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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 जून, 2020

प्रेम रंजन अनिमेष की कविताएँ

प्रेम रंजन अनिमेष



           जन पद यात्रा

               ( पैदल पैदल निकल पड़े मजदूरों की अकथ कथायें ) 


                (1)

कैसा देश                         
                         
पैरों से अपने 
नापते जैसे
पूरा देश
अवतार नहीं 
वामन जन हैं वे 
आज के

रस्ते में 
जो भी पूछे 
कहते उससे
देस जा रहे...

जान कर 
सुकून पाती
लोकसत्ता 

कि इस देश में ही 
वह देस कहीं 
मानते जिसे वे
अब भी अपना...!

                  
                  
                  (2)
सविनय अवज्ञा
                         
ऐसे ही नहीं 
निकल पड़े सड़कों पर 
नंगे पाँव 
राजाज्ञा निषेधाज्ञा का 
उल्लंघन कर हुजूर 

ताली थाली बजा कर 
दिये दिखा कर 
राह देख कर भरसक 
राहें खुलने की
जीने की सूरत कोई निकलने की 

सोन्हाये पेट पर 
बाँध कर पत्थर 
भूखे बच्चों को 
खाली पानी पिला सुला
अपने को अकेले में 
बहुत रुला बहला
फिर चले आखिर 

कि राह आने वाले कल को
दिखला सकें 
इस मिट्टी को
अपनी मिट्टी तक 
पहुँचा सकें 

यहाँ शहर में तो
वह भी 
दब गयी 
जाने 
कितनी तहों के नीचे 

इकबाल बुलंद हो आपका
फिर भी अगर लगता
कि दोषी हम ही

तो है निहोरा 
कि बेशक लटका दीजिये 
हमें हमारी हवा में 

हमारी मिट्टी में 
मिला दीजिये...

                                                                                                                   
(3)
गाँव में घर 

सबसे सुरक्षित है 
इस समय  
घर

पूर्णबंदी घोषित करते
गूँजा पंतप्रधान का स्वर

सुन कर 
जान हथेली पर लिये 
जीवन की पूँजी उठाये 
सिर पर 
शहरों से निकल पड़े 
मेहनतकश मजदूर
कड़े कोसों दूर 
अपने जड़ों की ओर 

अब घर 
वहाँ भी 
हैं या नहीं 
यह तो पता चलेगा 
गाँव  पहुँच कर...


                                                                 
(4)
अपनी तरफ से 

जलते तपते रास्तों पर 
चले जा रहे थे
पथहारे बेचारे 
खाली पाँव
बस एक आस की डोर पकड़े
अपने छिलते छालों पर 

कवियों ने उन पर 
खूब लिखीं कवितायें 
हृदयविदारक 

पत्रकारों ने 
लोमहर्षक चित्र प्रस्तुत किये
इस घटना के 

विपक्ष ने की आलोचना 
आड़े हाथों लिया 
दृष्टिहीन हो गयी है सत्ता 
नहीं उसे दिखता 
दुसह दुख लोगों का

सबने अपनी तरफ से 
पूरी कोशिश की 
कि कोई तो कुछ करे
उनके लिए

क्योंकि खुद वे
कुछ कर नहीं पा रहे थे...


                                                                
(5)
होड़
  
ऊबड़ खाबड़ 
जलती तपती 
पथरीली राहों पर 
चले जा रहे थे बेबस कितने 
पैदल पैदल 

कविगण कब रहने वाले पीछे
वे तो चलते आगे आगे 
कोई न हो ले उनसे पहले 
कलम तोड़ कर रख दी फौरन

ठंडी आहें भरते 
अपनी सपाटबयानी में 
लिख डालीं लंबी गद्यकथायें 
आग उगलती 
हवा बाँधती

                                                         
खबरदार खबरी
पूरी तत्परता से 
यह रहे दिखाते 
कि दिखलाने में 
वे ही सबसे पहले सबसे आगे

प्रतिपक्षियों ने कहा
शुरू से कहे जा रहे हम तो
यह सरकार दूर जन मन से
लोगों की पीड़ा से 
इसको क्या लेना देना है 

इस तरह हर एक ने 
बयान अपना दिया
योगदान अपना किया 

होड़ जैसे इस बात की थी 
फैसला यह था करना 

कि किसका मजाक 
सबसे बड़ा 
सबसे संजीदा

काल का
कुदरत का 
या खुद इनसान का...?


                                                  
(6)
पीर पराई 
  
थे रास्ते निषिद्ध 
द्वार अवरूद्ध   
मगर पुकार मिट्टी  की 

निकल पड़े इसलिए 
पैदल पैदल ही वे
जिन्हें कहीं था दिया गया 
घर न रास्ता 

                                                         
पगडंडी या पटरी पकड़े
गाँव खेत जंगल जंगल  
बेबस व्याकुल विह्वल 

इस उम्मीद  में 
कि शायद आखिर
पहुँच सकें फिर 
कभी जहाँ से चले

सुन इस बारे में जागी
कवि की कविताई
लिख लिख इतनी 
धूम मचाई

तालाबंदी के चलते 
वातानुकूल भवनों से अपने 
प्रस्तुतकर्ता खबरनवीस जो
थे सजीव 
जम कर गरजे बरसे

पहले से टूटे
विपक्ष के 
नेतागण भी 
अवसर पाकर 
टूट पड़े फिर 
सत्ता को क्या क्या कहते 
उसकी ऐसी तैसी करते

काश 
कि इसके बदले 
कवि नेता और पत्रकार ये
ऐसा करते

कुछ पग कुछ पल 
उनके संग चलते 
उनके संग जलते

तब शायद वह पीड़ा सच्ची
तनिक समझ में आती 

अभी परे 
जो बहुत परे उनसे... 


                                                            
(7)
पक्ष प्रतिपक्ष

सरकार गलत थी 
विपक्ष बिलकुल सही 

जैसा कि हमेशा ही 

कि उसके सुनियोजित प्रायोजित 
अब तक जब तब किये 
किसी बंद से
सीखा नहीं कुछ भी सरकार ने 
और बिना किसी तैयारी के 
आनन फानन अफरातफरी में 

घोषित कर दी 
यह देशव्यापी 
तालाबंदी...


                                                       
(8)
सोच समझ 
  
रास्ते खुले 
पर उन पर चलने 
कहीं बाहर निकलने की 
पाबंदी 

ऐसा तो कर सकती
सिर्फ सियासत ही 

क्या यह महामारी भी कहीं 
राजनीति 
महाराजनीति  ?

स्वजन्मा स्वयंभू विषाणु नहीं कोई 
बल्कि सोची समझी नासमझी
सर्वथा अनैतिक 
रणनैतिक चाल किसी की
विश्व बिसात पर विश्व विजय की...?
                                                                

                                                       
(9) 
बंदी  

उस दिन ऐसा हुआ 
कि सूरज निकला ही नहीं सुबह 
न चाँद चमका रात 

हवा ठहरी रही
नदी न बही

न कहीं धूप रोशनी 
न आग ही चूल्हे में 
पेड़ पौधे भी शीश झुकाये 

खुफिया विभाग ने दी सूचना
फिर हाथ जोड़े आये राजा
की प्रार्थना 

आपके लिए कहाँ 
आदेश यह देशबंदी का
यह पूरी पृथ्वी 
अछोर आकाश समूची आकाशगंगा
सारा संसार आवास आपका 

घर में रहें
सुरक्षित रहें

और हमें भी रखें...

                                                                

(10)
सर्वप्रिय संवेदनशील सरकार

जो जानवर 
जीते खाते 
रोज कर शिकार 
वे भी तो होंगे बेचैन बेजार
निकले न हों अगर 
बिलों खोहों झुरमुटों से अपने
भीरू आदेशपालक जीव
                                                         
सरकार 
इस बात पर 
गंभीरता से कर रही विचार
कि उनके गुफा द्वार 
भेज दिया जाये आहार 

या फिर आज्ञाकारी 
शाकाहारी 
वनवासियों से कहा जाये
कि अब धीरे धीरे 
निकलें घर से

और बंदी में 
आंशिक छूट दी जाये इसके लिए... 


                                                              
(11)
इकबालिया बयान

सही कह रहे महामहिम 
इतने कड़े कोस हम 
नंगे पाँव नहीं चले 
थोड़ी दूर बाद हमने 
अपने छालों के चमरौंधे 
पहन लिये 

बजा फरमाते हुजूर 
इतनी दूर पैदल 
कैसे कोई जा सकता

पाँच थके जब 
चले राह में 
कुहनी के बल
छाती के बल
पेट के बल 

शक जायज है साहब
सीधे सादे मेहनतकश 
इतना बड़ा फैसला 
ले सकते कहाँ 
किसी के उकसाये बिना 
                                                         
हाँ हमें उकसाया
हमारी अनाहत आत्मा ने
हमारी हिम्मत ने
दिया नहीं हारने

चलते चले
कि सच की तरह तपते 
सख्त रास्तों पर 
जायें टूट बिखर

या फिर मिले आखिर
आँखों में झिलमिलाते 
सपने सा घर...
                                                               


(12)
बुलावा
(गाँव लौट गये मजदूरों को हवाई टिकट देकर बुलाया जा रहा है : एक ख़बर )

भेज दिये गये 
पाँव पैदल ही वे

कि जो रास्ते में 
काम नहीं आये 
सूखे पत्तों से
भटके नहीं हवाओं में
जंगलों से गुजरते 
शिकार होने से बच गये

घर की देहरी तक आते 
अगर नहीं भहराये
गाँव की मिट्टी में 
मिल नहीं  पाये

दहकती आग से
उठ आये
आखिरी मंजिल पर ठिठके
ठकमकाये 

तो फिर काम पड़े
बुलाये जायेंगे
आसमान से

जैसे किसी नयी दुनिया 
नये जन्म में...!                                                                 

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                                                           संक्षिप्त परिचय 

     प्रेम रंजन अनिमेष

  • जन्म   :  आरा (भोजपुर, बिहार)
  • शिक्षा : विद्यालय स्तर तक आरा में, तदुपरांत पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी भाषा साहित्य में स्नातकोत्तर 
  • स्थायी आवास: 'जिजीविषा', राम-रमा कुंज, प्रो. रमाकांत प्रसाद सिंह स्मृति वीथि, विवेक विहार, हनुमाननगर, पटना 800020 
  • बचपन से ही साहित्य व संगीत से जुड़ाव । सभी विधाओं में लेखन ।  
  • प्रकाशित कविता संग्रह : मिट्टी के फल,  कोई नया समाचार,  संगत,  अँधेरे में अंताक्षरी, बिना मुँडेर की छत
  • आने वाले संग्रह : कुछ पत्र कुछ प्रमाणपत्र, प्रश्नकाल शून्यकाल, अवगुण सूत्र, नींद में नाचमाँ के साथ 
  • ईबुक :  'अच्छे आदमी की कवितायें' एवं 'अमराई' ईपुस्तक के रूप में वेब पर
  • अनेक लम्बी कविता शृंखलाएँ चर्चित
  • कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार ।
  • कई कहानियाँ भी प्रकाशित पुरस्कृत
  • कहानी संग्रह 'लड़की जिसे रोना नहीं आता था', 'एक मधुर सपना' , 'एक स्वप्निल प्रेमकथा', 'पानी पानी' तथा 'माई रे...एवं  उपन्यास 'स्त्रीगाथा', ' परदे की दुनिया', 'नौशीन', 'दि हिंदी टीचर' तथा 'द एविडेंस' प्रकाश्य  
  • बच्चों के लिए कविता संग्रह 'माँ का जन्मदिन' प्रकाशित । 'आसमान का सपना', 'मीठी नदी का पानी', 'कुछ दाने कुछ तिनके', 'कच्ची अमियाँ पकी निंबोलियाँ' तथा और भी बाल पुस्तकें प्रकाश्य ।
  • संस्मरण : 'अगली दुनिया की पहली खबर' तथा 'कुछ दिन और'
  • गीत संग्रह 'हमारे समय के लिए कुछ गीत' एवं 'नयी गीतांजलि' और ग़ज़ल संग्रह 'पहला मौसम', 'धानी सा', 'बातें बड़ी छोटी बहर','कोई अपना सा', 'तो इश्क़ मस्ताने', पत्थरों के पड़ोस में' एवं 'देर तक और दूर तक'  आने वाले
  • आलोचनात्मक लेखन : 'चौथाई'  एवं  'ऊँचा सोचना'
  • नाटक : 'प्रथम पुरुष मध्यम पुरुष अन्य पुरुष'
  • प्रतिष्ठित कवि अरुण कमल की प्रतिनिधि कविताओं का सम्पादन
  • विलियम कार्लोस विलियम्स एवं  सीमस हीनी की कविताओं का अनुवाद 
  • कई रचनाओं को स्वरबद्ध किया है । अलबम 'माँओं की खोई लोरियाँ' और 'धानी सा' में अल्फ़ाज़ के साथ तर्ज़ और आवाज़ भी अपनी । एक और अलबम 'एक सौग़ात'
  • ब्लॉग : 'अखराई(akhraai.blogspot.in) तथा 'बचपना' (bachpna.blogspot.in)
  • संपर्क: एस 3/226, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई 400063 ईमेल : premranjananimesh@gmail.com दूरभाष : 9930453711

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