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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 अप्रैल, 2010

वो सुबह कभी तो आएगी

- प्रदीप कांत

बावजूद इसके कि फिल्मों में बेहतरीन लेखन हुआ है किंतु इसे दोयम दर्ज़े का मान कर इस पर बात करने में भी कोताही बरती जाती है। साहिर लुधियानवी की एक नज़्म है वो सुबह कभी तो आएगी जो गीत बनकर फिल्म फिर सुबह होगी में शामिल हुई थी। यह नज़्म आज़ादी के तुरन्त बाद के बदहाली के दिनो के एक बेहतरीन दस्तावेज़ में शामिल की जा सकती है।


साहिर की यह नज़्म आपके ज़ेहन में हालात की बेचैनी पैदा करती है तो मुकेश की आवाज़ और ख़य्याम का संगीत इस नज़्म में गुथे मुथे तात्कालिक हालात और आम आदमी के सपनों में प्राण भर देता है। राजकपूर और माला सिन्हा पर फिल्माई गई इस नज़्म में आस की पराकाष्ठा है मगर समय की बदहाली और नायक के अनुसार मुकेश की जो आवाज़ नज़्म में है, वह अद्वितीय है किसी निरीह मनुष्य का एक दम कातर सा स्वर... लगभग प्रार्थना जैसा... और उसमें भी जो आस है.... उसका जवाब नहीं। और साथ में आशा भोंसले...,नाम के अनुरूप आस में नायिका की तरफ से अपने आलापों के साथ कुछ और आस मिलाती हुई...। यहाँ मुकेश का दर्द भरा काँपता सा स्वर बदहाली में भी एक याचक सी आस ले आता है और आशा का स्वर का स्वर उसी आस को पूरी तरह से ताकतवर बनाता महसूस होता है।


संगीत सुनकर लगता है कि ख़य्याम साहब को इसका संगीत बुनते समय बडी नज़ाकत बरतनी पडी होगी। साजों का इस्तेमाल इतना कम कि कहीं संगीत की तेज़ आवाज़ बदहाली को व्यक्त करने में खलल न बन जाए या उसमें से गूंजते आम आदमी के सपने भारी भरकम संगीत के तले दब न जाए। सुनते समय एसा लगता है जैसे बहुत कम पानी वाली एक नदी मंथर गति से बह रही हो और फिर भी कह रही हो कि मैं हूँ ना... तुम्हारी प्यास बुझाने के लिये...चिंता क्यों करते हो?

पचास के दशक के भारत की कडवी सच्चाइयों के साथ भी आम आदमी के सपनो का ताना बुनती यह नज़्म सुनने के बाद अब भी सवाल उठता है कि क्या तस्वीर अब भी वही नहीं है? हाँ... तस्वीर अब भी वही है...मैली कुचेली बदहाल... बस ग्लोबलाइज़ेशन और बाज़ार के मुल्लमे की नई फ्रेम लगा दी गई है। गरीब और गरीब अमीर और भी अमीर... कब तक? आख़िर कब तक? और उम्मीद अब भी बाकी है... वो सुबह कभी तो आएगी । कई बार आपने सुनी होगी पर नज़्म पढ कर इसके सामाजिक सरोकारों पर गौर करें।


वो सुबह कभी तो आएगी

इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इन्सानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को ना बेचा जाएगा
चाहत को ना कुचला जाएगा, इज्जत को न बेचा जाएगा
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

फ़आक़ों की चिताओ पर जिस दिन इन्सां न जलाए जाएंगे
सीने के दहकते दोज़ख में अरमां न जलाए जाएंगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह कभी तो आएगी


मगर अब आपको यह जानकर आश्चर्य भी ज़रूर होगा कि साहिर साहब ने पहले वो सुबह हमीं से आयेगी लिखी थी जो कि फिल्म फिर सुबह होगी के लिये वो सुबह कभी तो आयेगी बदल गई थी। (साभार: http://dhankedeshme.blogspot.com/2009/11/blog-post_27.html)


वो सुबह हमीं से आयेगी

जब धरती करवट बदलेगी, जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे
जब पाप घरौंदे फूटेंगे, जब ज़ुल्म के बन्धन टूटेंगे
उस सुबह को हम ही लायेंगे, वो सुबह हमीं से आयेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

मनहूस समाजों ढांचों में, जब जुर्म न पाले जायेंगे
जब हाथ न काटे जायेंगे, जब सर न उछाले जायेंगे
जेलों के बिना जब दुनिया की, सरकार चलाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

संसार के सारे मेहनतकश, खेतो से, मिलों से निकलेंगे
बेघर, बेदर, बेबस इन्सां, तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और खुशहाली के, फूलों से सजाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

- साहिर लुधियानवी

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