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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 अगस्त, 2020

लोक भाषाओं के साहित्य में इंकलाबी स्वर - (२)

 

सतीश छिम्पा


                                               

इंकलाबी स्वर की पड़ताल करेंगे तो हमें इस बाबत भी सावचेत रहना चाहिए कि यह अध्ययन बिंदु बहुत गहराई का है। सघन। मुश्किल भी जिसको हम किसी स्टेटमेंट की तरह नही दे पाएंगे। बहुत गहराई तक जाना होगा। अध्ययन बिना इस काम को करना तो दूर की बात है, सोचा भी नही जाता है। आपके बहुत गहरे अनुभव और लौकिक सरोकार और विजन और प्रचूर अध्ययन के कारण ही चीजें स्पष्ट होती है। इंकलाब का मतलब क्रांति या कहें महान उलट फेर जो जीवन, समय और विचारों के द्वंद्वात्मकता के प्रति ज्यादा सजग रहती है। मार्क्सवाद की समझ, आधार और मार्क्सवादी क्लासिक्स के साथ ही साथ क्रांतियां और उनके  इतिहास को जानना जरूरी हो जाता है। इसी क्रम में फिर हमें यह भी जानना पढ़ना होगा कि मार्क्सवाद के मायने क्या है- मतलब क्रांतिकारी, मध्यम मार्गी या संशोधनवादी - के बीच का अंतर और विरोध या असहमति के पक्ष आदि सभी मूल मुद्दे और  वाद और विवाद और देशकाल आदि इस अध्ययन के बीच आएंगे। स्थितियां, सौंदर्यशास्त्र, भाषा शास्त्र, भाषाई युगबोध... हम गहरे से गहरे में उतरेंगे और एक विस्तृत मूल्यांकन की कोशिश रहेगी

 

विश्व सर्वहाराओं के महान शिक्षक मार्क्स ने जिस विचार और विचारधारा को जमीन थी- बौद्धिकों के बीच बहस के लिए क्योंकि वैज्ञानिक विचारधाराओं का भीतरी द्वन्द्व विकास की जमीन बनाता है, विकास मानव चेतना और पदार्थ की प्रकृति के लिए.... भले ही इसका पहला प्रयोग असफल प्रयोग रहा हो, मगर वो महान मानव के निर्माण का एक महाकाव्यात्मक महान जीवन पद्धति का युगान्तकारी प्रयास था। 18 मार्च 1871 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में पहली बार विश्व मेहनतकशों के प्रतिनिधित्व के रूप में मज़दूरों ने पेरिस कम्यून या कहें क्रांति के मार्फ़त ही सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना की थी। इसे पेरिस कम्यून कहा गया। उन्होंने पूंजीवादी साम्राज्यवादी शोषक धड़ों की फैलायी इस सोच को ध्वस्त कर दिया कि मज़दूर शासन नहीं चला सकते। पेरिस के मज़दूरों ने प्रतिबद्धता और अतिमानवीय साहस के साथ यहां मज़दूरों ने न सिर्फ़ पूँजीवादी हुक़ूमत की अस्तित्व को रौंद डाला बल्कि सत्ता को उलटकर अभिमान को भी  तोड़ डाला.... बल्कि 72 दिनों के शासन के दौरान आने वाले दिनों का एक छोटा-सा मॉडल भी दुनिया के सामने पेश कर दिया कि समाजवादी समाज में भेदभाव, ग़ैर-बराबरी और शोषण को किस तरह ख़त्म किया जायेगा। 

 

भविष्य में महान लेनिन के नेतृत्व में सन 1917 की बोल्शेविक अक्टूबर क्रान्ति ने इसी कड़ी को आगे बढ़ाया।

 

श्रमिक वर्ग के इस साहसिक कारनामे से फ्रांस ही नहीं, दुनियाभर के सामंती और बर्बर अमानवीयता के स्रोत  पूँजीपतियों के कलेजे काँप उठे। उन्होंने मज़दूरों के इस पहले मुक्ति प्रयास का बर्बरता से दमन करके उज्जवन विचारो का गला घोंट देने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया और आख़िरकार मज़दूरों के कम्यून को उन्होंने मजदूर, भिखक़री, वेश्याओं छात्रों आदि के ख़ून की नदियों में डुबो दिया। लेकिन कम्यून के सिद्धान्त अमर हो गये। 

 

पेरिस कम्यून की हार से भी दुनिया के मज़दूर वर्ग ने बेशक़ीमती सबक़ सीखे। पेरिस के मज़दूरों की कुर्बानी मज़दूर वर्ग को याद दिलाती रहती है कि पूँजीवाद को मटियामेट किये बिना उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। पेरिस कम्यून के दावानल का ही असर था अमेरिका के शिकागो की हे' मार्किट की महान शहादत और मई दिवस की शुरुआत जिसमे आठ घन्टे काम, आठ घण्टे आराम और आठ घंटे मनोरंजन का ना केवल नारा लगाया गया था बल्कि उसको व्यवहार में ढालकर प्रतिरोध की संस्कृति की भी स्थापना की थी। यह धरती का पहला महान वर्ग टकराव था- जिसकी परिणित में आगे अक्टूबर क्रांति रूप लेती है। अक्टूबर क्रांति, एक ऐसा समय जब यूरोप बारूद के ढेर पर बैठा था। कोई छोटी सी चिंगारी भी बर्बरता से बर्बाद कर सकती थी जबकि दो बार हुए बाल्कन युद्ध (1911 और 1912 ई.) तो पूरी की पूरी कब्र तैयार कर चुके थे- जिसका बर्बर रूप में फल भी मिला।

 

प्रथम विश्वयुद्ध के लिए तत्कालीन हर एक सामाजिक सांस्कृतिक राजनीतिक लौकिक व्यवस्थाएं -कम उत्तरदाई नहीं था। प्रत्येक देश के बौद्धिक अवसरवादी, राजनीतिज्ञ दार्शनिक और लेखक अपने लेखों में युद्ध की वकालत कर रहे थे। पूंजीपति वर्ग का मुनाफा हो रहा हो और उसकी शर्त धरती के तमाम मानव समूहों का जीनोसाइड हो तो भी वह अपने स्वार्थ के लिए तबाह करके रख देगा संपूर्ण धरती को... जबकि आज हर एक देश की व्यवस्था में पैठा हुआ है ये वहशी जमात पूंजीवाद, उस समय में हर एक धड़ा युद्ध का समर्थक बन गया फ़ासिस्ट राष्ट्रवाद के हक में जनमत तैयार करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका समाचार पत्रों की थी।  प्रत्येक देश का समाचार पत्र दूसरे राष्ट्र के विरोध में झूठा और भड़काऊ लेख प्रकाशित करता था। इससे विभिन्न राष्ट्रों एवं वहां की जनता में कटुता उत्पन्न हुई. समाचार पत्रों के झूठे प्रचार ने यूरोप का वातावरण विषाक्त कर युद्ध को अवश्यंभावी बना दिया। पहले बर्बर संसार युद्ध का कारण भी जो बना वो ऑस्ट्रिया के प्रिंस आर्क ड्यूक फ्रांसिसके फर्डिनेंड की बोस्निया की राजधानी सेराजेवो में हुई हत्या बनी और हो गई शुरुआत बर्बरता की। इसी के चलते दूसरे संसार युद्ध की रूप रेखा बना दी गई थी। जिसमे पूंजीवाद, फ़ासिस्ट धड़ों पर अंतिम विजय हिटलर की कायरता जनित मृत्यु के बाद स्तालिन के नेतृत्व में बोल्शेविक बहादुरों को हासिल हुई।

 

यहां से हमे सीधा सन 1953 ई. जब महान स्तालिन की मौत हुई तक जाना होगा ताकि संशोधनवादी धड़ों बाबत भी जाना जा सके कि प्रदूषित विचार और मार्क्सवाद में क्या फर्क है। भारत के संशोधनवादी धड़े आज तक ख्रुश्चेव के इस संशोधन और बदलाव को सही ठहराते हुए इसको लगातार ढोए जा रहे हैं। सही पॉलिटिक्स का दर्जा दिए चल रहे हैं। यह किताब महान लेनिन और स्तालिन और क्रांति के बारे में ख्रुश्चेव गिरोह द्वारा फैलाई गई हर एक गलत धारणाओं से बचा लेती है। एक बहुत खतरनाक और बड़ी साजिश को आधार देकर मजबूत बनाने वाले ख्रुश्चेवी झूठ और उसके वंशजों से  बचना जरूरी है।

 

ग्रोवर फर की खोज और अध्ययन के पश्चात लिखी गई किताब 'ख्रुश्चेव लाइड' जिसका अनुवाद 'ख्रुश्चेव झूठा था' नाम से है... इसमें उन्होने सोवियत संघ की कम्यूनिस्ट  की 25 फरवरी, 1956 को हुई 20 वीं पार्टी कांग्रेस में निकिता ख्रुश्चेव द्वारा स्टालिन और बेरिया के अपराधों के बारे में दी गई कुख्यात 'सिक्रेट स्पीच' के तमाम रहस्योद्घाटनों को झूठा प्रमाणित करते हुए साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं। इस सिक्रेट स्पीच में निकिता ख्रुश्चेव ने जोसेफ स्तालिन पर बहुत सारे अपराधों के आरोप लगाए थे। ख्रुश्चेव का भाषण विश्वभर के कम्यूनिस्ट आंदोलन के लिए गहरा आघात था जिससे वह कभी नहीं उभर पाया। इसने इतिहास का रूख ही बदल दिया। सोवियत संघ के विघटन के बाद सोवियत अभिलेखागार में अभी तक गुप्त रखे गए दस्तावेजों के प्रकाशित होने पर ग्रोवर फर ने एक दशक तक इनका अध्ययन किया।

 

आरोप देखिए :-

स्तालिन ने उन नेताओं को "नैतिक एवं शारिरिक रुप से खत्म" कर दिया जिन्होंने उनका विरोध किया.... 

 

निस्तारण :- स्तालिन के पूरे जीवन में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जिसमें उन्होंने किसी को इसलिए "सामूहिक नेतृत्व" से "हटाया" हो क्योंकि वह व्यक्ति स्तालिन से मतभेद रखता था।

 

स्तालिन ने तो किसी को नेतृत्व से इसलिए कभी भी नहीं हटाया क्योंकि वह उनका विरोध करता था, हाँ ख्रुश्चेव ने जरुर ऐसा किया था। ख्रुश्चेव व अन्य ने 26 जून 1953 को लावरेन्ती बेरिया को फर्जी आरोपों के तहत गिरफ्तार कर लिया। उसके बाद उन्होंने बेरिया और उसके साथ छह अन्य करीबी सहयोगियों- मेरकुलोव, देकानोजोव, कोबुलोव ,गोग्लिद्जे़, मेशिक एवं व्लोद्जिमिर्स्की - की हत्या करवायी।

  

ख्रुश्चेव के भाषण का विस्तारपूर्वक अध्ययन करने के बाद चौकाने वाले परिणाम प्रस्तुत करते हुए उन्होने रहस्योद्घाटन किया है कि ख्रुश्चेव द्वारा लगाए गए 61 इल्जामों में से एक भी सच नहीं है। अभी तक का नहीं तो कम से कम 20वीं सदी का सबसे ज्यादा प्रभाव डालने वाला भाषण क्या एक बेईमानी से भरा धोखा था? मार्क्सवादी इतिहास को समझने के निहितार्थ यह विचार कितना ज्यादा भयानक है। फर ने ख्रुश्चेव के झूठों, सोवियत और पाश्चात्य इतिहासकारों सहित त्रात्सकीपंथियों और कम्यूनिस्ट विरोधियों का अध्ययन करते हुए प्रभावशाली तरीके से सोवियत इतिहास को झूठ साबित किया है। वास्तव में हर चीज जो हम सोचते हैं कि हम स्टालिन काल के बारे में जानते हैं वह गल्त साबित हुई है। सोवियत रूस का इतिहास और 20वीं सदी के कम्यूनिस्ट आंदोलन को पूरी तरह से फिर से लिखना होगा। 

 

स्तालिन हमेशा अपने को लेनिन का शिष्य कहते थे और मार्क्स और लेनिन के बताए रास्ते और नीतियों पर ही चलकर उन्होने सोवियत रूस को मात्र 40 साल में उस मुकाम पर पहुंचा दिया था जहां तक पहुंचने के लिए पूंजीवादी देशों को 400 साल लगे थे। वह स्तालिन ही थे जिनके नेतृत्व में कम्यूनिस्टों ने लाखों कुर्बानियां देकर हिटलर के फासीवाद को करारी शिकस्त देकर दुनिया को फासीवादी खतरे से बचाया था। अंतरिक्ष में पहला मानव भी स्तालिन काल में शुरू किए गए कार्यों की ही देन थी। इसके अलावा उनके कार्यकाल में रूस से बेरोजगारी, अपराध, वैश्यावृति खत्म हो चुकी थी और देश कृषि, उद्योग, शिक्षा और स्वास्थय के क्षेत्र में अभूतपुर्व कीर्तिमान स्थापित कर रहा था।

 

यह महत्वपुर्ण पुस्तक स्तालिन के बारे में संशोधनवादी ख्रुश्चेव द्वारा दुनिया भर में फैलाए गए झूठों की हकीकत को जानने के लिए जरूर पढ़नी चाहिए। वह स्तालिन ही थे जो रूस को विकास की असीम ऊंचाइयों पर ले गए थे। संशोधनवादी ख्रुश्चेव के कार्यकाल के दौरान से ही बुर्जुआ वर्ग को खुली छूटें मिलनी शुरू हो गई और इन संशोधनवादी नीतियों के चलते ही अंततोगत्वा सोवियत संघ का विघटन हो गया।

 

लोकभाषाओं के साहित्य में इंकलाबी स्वर के बारे में गहराई और सटीक बातचीत के लिए जरूरी है कि पहले मार्क्सवादी वैचारिक अवस्थिति की पड़ताल ताकि सहज मूल्यांकन किया जा सके। सन 1953 और फिर 1973-74 ई आदि से गुजरते हुए हम मार्क्सवादी इंकलाबी स्वर को सहज विश्लेषण प्रक्रिया में ले सकते हैं क्योंकि इसके बाद संशोधनवादी और मध्यम मार्गी और दुःसाहसी वाम को अलग किया जाना आसान हो गया। 

 

अब हम बात करते हैं मुद्दे पर ''लोकभाषाओं के साहित्य में इंकलाबी स्वर"........ शुरुआत..... राजस्थानी मार्क्सवादी इंकलाबी  कविता के पहले कवि 

यह आम बात नही है कि दुनिया भर के साहित्य को ना केवल प्रभावित बल्कि उसको स्थापित करते हुए अलग ढब से कायम करने वाले मार्क्सवादी चिंतक रहे हैं। आप कविता, कहानी या जिस भी विधा को चाहे देख सकते हैं। लोर्का, हो ची मिनह, विक्टर जारा, पॉल रोबसन (गीतकार) मायकोव्स्की, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, हबीब जालिब, पाब्लो नेरुदा, नाजिम हिकमत, मुक्तिबोध, धूमिल, पाश, नामदेव ढसाल, मनुज देपावत, गणेशीलाल व्यास उस्ताद,  रेवंतदान चारण.....विश्व साहित्य में मुक्तिकामी कवियों की समृद्ध परंपरा है। राजस्थानी भाषा साहित्य के साथ बड़ी विचित्र स्थिति हर दौर में रही है। यहां लोक मानवीय परम्पराओं और सांस्कृतिक रूप से बहुत समृद्ध रहा है- शुद्ध मानवीय मूल्यों से जबकि हद से ज्यादा हावी सामंती थोथा ठरका और फूहड़ अमानवीय परम्पराओं के जातीय समूहों के मानवद्रोही अवमूल्यों का अतिक्रमण यहां के जनमानस के मेहनतकश वर्गों की वर्गीय साझेदारी, रीत, जीवन, जीवन शैली, मान्यताओं, विचारों और यहां तक कि आस्थाओं तक को बुरी तरह संक्रमित कर चुका है। और यह इसी का नतीजा है कि आज जब समांतर मेहनतकशों यथा मजदूरों, सीमांत अर्ध किसानी वर्ग, भूमि हीन, सीरी (खेत मजदूर) आदि के बाहुल्य और चरम पर पहुंचे आर्थिक, जातीय समेत हर तरह के शोषण के बावजूद भी यहां अमानवीय बर्बर तबका थोथी हेकड़ी और सामाजिक गुंडई के मार्फ़त आज तक जुल्म और अन्याय का सबसे बड़ा दोषी रहा है।

 

विश्व के मुख्य कवियों  में से एक है मायड़ भाषा राजस्थानी के इंकलाबी स्वर के कवि- मनुज देपावत---- 

 

मनुज देपावत तत्कालीन घोर सामंती समय मे प्रतिरोध की मार्क्सवादी अवधारणा को कविता में ढाल कर मुक्ति के गीत गाया करते थे जिसे मुख्य धारा से अलग ही रखा गया था। आप देखिए कि मानव समूह, समाज या वर्ग में आर्थिक, जातीय और वर्गीय और शोषण और  कुपोषण, जबर जुल्म, अन्याय के विरुद्ध जन का आह्वान करने वाली कविता जिसमे वर्ग विभेद, पक्षधरता और इंकलाब या मुक्ति का दर्शन हो वो मार्क्सवादी या इंकलाबी कविता होती है। 


 

भारतीय भाषाओं में छठे और सातवां दशक इंकलाबी- क्रांतिकारी कविताओं का दौर था- और अस्सी के दशक विद्रोही मगर दिशाहीन विध्वंसात्मक दृष्टिकोण को स्थापित करते हुए अंत मे बदलाव के मार्फ़त कविता को नया और श्रेष्ठ वैचारिक और द्वंद्ववादी रूप देते हैं। अगर हम वैचारिक धरातल पर ही खड़कर देखें तो जिस कविता को जनवादी कविता के मुलम्मे में गढ़कर रखा है वो हकीकतन मार्क्सवादी/ इंकलाबी कविता है। यह विडंबना ही है यहां की ज्यादातर लोग जनवाद को मार्क्सवाद समझे बैठे हैं। मार्क्सवादी अवधारणा जिस महान परिवर्तन के समांतर है जिससे इसका फलक वैश्विक होता है- जबकि जनवाद, डेमोक्रेसी- इसी की वजह से अनेक कवियों का मूल्यांकन ही गड़बड़ झाला है। यह ना ही अतिशयोक्ति है और ना ही आत्ममुग्ध बयानबाजी है कि कविताओ के सही और सटीक मूल्यांकन के लिए वैज्ञानिक तर्कणा विकसित करना बहुत जरूरी है जो वाक्यों के भीतर जमी विचारधारा को पकड़ जान सके यह बहुत सूक्ष्म और गहराई मांगता है- मगर अभी समय लगेगा आलोचनाओ में वैज्ञानिक दीठ को स्थापित करने में।

 

इसी एक छोटी मगर बहुत बड़ी और गंभीर कमी या साजिश या कपटपूर्ण मूल्यांकन या जो भी कारण रहा हो के चलते भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (भाकपा, तब जब संशोधनवादी नही थी) तेलंगाना सशस्त्र  महान  किसान उभार के दौरान या उसके थोड़ा बाद में आए बदलाव या प्रभाव जो लोक भाषाओं और कविताओं में स्पष्ट दिखता है को नकारा नही जा सकता, यहां उदाहरण देखिए:-

 

रै उठो किसानां मज़दूरां

थे उंटा कस ल्यो आज जीन

इं नफा खोर अन्याय नै

कर दयो कोडी रा तीन तीन

 

मनुज को हम किसी पार्टी या संसद गामी विचार के साथ नही जोड़ सकते हैं- यह तो उनकी कविताओं में ही साबित हो जाता है कि डेमोक्रेटिक या सोशलिज़्म या सर्वहारा अधिनायकत्व आदि में नहीं बल्कि उनका रुझान- मार्क्सवाद की तरफ ही रहा। सामंती और नव पूंजीवादी सत्ताओ का मुखर विरोध लेकिन इनकी रचनाओं में गहन चिंतन का बीज भी इसी आक्रोश और नकार के साथ आया है - इसलिए अब इसमें कोई शक की गुंजाइश ही नही कि मनुज देपावत राजस्थानी साहित्य के पहले प्रतिबद्ध मार्क्सवादी कवि थे- और यही से उस एक बेहतरीन श्रंखला का राह बनता है जो मार्क्सवादी इंकलाबी कविता का उत्स और पसराव दोनों ही है। भले ही यह कुछ जगह  गहन लोक रंजकताओं का बीमार सामंती रूढ़ हुए किसी शब्द को ले आते हैं मगर स्थापित नही करते हैं।

 

राजस्थान मुगलों की गुलामी से लेकर अंग्रेजो की झूठी बोटी खाने वाला यहां का सामंतवादी तबका अनेक  वर्षों तक यहां की मेहनतकश जनता  के टुकड़ो पर पलता रहा था। हालांकि थोथा घमंड, जातीय  उच्चता का भाव और बहादुरी के मनगढ़ंत किस्से ही बस उनके हिस्से थे।  और इसी सामंतवादी मानसिकता से ग्रस्त तत्कालीन चारण कवियों का काव्य था। कुछेक को छोड़कर, जबकि मनुज देपावत राजस्थनी कविता की घोर, अमानवीय, बर्बर, झूठी सामंतशाही दरबारों की कविता परम्परा से आने के बाद भी वे एस्थेटिक सेंस का कल्चरल लेवल पर प्रयोग करते थे। कह सकते हैं कि उनका संबंध राजस्थनी सामंतवादी कविता की बीमार धारा का मुखर, रेडिकल विरोध करके खत्म करने से था। लेकिन इनकी रचनाओं में जातीय चिंतन का अभाव है इसलिए खलिस मार्क्सवादी इंकलाबी कविता का उत्स है।  सामाजिक उत्पीड़न के प्रति अदम्य विद्रोह, लोकमानस से अथाह राग, शोषणपरक सामाजिक व्यवस्था को आमूल-चूल बदलकर समतामूलक समाज निर्माण और वक नया और महान महामानव की मुक्ति गान है। क्रांति के ज़ज़्बे से ओत-प्रोत थे। उसने  साहित्य और विशेषकर लोकपखी कविता के सौंदर्यशास्त्र को गहरे से प्रभावित किया। 

 

एक बात यह भी गौरतलब है कि कुछ कवि राज दरबार और सामंतों के प्रभाव या छाया में नहीं थे, इसलिए उनकी कविता में जीवन की धड़कन स्पष्ट सुनी जा सकती है। मनुज देपावत तत्कालीन घोर सामंती समय मे प्रतिरोध की मार्क्सवादी अवधारणा को को कविता में ढाल कर मुक्ति के गीत गाया करते थे।

 

उनके मन मे इस सामंती व्यवस्था का विध्वंस करके एक नया राज्य, मेहनतकशों का स्टेट सृजन की बातें यूँ ही नही आई बल्कि '1925 ई. में एम.एम. रॉय और दूजे साथियों ने मिल कर भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी का गठन कर लिया था जो सदी के तीसरे दशक के आसपास शेखावाटी के किसान समूहों को काफी प्रभावित कर ही थी। और उधर मनुज के मन मे प्रचंड प्रलंयकारी आग धधक रही थी जो सिर्फ सृजनधर्मिता ही नहीं बल्कि आक्रोश की भी उत्प्रेरक थी।

 

अगर मनुज की कविताओं का द्वंद्ववादी विश्लेषण करें तो यह एक नई परम्परा का उत्स होगा लेकिन समस्याएं बहुत है जैसे मार्क्सवादी विचारधारा में किसी रचना को समझने के लिए वस्तु तथा रूप के संबंध को समझना आवश्यक माना जाता है। इसके अंतर्गत लेखक क्या कहता है तथा कैसे कहता है- पर जोर दिया जाता है-- जिसमे एक तटस्थ तीसरा पक्ष भी होता है लेकिन यहां मनुज की कविता में या कहें दर्शन में ऐसा नही मिल पाया।  अब जब ये पंक्ति सामने है इसलिए उन्होंने धोरों की जनता को जागने का आह्वान किया -

 

धोरां आळा देस जाग रै, ऊंठा आळा देस जाग।

छाती पर पैणां पड़्या नाग रै, धोरां आळा देस जाग।।

 

मनुज ने बहुत से गीत- कविता लिखे उनकी ज्यादातर रचनाएं तत्कालीन सामंतवादी राजनैतिक व्यवस्था के विरुद्ध , उसका विध्वंसात्मक खात्मा की अदम्य इच्छा कविता गीतों में व्यक्त भी करते और हैरानी भी यहीं है कि ये कुपढ सामंती लोग उन्हें सामंत बनाने के कुप्रयास कर रहे हैं। इस दीठ से वे मुझे राजस्थानीं कविता के भगतसिंह लगते है । एक जो खास नुक्ता निकल कर उनकी कविता में आता है - उसमें पीड़ा उस तरह से नहीं आती जिस तरह से कि वे दयनीय या लाचार, हारे हुए वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे हो, नहीं बिल्कुल नहीं। आक्रोश उनकी हर रचना में देखा जा सकता है। साधारण   सहज आक्रोश नहीं बल्कि दुस्साहसवादी आक्रोश (जिसकी नींव उस समय भारत की राजसत्ता के विरुद्ध उठी तेलंगाना सशस्त्र किसान उभार से- बननी शुरू हुई थी- लेकिन इसकी शुरुआत उत्तर मध्य भारत के किसान तबकों से हुई थी- सन 1939 ई. से) को वे दबाने के बजाए खुला छोड़त्व हैं।  तभी तो लिखा है कि  जन के बीच जान के साथ जन जन होकर ही कविता नैसर्गिक माध्यम से कागजों पर उतरता है। मनुज की कविताओं में सामन्त और राज शाही से मोहभंग ओर निर्मम हो चुके सदियों के संताप का प्रचण्ड रूप दिखता है और विद्रोही स्वर को  अभिव्यक्ति मिलती है। सामंतशाही के तिलिस्मी मालिकाने का विध्वंसात्मक अंत करके सर्वहारा अधिनायकत्व के द्वंद्वात्मक मार्क्सवादी सिद्धांत को ठोस आधार पर लागू करके राजशाही जिसने जनता का खून चूसा  है, उस् राजशाही तानाशाही की हर एक चीज के विरुद्ध गुस्सा भर हैं। उनकी कविता में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और हर उस चीज का कड़ा विरोध है जिसमे असमानता मुखर हो। मनुज अपनी कविता के नैतिक दायित्व और वैचारिक प्रासंगिकता को लवकर जिस तरह का अराजक रकज अख्तियार करते हैं वो वाम दुस्साहस की एक सीधी भर है जहाँ ज्यादातर आत्मसंघर्ष प्रभावज  है। 

 

मानव खुद अपना ईश्वर है,

साहस उसका भाग्य विधाता।

प्राणों में प्रतिशोध जगाकर,

वह परिवर्तन का युग लाता।

 

स्वतंत्रता की लगन उनकी अन्तरात्मा की जोरदार लगन थी। इसी आवाज को बुलन्द करते हुए वे कठपुतली शासकों को सम्बोधित करते हैं-

 

वां कायर कीट कपूतां की,

कवि कथा सुणावण नै जावै

अम्बर री आंख्यां लाज मरै,

धरती लचकाणी पड़ जावै

जद झुकै शीश, नीचां व्है नैण,

धरती रो कण-कण सरमावै।

 

इसी तरह उन्होंने आजादी से पूर्व अंग्रेजों की नीतियों की भयानकता का पर्दाफाश किया तथा शोषण और अन्याय के खिलाफ मजदूर-किसानों को संघर्ष का संदेश दिया। यह संदेश आज भी जन-आंदोलनों में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। असमानता के खिलाफ कवि का उद्घोष है-

 

रै देख मिनख मुरझाय रह्यो, मरणै सूं मुसकल है जीणो

ऐ खड़ी हवेल्यां हंसै आज, पण झूंपड़ल्यां रो दुःख दूणो

ऐ धनआळा थारी काया रा, भक्षक बणता जावै है

रै जाग खेत रा रखवाळा, आ बाड़ खेत नै खावै है।

ऐ जका उजाड़ै झूंपड़ल्यां, उण महलां रै लगा आग।

 

यही प्रबल भावना उनके सामाजिक एवं साहित्यिक कार्यों से फूट-फूटकर निकल पड़ती दिखाई देती है। उनकी लेखनी समाज के शोषित जीवन को चित्रित करना अपना उद्देश्य घोषित करती है। मनुज का दृष्टिकोण पूरी तरह मार्क्सवादी था। उनके आक्रोश का कारण व्यवस्थााजनित शोषण था-- उसका सबसे बड़ा कारण सामाजिक विषमता और मानव की परतंत्रता थी।

 

इन सभी स्थितियों से दुःखी होकर मनुज ने अपने काव्य में विद्रोह का स्वर गुंजाया। मानव को कायरता से जगा कर नए युग निर्माण की प्रेरणा देने का काम मनुज की कविताएं करती हैं। उनकी दृष्टि में वे सब परम्पराएं मृतप्राय हो गयी हैं और अब उनके मोह में फंसे रहने की आवश्यकता नहीं है। शोषकों एवं उत्पीड़कों के प्रति  जीवन बोध की अनुपस्थिति के या, संवेदनहीनता और शुष्कता के  यातना-शिविर में  उम्मीदों और स्वप्नों को बचाकर अपने वक्त की तमाम सरगर्मियों और जोखिम के साथ ढलना भूलते नहीं है। मंगाए सामाजिक, राजनीतिक अपरिपक्व सोच और अराजक जीवन शैली इन्हें पेशेवरों की श्रवणी में जाने नहीं देती। भूमि हीन, सीमांत किसान और सर्वहारा मुक्ति के गीत एक अस्मिता, संघर्षशील मूल्यों  और समझौता विहीन प्रतिबद्धता सबसे जरुरी है।

 

मानव खुद अपना ईश्वर है,

साहस उसका भाग्य विधाता।

प्राणों में प्रतिशोध जगाकर,

वह परिवर्तन का युग लाता।

 

स्वतंत्रता की लगन उनकी अन्तरात्मा की जोरदार लगन थी। इसी आवाज को बुलन्द करते हुए वे कठपुतली शासकों को सम्बोधित करते हैं-

 

वां कायर कीट कपूतां की,

कवि कथा सुणावण नै जावै

अम्बर री आंख्यां लाज मरै,

धरती लचकाणी पड़ जावै

जद झुकै शीश, नीचां व्है नैण,

धरती रो कण-कण सरमावै।

 

इसी तरह उन्होंने सामंतशाही  की नीतियों की भयानकता का पर्दाफाश किया तथा शोषण और अन्याय के खिलाफ मजदूर-किसानों को संघर्ष का संदेश दिया। यह संदेश आज भी जन-आंदोलनों में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। व्यवस्थागत असमानता के लिए-

 

रै देख मिनख मुरझाय रह्यो, मरणै सूं मुसकल है जीणो

ऐ खड़ी हवेल्यां हंसै आज, पण झूंपड़ल्यां रो दुःख दूणो

ऐ धनआळा थारी काया रा, भक्षक बणता जावै है

रै जाग खेत रा रखवाळा, आ बाड़ खेत नै खावै है

ऐ जका उजाड़ै झूंपड़ल्यां, उण महलां रै लगा आग।

 

यही प्रबल भावना उनके सामाजिक एवं साहित्यिक कार्यों से फूट-फूटकर निकल पड़ती दिखाई देती है। उनकी लेखनी समाज के शोषित जीवन को चित्रित करना अपना उद्देश्य घोषित करती है। 

 

सभी स्थितियों से दुःखी होकर मनुज ने अपने काव्य में विद्रोह का स्वर गुंजाया।



 

मानव को कायरता से जगा कर नए युग निर्माण की प्रेरणा देने का काम मनुज की कविताएं करती हैं। उनकी दृष्टि में वे सब परम्पराएं मृतप्राय हो गयी हैं और अब उनके मोह में फंसे रहने की आवश्यकता नहीं है। शोषकों एवं उत्पीड़कों के प्रति वे वाम राजनीति में इतने पारंगत थे कि सामंतशाही की हर उस मानवद्रोही शय को पकड़ लेते थे जो हुक्काम की नफरत का कारण बना है।  उनकी रचना भावनात्मक अंधी में उठते हर एक भाव का उपयोग करती है। हालांकि उस समय हिंदी में   नई कविता का दौर आया नहीं था मगर मनुज की भाषा और शैली नई कविता की परछाई का आभास देती थो। उनकी भाषा कलवाद और छायावाद की बीमार शाश्वत मगर अनैतिक सॉफ्ट फ़ासिस्ट वैल्यूज़ और उसके अमूल्य के अलौकिक स्वरूप का विरोध करती है। यह कितनी बड़ी और समृद्ध राजनीतिक समझ का नतीजा है कि जन विरोध वहां हिमायत में उपस्थित रहता है। यथा :-

         वह राग बेबसी का उठता, महफ़िल के मधुर निनादों में ! हे गाँव, तुझे मैं छोड़ चला, लाचार भरे इस भादों में ।

 

तभी तो समाज, राजनीति और लोक की स्थितियों को पकड़नेे में सफल रहें। उस कला विरोधी दौर में भी वे जिस ठोस जमीन पर खड़े होकर विप्लव के गौरव गान थे उस कविता विरोधी मानव द्रोही दौर में एक विद्रोही स्वर और मुक्त आवाज के नाते एक मुक्तिकामी युवा रूप में इनकी पहचान रही हैं। इनकी कविताओं में प्रतिबद्धता के मूल्यों का सभज, सरल समावेश होता है।

 

दरअसल जब काव्य भाषा का प्रश्न आता है तब।  साहित्यिक भाषा नामक शब्द मुखरित होता जाता है। केवल व्यंजना ही नहीं बल्कि रंजकीय गुणों के साथ लौकिक भाषा पक्ष। सहज, जायज प्रतिरोध उच्च स्तरीय भाषा अभिज्ञान के कारण ही टिकत है।

 

आम  बोलचाल में राजस्थान का सामंती परिवेश बाहरो बाहरी ही फलत चलत है बाकी पोलिटिकल प्रतिबद्धता को कभी समझा ही नहीं गया है। वह अलौकिक साधन बन चुके भावों का नकार बन कर जन स्वीकार रुपक बन गया है।

 

            "फिर भी वे अपनी सत्ता का, कुछ सार जमाने वाले हैं !

कंगलों के झूठे टुकड़ों पर, अधिकार जमाने वाले हैं !

यह मानव की दुनिया कठोर, यह मानव का संसार विषम !

दुर्बल के निर्बल कन्धों पर, दुस्साह जीवन का भार विषम !"

 

 

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2 टिप्‍पणियां:

  1. न तो विज्ञान की कोई विचारधारा होती है और न ही विचारधारा का कोई विज्ञान होता है! इसे समझने में जिसने भूल या चूक की, उसकी भूल-चूक, लेनी-देनी हो गयी।

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  2. जी, जनाब कोई भी सैद्धान्तिक मुद्दा इस तरह के हवा हवाई अंदाज में उड़ाया नही जा सकता--- बाकी विद्यनिवास मिश्र की किताबें आपकी प्रिय है हैं-- तो अब बात क्या करनी।

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