथ उलटा पड़ा है।
साढ़े छह सौ साल पुराने फिरोजशाह कोटला के भग्नावशेषों में इन दिनों खेले जा रहे नाटक ‘अन्धा युग’ में मूल आलेख की मुद्रा कुछ बदली हुई है। यह धर्मवीर भारती के आलेख से निकाला हुआ निर्देशक भानु भारती का पाठ है। आस्था और अनास्था के उप पाठों में जटिल होते आशय को भानु भारती ने उसी तरह सीधा किया है जैसे कभी मॉर्क्स ने हीगेल की ‘द्वंद्वात्मक आदर्शवाद’ की दार्शनिक अवधारणा को किया था, जिस तरह सुकरात के बारे में कहा जाता है कि उसके सवाल अपनी दुनिया में जी रहे लोगों को असमंजस में डाल देते थे। वैसा ही कुछ काम ‘ अन्धा युग ’ भी करता है। वह जीवन की तर्कहीनता पर अपने प्रतितर्कों के जरिए एक विलक्षण नाटकीयता पैदा करता है।
भानु भारती उसे पुनर्गठित करने के क्रम में इस नातकीयता को दरकिनार करने का जोखिम लेते हैं। फिर वे एक बड़े मंच के फैलाव में विषय के तनाव को सतत बनाए रखने का मुश्किल काम चुनते हैं। अपनी प्रश्नाकुलता में निरंतर व्यग्र पाठ को वे हमारी समकालीन दुनिया के वास्तविक सवालों के परिप्रेक्ष्य में स्थिर करने की कोशिश करते हैं। इस क्रम में नाटक के अंतिम दो अंक प्रस्तुति में नाममात्र के हैं और आस्था के विवादित केन्द्र कृष्ण एक गौण पात्र।
भानु भारती किसी पारलौकिक संदर्भ से ज्यादा तवज्जो वस्तुजगत को देते हैं। वे मनुष्यता की त्रासदी में विडंबनाओं के रहस्य से ज्याद स्वार्थ के अन्धेपन से उपजी व्यक्ति की हिंसा और प्रतिहिंसा को रेखांकित करते हैं। व्यक्ति , जिसका इलहाम धृतराष्ट्र की तरह का है जिसे नहीं पता था कि वैयक्तिक सीमाओं के बाहर भी कोई सत्य हुआ करता है। तटस्थ दृष्टा संजय उनकी प्रस्तुति का केन्द्रीय किरदार है। लेकिन उसके चरित्र की अनाटकीयता मंच पर सबकुछ के बाद भी उसे बहुत प्रमुख नहीं बनने देती। इस भूमिका में जाकिर हुसैन अपने साफ़-सुथरे वाचिक के बाद भी दर्शकों का बहुत ध्यान नहीं खींच पाते हैं।
मंच और आसपास का परिवेश एक पूरी दुनिया बनाता है। मंच पर घटित हो रहे दृश्य धीरे-धीरे इस दुनिया का हिस्सा बनते जाते हैं। भीम के छल से युद्ध में पराजित दुर्योधन के शव को झाड़ी के पीछे कुछ पशु घसीट ले गए हैं। कृतवर्मा और कृपाचार्य उसे ढूँढ़ रहे हैं। पूरा दृश्य कुछ देर के लिए दर्शकों को एक स्तब्धता में डाल देता है। मानो सचमुच दुर्योधन वहाँ हो.., जिसे वहीं जाकर देखने की एक हठात उत्कंठा स्तब्धता के इस क्षण में कहीं से उठती है।
नाटक का अश्वत्थामा मंच पर शीद्दत के साथ दिखाई देता है। उसकी प्रतिहिंसा हो या गांधारी के संवादों की, लगता है भानु भारती अपनी प्रस्तुति में उनके चरित्रों के तनाव को एक ऊँचाई पर ले जाकर उनका या दर्शकों का भाव विरेचन करते हैं। हालाँकि गांधारी की भूमिका में उत्तरा बावकर के स्वर की तल्खी में उतार-चढ़ाव की किंचित कमी मालूम देती है। लेकिन कृष्ण द्वारा शाप को कबूल कर लिए जाने के बाद के विलाप में इसकी क्षतिपूर्ति करती हैं।
एक बड़े कैनवास पर और सामान्य से कहीं ज्यादा दूर घटित होते दृश्यों में आंगिक अभिनय वाचिक के सहयोग की कुछ जयादा दरकार रखता है। यहाँ ध्वनियाँ प्रोसिनियम से कुछ अलहदा प्रभाव लिए हैं। आधुनिक उपकरण उन्हें एक मेटेलिक रंगत दे देते हैं। धृतराष्ट्र की भूमिका में वरिष्ठ रंगकर्मी मोहन महर्षि स्वर का ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कर पाए हैं। लेकिन जाहिर है आलेख के संपादन में धृतराष्ट्र की भूमिमा कुछ सीमित हो गई है। प्रस्तुति के बड़े स्पेस में संगीत, कोरस, प्रकाश योजना आदि के जरिए निरंतर एक ऎसी गति बनी रहती है, जो देखने वाले को बहुत मोहलत नहीं देती। इसके लिए प्रकाश परिकल्पक आर.के. धींगरा और संगीत डिजाइन करने वाले नवनीत वधवा ने निश्चित ही काफी मेहनत की है।
अश्वत्थामा की भूमिका में टीकम जोशी एक अच्छी ऊर्जा के साथ प्रस्तुति में हैं। उनके अलावा विदुर की भूमिका में रवि खानविलकर, वृद्ध याचक बने रवि झांकल, कृपाचार्य बने गोविंद पान्डे, कृतवर्मा की भूमिका में दानिश इकबाल भी ठीक ठाक हैं। गोविन्द और दानिश ज्यादा नजदीक से दर्शकों को दिखते हैं, जबकि प्रहरी बने अमिताभ श्रीवास्तव और कुलदीप सरीन दूर दीवार पर हैं। यह बात उनकी उपस्थिति के प्रभाव पर एक निश्चित असर डालती है। मूल आलेख के युधिष्ठिर , बलराम और कृष्ण हंता व्याध के चरित्र संपादन की वजह से प्रस्तुति का हिस्सा नहीं बन सके हैं। इसके अलावा ‘प्रभु’ हूँ या परात्पर, पुत्र हूँ तुम्हारा, तुम माँ हो, जैसे संवाद में ओमपुरी का स्वर भी कुछ भारी लगता है।
साभारःजनसत्ता
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