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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

15 दिसंबर, 2012

ईश्वर का कारोबार और ओ माई गाड




फिल्म ऐसा माध्यम हैं जिसका प्रयोग करते हुए किसी मुद्दे पर बात की जा सकती है। उससे उस विषय को जन तक पहुंचाना भी आसान होता है। लेकिन इसमें भी कई तरह की फिल्में हैं। एक तो ऐसी फिल्म जिनको मुख्यधारा की कहते हैं। जिनका प्रचार और हल्ला खूब होता है। दूसरी समानांतर सिनेमा, फीचर फिल्मे, डाॅक्यूमेन्ट्री, कोई, किसी के जीवन पर बनी फिल्में, साहित्य की की विधाओं पर बनी फिल्में। फिल्मों का व्यापक प्रचार है। इंटरनेट और तकनीक ने उसके कार्यक्रम केा आसान और बहुप्रचारित बनाया है। जिससे उस पर किसी भी तरह का एकाधिकार भी खत्म हुआ है और नये विकल्प तैयार हुए हैं। जिनकी बहुत जरुरत हैं। किसी भी एक विचार की तरह एक विधा पर किसी का एकाधिकार उस विधा के लिए और समाज के लिए नया करने का रास्ता जटिल बनाता है। आज जिस तरह से तमाम तरह के मिथक टूट रहे और नया करने के नये-नये रास्ते तैयार हो रहे हैं उनका स्वागत होना चाहिए। यह चलचित्र विधा जिस तरह से समाज के बीच जाती है और उसके लिए नया करने का रास्ता बनाती है वह अनोखा है। यह सच है कि व्यवस्था के भीतर से ही व्यवस्था को खत्म करने का रास्ता भी तैयार होता है इसको तकनीक के बारे में भी देखा जाना चाहिए। तकनीक जब भी नया अवतार लेकर आती है अपने पीछे की तकनीक को सदा के लिए खाारिज कर देती है। यह उसका नियम है।

माई गाॅड जिस फिल्म का प्रचार खूब रहा है और जिसको पसंद भी किया जा रहा है। आखिर धर्म की आड़ में ईश्वर आता है और फिर वह समाज के दिमाग में अफीम की तरह उतरता है, समाज जब भी डरता है उसको याद करता है। उसको जगह-जगह स्थापित करता है और उसके लिए तामझाम खड़े करता है। यह फिल्म एक्अ आॅफ गाॅड के साथ ईश्वर के व्यापार को समझाने की कोशिश करती है। सामान्य आदमी को उसी के तर्क के साथ समझाती है।
कानजी लालजी मेहता मूर्ति खरीदने के लिए जिसकी यात्रा पर जाते हैं वहां गंगा जल में शराब मिलाकर पीलाते हैं और गंगा जल के मिथक को तोड़ते हैं। कानजी गुजराती व्यापारी है। भगवान की मूर्तियों का व्यापार करता है और ईश्वर को खारिज करता है। उसके लिए वह व्यापार है। वह आस्था के अंधों की काली कमाई को मूर्तियों के माध्यम से अर्जित करता है। ऐसे कहें जो लोग ईश्वर को सहभागी बनाकर लूटते है वह उनको उसी के नाम से ठगता है। उसकी पत्नी ईश्वर की पूजा करती हैं। उसके साथ काम करनेवाला भी ईश्वर के बगैर कोई काम नहीं करता।
एक दिन भूकंप आता है और उसकी दूकान गिर जाती है। सिर्फ उसी की दुकान गिरती है यह भी आश्चर्य की बात है। पर वह ईश्वर की मर्जी। दूकान का बीमा था तो जारि सी बात है परेशान होने की कोई बात ही नहीं थी। कानजी बैंक गया तो मैनेजर उससे बात करता है और उसकेा कागज दिखाता है। कानजी हां हां करता है। वह कहता है कि इस करार के अनुसार बैंक आपको पैसा नहीं दे सकता। यह एक्ट आॅफ गाॅड के अनुसार अगर कोई नुकसान जिसमें जान को कोई नुकसान हो और जो स्वतः ही होता है उसको भुगतान बैंक नहीं करेगा। यह ईश्वर का मामला है। कानजी कहता कि मैं तो उसको मानता भी नहीं। पर मैनेजर मना कर देता है। कानजी जाने से मना करता है तो उसको जबरन भगाया जाता है। वह झगड़ा कर लेता है और मैनेजर को मारता है। और कहता है यह एक्ट आॅफ गाॅड है। मैंने नहीं भगवान ने मारा है। जो भी तमाशा होना हो गया पर पैसों के बगैर कैसे काम चलना था। उसका तो कुछ करना ही होगा। इस एक्ट आॅफ गाॅड का कुछ करना ही था। कानजी क्या करता। उसके पास क्या था। एक मध्य वर्ग का आदमी जिसको अपने परिवार का पालन और सामाजिक संबंधों का निर्वाह करना था। उसके दिमाग में एक बात आई क्यों उस ईश्वर को कोर्ट में लाया जाए। उसने कान्हा पर गुलेल मारी और उसको चुनौती देने का निर्णय लिया।
कोर्ट पहुंचा तो बात बात में बात हुई और वकील को कहा कि भाई भगवान को नोटिस जारी करना है तो वहां कोई नहीं था। वह ऐसे वकील के पास गया जो इस तरह के काम करने के कारण अपने दोनों पांव गंवा चुका था। वह तैयार हो गया। क्योंकि उसके पास यह एक नहीं ऐसे लाखों मामले पहले ही पड़े थे। जिसमें गरीबों को इसी एक्ट के तहत बैंक ने पैसा देने से मना कर दिया था। वे लोग जिस तरह का जीवन जी रहे वह वे ही जानते हैं जो लोग उस एक्ट के नाम पर धंधा कर रहे हैं वे करोड़पति हैं। 
एडवोकेट हनीब कुरेशी इस कैस का लीगल नोटिस जारी करते हैं और स्वयं कानजी अपना कैस जस्टिफाई करते हैं। क्योंकि उनका कैस कोई वकील लड़ने को तैयार नहीं नोटिस कान्हा के तमाम मठों को जारी किया गया। मठी वकील से बात करते हैं उनका वकील कहता है कि यह कैस कोर्ट के स्वीकार ही नहीं होगा।
कोर्ट का तय दिन और कानजी महादेव के साथ कोर्ट में और बाबालोग अपने तामझाम के साथ वहां आता है। कैस शुरु होता है और कानजी और प्रतिपक्ष के वकील में बहस के साथ ही बाबा भी बीच में आते हैं। यह बहुत विचित्र है कि प्रतिपक्ष का वकील पहली ही बार में कैस को खारिज करने की बात करता है तब कानजी कहता है कि ठीक है मुझे इससे केाई मतलब नहीं है कि भगवान होता हे या नहीं मुझे तो बैंक मैनेजर ने कहा कि आपकी दुकान भगवान गिरायी तो मैं भगवान के पास आया। मेरे पैसे दे दो बात खत्म। कानजी इस दौरान भगवान के बारे में जितनी भी आस्थाएं हैं उन पर भी वार करता है। यह सिद्धेश्वर महाराज को को्रधित करने के लिए करता है और वह होता भी है। बस बात होती जाती है और कानजी इस दौरान मंदिरों का दान की गई राशि की रसीदे भी कोर्ट के सामने पेश करता है ताकि बात प्रामाणित हो पाए। इस तरह से कोर्ट की दलील के अनुसार मध्य वर्ग के एक परिवार के लिए एक करोड़ की राशि बहुत मायने रखती है और परिवार को चलाने की बात के साथ ही कैस स्वीकार हो जाता है। 
ऐसे कितने ही लोग है जिनका मामला एक्ट आॅफ गाॅड के कारण कोर्ट में अटका पड़ा है। वे लोग वकील हनीब कुरैशी के पास आते हैं और चाहते कि उनका कैस भी कोर्ट में फाइल किया जाए। इस तरह अगली तारीख में कोर्ट के पास एक्ट आॅफ गाॅड के चार सौं करोड़ के मामले आते हैं। फिर क्या था यह बहुत बड़ा मालला बनता जाता है। धर्म संस्थान और बैंकों के बीच समस्या बढ़ती जाी है कि ये पैसा कौन चुकाऐगा। पर जो लोग धर्म के नाम पर और जो लोग बैंक के द्वारा करोड़ों का कारोबार कर रहे हैं वे अगर किसी का बीमा करते हैं तो फिर यह एक्ट आॅफ गाॅड कहां से बीच में आता है। यह मामला असल में बहुत अजीब भी लगता है। कि यह कैसी व्यवस्था है जिसमें एक्ट आॅफ गाॅड के तहत कितने ही गरीब लोग मारे जाते हैं। 
अब इस केस का परिणाम तो आना ही था। वैसे कैस के कोर्ट स्वीकार होने के बाद कानजी रोड पर जाता है। उसका उसी दिन घर जाना मुश्किल हो जाता है। यहां फिल्म में एक तिलस्म रचा गया है। वह कानजी का आत्मविश्वास है या फिर कुछ और पर एक आदमी उसके जीवन में देवदूत की तरह आता है और उसके घर को खदीदता है और उसकेा वहां पनाह देता है। पनाह ही नहीं उसके मनोबल को भी बढ़ाता है। सवाल यह है कि जनता का विश्वास इतना कमजोर है कि वह हमेशा अपने लिए एक नेता की तलाश में रहती है जिसके कहने पर वह कुछ भी करती भी है। वह अपने विवेक पर भेरोसा नहीं कर सकती। उसके पास इतना विश्वास अभी भी पैदा नहीं हुआ है। यही है हमारा वैज्ञानिक विकास। यही है हमारी आधुनिकता। यही है हमारा डिक्लास होना, प्रगतिशील होना।
कानून दलिलों पर नहीं चलता। उसको प्रमाण की आवश्यकता होती है। कानजी का मामला यही आकर अटक जाता है। अब वह प्रमाण कहां से लाये कि उसकी दुकान भगवान ने गिरायी। यहां वह बहुत निराश और हताश हो जाता है। उसके हाथ से सब निकल जाता है। फिर क्या था उसको उसका तिलस्मी पुरुष कहता कि आप सभी धर्म के गं्रथों का अध्ययन करो। गीता,कुरान बाइबल। वहीं से रास्ता निकलनेवाला है। फिर क्या था लीलाधर महाराज, गोपीमईया और सिद्धेश्वर महाराज उसके दांवों को स्वीकार करते हैं और सभी धर्म गं्रथ यही कहते हैं कि इस धरती का निर्माण स्वयं भगवान,ईश्वर, अल्लाह,गाॅड ने किया और वही इसको बनाता है और वही इसको नष्ट करता है। अगर वह स्वयं कहता है तो फिर उसके ये कलेक्शन ऐजेंट इसको कैसे खारिज कर सकते हैं।
अब कोर्ट का नतीजा आना ही था कि कानजी बेहोश और अस्पताल में और वहां बाबा और उनके सांसद मिलकर डाॅक्टर से कहते कि इसको खत्म कर दो। और चार सौं करोड़ का भुगतान मंदिर करता है और कानजी को भगवान बनाते हैं और उसके नाम का मंदिर तैयार और वे बना गए वीआईपी भगवान। सब और यह प्रचारित कर दिया गया कि कानजी की यही अंतिम इच्छा थी और उनके नाम पर उनका मंदिर बना दिया जाए और महादेवेश्वर उसका कारोबार संभालेंगे। फिर क्या था यही तिलस्मी आता है और कानजी को अस्पताल से उठाकर अपनी जगह पर ले आता है जहां कानजी देखते हैं कि उनके नाम के मंदिर पुजारी और पुतले सब तैयार है। बस कार्यक्रम करने की देर है। कानजी को दंख सभी के चेहरे की दशा देखने लायक थी। जनता की भी। कानजी कहता कि आप महान है कि मूर्ख मेरी समझ नहीं आता। पंडि़तों को वहां से सम्मान विदा करात है। तब उसको लीलाधर महाराज कहते हैं कि ये लोग ईश्वर से पे्रम करनेवाले लोग नहीं है। ये लोग तो ईश्वर से डरते हैं इस कारण उससे पे्रम करते हैं। दे आर नाॅट गाॅड लविंग पीपुल,दे आॅर गाॅड फियरिंग पीपुल। 
यह धर्म जिसकी कहीं कोई जरुरत नहीं है वह डरे हुए लोगों का सहारा है। जिसके सहारे वे अपने जीवन और सपनों को साकार करते हैं। जिस आधुनिक समाज में हम रहते हैं वहां विज्ञान भी धर्म के पास जाता है।
फिल्म धर्म पर सवाल खड़े करती हैं और उसके आधार को प्रश्नांकित करती हैं। उससे आधार को जि तरह से वह सवालों के घेरे में खड़ा करती है वह यही बताता है कि धर्म का कारोबार करनेवाले लोग भगवान के नाम पर यह काम कर रहे हैं। बस सामान्य कारोबार और इस कारोबार में इतना ही फर्क हैं। फिर उसके नाम पर जिस तरह का आंतक और जातिवाद धर्म पैदा करता है वहां उसका भी एक चरित्र है। जिस तरह से व्यवस्था में वह लोग काबिज है वहां पर भी काबिज है। फिल्म इसको विमर्श का मुद्दा बनाती है। जो अनिवार्य है। जनता को यह खबर होनी चाहिए कि वह जितना पैसा धर्म के नाम पर देती है उसका क्या होता है। उसको इस बात की खबर होगी तभी जाकर वह वहां पैसा देना और माथा टेकना बंद करेगी। तभी धर्म का अंत होगा। बाकी धर्म के नाम पर कमानेवालों के कारोबार बढ़ते रहेंगे। इसके अलावा धर्म का प्रतिवाद नाम मात्र का रह जाएगा। फिल्म इस तथ्य को रेखांकित करती है कि किस तरह से ईश्वर को मूर्तियों में स्थापित कर उसके वास्तविक स्वरुप को खत्म किया गया दुनियां इतनी खूबसूरत है फिर ईश्वर मंदिरों में ही कैसे रहेगा। वह तो हर मनुष्य में है। उसकी तलाश भी वहीं होनी चाहिए। लोग ईश्वर से पे्रम भी तभी कर पायेंगे जब वे उसके भय से मुक्त होंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो ईश्वर का डर उनको इस तरह सताता रहेगा और ईश्वर के सौदागर इसी तरह फलते-फूलते रहेंगे।


कालू लाल कुलमी 
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
09595614315

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