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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 सितंबर, 2009

गैर बराबरी की खाई से पैदा होते हैं फूलन जैसे चरित्र

मैं फूलन देवी हूँ भेनचोद.. मैं हूँ।

बेंडिट क्वीन फ़िल्म का यह पहला संवाद है, जो दर्शक के कपाल पर भाटे की नुकीली कत्तल की माफिक टकराता है। अगर दर्शक किसी भी तरह के आलस्य के साथ फ़िल्म देखने बैठा है, या बैठा तो स्क्रीन के सामने है और मग़ज़ में और ही कुछ गुन्ताड़े भँवरे की तरह गुन गुन कर रहे हैं, तो सब एक ही झटके में दूर छिटक जाते हैं। दर्शक पूरी तरह से स्क्रीन पर आँखें जमाकर और मग़ज़ के भीतर के भँवरे पर काबू पाकर केवल फ़िल्म देखता है और फ़िल्म यहीं से फ्लैश बैक में चली जाती है।

स्क्रीन पर नमुदार होते हैं, चप्पू के हत्थे को थामें मल्लहा के हाथ, और फिर पूरी नाव। नाव चंबल की सतह पर धीरे से आगे खिसकती है, अपनी गोदी में आदमी, औरत, बच्चे, पोटली, ऊँट और भी बहुत कुछ मन के भीतर का, जो नाव में सवार चेहरों पर दिखता है। शायद काम की तलाश, शायद गाँव को छोड़ने का दुख और भी कुछ। दर्शक इन्हीं चेहरों में खोजता है ख़ुद को और कुछ सोचने की तरफ़ बढ़ता है कि भूरे, मटमेले, ऊँचे बीहड़ों में से निकलता है बकरियों का एक झुण्ड। नदी किनारे आते झुण्ड के पीछे चल रहे हैं एक दाना (बुजुर्ग) और किशोर। यह पूरा दृश्य दर्शक के मन में रोज़गार के अभाव और विस्थापन की त्रसदी की चित्रात्मक कहानी बुनता है।

फिर आता है एक बच्ची की हाँक में एक बच्ची को बुलावा- फूलन … ए फूलन…

वह 1968 की एक दोपहर थी, जिसमें फूलन को पुकार रही थी एक बच्ची, जो शायद उसी की बहन थी। लेकिन ग्यारह बरस की फूलन अपनी सखियों के साथ नदी में किनारे पर डुबुक-डुबुक डूबकियाँ लगा रही थीं। वे केवल नहा नहीं रही थी, बल्कि सब सखियाँ मिलकर नदी में एकदूसरी के साथ और नदी के पानी के साथ खेल रही थीं। एकदम निश्चिंत और उन्मुक्त। शायद ये बेदधड़कपन और उन्मुक्तता चंबल के पानी में घुला कोई तत्व था, जो फूलन के भीतर कुछ ज़्यादा ही मात्रा में घुल गया था।

इस बार हाँक थोड़ी नज़दीक से और कुछ ज़ोर से आयी- फूलन…. ए फूलन…

फूलन ने देखा अपनी बहन के साथ और वहीं से पूछा- कईं है………..

तो के बुला रये ..
काई …?
मोके ना मालुम…

नदी से बाहर आती फूलन सरसों की एक कच्ची फली की तरह नन्हीं लगती है, लेकिन सवालों से भरी आँखें बोलती लगती है। फूलन के नदी से बाहर आने और घर पहुँचने के बीच, फ़िल्म में यह स्थापित किया जा चुका होता है कि फूलन को उसका पति पुत्तीलाल लेने आया है। पुत्तीलाल की उम्र क़रीब 27-28 बरस है। फूलन की माँ अनुरोध करती है कि अभी मोड़ी ग्यारह बरस की ही है। कुछ महीने बाद गौना कर देंगे। लेकिन पुत्तीलाल नहीं मानता है। अपनी माँ के बूढ़ी होने की वजह से काम न कर पाने का हवाला देता है। कहता है कि उसे मोड़ियों की कमी नहीं है। यही नहीं, बल्कि रिश्ता तोड़ने की भी धमकी देता है। फूलन का पिता भी समझाता है, लेकिन जब पुत्तीलाल नहीं मानता और किसी कर्ज़ माँगने वाले की तरह बात करता है। उसे दी गयी गाय को खूँटे से छोड़ लेता है। तब फूलन के पिता कहते हैं – ले जाने दे, अपन को कौन मोड़ी को घर में रखना है। और कोई ऊँच-नीच हो गयी तो … आदि..आदि चिंताएँ व्यक्त करता है। अंततः ग्यारा बरस की फूलन को 27-28 बरस के पुत्तीलाल के साथ रवाना कर दी जाती है।

फूलन का माँ-बाप से अलग होना और पुत्तीलाल के साथ जाने का दृश्य बहुत ही मार्मिक है। जैसे कोई गाय का दूध धाहती बछड़ी को स्तनों से अलग खींचता है और वह दौड़कर फिर स्तन को मुँह में ले लेती है। लेकिन जब बछड़ी स्तन को मुँह में लेने जाये और गाय भी उसे लात या भिट मारने को विवश हो जाये, तब दोनों ही पर क्या गुज़रती होगी, जबकि उस वक़्त उसे स्नेह के दूध की बेहद ज़रुरत होती है। दर्शक के मन में यही दृश्य उभरता है।

जब ससुराल पहुँचती है। फूलन गाँव के बीच के कुए पर गारे का हण्डा लेकर पानी भरने जाती है। अभी भी कई गाँव में दबंगों और नीची समझी जाने वाली जाती के लोगों के पानी के कुए अलग-अलग होते हैं। लेकिन फूलन की ससुराल में 1968 में भी ठाकुर और मल्लाह का एक ही कुए से पानी भरना बताया है। एक कुए से पानी भरते हैं, लेकिन एक दूसरे के बर्तनों को आपस में छूने से बचाते हैं। पानी खींचने की रस्सी, बल्टी भी अलग रखते हैं। लेकिन जब ग्यारह बरस की बहू को पता नहीं होता है, और अनजाने में या भूल से वह ठाकुर वाली बाल्टी को छूने लगती है, तो कुए से पानी भरने वाली ठकुराइने वहीं उसे घुड़क देती है और वह दूसरे छोर से, दूसरी रस्सी,बाल्टी लेकर कुए से पानी खींचती है। पानी लेकर चलती है, तो उसका हम उम्र मोड़ा और मोड़ों के साथ मिलकर उसका हण्डा फोड़ देता है। फूलन हण्डा फोड़ने वालों पर ज़ोर से चिल्लाती है, उसका चिल्लाना ठकुराइनों के कान खड़े कर देता है।

जब बग़ैर पानी लिए घर पहुँचती है, तो सास हण्डा फूटने की बात को लेकर डाँटती है। फूलन का सास के सामने भी वही तेवर बरकरार होता है। वह सास को ताना मारती है- गारे का हण्डा टूट गया, तो पीतल का लाओ, जैसे ठकुराइनों के पास है।
सास को यह ताना गचता है। गचना स्वाभाविक भी है, क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति ठाकुरों की बराबरी करने की नहीं होती है। सास कहती है- बहुत जबान चलती है, बुलाऊँ पुत्तीलाल को..

पुत्तीलाल फूलन को इस बात पर मारता है। वही पुत्तीलाल रात में ग्यारह बरस की फूलन के साथ बलात्कार करता है। पुत्तीलाल के इस कृत्य ने फूलन के जीवन में किसी भी तरह के सुख की संभावना को जैसे पोंछ दिया था। उस घटना से फूलन के मन में पुरुष के प्रति जो घृण का रिसाव हुआ, वह पूरी फ़िल्म में कई जगह प्रकट होता है। फूलन भागकर माइके आ जाती है। पुत्तीलाल से रिश्ता ख़त्म हो जाता है।

फूलन माइके में ही जवान होती है। उसकी जवानी पर गाँव के सरपंच के आवारा मोड़े और उसके साथी मोड़ों की नज़र होती है। वे उसे आते-जाते छेड़ते हैं और एक दिन खेत में अकेली को घेरकर ज़बरदस्ती करने की कोशिश करते हैं। ज़बरदस्ती तो नहीं कर पाते, लेकिन सब मिलकर उसे बुरी तरह से पीटते हैं। गाँव में पंचायत बैठती है और फूलन पर बदचलनी का एक तरफ़ा आरोप लगा उसे गाँव बाहर कर देती है। बार-बार प्रताड़ित, बार-बार बलात्कार फूलन के विद्रोही स्वभाव को कुचल नहीं पाता, बल्कि और भड़काता है। जब वह बंदूक थाम लेती है। पुत्तीलाल से बदला लेने पहुँचती है। पुत्तीलाल को गधे पर बैठाया जाता है। फिर लकड़ी के खम्बे से बाँध कर मारती-पीटती है। लेकिन जब वह यह कर रही होती है, उसके कान में ख़ुद की ही चीत्कार गूँजती है। वह चीत्कार जो कभी पुत्तीलाल द्वारा ज़बरदस्ती करने का विरोध करते हुए ससुराल में गूँजी थी। ग्यारह बरस की एक बहू जब मदद के लिए चीत्कार रही थी। सास दरवाजा भीड़कर दूसरी तरफ़ चली गयी थी। बदला लेते वक़्त उसे वह सब याद आ रहा था। उसकी छटपटाहट, उसे ग़ुस्से का पारावार किसी की भी मग़ज़ सुन्न कर देने वाला होता है। यहाँ फूलन अपने साथी विक्रम मल्लाह से कहती है- एस पी को चीट्ठी लिख…, अगर कोई छोटी मोड़ी को ब्याहेगा तो जान ले लूँगी।

जब फूलन को यह सब भोगना पड़ रहा था, तब केन्द्र और म.प्र. में काँग्रेस की सरकार थी। वही काँग्रेस, जो आज़ादी के बाद से ख़ुद को दबे-कुचलों के हित का ध्यान रखने वाली पार्टी होने का ढींढ़ोरा पीटती रही है। वही काँग्रेस जिसका इतिहास आज़ादी के आँदोलन में महत्तपूर्ण भूमिका निभाने वाला रहा है। उस पर धीरे-धीरे दबंगों और ठाकुरों ने किस तरह से कब्जा कर लिया। उस काँग्रेस का जैसे अर्थ ही बदल गया। जब फूलन अपने मान-सम्मान का बदला लेने और ख़ुद को ज़िन्दा बचाये रखने की लड़ाई लड़ रही थी, तब प्रदेश और देश की राजनीति में और सरकारों में भी ठाकुरों का ही बोलबाला था। इन ठाकुर नेताओं के संरक्षण में या आड़ में कह लो, इनके रिश्तेदार, और ख़ुद इन्हीं के द्वारा ग़रीब और मज़दूर वर्ग के लोगों पर किये जाने वाले शोषण और अत्याचार की कोई सीमा नहीं थी।

जंगल में भी जो ठाकुर डाकू थे, उनका दूसरे डाकू गिरोहों पर दबदबा था। जो उनके दबदबे को स्वीकार नहीं करता था, उसे या तो ख़ुद डाकू ही मार देते या पुलिस से मरवा देते। सरकार, पुलिस और डाकू सभी में ठकुराइ के प्रति बड़ी वफ़ादारी थी। डाकू बाबू गुर्जर को तो विक्रम मल्लाह उस वक़्त मार देता है, जब वह बीहड़ में फूलन के साथ ज़बरदस्ती कर रहा होता है। उसके कुछ वफ़ादारों को भी मार देता है और गेंग का लीडर बन जाता है।

लेकिन जब लालाराम ठाकुर डाकू जेल से छूट कर आता है, तो विक्रम मल्लाह उसे पूरा सम्मान देता है। रायफल देता है। लेकिन लालाराम के मुँह से पहला वाक़्य जो निकलता है और जिस लहज़े में निकलता है, उससे जात-पात की बू आती है। उसकी बात मल्लाह डाकुओं को अच्छी नहीं लगती है, लेकिन सह लेते हैं। लालाराम को एक मल्लाह के हाथ नीचे डाकू बने रहना स्वीकार न था। वह ज़ल्दी ही मल्लाह को धोखे से मारकर कायरता का परिचय देता है। फूलन के साथी सभी ठाकुर डाकू सामूहिक बलात्कार कर अपनी वीरता का झण्डा ऊँचा करते हैं ! लेकिन इससे भी ठाकुर के पत्थर कलेजे को ठंडक नहीं पहुँचती है, तब लालाराम बेहमई गाँव में फूलन को पूरे गाँव की मौजूदगी में नग्न कर देता है और उसे पानी भरने को कहता है। उसके बाल पकड़कर एक एक को दिखाता है कि ये मल्लाह ख़ुद को देवी कहकर बुलाती है। मुझे इसने मादरचोद कहा था। गाँव के सारे ठाकुर फूलन को नग्न देखते हैं। कोई विरोध नहीं करता एक औरत को इस हद तक ज़लील करने की। उस वक़्त हवा को भी जैसे लकवा मार जाता है।

फूलन इस सबके बाद जी जाती है, जितना फूलन ने सहा किसी खाते-पीते घर की औरत को यह सहना पड़ता। या किसी भी दबंग को यह सहना पड़ता, तो शायद सत्ता में, गाँव में, और हर जगह अपनी मूँछ पर बल देकर घुमने वाले दबंग की पेशानी भीग जाती। लेकिन फूलन के साथ अनेकों बार हुए बलात्कारों, ज़्यादतियों को सत्ता ने कोई तरजीह नहीं दी। आज भी आये दिन दलितों, आदिवासियों और ग़रीब स्त्रियों के साथ बलात्कार और ज़्यादतियों की ख़बरे कम नहीं सुनने-पढ़ने में आती है। लेकिन किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगती है। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है। धार ज़िले के गाँव में कमज़ोर वर्ग की दो औरतों को निर्वस्त्र कर गाँव भर में घुमाया गया था। उन्हें भी वैसे ही देखा गया जैसे बेहमई गाँव में फूलन को देखा गया था।

कहने का मतलब यह है कि आज भी स्त्रियों पर अत्याचार कम नहीं हो रहे हैं, बल्कि बढ़ते ही जा रहे हैं। जबकि स्त्रियों के मुद्दों पर काम करने के नाम पर, उन्हें चेतना संपन्न बनाने और उनके अधिकारों को बहाल कराने के नाम पर हज़ारों एन.जी. ओ. खुले हैं। लेकिन इस सब के जो नतीजे हैं, उससे वे कोई भी अंजान नहीं हैं, जिनके ज़िम्मे ज़िम्मेदारियाँ हैं, बस.. खामौश है। वह खामौशी शायद मुँह में भ्रष्टाचार की मलाई होने की वजह से है ! या फिर स्त्रियों की एक बड़ी जमात का फूलन के अनुसरण करने की है। भविष्य के खिसे में क्या है कभी तो राज़ खुलेगा !

14 फरवरी 1981 वह दिन था, जब फूलन, मानसिंह और साथी डाकुओं ने बेहमई गाँव के 24 ठाकुरों को मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना ने राज्य और केन्द्र की सरकार की चिंता बढ़ा दी। क्योंकि म.प्र. और केन्द्र की सरकार में ठाकुर लाबी हावी थी। केन्द्र में देश की जनता को एमरजेंसी का स्वाद चखाने वाली प्रधानमंत्री थी। शायद उन्हीं दिनों प्रधानमंत्री पंजाब की राजनीति को नया रंग देने में व्यस्त थी, जिसका परिणाम देश ने बाद में देखा और फिर भोगा भी। लेकिन वही समय था, जब फूलन का ग़ुस्सा चंबल के किनारे तोड़ खौफ़ का पर्याय बन गया था। गाँव की सत्ता हो, देश की सत्ता हो या फिर सरकारी महकमा दबंग जहाँ कहीं था, विद्रोही फूलन के नाम से उसकी सांस ऊपर-नीचे हो रही थी। राज्य और केन्द्र की सरकार पर ठाकुर मंत्रियों का दबाव बढ़ रहा था। इसी के चलते सरकार ने फूलन के गिरोह को नष्ट करने का आदेश दिया। फिर पुलिस जितनी अमानवीय तरीक़े से फूलन के साथ पेश आ सकती थी, आयी। ठाकुर डाकू लालाराम और पुलिस ने या कहो लो सरकार ने मिलकर बागी फूलन की गेंग के ख़िलाफ़ अभियान शुरू किया। पहली बार में फूलन के गिरोह के दस बागियों को ढेर कर दिया। जंगल में पीने के पानी स्त्रोतों में ज़हर मिला दिया। फूलन को 12 फरवरी 1983 को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इस तरह फूलन के बागी जीवन का अंत हुआ। एक फूलन का बाग़ी जीवन ख़त्म हुआ। लेकिन जिस आर्थिक, सामाजिक ग़ैरबराबरी की खाई ने फूलन को बाग़ी बनाया वह संकरी न हुई, बल्कि चौड़ी होती जा रही है, जिससे बाग़ी नये-नये रूप में दिखाई दे रहे हैं।

उपन्यासकार माला सेन के द्वारा फूलन के जीवन पर लिखे उपन्यास- ‘बेंडिट क्वीन’ के कथानक को ही पटकथा में ढाला था। निर्देशक शेखर कपूर ने इस फ़िल्म को बनाने में बहुत मेहनत की है, जो स्क्रीन पर नज़र आती है। सीमा विश्वास ने फ़िल्म के हर द्रश्य को जैसे जिया है। वह किसी क्षण सीमा विश्वास नज़र नहीं आती है। अगर किसी ने फूलन को कभी नहीं देखा और उससे यह कहा जाये कि यही फूलन है। सभी शॉट उसी वक़्त छुपकर लिये हैं, तो उसके पास मानने के सिवा कोई चारा नहीं होता। मनोज वाजपेयी,निर्मल पाण्डे आदि कलाकारो की भूमिकाएँ भी यादगार हैं।
फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी भी देखने लायक है। समाज में व्याप्त ग़ैरबराबरी के यथार्थ को आँखों के सामने हक़ीक़त की तरह फैला देती है। हर फ्रेम अपनी श्रेष्ठता का दावा करती है। इस फ़िल्म का प्रदर्शन 30.8.09 को बिजूका फ़िल्म क्लब, इन्दौर में किया गया। यह बिजूका फ़िल्म क्लब की आठवीं प्रस्तुति थीं, जो दर्शकों के बीच सराहनीय रही।


सत्यनारायण पटेल
बिजूका फ़िल्म क्लब,
इन्दौर

6 टिप्‍पणियां:

  1. सचमुच में बहुत ही प्रभावशाली लेखन है... वाह…!!! वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी, बधाई स्वीकारें।

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  2. बहुत ही प्रभावशाली लेखन |
    बधाई |

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  3. achchha likha hai sattu. kahani ki story ko khubi ke sath likha. bendit queen kafi logo ne dekhi hai.story ke vistar ke bajay in samsyaon ke mool me kya hai.is par bahut gaharai se bat honi chahiye na ki trelar ki tarah se.arhtik, samajik, rajnaitik aur dharmik sawalo ki iske peechhe kya bhoomika hai ispar chintan hona chahiye.
    antim paire me jitani tarif ki gayi yah atishyokti poorn hai.
    bahut-bahut badhai.

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  4. भाई आप तो पटकथाकार के बाप निकले...क्या धांसू अंदाज है...

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  5. सत्तुजी, आज बहुत दिनों बाद एक अच्छी समीक्षा पढ़ी, पढ़ते
    समय लगा फिर से फिल्म देख रही हूँ. लगातार लिखते
    रहिये. अगली रचना का इंतजार रहेगा.

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  6. बहुत बढ़िया...
    एक बात का जिक्र नहीं आया जिसकी कमी खल रही है और वो है नुसरत फ़तेह अली खान साहेब की आवाज़ और संगीत
    www.kathphodwa.blogspot.com
    www.kaviyana.blogspot.com

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