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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 मई, 2019

कहानी 
एक्वेरियम, मछलियां और आदमखोर भीड़  
 रमेश शर्मा  

रमेश शर्मा 


माल के भीतर बड़े हाल के एक कोने में रखे एक्वेरियम के भीतर रंगीन मछलियों को तैरते हुए वह बहुत देर से देख रहा था । नारंगी ,पीली, सफ़ेद और काली मछलियों के जोड़े उसकी आँखों की पुतलियों पर नाचने लगे थे । उसने सोचा कि आखिर वे हमेशा कैसे गतिशील रह सकती हैं ? इस प्रश्न ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया था । हालांकि बचपन में विज्ञान की किसी किताब में उसने पढ़ा था कि मछलियाँ कभी सोती नहीं हैं । इस बात पर कभी उसने ध्यान नहीं दिया था, न कभी उसे परखने की कोशिश  की थी । आज इतने वर्षों बाद विज्ञान की किताब में पढ़ी वह बात मछलियों ने उसे याद करा दी थी । तथ्यों को परखने का एक अवसर दिया था कि सचमुच मछलियाँ थकती नहीं हैं , इसलिए शायद वे सोती भी नहीं ।उसे यूं ही मन में एक शरारत सूझी कि अगर मछलियों के लिए बिस्तर होता तो शायद आम इंसानों की तरह वे भी बिना वजह आलस में थकने का बहाना कर सोती रहतीं । फिर एकाएक उसे लगा कि मछलियाँ आदमी से ज्यादा ईमानदार और गतिशील होती हैं , कम से कम वे आदमियों की तरह आलसी और खुदगर्ज नहीं हो सकतीं । ग्राहकों के लिए बने लाउंज में बिजली की जगमगाहट के बीच वह घंटों बैठा रहा । एक्वेरियम में मछलियों को तैरते हुए देखना उसे न जाने क्यों अच्छा लग रहा था ।








“मछलियाँ एक छोटी सी जगह में भी आपस में बिना झगड़े प्रेम से रह सकती हैं !“ उन्हें देखकर यह खयाल उसके मन में आया कि काश यह दुनियां भी एक एक्वेरियम की तरह होती और हम सब उसमें मछलियों की तरह आपस में बिना झगड़े प्रेम से रह पाते । हिंसा के निर्वासन की कल्पना मात्र ने उसे कुछ देर के लिए शुकून से भर दिया था ।

इन दिनों शहर में बारिश ने जोर पकड़ा था । शाम की बारिश के साथ सावन के महीने में सड़कों पर भीड़ कुछ अधिक ही रहने लगी थी । भगवा वस्त्रों में कांवरिये जगह-जगह सडकों को घेर देते और ट्रेफिक जाम हो जाती । आज फिर माल के बाहर डीजे की धुन सुनकर एकाएक उसके भीतर दहशत सी फ़ैल गयी । सारा शुकून जाता रहा । कुछ दिनों से डीजे की धुन उसके मन में भय पैदा करने लगी थी । इसे सुनकर ही उसे लगने लगता कि शोहदों-लफंगों की एक उग्र भीड़ अब तब आने ही वाली है ।माल के बाहर डीजे की कर्कश धुन और जय श्रीराम , हर हर महादेव के नारों की गूँज तीव्रतम हो उठी थी । उसके भीतर ज्यो-ज्यों दहशत बढ़ने लगी पिछली घटनाएँ चलचित्र की भांति आँखों के सामने आकर फिर से उसकी आसपास की दुनियां को डराने लगीं ।
ढम्म ढम्म ढम्म....... ओलोलोलोलोलो....  ओलोलोलोलोलो....  ओलोलोलोलोलो........... हर हर महादेव... हर हर महादेव .........!

ढम्म ढम्म ढम्म....... ओलोलोलोलोलो...  ओलोलोलोलोलो..  ओलोलोलोलोलो........... हर हर महादेव... हर हर महादेव .........!  जय जय श्रीराम ... जय जय श्रीराम ... !

भीड़ की आवाज अब निकट से आने लगी थी
उसकी इच्छा हुई बाहर निकल कर देखे... पर उसकी हिम्मत जवाब दे गई । भगवे रंग की ऊंची-उंची ध्वजाएं और खुली हुई तलवारों को लहराती भीड़ उसकी आँखों के सामने तैर गई ।
कुछ देर के लिए मछलियों को देखना छोड़ उसने आँखें मूंद ली और कुर्सी पर वहीं उकडूँ बैठ गया । जब आँखें खोली तो कुछ भगवाधारी लफंगे माल के अंदर आकर खड़े दिखे उसे !
“क्यों महराज आज फिर किसी मुल्ले को निपटाना है क्या?“

“हाँ क्यों नहीं, क्यों नहीं! कोई मिल जाए ससुरा कटुआ तो दबोच लेंगे उसे भी  !“ बोलते हुए वे इतने सहज लग रहे थे जैसे कुछ भी कर लेने की उन्हें छूट मिली हो कहीं से ! वे सभी हो हो कर इस तरह हंसने लगे कि पूरा हाल उनकी डरावनी हँसी से गूँजने लगा ।

“और ओ .....! “ एक ने आँख मारते हुए इशारे से कहा तो बाकियों के चेहरों पर वासनामयी मुस्कान ऐसे तैर गयी जैसे भीड़ में कोई लड़की उनकी गिरफ्त में आ गई हो !
उनकी बातें सुन उसके भीतर का डर एकाएक बढ़ गया ।

“शुक्र है मैंने टोपी नहीं पहनी है ,  न मेरी दाढ़ी लम्बी है, नहीं तो आज ...... !“ यह सोचकर ही उसकी घिघ्घी बंध गई !  पड़ोस के पल्लू खां की खून से सनी हुई लाश उसकी आँखों के सामने झूल गई जिसे ऐसे ही गौ रक्षकों की आदमखोर भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला था । उस हत्यारी भीड़ का चेहरा जब भी उसे याद आता वह दहशत से भर उठता ! आज वह घर से निकला था तो अम्मी ने कहा था - “बेटा शाम होने के पहले घर लौट आना !“  उसके इस कथन में इस शहर में पसरा यही डर समाया हुआ था । उसे याद आया कि अगर वह घर जल्दी नहीं लौटा तो अम्मी डर से नाहक परेशान हो उठेगी । इसके बावजूद डर के मारे वह सड़क पर इसलिए नहीं निकलना चाहता था कि अभी वह भगवा भीड़ आसपास ही थी  और डीजे की धुन पर बेसुध होकर नाचने लगी थी ।

ढम्म ढम्म ढम्म....... ओलोलोलोलोलो...  ओलोलोलोलोलो...  ओलोलोलोलोलो...........
 हर हर महादेव... हर हर महादेव .........!
ढम्म ढम्म ढम्म....... ओलोलोलोलोलो...  ओलोलोलोलोलो...  ओलोलोलोलोलो...........
हर हर महादेव... हर हर महादेव .........!  जय जय श्रीराम ... जय जय श्रीराम ... !







अब यह शोर थोड़ी दूर से आ रही थी । कांवरियों का जत्था आगे बढ़ गया था । फिर भी उसके भीतर की  दहशत वहीं के वहीं बर्फ सी जमी हुई महसूस हुई उसे ! एक्वेरियम में मछलियाँ अब भी उसी गति से तैर रही थीं पर थोड़ी देर पहले जिस उत्साह से उन्हें वह देख रहा था वह उत्साह अब उसके भीतर नहीं बचा था । उस उत्साह पर दहशत की एक काली परत अचानक कहीं से आकर बिछ गई थी ।

अभी थोड़ी देर पहले जिस दुकान से वह लौट कर यहाँ आया था वहां के दृश्य भी उसे थका देने के लिए पर्याप्त थे । सारे दृश्य चलचित्र की भांति आँखों के सामने एक एक कर आने लगे । जड़ी-बूटी की दुकान से लौट कर उसके पाँव दुखने लगे थे । अक्सर ऐसा होता है ,जहां कोई जाना भी न चाहे वहां भी कभी-कभार उसे जाना ही पड़ जाता है । उसके साथ भी आज यही हुआ था । आज वह पत्नी की एक दवाई बनाने के सिलसिले में शहर के एक मात्र जड़ी-बूटी की दुकान पर जड़ी-बूटी लेने आया था । जब वह वहां पंहुचा तो शाम के यही कोई साढ़े चार पौने पांच बज रहे थे । एक मरियल सा नौकर कोने में जड़ी-बूटियों का ढेर लगाए उन्हें साफ़ करता हुआ दिख गया था । सेठ जिसके चेहरे पर कर्कशता बह रही थी और जो दिखने में गोरा और टकला था, अपने चेंबर के सामने रखी गद्देदार कुर्सी पर विराजमान था । उसके माथे पर गेरूवा सिंदूर का एक लंबा सा टीका डग से दिख रहा था । टीवी जिसका स्क्रीन सेठ की तरफ था और ग्राहक  चाहकर भी जिसे देख नहीं सकता था, उस वक्त उसका वॉल्यूम बहुत तेज था ।  किसी मीडिया चेनल पर मोब लिंचिंग को लेकर कोई राजनीतिक बहस चल रही थी  । चेनल का एंकर गला फाड़े जा रहा था जिसे सुनकर उसके कान अचानक दुखने लगे थे ।

“गौ हत्या महापाप है, गौ हत्या महापाप है ! भीड़ ने जो कुछ किया गायों को बचाने के लिए किया !“-एक पार्टी का प्रवक्ता गला फाड़कर गौ रक्षकों के समर्थन में जब तर्क दे रहा था तो सेठ ने टीवी का वॉल्यूम थोड़ा और तेज कर दिया । उसका कर्कश चेहरा अचानक खिल उठा था । कुछ देर के लिए उसकी नजरें टीवी के पर्दे पर ठहर सी गयीं थीं और वह भीतर से मुस्करा उठा था । सेठ की यह मुस्कराहट भी उसे उसी आदमखोर भीड़ का हिस्सा लगी ।

सेठ के सामने अखबार के पन्ने के एक चैंथाई टुकड़े पर दो समोसे रखे हुए दिख रहे थे जो शायद अभी-अभी अगल-बगल के किसी ठेले से मंगाए गए थे । वह जैसे ही पहुंचा, उसके हाथ से सेठ ने पर्ची लपक ली मानों उसे उसकी पर्ची का ही इन्तजार था ।  “चार सौ छप्पन रूपये !“-पर्ची देख हिसाब-किताब लगाकर सेठ ने पहले सामानों की कीमत उसे बता दी । सामान देने के पहले ही कीमत बताना थोड़ा उसे जंचा नहीं , फिर वह सोचने लगा शायद कुछ लोगों के पास पैसे कम पड़ गए हों कभी, इसलिए सेठ ग्राहकों को सामान निकालने से पहले ही सचेत कर रहा हो कि पैसे हैं अगर तो रूको अन्यथा चलते बनो । उसने जैसे ही हामी भरी सेठ ने मरियल नौकर को आवाज दी -“ अरे सुन बे ! ये ले पर्ची और फ़टाफ़ट सामान निकाल !“

नौकर सचमुच भूखा और थका हुआ लग रहा था । वह धीरे-धीरे सामान निकालने लगा । इस बीच सेठ समोसे खाने लगा । समोसे खत्म हुए तो फिर उसने सिगरेट सुलगा ली । समोसे खाने के बाद सेठ को सिगरेट पीता देख उसे थोड़ा अटपटा लगा ।

“ हरामखोर, नालायक तेरे को हर चीज को समझाना पड़ता है साले !“ -सिगरेट के कश खींचता हुआ सेठ ने सामान निकालते नौकर पर गालियों की झड़ी लगा दी ! नौकर बिलकुल चुप था , भावशून्य ! उसे लगा जैसे रोज गालियाँ सुन-सुनकर इन बातों का वह आदी हो चुका है । आदी न भी हुआ हो तो आखिर वह कर भी क्या सकता है । शायद इसलिए सेठ की बातों का उस पर कुछ असर होता हुआ नहीं दिख रहा था और एक तरह से यही उसका मूक प्रतिकार था । किसी तरह उसने धीरे-धीरे सारा सामान निकाल कर सेठ के सामने रख दिया जिसे सेठ एक पन्नी में भरकर स्टेपल करने लगा । सामान के पैसे उसने चुकाए । टीवी पर चल रही बेतुकी बहस अब भी जारी थी । बहस में सेठ को इतनी दिलचस्पी थी कि उसने उसके  वॉल्यूम को अब थोड़ा और तेज कर दिया था । उसने अनुमान लगाया कि यह सेठ बहरा तो है ही , साथ ही साथ एक हिंसक विचारधारा को संचालित करने वालों का पैरोकार भी ! यह जानकर उसे थोड़ी कोफ़्त हुई, पर यहाँ से निकल भागने के सिवा वह कर भी क्या सकता था आखिर !

रंगीन मछलियों की उछल कूद देखते हुए वह इस माल के भीतर काफी वक्त गुजार चुका था । अपने  जीवन के समय का बड़ा हिस्सा ऐसी ही शुकून भरी जगहों में अब तक उसने बिताने की कोशिश करी थी । जहाँ कहीं उसे शुकून मिलता उसका मन वहीं बैठने को करता । धीरे-धीरे वह महसूसने लगा था कि ऎसी जगहें दुनियां में लगातार सिकुड़ती चली जा रही हैं । यह सिकुड़न इतना तीव्रतम था कि इन जगहों के अस्तित्व को लेकर ही अब उसके मन में शंकाएं पैदा होने लगीं थीं ।



“कभी श्मशान में रात बिताकर देख मेरे संग, कितना शुकून मिलेगा!“ उस माल के भीतर से निकलते निकलते उसे उसके एक दोस्त की बात याद हो आई जो डोम था और एक श्मशान में लाशों को जलाने की नौकरी किया करता था ।

“तुझे डर नहीं लगता लाशों से ?“ उसने उससे पूछा था
“ मर चुके लोग भी भला क्या नुकसान पहुंचाते हैं ? अब तो ज़िंदा लोगों से अधिक डर लगता है मुझे !“ बहुत सीरियसली जवाब दिया था उसने  |

कब्रिस्तान ,श्मशान जैसी जगहों पर जाने में उसे हमेशा डर लगता । बचपन से वह सुनते आ रहा था कि वहां भूत-पिशाच, जिन्न रहते हैं जो जिन्दा आदमी को डराते हैं और फिर आदमी डर से मर जाता है । उसे अब भी उसके दोस्त की बातें बेतुकी लगती रहीं थीं । उसे लगता था कि दुनियां में शुकून भरी जगहें कभी खत्म नहीं होंगी । पर अब धीरे धीरे उसे महसूस होने लगा था कि मोब लिंचिंग और हिंसा की खबरों के साथ उसके दोस्त की बातें अपनी अर्थवत्ता ग्रहण करने लगी हैं । सत्ता की जमीन पर खड़े लोग अब इतने स्वार्थी और निष्ठुर हो चले हैं कि इस धरती की सारी जगहों को ही उन्होंने नरक बनाना शुरू कर दिया है । भूत-पिशाच और जिन्नों की ज़िंदा आदमखोर टोली जगह-जगह धरती पर घूम-घूम कर लोगों का खून पी रही है । घर लौटते हुए डर और दहशत के बीच मछलियाँ अब भी उसे याद आती रहीं ।

रात हो चुकी थी । घर लौटा तो वहां भी उसे शुकून नहीं मिला ।
“अरे अब तक तू कहाँ रह गया था“ -अम्मी बुरी तरह डरी सहमी हुई मिली उसे ।
डर के मारे घर के एक कोने में पड़े-पड़े वह किसी निर्जीव वस्तु में अचानक तब्दील होने लगा । जगहों के सिकुड़ने की इस यात्रा में श्मशान अब उसे सबसे शुकून भरी जगह लगने लगी ।

“श्मशान इसलिए सुरक्षित जगह है क्योंकि बिना वजह वहां कोई जाना ही नहीं चाहता । वहां कोई आदमखोर भीड़ जमा नहीं होती कभी, मुर्दों से क्या काम, उन्हें तो ज़िंदा लोगों का ताजा खून पीने में मजा आता है । “ दोस्त की यह बात फिर उसे याद हो आयी
उसके भीतर यह इच्छा जन्म लेने लगी कि दोस्त के आमंत्रण पर किसी दिन वह वहां जाए और फिर कभी न लौटे !

“पर क्या यह संभव है? लौटने की इच्छा तो उसकी नियति है ! उसके पीछे उसका घर है ,घर में अम्मी है , बेटी है , आखिर कौन संभालेगा उसके बाद उन्हें ? पर किसी दिन इस भीड़ के हत्थे सचमुच चढ़ गया वह तो ? तब भी तो यही हालात पैदा होंगे ! घर रेत की तरह फिसल जाएगा उसके हाथों से  !“ सारी रात इसी द्वन्द के समुद्र में वह डूबता-उतरता रहा ! आसमान में बिजली की कड़कड़ाहटों के बीच सावन की बारिश थोड़ी और तेज हो गई थी । बिजली चली जाने से अन्धेरा डरावना लग रहा था । उस रात उसकी आँखों से नींद दूर और दूर होती चली गई थी  !
उसे लगा एक भीड़ निरंतर उसका पीछा कर रही है जिसके हाथों एक दिन वह मारा जाएगा ।
 फिर बेटी का चेहरा अचानक उसकी आंखों के सामने आकर तैरने लगा।
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रमेश शर्मा की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/blog-post_49.html?m=1


92, श्रीकुंज, बोईरदादर, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)496001
मोबाइल नम्बर 9644946902, 9752685148

2 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन टीम और मेरी ओर से आप सब को विश्व हास्य दिवस की हार्दिक मंगलकामनाएँ !!

    ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 05/05/2019 की बुलेटिन, " विश्व हास्य दिवस की हार्दिक शुभकामनायें - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. समसामयिक परिवेश को ईमानदारी से बयां करती कहानी।

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